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Criticism of Indian Education System

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1.भारतीय शिक्षा प्रणाली की समालोचना (Criticism of Indian Education System),भारतीय शिक्षा प्रणाली के दोष और समाधान (Defects and Solution of Indian Education System):

  • भारतीय शिक्षा प्रणाली की समालोचना (Criticism of Indian Education System) करना इस समय सही प्रतीत हो रहा है क्योंकि इस शिक्षा प्रणाली को लागू हुए काफी समय हो चुका है।शिक्षा का मूल उद्देश्य छात्र-छात्राओं के सर्वांगीण विकास के लिए उसके विभिन्न पक्षों का विकास करने की प्रक्रिया है।यह छात्र-छात्राओं के अज्ञान को दूर करके पशु से मानव बनाती है।उन्हें आत्मनिर्भर बनाती है और समाज व देश के प्रति कर्त्तव्य का भाव जाग्रत करती है।
  • परंतु वर्तमान शिक्षा प्रणाली के इन उद्देश्यों की पूर्ति होती दिखाई नहीं दे रही है।इस शिक्षा प्रणाली में छात्र-छात्रा उच्छृंखल,अनुशासनहीन,उद्दण्ड,संस्कारविहीन तथा राजनीति से प्रेरित होते जा रहे हैं।
  • प्राचीन काल में भारत शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र में विश्व गुरु रहा है अतः पुन: यह दर्जा प्राप्त करने के लिए हमें शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा।हमें शिक्षा प्रणाली को संस्कारयुक्त,संस्कृति व सभ्यता एवं रोजगारोन्मुखी,मनोवैज्ञानिक,समाजशास्त्रीय नियमों पर आश्रित नैतिकता से समन्वित,व्यावहारिक,जीवनोपयोगी,श्रमोन्मुखी तथा राजनीति से निरपेक्ष बनाना होगा।
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2.भारतीय शिक्षा प्रणाली की वर्तमान स्थिति (Current Status of Indian Education System):

