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What is Karma Yoga in Bhagavad Gita?

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1.भगवद गीता में कर्मयोग क्या है? (What is Karma Yoga in Bhagavad Gita?),श्रीमद्भगवद्गीता के कर्मयोग का सन्देश क्या है? (What is Message of Philosophy of Actions of Srimad Bhagavad Gita?):

  • भगवद गीता में कर्मयोग क्या है? (What is Karma Yoga in Bhagavad Gita?) समस्त वेद,उपनिषद,पुराण स्मृतियाँ,धर्मशास्त्र,धर्म,दर्शन,नीतिशास्त्र इत्यादि का अध्ययन भी नहीं किया हो तो केवल एक मात्र श्रीमद्भगवद्गीता का ठीक से अध्ययन कर लिया जाए तो धर्म और अध्यात्म का सार समझा जा सकता है।गीता का महत्त्व वर्णनातीत है।समस्त वैदिक संस्कृति का सार गीता में वर्णित है।गीता में सात सौ श्लोकों का संग्रह किया गया है।इसकी भाषा सरल,सुगम,बोधगम्य और अर्थ बहुत गहन और गंभीर है।थोड़े से अभ्यास से गीता को आसानी से समझा जा सकता है परंतु बार-बार अभ्यास करने से भी इसके भावों का अंत नहीं मिल पाता है।इसके एक-एक शब्द और श्लोक में उपदेश और रहस्य समाहित है।गीता को पाँचवा वेद कहा गया है।यह भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच का संवाद है।
  • आज की अत्यंत व्यस्त दिनचर्या में छात्र-छात्राएं केवल गीता का ही सम्यक प्रकार से अध्ययन-मनन कर लें तो उनके जीवन की सारी गुत्थियों का समाधान हो सकता है।गीता पर बहुत सी टीकाएँ और भाष्य लिखे गए हैं,विभिन्न दर्शन की पुस्तकों में समालोचनात्मक व्याख्या की गई है।गीता के अर्थ को बहुत गहराई से बताया गया है।इतना विपुल साहित्य लिखा जाने के बावजूद गीता की पूर्ण व्याख्या संभव नहीं हो सकी है।भगवान श्री कृष्ण ने सचमुच ही गीता रूपी गागर में सागर भर दिया है।
  • सभी विद्वानों,चिन्तकों,दार्शनिकों,ऋषियों और सन्तों ने प्रामाणिक व्याख्या की है परंतु किसी की भी व्याख्या अंतिम नहीं है।
    वेद और उपनिषद इतना गहन और गंभीर है कि साधारण छात्र-छात्रा के लिए उसे समझना बहुत कठिन है परंतु गीता का विचार सरल,स्पष्ट और प्रभावोत्पादक है कि साधारण छात्र-छात्रा के लिए समझना कठिन नहीं है।गीता में विभिन्न मतों का समन्वय प्रस्तुत किया है।गीता कर्म,ज्ञान और भक्तियोग का बहुत ही सुंदर समन्वय प्रस्तुत करती है।
  • आधुनिक युग में छात्र-छात्राओं के लिए गीता का अत्यधिक महत्त्व है।आज के विद्यार्थी के सामने अनेक समस्याएं हैं।छात्र-छात्राओं की अध्ययन में,व्यावहारिक जीवन में,जॉब में आने वाली समस्याओं का समाधान गीता के अध्ययन से मिल सकता है।यह छात्र-छात्राओं को जीवन जीने की कला सिखाती है।हर कदम पर युवाओं का पथ प्रदर्शन करती है।
  • आज के अधिकांश युवक-युवतियां केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के पीछे भाग रहे हैं ऐसे समय में गीता हमें दूसरों की सहायता-सहयोग करने का संदेश देती है।महात्मा गांधी व लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गीता को कर्मयोग का प्रेरणा स्रोत माना है और इसलिए उन्होंने क्रमशः अनासक्ति कर्मयोग और गीता रहस्य टीकाएँ लिखी हैं।रामानुजाचार्य गीता को भक्ति प्रधान मानते हैं और शंकराचार्य जैसे मनीषी इसे ज्ञान प्रधान मानते हैं।यदि गीता का मुख्य उपदेश कर्मयोग माना जाए तो यह समस्त मानव समुदाय का मार्गदर्शन कर सकती है।
  • गीता में कर्मयोग,ज्ञानयोग व भक्तियोग तीनों का वर्णन किया गया है।गीता के योग व महर्षि पतंजलि के योग में भिन्नता है।पतंजलि ने योग को समाधिवाचक माना है।समाधि चित्तवृत्तियों के निरोध से संभव है।जबकि गीता में योग समाधि नहीं बल्कि सीढ़ी (मार्ग) है,साध्य नहीं साधन है,लक्ष्य नही मार्ग है।
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2.गीता में कर्मयोग (Karma Yoga in Gita):

