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Making Youth Well Reared is Education

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1.युवाओं को संस्कारी बनाए वहीं शिक्षा है (Making Youth Well Reared is Education),वास्तविक शिक्षा का स्वरूप क्या हो? (What is Nature of Real Education?):

  • युवाओं को संस्कारी बनाए वहीं शिक्षा है (Making Youth Well Reared is Education)।यह बात सैकड़ों बार लिखी और हजारों बार दोहराई जा चुकी है और तब भी लिखी,पढ़ी और दोहराई जाती रहेगी जब तक शिक्षा पद्धति,शिक्षा प्रणाली में चारित्रिक शिक्षा का समावेश नहीं किया जाएगा और संस्कारवान विद्यार्थी तैयार नहीं होंगे।वर्तमान शिक्षा प्रणाली हमें अंग्रेजों से विरासत में मिली है और अंग्रेज शासक लार्ड मैकाले ने इस शिक्षा की नींव इस उद्देश्य से डाली थी ताकि उन्हें अपना शासन,राज-काज चलाने के लिए क्लर्क और बाबू मिल सके।साथ ही जो कर्मचारी वर्ग शासन में नियुक्त हों वह रंग-ढंग में भारतीय हो परंतु उसका चाल-चरित्र शासन के प्रति वफादारी का हो।
  • इसके अतिरिक्त उनका यह उद्देश्य भी था कि भारतीय जनमानस को शासन के अनुकूल बनाया जा सके।भारतीय जनमानस क्रांति व आंदोलन का सहारा लेकर अंग्रेजी शासको को न उखाड़ फेंके।तृतीय उद्देश्य में तो अंग्रेज सफल नहीं हो सके और उन्हें भारतीय क्रांतिकारियों,जनमानस के आंदोलन के कारण अपना बोरिया बिस्तर समेटकर यहां से जाना पड़ा।परंतु अपने पीछे वे जो शिक्षा पद्धति छोड़ गए हैं उसके दुष्प्रभाव अब दृष्टिगोचर हो रहे हैं।
  • होना तो यह चाहिए था कि जिन भारतीय शासको ने भारत की सत्ता स्वतंत्रता के समय संभाली थी उन्हें शिक्षा पद्धति में बदलाव करना चाहिए था।उस समय बदलाव करना आसान था,परंतु उस वक्त के भारतीय शासको ने इस नब्ज को नहीं पहचाना कि जनमानस को पूर्णतः बदलना शिक्षा के द्वारा ही संभव है।शिक्षा में कोई भी बदलाव करने का परिणाम तत्काल दिखाई नहीं देता है,काफी समय बाद बदलाव दिखाई देता है।जीवनशैली और मानसिकता के बदलाव में समय लगता है।
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2.शिक्षा का उद्देश्य और स्वरुप (Purpose and Nature of Education):