  • हालांकि इस शिक्षा प्रणाली के माध्यम से अनेकों विद्वान एवं राष्ट्रीय चरित्र के राष्ट्रपुरुष इस देश ने पैदा किए थे तथा अब भी कई महापुरुष पैदा हुए हैं।परंतु इसका श्रेय वर्तमान शिक्षा प्रणाली को देना गलत होगा।हमारे घर,परिवार व समाज तथा विभिन्न धार्मिक व आध्यात्मिक संगठन भी सभ्यता,संस्कृति,धर्म,नीति,सदाचार,राष्ट्रभक्ति इत्यादि से संबंधित शिक्षा बालक-बालिकाओं को प्रदान करते हैं।जिन बालक-बालिकाओं को ऐसा वातावरण नहीं मिलता है वे वर्तमान शिक्षा प्रणाली में पढ़कर अनुशासनहीन तथा कर्त्तव्यविमुख ही देखे जाते हैं।
  • वर्तमान शिक्षा प्रणाली लार्ड मेकाले द्वारा लागू की गई है।लंबे समय तक यह शिक्षा प्रणाली लागू होने के कारण एलीट वर्ग पैदा हो गया है जो अंग्रेजी माध्यम को शिक्षा का माध्यम बनाए रखने का पक्षधर है।
  • वर्तमान भौतिकता से युक्त,भोगवादी संस्कृति का प्रयोग,प्रचार एवं प्रसार में भारत के राजनीतिज्ञों का भी योगदान है जो वोट प्राप्त करने की दृष्टि से सही परिप्रेक्ष्य में शिक्षा में आवश्यक सुधार करने को इच्छुक नहीं है।
  • जितने भी शिक्षा आयोग शिक्षा में सुधार हेतु बने उनमें विदेशी विद्वानों अथवा पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित विद्वानों की भरमार थी,अत: उनके सुझाव विदेशों की स्थिति एवं शिक्षा से प्रभावित थे और उन सुझावों का इन आयोगों के प्रतिवेदन में शामिल कर लिया गया जिससे देश को कोई विशेष लाभ नहीं हुआ।
  • एक कारण यह भी है कि कहीं शिक्षा के नवीन प्रयोगों में लगकर हम पिछड़ न जाएं,सामान्य परिवर्तन तो कर दिए जाते हैं किंतु आवश्यक परिवर्तन नहीं किए जाते हैं।हम देश के भौतिक विकास की ओर अधिक उन्मुख है,मानव विकास की ओर उदासीन है।
  • मानव उत्थान शिक्षा से होता है और उसी से मानवीय मूल्यों की स्थापना होती है।यह वर्तमान शासक वर्ग के हित में नहीं है इसी कारण भारतीय सभ्यता व संस्कृति की अनदेखी की जा रही है।
  • आजादी मिलने के बाद हमारे राष्ट्रीय चरित्र का जिस तेजी से अवमूल्यन हुआ,उसने भारतीय समाज को छिन्न-भिन्न कर डाला है।शताब्दियों की साधना से पूर्वजों ने जो गलत-सही मूल्य निर्मित किए थे।पर देश के लिए हमारे पास कौनसे नैतिक मूल्य हैं?
  • समाज में जो अराजक स्थिति है,उसे मूल्यहीनता के संदर्भ में देखना होगा।हमारे शिक्षा संस्थान से निकले नवयुवक तोड़फोड़,मारपीट और गाली-गलौज की जिंदगी से गुजर रहे हैं।यह गहरी चिंता का कारण इसलिए है कि भारतीय समाज का भविष्य बन-बिगड़ रहा है।
  • यह आशा कि हमारे विश्वविद्यालय और कॉलेज भारतीय समाज का सांस्कृतिक-बौद्धिक नेतृत्व करेंगे,पर यहाँ तो जैसे संपूर्ण संस्कृतिहीनता की स्थिति है।विद्यार्थी और अध्यापक के टूटते-बिखरते सम्बन्धों में हम इसे देख सकते हैं।पहले ये संबंध पिता-पुत्र के से माने गए थे।पुराने आश्रमों में गुरुपत्नी मां के स्थान पर बिराजती थी और गुरु की अहम भूमिका थी।
  • लेकिन आज स्थिति सर्वथा भिन्न है और इसका दोष हमें अपने मत्थे लेना ही होगा।आधुनिक शिक्षा केंद्रों में गुरु की स्थिति यह है कि छात्र को यदि उसने सिगरेट पीते देखा तो बजाय मना करने के उसकी ओर हाथ बढ़ा देता है।अरे भाई,आज मैं अपना सिगरेट-केस घर ही छोड़ आया,जरा एक ओर निकालना तो,यह आम बात हो गई है।
  • यदि हमें भारतीय समाज की वर्तमान स्थिति में शिक्षा में नैतिक मूल्यों और सांस्कृतिक अवमूल्यन के प्रश्न पर विचार करना है तो सबसे पहले इसकी जड़ में जाना होगा कि ऐसा क्यों हुआ?
  • वस्तुतः लॉर्ड मैकाले ने जब यहाँ की शिक्षा-प्रणाली में परिवर्तन की बात सोची तो इसका प्रमुख माध्यम भाषा को बनाया और उसी के बनाए ढंग-ढर्रे पर आज भी हम चल रहे हैं।और जब कोई विदेशी भाषा शिक्षण का माध्यम रहेगी,तब तक हम राष्ट्रीय अस्मिता,सांस्कृतिक चेतना और नैतिक मूल्यों का विकास नहीं कर पाएंगे।
  • भारत में जब अंग्रेजों का राज्य स्थापित हुआ और जब उन्होंने अपने देश की व्यवस्था यहाँ स्थापित की, तो अपनी भाषा के माध्यम से ही उनका दबदबा स्थापित हुआ।जब तक वे सिर्फ व्यापारी थे,तब तक तो वे यहां की भाषा सीखते रहें।लेकिन ज्योंही वे यहां के राजा बने,उन्होंने अंग्रेजी को सरकारी कामकाज की भाषा बनाया और उसी को शिक्षा का माध्यम भी।असल में,ऐसा करने में उनका मूल उद्देश्य शिक्षा का विस्तार करना और पश्चिमी विद्या-विज्ञान से भारत का परिचय कराना नहीं बल्कि भारतीय भाषा और संस्कृति को पद्दलित करके अपना वर्चस्व स्थापित करना था।
  • कुछ लोगों ने बड़े परिश्रम से अंग्रेजी पढ़ी,जिसके कारण राज्य में उन्हें ऊँचे पद मिले।वे भी राजपुरुषों की हैसियत से उसी वर्ग में जा मिले।अंग्रेजी भाषा के साथ-साथ अनेक भारतीयों के मनोभावों से भी अंग्रेजियत आने लगी।अंग्रेजी पढ़े लोगों के रहन-सहन,बोलचाल सबमें अलगाव पैदा होता गया जिससे एक नए किस्म का वर्ग (एलीट वर्ग) खड़ा हो गया,जो भारतीय होते हुए भी भारतीयता से दूर था।
  • यहाँ अंग्रेजी भाषा की आलोचना का मंतव्य नहीं है।साहित्य की दृष्टि से और ज्ञान-विज्ञान की खिड़की के रूप में भारतीय समाज को बहुमुखी बनाने में उसका बड़ा योगदान रहा है।लेकिन उसके साथ ही भारतीयता को समाप्त करने की दिशा में भी अंग्रेजी का बहुत बड़ा हाथ रहा है।और आज नैतिक मूल्यों के जिस ह्रास तथा सांस्कृतिक चेतना के लोप से हम चिंतित हैं,उसकी जड़ में हमारी तीन सौ साल की अंग्रेजों की गुलामी है,जिसका संस्कार मिटाए नहीं मिटता।