  • आत्मा का परमात्मा से मिलन के गीता में तीन मार्ग बताएं हैं:कर्मयोग,ज्ञानयोग और भक्तियोग।जिस छात्र-छात्रा की जिस मार्ग में रुचि हो,अच्छा लगे वही उसे अपनाना चाहिए।जो कर्म प्रधान छात्र-छात्राएं हैं,संकल्पवान (बहिर्मुखी) हैं उन्हें कर्मयोग का अनुसरण करना चाहिए।जो बुद्धि,ज्ञान प्रधान हैं उन्हें ज्ञान-मार्ग (ज्ञान-योग) पर चलना चाहिए तथा जो समर्पण प्रधान,भक्ति प्रधान हैं उन्हें भक्ति मार्ग (अंतर्मुखी) की शरण लेनी चाहिए।
  • अर्जुन के हृदय में शोक और मोह का उदय हुआ था और वे कर्म मार्ग से,कर्त्तव्य से हट रहे थे।उनकी बुद्धि चलायमान हो रही थी अतः श्रीकृष्ण ने उन्हें कर्मयोग का पाठ पढ़ाया।अंत में भगवान के उपदेश से प्रभावित अर्जुन युद्ध (कर्त्तव्य करने) करने के लिए तैयार हुआ।अर्जुन ने अन्त में कहा कि मेरी बुद्धि अब स्थिर हो गई है,सद्बुद्धि जग चुकी है।कर्त्तव्य के सम्बन्ध में मेरे समस्त सन्देह दूर हो चुके हैं,मेरा चित्त स्थिर हो गया है।वस्तुतः गीता का मुख्य विषय कर्मयोग ही है।अर्जुन के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण ने लोगों को कर्मयोग का ही संदेश दिया है।कोई भी व्यक्ति किसी भी क्षण कर्म किए बिना नहीं रह सकता है।जैसे अध्ययन करना कर्म है तो अध्ययन न करना भी कर्म है।

3.अहंकार रहित होकर कर्म करें (Work without Ego):