  • मनुष्य और पशु-पक्षियों में भिन्नता है।ज्ञान,बुद्धि,विवेक पशुओं-पक्षियों में नहीं होता है परंतु मनुष्य में होता है।छात्र-छात्राओं को समाज में रहने के रंग-ढंग,रीति-रिवाज,शिष्टाचार सिखाने होते हैं अतः उससे सुसंस्कृत आचरण की अपेक्षा की जाती है।साथ ही उसे इतना ज्ञान संपन्न भी होना चाहिए कि दुनिया जिस तेजी के साथ आगे बढ़ती जा रही है,उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चल सके।यह योग्यता तभी विकसित होती है जब व्यक्तित्त्व और ज्ञान की दृष्टि से वह स्वयं कुछ उपार्जित कर सके,इस योग्य बनने के लिए उसे विरासत में कुछ संस्कार और जानकारी भी प्राप्त हो।इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही प्राचीनकाल से शिक्षा की व्यवस्था की जाती रही है।इस व्यवस्था का स्वरूप भले ही बदलता रहा हो,पर वह प्रचलन में हमेशा अनिवार्य रूप से रही है।
  • शिक्षा जीवन के शाश्वत मूल्य हैं।मानवीय चेतना जिन दो प्रकार के मूल्यों की परिधि में पल्लवित होती है,उनमें कुछ शाश्वत होते हैं और कुछ परिवर्तनशील।शिक्षा को जीवन का शाश्वत मूल्य कहा जा सकता है क्योंकि कोई भी अज्ञानी अथवा अशिक्षित व्यक्ति अपने जीवन को विकासशील नहीं बना पाता।ज्ञान की अनिवार्यता हर युग में रही है इसीलिए शिक्षा को हर युग में मूल्य एवं महत्त्व प्राप्त होता रहा है।
  • शिक्षा का अर्थ केवल वस्तुओं या विभिन्न विषयों का ज्ञान मात्र नहीं है।यदि जानकारी तक ही शिक्षा को सीमित मान लिया जाए तो वह अज्ञान से कुछ अधिक हो सकता है और कई बार तो उससे भी अधिक भयावह परिणाम प्रस्तुत कर सकता है।ज्ञान की अथवा शिक्षा की सार्थकता वस्तुओं के ज्ञान के साथ-साथ अनुपयोगी और उपयोगी का विश्लेषण करने तथा उनमें से अनुपयोगी को त्यागने एवं उपादेय को ग्रहण करने की दृष्टि का विकास भी होना चाहिए।तभी शिक्षा अपने संपूर्ण अर्थ को प्राप्त होती है।
  • ज्ञान और आचरण में सामंजस्य उत्पन्न होने पर ही कोई व्यक्ति वास्तव में ज्ञानी,पंडित तथा शिक्षित कहा जा सकता है।ज्ञान और आचरण में सामंजस्य क्या है? व्यक्तित्त्व का समग्र विकास।ज्ञान वह जो देय और उपादेय का विश्लेषण करे।दूसरे शब्दों में उसकी प्रतिक्रिया परिणिति को विवेक भी कह सकते हैं और विवेक के प्रयोग से ही ज्ञान की सार्थकता है।अन्यथा ज्ञान की अर्थात् किताबी जानकारी का क्या महत्त्व?