3.भारतीय शिक्षा पद्धति पर अंग्रेजी का प्रभाव (Impact of English on Indian Education System):

  • भारतीय शिक्षा पद्धति के सबसे बड़े विनाशक के रूप में यदि कोई चीज ध्यान में आती है तो वह है अंग्रेजी माध्यम वाले मिशन स्कूलों की स्थापना।आज हर गली व मोहल्ले,गांव,शहर में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की संख्या बढ़ती जा रही है।यह ठीक है कि उन स्कूलों में अनुशासन,सफाई,चाकचिक्य और तड़क-भड़क है; लेकिन भारतीयता उनमें लेशमात्र भी नहीं है।न तो हमारी संस्कृति है और न हमारा संस्कार है।बच्चे के जीवन की नींव इन प्रारंभिक शिक्षणालयों में पड़ती है और वे शिक्षणालय एक अलग प्रकार का संस्कार बच्चों में पैदा करते हैं,जो आम भारतीय के संस्कारों से बिल्कुल भिन्न है।अंग्रेजी प्रधान शिक्षा प्रणाली के कारण समाज में इन स्कूलों में पढ़े लोगों की पूछ बढ़ती गयी,वे समाज पर छाते चले गए।
  • परिणाम यह है कि आज वैचारिक और सामाजिक रुप से भारत दो खेमों में बँट गया है।एक अंग्रेजियत की आबोहवा में पढ़े-लिखे बच्चों का,जो संभ्रांत या मध्यवित्त परिवारों से आते हैं तथा दूसरा गांवों,कस्बों और शहरों के हिंदी माध्यम या सरकारी विद्यालयों,पाठशालाओं,स्कूल-कॉलेजों में पढ़े बच्चों का,जो अपनी मिट्टी से जुड़े हुए हैं और उसी में अपनी अहमियत समझते हैं।जहाँ अंग्रेजी में शिक्षा पाये बच्चे सरकार और निजी उद्योग में बड़े-बड़े पदों के हकदार हैं,वहीं स्वभाषा के माध्यम से पढ़े सामान्य जनों के बच्चे चपरासीगिरी या क्लर्की के लिए भी तरसते रहते हैं।आज की स्थिति पर विचार करते हुए इस पहलू को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
  • आज शिक्षा में संस्कार का अंश कम है,रोजी-रोटी की लालसा ही मुख्य है।न तो आज के अभिभावकों में वास्तविक शिक्षा के लिए आदरभाव है,न शिक्षकों में अध्यापन की प्रवृत्ति और न विद्यार्थियों में बलवती साधना।अगर कुछ है तो डिग्री की लिप्सा और डिग्री के माध्यम से ऐसी कुर्सी पाने की आकांक्षा जिस पर बैठकर सब पर रोब गाँठ सके;आसानी से धन पैदा कर सके और समाज में वर्चस्व स्थापित कर सकें।
  • आजादी के बाद देश में कई शिक्षा-आयोगों का गठन हुआ,जिनके अच्छे-भले सुझाव सरकार को पेश किए गए लेकिन वे व्यावहारिक कम थे,कागजी अधिक।क्यों? इसलिए कि शिक्षा को संस्कारोन्मुख बनाने की ओर किसी ने गंभीरता से ध्यान नहीं दिया,उसे रोजगारोन्मुख बनाने की अपील हर किसी ने की।सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन,डाॅ. मुदलियार,डाॅ. कोठारी सबने भारी-भरकम रिपोर्टें अवश्य दी।लेकिन उनमें किसी ने भी गांव की गलियों में चल रही उन प्राथमिक पाठशालाओं को जाकर नहीं देखा,जहाँ गुरुजी कुर्सी पर बैठे ऊंघ रहे हैं और बच्चा उनके पांव दबा रहा है या पंखा झल रहा है।बच्चे की आंख में कीच भरी हुई है,पाजामें का नारा टूट चुका जिसे किसी तरह खोंसकर रोके हुए है और जोर-जोर से चिल्लाकर रट रहा है क से कौआ,ख से खरहा,ग से गधा।
  • वस्तुतः आज प्रारंभिक शिक्षा का वर्णक्रम ही गलत है।क से कमल या क से कौआ पढ़ाना अब कोई मायने नहीं रखता।क से कमाओ और ख से खाओ,यही आज शिक्षा को सही रूप में प्रकट करता है।
  • शिक्षा नीति को सुधार के नाम पर परीक्षणों का शिकार बनाया जाता रहा।परिणाम यह हुआ कि शिक्षा-सुधार कभी मैट्रिक,कभी प्लस टु,कभी फॉर्मल,कभी इनफॉर्मल के बीच रस्साकशी का विषय अधिक बनता गया।शिक्षा अपने असली उद्देश्य से दूर ही दूर हटती चली गई।