  • गीता का कर्मयोग अहंकार रहित होकर कर्म करना है।साधारणतः हम कर्म करते हैं और अपने आपको कर्त्ता समझते हैं।यही कर्त्तापन का अभिमान या अहंकार है।कर्मयोगी वह है जो अहंकार रहित होकर कर्म करें।प्रश्न यह है की कर्त्तापन के बिना कर्म कैसे संभव है? वस्तुतः किसी भी काम को करने में पांच कारण होते हैं:शरीर,कर्त्ता (चेतन शक्ति),इंद्रियाँ,प्रयत्न और भगवद् शक्ति।इन पांचों के समूह से ही कोई कार्य किया जा सकता है।इनमें से किसी एक के द्वारा कर्म करने का कारण समझना भूल या अज्ञान है।
  • शरीर सबसे पहला कारण है क्योंकि शरीर के बिना कोई भी कार्य संपन्न नहीं किया जा सकता है।जैसे विद्यार्थी शरीर के कारण ही अध्ययन कर पाता है यदि शरीर ही नहीं रहेगा तो वह अध्ययन कार्य नहीं कर सकता है।
  • कर्त्ता (चेतन शक्ति) को कर्म का दूसरा कारण कहा गया है।शरीर चेतन शक्ति के कारण यह निर्णय लेता है कि कौनसा कर्म करना चाहिए व कौनसा कर्म नहीं करना चाहिए।अनुकूल या प्रतिकूल कर्म चेतन शक्ति की उपस्थिति के कारण ही करता है।जैसे बिना इंटरनेट के वेबसाइट्स सर्फिंग नहीं कर सकते हैं।इसी प्रकार चेतन शक्ति के बिना शरीर मुर्दा होता है और मुर्दा कोई कार्य नहीं कर सकता है।
  • इन्द्रियाँ किसी कर्म करने को करने का तीसरा कारण है।हम अपनी कर्मेंद्रियों हाथ,पैर,वाणी,लिंग और गुदा इत्यादि से ही कोई कार्य करते हैं।
  • चौथा कारण है चेष्टा (प्रयत्न) करना।यदि हम कर्मेंद्रियों के होते हुए भी प्रयास न करें,कर्म में कर्मेन्द्रियों को न लगाएं तो कोई कार्य नहीं हो सकता है।
  • पांचवा कारण है भगवद् शक्ति का होना।प्रत्येक इन्द्रिय के पीछे कोई न कोई दैविक शक्ति होती है।उदाहरणार्थ नेत्र के द्वारा देखने के लिए सूर्य का प्रकाश कारण है,नाक द्वारा सूंघने के लिए वायु देवता कारण है।अतः भगवद् शक्ति के बिना कोई कार्य संपन्न नहीं हो सकता।
  • इन पांच कारणों से किसी कार्य को संपन्न किया जा सकता है अतः केवल कर्त्ता को ही कर्म का कारण मान लेना केवल अभिमान व अहंकार है।हम मिथ्याभिमान के कारण ही केवल अपने आपको कर्त्ता समझ लेते हैं।इस अहंकार से रहित होना ही कर्मयोग है।अहंकार के कारण अज्ञानी अपने आपको कर्त्ता समझता है।
  • वस्तुतः सभी कर्म शरीर,इन्द्रियों,कर्मेन्द्रियों इत्यादि के द्वारा ही संपन्न होते हैं परंतु अज्ञानी पुरुष अपने आपको कर्त्ता समझता है जबकि शरीर,इंद्रियां,कर्मेंद्रियां प्रकृति के द्वारा निर्मित है अर्थात् माया से उत्पन्न हैं।माया भगवान की क्रियाशक्ति है।इस माया से ही शरीर और इन्द्रियाँ उत्पन्न होती है।अतः सभी कर्म परमेश्वर की माया के द्वारा ही संपन्न होते हैं।यह माया जड़ है,चेतन नहीं।
  • इसमें जो गतिशीलता दिखाई देती है वह परमेश्वर के कारण ही दिखाई देती है।चेतन तो आत्मा है।आत्मा के ऊपर अज्ञान (काम,क्रोध,लोभ आदि) का आवरण आ जाने से मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप (चैतन्य शक्ति,आत्मा) को भूल जाता है तथा अचेतन प्रकृति (शरीर) के द्वारा किए गए कर्मों का कर्त्ता अपने को समझने लगता है।इस स्वरूप को भूलने के कारण ही मनुष्य में अहंकार उत्पन्न होता है कि सभी कर्म मेरे से ही हो रहे हैं।तात्पर्य यह है कि अज्ञानी,अहंकारी शारीरिक क्रियाओं का कर्त्ता बन जाता है।जबकि सभी कर्म शरीर व इन्द्रियों से संपन्न होते हैं।गीता के कर्मयोग के तीन भाग हैं:साक्षी भाव (अहंकार रहित होकर कर्म करना),अनासक्त कर्म और निष्काम कर्म।अनासक्त कर्म व निष्काम कर्म के बारे में अगला लेख पढ़िए।

4.गीता में कर्मयोग के मुख्य बिन्दु (Key Points of Karma Yoga in Gita):