  • ज्ञान और आचरण में,बोध और विवेक में जो सामंजस्य प्रस्तुत कर सके,उसे ही सही अर्थों में शिक्षा या विद्या कहा जा सकता है।जब यह सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता तो शिक्षा अधूरी कही जाएगी और व्यक्तित्त्व भी अविकसित या एकांगी विकसित रह जाएगा।जब भी कभी या जिस किसी के भी साथ शिक्षा का इस सत्य से संबंध टूट जाता है,तो विद्यार्थी ठगा जाता है,वह अपने जीवन लक्ष्य से विचलित हो जाता है।आज के संदर्भ में देखें तो शिक्षा-पद्धति इसी तरह की ठगी,धोखाधड़ी,धूर्धता से पूर्ण है।छात्रों के सामने परीक्षा पास करने और डिग्री हासिल करने के अलावा कोई दूसरा लक्ष्य नहीं रहता।फलतः वह अपनी सभी प्रवृत्तियों का केंद्र परीक्षा पास करना बना लेता है और जब यही एकमात्र लक्ष्य रह जाता है तो व्यक्तित्त्व के अन्य पहलुओं पर स्वभाविक ही विशेष ध्यान नहीं जाता।या यों भी कह सकते हैं कि अन्य पक्ष गौण हो जाते हैं।
  • इस स्थिति के लिए विद्यार्थी इतने दोषी नहीं है,जितनी की शिक्षा पद्धति।प्रचलित शिक्षण-पद्धति छात्रों के सामने कोई ध्येय,कोई आदर्श उपस्थित नहीं कर पाती या कहना चाहिए,वह ध्येयहीनता के अंधकार में धकेलती है तो उस स्थिति में जो ज्ञान जीवन को सुसज्जित और सुरभित बनाता है,वह ज्ञान कहां उपलब्ध हो पाता है? स्पष्ट है कि शिक्षा का मूल उद्देश्य मानसिक,चारित्रिक,आध्यात्मिक और शारीरिक विकास है।
  • मात्र भौतिक जानकारियों को दिमाग में इकट्ठा कर लेना किसी तरह भी सार्थक नहीं माना जा सकता है।इसमें भी विवेकयुक्त बुद्धि का आश्रय लेने की आवश्यकता जरूरी मानी जाती है,जिससे जीवन निर्माण,चरित्र निर्माण तथा मनुष्य निर्माण में सहायक विचारों को अनुभूत किया जा सके।शिक्षा के उद्देश्य विमुख होने का मूल कारण है आध्यात्मिकता का अभाव और भौतिकता का बढ़ता प्रभाव।
  • अनेक लोग कबीर,दादू,नानक,तुकाराम,रैदास,नरसी यहां तक की सुकरात,मुहम्मद और ईसा जैसे महात्माओं एवं महापुरुषों का उदाहरण देकर कह सकते हैं कि यह लोग शिक्षित ना होने पर भी पूर्ण ज्ञानवान तथा आध्यात्मिक सत्पुरुष थे।इनका संपूर्ण जीवन आजीवन निष्पाप रहा और निश्चय ही इन्होंने आत्मा को बंधन मुक्त कर मोक्ष पद पाया है।इससे सिद्ध होता है कि निष्पाप जीवन की सिद्धि के लिए शिक्षा अनिवार्य नहीं है।ऐसा करने वाले यह भूल जाते हैं कि अनायास ज्ञान प्राप्त कर लेने वाले महापुरुष अपने पूर्व जन्म के संस्कार साथ लेकर आते हैं।