4.शिक्षा के स्तर में सुधार के उपाय (Measures to Improve the Level of Education):

  • शिक्षा प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जिसमें बालकों को भौतिक शिक्षा के साथ-साथ सभ्यता,संस्कृति,नैतिक,सदाचरण,आत्मनिर्भर बनाने की पहल हो।जो छात्र-छात्राओं को अपनी सहायता स्वयं करने की भावना पैदा करे।शिक्षा प्रणाली केवल साक्षरता,डिग्री और उच्च शिक्षा का प्रमाण पत्र देने वाली न हो बल्कि व्यावहारिक,जीवनोपयोगी व व्यावसायिक शिक्षा पर भी ध्यान देना चाहिए।आज हमें ऐसी शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता है जो छात्र-छात्राओं में श्रम के प्रति निष्ठा जागृत कर सके तभी हमारे युवक-युवतियाँ आत्मनिर्भरता की ओर आगे बढ़ सकेंगे।शिक्षा प्रणाली में अंग्रेजी के बजाय मातृभाषा हिंदी को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।मातृभाषा में बच्चा सहज और सरलता से शिक्षा अर्जित कर सकता है।
  • शिक्षकों पर राजनीतिक दाब-दबाव समाप्त करने के लिए राजनीतिक हस्तक्षेप बन्द किया जाना चाहिए ताकि शिक्षक पूर्ण निष्ठा के साथ अपने दायित्वों का पालन कर सकें।शिक्षा विभाग विशुद्ध रूप से शिक्षाविदों के हाथ में हो,राजनीतिज्ञों के हाथ में नहीं।
  • शिक्षा प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जो छात्र-छात्राओं को अपने राष्ट्र और अपने क्षेत्र की समस्याओं के प्रति जागरूक कर सके और उनमें देश प्रेम की भावना का विकास हो सके।
  • वस्तुतः शिक्षा प्रणाली कितनी ही अच्छी हो परंतु उसे जीवन्त और सक्रिय करने का कार्य शिक्षक,शिक्षा संस्थानों के संचालकों,माता-पिता,अभिभावक,समाज के वरिष्ठ जनों पर निर्भर करता है।
  • वर्तमान में धन को इतना महत्त्व दिया जा रहा है कि माता-पिता दोनों कोई न कोई व्यवसाय करते हैं जिससे बच्चों को घर पर अध्ययन का वातावरण उपलब्ध नहीं होता है।माता-पिता का सर्वोपरि कर्त्तव्य है कि अपने पुत्र-पुत्रियों को योग्य बनाने तथा उसके लिए जो उचित कार्य करना हो,उसे करें।धनोपार्जन में इतना व्यस्त होने की जरूरत नहीं है कि बच्चों को समय ही नहीं दिया जाए।
  • शिक्षकों को अपना दायित्व पूर्ण निष्ठा व लगन के साथ निभाना चाहिए।उन्हें अपने व्यवसाय के प्रति पूर्ण निष्ठा एवं गर्व होना चाहिए।ऐसा प्रतीत नहीं होना चाहिए कि उन्होंने शिक्षण व्यवसाय मजबूरी में चुना हो।बालकों को ठोस जीवन की वास्तविकताओं को बताना चाहिए एवं सामना करना सिखाना चाहिए न कि सुहावने,लुभावने,दिखावटी नारे सुनाना तथा रटना सिखाया जाए।बालक को कभी-कभी जीवन की वास्तविक परिस्थितियों के बीच में भी ले जाना चाहिए।ताकि बच्चों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास जिसमें सामाजिक,शारीरिक,भावनात्मक,बौद्धिक,नैतिक,भौतिक एवं आत्मिक विकास सम्मिलित है,किया जाना चाहिए।
  • बालकों को भी अपना आत्मिक विकास व उन्नति की तरफ ध्यान देना चाहिए।अपने चरित्र का निर्माण इस प्रकार करे कि समाज व संस्कृति की रक्षा करते हुए जीविकोपार्जन करें एवं अपने आपको वातावरण के अनुकूल बनाने की योग्यता प्राप्त कर जीवन को पूर्णता प्रदान करें।जब बालक का सर्वांगीण विकास हो जाएगा तो वह हर प्रकार के भेदभाव से ऊपर उठकर सच्चे नागरिक के रूप में निरन्तर जुटा रहेगा जिससे बालक का स्वयं का,समाज व देश का कल्याण एवं प्रगति हो सकेगी।
  • शिक्षा गतिशील तथा परिवर्तनशील है।अतः उसके उद्देश्य भी परिवर्तित होते रहते हैं।यह आवश्यक भी है कि देश व काल के अनुसार उद्देश्य परिवर्तित होते रहें तभी वे व्यक्ति,समाज व देश को गतिशील बनाकर उन्नति की ओर ले जा सकते हैं अर्थात् शिक्षा बहुआयामी है।परंतु वर्तमान भारतीय शिक्षा व्यवस्था को देखकर ऐसा लगता ही नहीं है कि शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति हुई है।अपवादस्वरूप मामलों को छोड़ दिया जाए तो आज पढ़े-लिखे युवा तथा डिग्रीधारी युवा को देखकर ऐसा लगता ही नहीं है कि उनमें शिक्षा के किसी उद्देश्य की पूर्ति हुई है।अतः शिक्षा प्रणाली को व्यापक रूप से सरकारों,शिक्षाविदों तथा हमें आत्ममंथन करके इसमें सुधार किया जाए जिससे सच्चे अर्थों में लोकतांत्रिक भारत व भारत के नागरिकों का विकास हो सके।
  • साथ ही यह भी ध्यान रखा जाए कि तकनीकी विकास इतनी तेज गति से हो रहा है कि विश्व के अन्य देशों से तालमेल बिठाने के लिए उन जैसा ज्ञान भण्डार भी बालकों को सीखने के लिए मिल सके।