  • (1.)अपना कर्त्तव्य समझकर फल की प्राप्ति में आसक्ति न रखकर कर्म करना ही निष्काम कर्म करना होता है।
  • (2.)निष्काम कर्म का मतलब अकर्मण्य,आलसी व निकम्मा होना नहीं होता है बल्कि अपने आपको कर्त्ता न समझना, कर्त्ता के अभाव,फल के प्रति आसक्ति नहीं होने को निष्काम कर्म कहा जाता है।
  • (3.)किसी भी कार्य अध्ययन इत्यादि में आसक्ति न रखकर तटस्थ,निरपेक्ष भाव से मात्र दर्शक (दृष्टा) बनकर अपने कर्त्तव्यों का पालन करना साक्षी भाव है।
  • (4.)व्यावहारिक दृष्टि से आत्म-साक्षात्कार का अर्थ है अपने आपका निष्पक्ष दृष्टि से अध्ययन करना,अपने आपको जानने की कोशिश करना,अपने आपको समझने की कोशिश करना।यदि अपने आपको समझने,जानने और अध्ययन करने को निष्पक्ष दृष्टि से नहीं करते हैं तो हमारे अंदर अहंकार पैदा होता है।
  • (5.)कर्मयोग,ज्ञानयोग और भक्तियोग एक-दूसरे के न तो विरोधी हैं और न एक-दूसरे के समानांतर हैं बल्कि एक-दूसरे के पूरक हैं।अतः कर्म ज्ञान और भक्तियुक्त अनासक्ति के साथ किया जाता है वह बंधनकारी नहीं होता है।
  • (6.)गीता की तरह कांट ने भी कर्त्तव्य को कर्त्तव्य के लिए (Duty for the sake) करने का आदेश दिया है।कर्त्तव्य कर्त्तव्य के लिए का अर्थ है कि मनुष्य को कर्त्तव्य करते समय कर्त्तव्य के लिए तत्पर रहना चाहिए।कान्ट और गीता के मत में यह समरूपता है कि दोनों ने लोक कल्याण को कर्म का आधार माना है।
  • (7.)कान्ट और गीता के मत में पहली भिन्नता यह है कि कांट इंद्रियों को दमन करने का आदेश देता है।गीता इसके विपरीत इन्द्रियों को बुद्धि के मार्ग पर नियंत्रण (इंद्रिय निग्रह) करने का आदेश देती है अर्थात् इन्द्रियों का दमन नहीं बल्कि विवेक के द्वारा बुद्धि को और बुद्धि द्वारा मन को तथा मन के द्वारा इन्द्रियों को वश में करना चाहिए,शुभ कर्म करने में संलग्न करना चाहिए।दमन से मन में कुण्ठा पैदा होती है जिससे अनेक मनोविकार पैदा होते हैं।गीता में इन्द्रियों का दमन करनेवाले को पापी कहा गया है।
  • कान्ट और गीता के मत में दूसरी भिन्नता यह है कि गीता में मुक्ति (शुभ-अशुभ कर्मों से छुटकारा,बुराइयों से छुटकारा) को आदर्श (लक्ष्य) माना गया है जिसकी प्राप्ति हेतु नैतिकता आवश्यक है जबकि कान्ट ने नैतिक नियम को ही एकमात्र आदर्श माना है।

5.कर्मयोग का दृष्टांत (Illustration of Karma Yoga):