3.वर्तमान शिक्षा के साथ संस्कारी शिक्षा आवश्यक (Cultured Education Necessary Along with Current Education):

  • शिक्षा आंतरिक अंकुरण है,बाहरी आरोपन नहीं।शिक्षा आंतरिक प्रतिभा,ज्ञान एवं मूल्यों में वर्द्धन करने का एक सर्वोत्तम माध्यम है।शिक्षा नए मनुष्य को गढ़ने वाले जीवनमूल्यों को अर्थ प्रदान करती है।मनुष्य जीवन के हर तल पर अपरिमित ऊर्जा समायी है।देह,प्राण,मन,बुद्धि के छोटे-छोटे हिस्सों में संभावनाओं के महासागर भरे पड़े हैं।शिक्षा इनकी सही और सटीक अभिव्यक्ति की कला खोजती है,परंतु वर्तमान शिक्षा केवल बाहरी आरोपण का माध्यम बनी हुई है।महत्त्वाकांक्षी श्रम,साहस और संकल्प से विहीन बेरोजगारों की बढ़ती भीड़ आज की शिक्षा का वर्तमान है।
  • शिक्षा का वर्तमान जगजाहिर है।सभी इसके वर्तमान स्वरूप से सुविदित एवं सुपरिचित हैं।कभी मैकाले ने जो बीज बोए थे,आज उनकी कँटीली फसल से समूचा देश लहूलुहान हो रहा है,पर मैकाले से मुकाबला कौन करें? यह सवाल आज के दौर में कुछ उसी तरह से है,जिस तरह से कभी चूहों के झुंड में यह सवाल उठता था कि बिल्ली की गली में घंटी कौन बांधे? नुकसान से सभी परिचित हैं,पर समाधान का साहस कौन करें? आज की शिक्षा में कुंठा,निराशा हताशा की पर्याय बनी कुछ डिग्रियां,उपाधियों के छोटे-बड़े ढेर बचे हैं।
  • शिक्षा का मूल उद्देश्य है:मनुष्य को इसकी बाहरी और आंतरिक आवश्यकताओं से परिचित कर उनको पूरा करने की कला प्रदान करना।शिक्षा जीवन की भौतिक जरूरतें,जैसे व्यवसाय,नौकरी एवं सुरक्षा आदि की पूर्ति के साथ ही बौद्धिक,नैतिक एवं आत्मिक मूल्यों की पहचान एवं उनके अभिवर्द्धन की कला प्रदान करती है,मनुष्य के सर्वांगपूर्ण विकास की राह दिखाती है,परंतु दुर्भाग्य से शिक्षा को एकांगी बना दिया गया है।इसे केवल जीविकोपार्जन एवं व्यवसाय प्राप्त करने का एकमात्र जरिया बना दिया गया है और इसी कारण शिक्षा के व्यवसायीकरण का दौर प्रारंभ हुआ।
  • शिक्षा के व्यवसायीकरण का परिणाम है कि अपने देश में उच्च एवं प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थाओं,जैसे IIT,NIT,IIM आदि की स्थापना हुई।इन प्रतिष्ठित संस्थाओं से प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में प्रतिभावान छात्र निकलते हैं और देश-विदेश में अच्छी नौकरी प्राप्त कर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाते हैं।अपने यहां के विद्यार्थियों की काबिलियत से सारी दुनिया स्तब्ध एवं हैरान है कि आखिर भारतीय छात्र इतने प्रतिभाशाली एवं कुशाग्र बुद्धिसंपन्न कैसे होते हैं!यह प्रशंसनीय एवं सराहनीय है।
  • व्यावसायिक शिक्षा अपने व्यवसाय में निसंदेह काफी आगे बढ़ी है,परंतु इसका दूसरा एवं अन्य पहलू उतना ही निराशाजनक एवं चुनौतीपूर्ण है।जो प्रतिभाशाली छात्र उच्च शिक्षा संस्थाओं से निकल रहे हैं,यदि उनके जीवन मूल्यों,समाज एवं राष्ट्र के प्रति उत्तरदायित्व के दृष्टिकोण का पता लगाया जाए तो निराशा ही हाथ लगेगी।इन छात्रों का स्वयं के विचार,भाव एवं आंतरिक क्षमताओं के प्रति समझ और उसका नियोजन नहीं के बराबर है।शिक्षा के रूप में उनको जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, वह केवल जानकारी इकट्ठी करता है और यह बौद्धिक समझ तक सीमित है।वस्तुतः यथार्थ ज्ञान है,अनुभव,जीवंत प्रतीति।
  • बौद्धिक ज्ञान मृत्य तथ्यों का संग्रह है;जबकि यथार्थ ज्ञान जीवन्त सत्य का बोध।इन दोनों में बड़ा अंतर है:पाताल और आकाश जितना; अंधकार और प्रकाश जितना।सच तो यह है कि बौद्धिक ज्ञान कोई ज्ञान ही नहीं है,यह तो बस,ज्ञान का झूठा एहसास भर है।भला अंधे व्यक्ति को प्रकाश का ज्ञान कैसे हो सकता है!बौद्धिक ज्ञान कुछ ऐसा ही है,जो पाठ्य पुस्तकों के पठन-पाठन से प्राप्त होता है।ज्ञान के इस झूठे एहसास से अज्ञान ढक जाता है।इसके शब्दजाल एवं विचारों के धुँए में अज्ञान में विस्मृत हो जाता है।यह तथाकथित ज्ञान अज्ञान से भी घातक है; क्योंकि अज्ञान दिखता हो तो उससे ऊपर उठने की चाहत पैदा होती है,पर वह न दीखे तो उससे छुटकारा पाना संभव नहीं होता।ऐसे तथाकथित ज्ञानी अज्ञान में ही मर-खप जाते हैं।
  • वर्तमान शिक्षा पद्धति में जो ज्ञान परोसा जाता है,वह तो केवल बौद्धिक धरातल तक सीमित है,इससे हमारे अंदर दबी-पड़ी सुप्त क्षमताओं का जागरण संभव नहीं है,वह तो हमें केवल जीविकोपार्जन तक सीमित रखता है।शिक्षा का अन्य रूप जिसे विद्या कहते हैं,यही सच्चा ज्ञान है,जो कहीं बाहर से नहीं आता,यह भीतर से जागता है।इसे स्कूल या कॉलेज के पाठ्यक्रम से सीखना नहीं,बल्कि स्वयं के अंदर से उघाड़ना होता है।सीखा हुआ ज्ञान जानकारी है; जबकि उघाड़ा हुआ ज्ञान अनुभूति है।जिस ज्ञान को सीखा जाए,उसके अनुसार जीवन को जबरदस्ती ढालना पड़ता है।फिर भी वह कभी संपूर्णतया स्वयं के अनुकूल नहीं बन पाता।सीखे हुए ज्ञान और जीवन में हमेशा एक अंतर्द्वन्द्व बना ही रहता है,पर जो ज्ञान उघाड़ा जाता है;उसके आगमन से ही आचरण सहज उसके अनुकूल हो जाता है।सच्चे ज्ञान के विपरीत जीवन का होना एक असंभावना है।ऐसा कभी हो ही नहीं सकता।
  • वर्तमान शिक्षा में विद्या का समावेश होना आवश्यक है।शिक्षा के साथ छात्रों को जीवन जीने की कला,जीवन प्रबंधन एवं जीवन मूल्यों की नैतिक शिक्षा की भी जरूरत है।वर्तमान स्थिति का समाधान क्रांति की नई रोशनी में है।इसी के उजाले में नए जीवनमूल्य दिखाई देंगे।छात्रों की दशा सुधरेगी और उन्हें सही दिशा मिलेगी।इस शिक्षा-क्रांति से ही शिक्षा के परिदृश्य में छाया हुआ कुहासा मिटेगा और उसका विद्या वाला स्वरूप निखरकर सामने आएगा।तभी पता चलेगा कि शिक्षा जीवन की सभी दृश्य एवं अदृश्य शक्तियों का विकास है।तभी जाना जा सकेगा कि विचार और संस्कार से ही व्यक्तित्त्व गढ़े जाते हैं।
  • वर्तमान शिक्षा पद्धति में इसी विचार एवं संस्कारूपी व्यक्तित्त्व गढ़ने की कला जोड़नी होगी।इसके बिना पुस्तकीय ज्ञान गर्दनतोड़-कमरतोड़ के सिवाय और कुछ नहीं।शिक्षा जगत में एक नई क्रांति होने से सूझ-बूझ,सोच-समझ के नए आदर्श प्रकट होंगे और तभी साहस,संकल्प श्रम की सामर्थ्य से भरे-पूरे प्रचंड आत्मबल के धनी मनुष्य का जन्म होगा।रोने-गिड़गिड़ाने वाले,दीन-हीन,सम्मान और स्वाभिमान से विहीन,परमुखापेक्षी मनुष्य कहे जाने वाले प्राणियों की भीड़ छँटेगी।आज इसी शिक्षा की आवश्यकता है,जिसे अपनाना चाहिए।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में युवाओं को संस्कारी बनाए वहीं शिक्षा है (Making Youth Well Reared is Education),वास्तविक शिक्षा का स्वरूप क्या हो? (What is Nature of Real Education?) के बारे में बताया गया है।