  • एक बार देश में महामारी (कोविड-19) फैल गई।सभी शिक्षण संस्थाओं को बंद करने के आदेश दे दिए गए।कोविड-19 महामारी का प्रकोप शांत हुआ तो अचानक परीक्षा की तिथि घोषित कर दी गई।छात्र-छात्राएं चिंतित और निराश हो गए।शासन से तत्काल निर्देश दिए गए कि सभी शिक्षण संस्थाओं को सुबह से शाम तक जारी रखा जाए।छात्र-छात्राओं को ओर किसी विषय में तो परेशानी नहीं थी परंतु गणित और विज्ञान जैसे विषयों में काफी कठिनाई महसूस हो रही थी।सुबह से शाम तक छात्र-छात्राओं का ताँता लगा रहता और शाम तक भी वे शिक्षकों का पीछा न छोड़ते।
  • जो समर्थ छात्र-छात्राएं थे वे तो फीस चुकाकर कोचिंग करने लग गए।एक शाम होते-होते काफी छात्र-छात्राएं अपने घर चले गए विशेषकर जो समर्थ तथा कोचिंग भी कर रहे थे।लेकिन जो निर्धन थे तथा कोचिंग नहीं कर सकते थे उन्होंने गणित शिक्षक का पीछा नहीं छोड़ा।
  • गणित शिक्षक पढ़ाते-पढ़ाते थक गए थे अतः उन्होंने उन निर्धन और असमर्थ छात्रों को डाँटकर कहा कि कल आना अब फ्री में पढ़ाने का समय खत्म हो गया और हमारी ड्यूटी भी खत्म हो गई।तभी एक हृष्ट-पुष्ट और नौजवान नवयुवक जैसा व्यक्ति उधर आया और गणित शिक्षक से बोला कि जो समर्थ छात्र थे वे तो कोचिंग में भी पढ़ लेते हैं और यहाँ भी सबसे पहले पूछकर रवाना हो जाते हैं।
  • मैं देख रहा हूं कि इन असमर्थ छात्रों ने आपसे कुछ नहीं पूछा है इन्हें भी कुछ पढ़ा दो।उस व्यक्ति की वाणी में ऐसा प्रभाव था कि गणित शिक्षक ने मना नहीं किया।गणित शिक्षक ने देर रात तक पढ़ा दिया।अब उन असमर्थ छात्रों को उनके घर तक कौन छोड़े? उनके घर विद्यालय से काफी दूर थे।उस व्यक्ति ने कहा कि आओ मेरी गाड़ी में बैठो,मैं तुम्हें घर तक छोड़ देता हूं।
  • छात्रों की बस्ती कुछ दूर ही रह गई थी तभी सिपाहियों की गाड़ी उधर से गुजरी।गाड़ी में एसपी बैठे थे,उन्होंने पहचान लिया और उनका अभिवादन किया।उस व्यक्ति ने संकेत से आगे कुछ बोलने के लिए मना किया।फिर भी छात्रों के समझ में कुछ-कुछ आ गया।वे छात्र-छात्राएं कहने लगे आप कौन हैं।
  • तब उस व्यक्ति ने कहा कि मैं एक नौजवान हूं और तुम छात्र-छात्राएं हो जो परीक्षा में रात-दिन पढ़ने में लगे हुए हो।बस इससे अधिक परिचय की क्या आवश्यकता है? चलो बताओ तुम्हारी बस्ती किधर है? अब वे छात्र-छात्राएं पूरी तरह समझ चुके थे।वे उनके पैरों में गिर पड़े और क्षमा मांगते हुए बोले आप शिक्षा मंत्री हैं।आप वास्तव में सच्चे कर्मयोगी है।उन शिक्षा मंत्री के समान ही कर्मयोगी समृद्धि,यश और अनायास ही पा जाते हैं हालांकि वे यश,मान,प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि की कामना नहीं करते हैं।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में भगवद गीता में कर्मयोग क्या है? (What is Karma Yoga in Bhagavad Gita?),श्रीमद्भगवद्गीता के कर्मयोग का सन्देश क्या है? (What is Message of Philosophy of Actions of Srimad Bhagavad Gita?) के बारे में बताया गया है।

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6.गणित के खूबसूरत हल (हास्य-व्यंग्य) (Beautiful Math Solutions) (Humour-Satire):

  • छात्र (मित्र से):सुनो,देखो मेरे गणित के सवालों के हल कितने खूबसूरत और लाजवाब हैं!
  • मित्र:तुमने कैसे जाना?
  • छात्र:आज मेरे खूबसूरत और लाजवाब सवालों के देखकर लड़कियां ईर्ष्या कर रही है और मुझे एकटक देख रही हैं।

7.भगवद गीता में कर्मयोग क्या है? (Frequently Asked Questions Related to What is Karma Yoga in Bhagavad Gita?),श्रीमद्भगवद्गीता के कर्मयोग का सन्देश क्या है? (What is Message of Philosophy of Actions of Srimad Bhagavad Gita?) से सम्बन्धित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.क्या गीता का कर्मयोग कर्मकांड है? (Is the Karma Yoga of the Gita a Ritual?):