Also Read This Article:Indian Education Should be Progressive

4.चालाक गर्लफ्रेंड (हास्य-व्यंग्य) (Clever Girlfriend) (Humour-Satire):

  • नए-नए बॉयफ्रेंड व गर्लफ्रेंड बने प्रेमी जोड़ा कोई गणित का सवाल हल कर रहे थे।सवाल हल करने के बाद वे दोनों अपने-अपने तरीके को सही बता रहे थे।उनमें वाद-विवाद होते-होते जबरदस्त लड़ाई शुरू हो गई।लड़ाई के बाद प्रेमिका भगवान से बोली-हे भगवान मेरी मदद करो।मैं इनकी लड़ाई से तंग आ गई हूँ।अगर ये गलत है तो इन्हें उठा लो और अगर मैं गलत हूं तो मुझे इनसे छुटकारा दिला दो।

5.युवाओं को संस्कारी बनाए वहीं शिक्षा है (Frequently Asked Questions Related to Making Youth Well Reared is Education),वास्तविक शिक्षा का स्वरूप क्या हो? (What is Nature of Real Education?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.क्या भौतिक विषयों का ज्ञान प्राप्त नहीं करना चाहिए? (Shouldn’t We Acquire Knowledge of Physical Subjects?):

उत्तर:पदार्थ संसार की,बाह्य जगत की जानकारियां प्राप्त करना भी बहुज्ञ होने की दृष्टि से आवश्यक है।बहुज्ञ व्यक्ति तो सांसारिक प्रयोजनों में समय-समय पर काम करते रहते हैं।इस आधार पर वस्तुओं,व्यवस्थाओं एवं विभिन्न क्षेत्रों के कारणों को समझ सकना संभव होता है।इसी कौशल की आवश्यकता को स्कूली शिक्षा पूरी करता है।गणित,भूगोल,खगोल,इतिहास,पदार्थ विज्ञान,वनस्पति विज्ञान,अर्थशास्त्र आदि विषयों को विद्यालयों में पढ़ाया जाता है।इस प्रकार के विषयों में प्रवीण बनकर व्यक्ति आवश्यक कला-कौशल संबंधी अपनी जानकारी में वृद्धि करता है।इस बढ़े हुए ज्ञान के आधार पर उसे धन और पद प्राप्त करने में भी सफलता मिलती है।उतने पर भी एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता में कमी रह जाती है।दृष्टिकोण,व्यक्तित्त्व एवं सम्मान-सहयोग प्राप्त करने के लिए ऐसे ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है,जो चरित्र एवं व्यवहार का परिवर्तन कर सके।यही है,वह महत्त्वपूर्ण पक्ष जो मनुष्य के स्तर एवं प्रभाव को संतुलित करता है।

प्रश्न:2.क्या पुस्तकों से ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता है? (Can Knowledge Not Be Gained From Books?):

उत्तर:पुस्तकों से पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त होता है।सज्जनता,सद्गुणों को अपनाने की शिक्षा आमतौर से पुस्तकों में रहती है।ऐसा साहित्य भी कम नहीं है।प्रवचनों में भी धर्म,संयम के,परलोक की बातें सुनने को मिलती रहती है,पर इतने भर से पढ़ने वालों का जीवनक्रम सुधरेगा,ऊंचा उठेगा ऐसी आशा नहीं की जा सकती।ऐसा कदाचित हो,कभी हुआ हो कि लोगों ने श्रेष्ठता को किन्हीं लेखों या प्रवचनों के आधार पर अपने जीवन में धारण किया हो।कुसंस्कारों,कुविचारों से छुटकारा पाया हो।इसके लिए अभिभावकों,अध्यापकों और शासन को सम्मिलित रूप से प्रयत्न करना होगा।

प्रश्न:3.शिक्षकों को बच्चों का विकास करने के लिए क्या करना चाहिए? (What Should Teachers Do to Help Children Develop?):

उत्तर:चरित्र की नींव उठती आयु में पड़ती है। किशोरावस्था इसके लिए सबसे महत्त्वपूर्ण समय है।इन दिनों छात्रों को जिन विद्यालयों से जुड़ा रहना होता है,उनके अध्यापकों का निजी चरित्र ऐसा होना चाहिए जिससे शिक्षा के बहाने संपर्क में आने वाले छात्रों को अनुकरण की प्रेरणा मिले।प्रभावशाली अध्यापक छात्रों पर ऐसी छाप छोड़ते हैं,जो सदा-सर्वदा के लिए अमिट रहती है।विद्यालयों का वातावरण ऐसा होना चाहिए,जिसमें छात्रगण परस्पर स्नेह सद्भाव के सज्जनता,सहकारिता के आदर्श उपस्थित करें।पुस्तकीय ज्ञान में इतना ओर जुड़ना चाहिए कि शिक्षकों का चरित्र-व्यक्तित्त्व इस योग्य हो कि उससे शिक्षार्थी अपने दृष्टिकोण को परिष्कृत करने वाली प्रेरणा प्राप्त कर सके।उन प्रेरणाओं को अभ्यास में लाने के लिए उपयुक्त क्षेत्र,छात्र मंडली के बीच चलने वाला पारस्परिक व्यवहार है।इसे भी पाठ्यक्रम का एक अंग माना जाए और शिक्षकों के स्तर तथा स्कूली वातावरण के प्रवाह को भी महत्त्व दिया जाए।

प्रश्न:4.अभिभावकों को बच्चों का विकास करने के लिए क्या करना चाहिए? (What Should Parents Do to Develop Their Children?):

उत्तर:अभिभावकों को बालको पर शैशवकाल से ही दृष्टि रखना चाहिए।उन्हें समुचित दुलार दिया जाए।साथ ही वरिष्ठ गृहसंचालकों के साथ रहने का अवसर भी मिलना चाहिए।जिन्होंने संतान को जन्म दिया है,उनकी जिम्मेदारी मात्र इतनी ही नहीं है कि भोजन-वस्त्र की सुविधा प्रदान करें और उनकी शोभा-सज्जा के,मनोविनोद के साधन जुटाने भर में अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझें।उन्हें सोचने और सीखने के लिए प्रेरणाप्रद वातावरण चाहिए।जिन दुर्गुणों के बीजांकुर उग रहे हों,उनकी काट-छाँट कुशल माली की तरह होती रहनी चाहिए।बच्चे जो देखते हैं,सुनते हैं,जिस वातावरण में रहते हैं,उसी ढांचे में ढलते हैं।इस तथ्य को समझते हुए अभिभावकों का कर्त्तव्य है कि परिवार में पलने वाले बालकों के सामने ऐसी स्थिति रखी जाए,जिसे अनुकरण किए जाने पर बालकों में उत्कृष्ट स्तर की शालीनता उभरे।स्वभाव और संस्कार ढालने में परिवार के वातावरण की भी महती भूमिका रहती है।अस्तु उस क्षेत्र में उन्हें परामर्श नहीं,ऐसा वातावरण,क्रिया-कलाप देखने को मिलना चाहिए,जिसे अपनाते रहकर भावी जीवन में अपनी आरोपित श्रेष्ठता का विकसित उदाहरण प्रस्तुत कर सकें।श्रेष्ठ नागरिक बन सकें।अपने व्यक्तित्त्व और कर्तृत्व में ऐसी उत्कृष्टता का समावेश कर सकें,जो न केवल निजी व्यक्तित्त्व के विकास में सहायक हो वरन समूचे समाज को समुन्नत बनाने में सहायक सिद्ध हो सकें।नई पीढ़ी के निर्माण में अभिभावकों के भी असाधारण दायित्व हैं।जन्म देने से पूर्व ही इस तथ्य को न केवल जनक-जननी,वरन् उस परिवार-परिकर के सभी सदस्य भलीभाँति अनुभव करें।तोता रटंत जैसा अभ्यास करने के लिए कुछ कहते-सुनते रहने से भी काम चल सकता है,परंतु व्यक्तित्त्व विकास के लिए तो घर का,स्कूल का वातावरण प्रेरणाप्रद होना चाहिए,अभिभावकों के चरित्र व्यवहार की संदर्भ में असाधारण भूमिका रहती है।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा युवाओं को संस्कारी बनाए वहीं शिक्षा है (Making Youth Well Reared is Education),वास्तविक शिक्षा का स्वरूप क्या हो? (What is Nature of Real Education?) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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