उत्तर:गीता का कर्मयोग कर्मकांड से भिन्न है।वेद का पुर्व भाग कर्मकाण्ड कहलाता है।कर्मकाण्ड वे कर्म होते हैं जिन्हें किसी कामना की पूर्ति हेतु,फल की इच्छा से किए जाते हैं।यज्ञादि कर्म कामनायुक्त कर्म है।इससे विभिन्न फलों की प्राप्ति होती है।सांसारिक सुख से लेकर स्वर्ग की प्राप्ति का साधन यज्ञ-कर्म सकाम कर्म हैं।गीता का कर्मयोग निष्काम कर्म है।यही वैदिक कर्मकांड और गीता के कर्मयोग में भेद है।निष्काम कर्म गीता की देन है।कर्त्तव्य स्वर्ग के लिए वेद की शिक्षा है।कर्त्तव्य कर्त्तव्य गीता की शिक्षा है।इसी कारण कर्मयोग को कर्मकाण्ड से अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं।कर्म को साधन तो सभी शास्त्र मानते हैं परन्तु कर्म को लक्ष्य (साध्य) केवल गीता ही बतलाती है।

प्रश्न:2.क्या गीता का कर्मयोग समर्पण युक्त है? (Is the Karma Yoga of the Gita Devoted to Dedication?):

उत्तर:गीता के अनुसार फल और आसक्ति का त्याग करना ही अनासक्ति कर्म है।इस अनासक्त कर्म को अपने लिए नहीं वरन भगवान के लिए करना चाहिए।कर्म को भगवान की पूजा समझकर करना कर्मयोग की पराकाष्ठा है।अनासक्ति और अनिच्छा से संपन्न होकर सब कुछ परमात्मा का है ऐसा समझकर परमात्मा के चरणों में अपने सभी कर्मों को अर्पित करने वाला कर्मयोगी सबसे बढ़कर है।

प्रश्न:3.कर्मयोग की प्रमुख विशेषता क्या है? (What is the Main Feature of Karma Yoga?):

उत्तर:कर्मयोगी स्वार्थ की भावना से नहीं बल्कि परार्थ की भावना से प्रेरित होता है।कर्मयोगी लोक कल्याण के लिए कर्म करता है।इस लोक कल्याण की भावना से कर्मयोगी की तुलना बौद्ध धर्म में बोधिसत्व से कर सकते हैं।बोधिसत्व के समान ही कर्मयोगी परार्थ कर्म करता है।

प्रश्न:4.क्या कर्मयोग कर्म का निषेध है? (Is Karma Yoga a Prohibition of Karma?):

उत्तर:निष्काम कर्म कर्म का निषेध नहीं है बल्कि कामना रहित कर्म,कामना निषेध है।संन्यास का अर्थ कर्म का त्याग नहीं है किंतु कामना का त्याग है।त्याग का अर्थ कर्म का त्याग नहीं अपितु कर्मफल (कर्म फल में आसक्ति का त्याग) का त्याग है।

प्रश्न:5.फल की इच्छा के बिना कर्म कैसे संभव है? (How is Karma Possible without the Desire for Result?):

उत्तर:मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बिना इच्छा के कोई कर्म नहीं किया जा सकता है।बिना किसी प्रयोजन के मन्द बुद्धि पुरुष भी कर्म नहीं करता है।मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह सही हो सकता है।इसीलिए गीता का कर्मयोग ज्ञानी के लिए है साधारण व्यक्ति के लिए नहीं।वैसे भी हम कई कर्म ऐसे करते हैं जिसमें फल की इच्छा नहीं होती है।ये कर्म साधारण जन भी करते हैं।जैसे किसी के दाब-दबाव से कर्म करते हैं उसमें हमारी इच्छा नहीं होती।इसी प्रकार किसी की आज्ञा पालन के लिए कर्म करते हैं।ये कर्म साधारण जन करते ही हैं।इसी प्रकार कर्त्तव्य समझकर कर्म करते हैं उसमें हमारी इच्छा नहीं होती है।अतः यदि गीता के निष्काम कर्म का पूर्णतः पालन नहीं करते हैं परंतु काफी हद तक सामान्य छात्र-छात्राएं पालन करते हैं तो काफी कुछ दुखों,कष्टों और विपत्तियों से बचे रहते हैं।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा भगवद गीता में कर्मयोग क्या है? (What is Karma Yoga in Bhagavad Gita?),श्रीमद्भगवद्गीता के कर्मयोग का सन्देश क्या है? (What is Message of Philosophy of Actions of Srimad Bhagavad Gita?) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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