5.वर्तमान शिक्षा प्राप्त युवक का दृष्टांत (The Parable of the Presently Educated Youth):

  • एक युवक से शिक्षक ने पूछा कि आजकल क्या कर रहे हो? युवक ने उत्तर दिया कि एमएससी कर ली है,अब पीएचडी करने का विचार है और मैनेजमेंट से कोर्स करने का भी विचार है।शिक्षक ने कहा कि कोई काम धंधा क्यों नहीं कर रहे हो? युवक बोला कई कंपटीशन दिए परंतु क्लर्क से लेकर आरएएस,आईएएस में किसी में नंबर नहीं आया।इसके अलावा मेरे लायक कोई काम धंधा मिल नहीं रहा है।
  • यह हाल है हमारी शिक्षा प्रणाली से प्राप्त शिक्षित युवकों का।इस शिक्षा प्रणाली ने देश में बेरोजगारों की फौज खड़ी कर दी है।नौकरी कुछ गिने-चुने युवकों को ही मिल सकती है।डिग्री प्राप्त युवाओं से माता-पिता झूठी और बड़ी-बड़ी आशाएं लगाए बैठे हैं।
  • 75 साल में सरकार ने शिक्षा प्रणाली में ऐसा कोई खास बदलाव नहीं किया जिससे बेरोजगारों की यह फौज खड़ी होने से रोक सके।
  • न शिक्षा प्रणाली में ऐसी नैतिक,सदाचार,संस्कृति,धर्म,अध्यात्म से संबंधित बातें शामिल की है जिससे बच्चों को संस्कार मिल सके।जिससे वे किसी भी काम को छोटा-मोटा,घटिया-बड़िया समझें।
  • सिर्फ पढ़े-लिखे युवकों को दोष देने से इसका समाधान नहीं निकल सकता है।बल्कि सरकार,समाज के वरिष्ठजन,माता-पिता,अभिभावक व छात्र-छात्राओं को सम्मिलित रूप से प्रयास करना होगा तभी नवयुवकों का भविष्य संवर सकता है।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में भारतीय शिक्षा प्रणाली की समालोचना (Criticism of Indian Education System),भारतीय शिक्षा प्रणाली के दोष और समाधान (Defects and Solution of Indian Education System) के बारे में बताया गया है।

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6.गणित अध्यापक की फीस (हास्य-व्यंग्य) (Mathematics Teacher’s Fees) (Humour-Satire):

  • छात्र (गणित शिक्षक से):मुझे गणित इस तरह से पढ़ा दीजिए जिससे मैं गणित में मेधावी हो जाऊं।
  • गणित अध्यापक:ये नोट्स लीजिए लेकिन इनको देखना घर पर ही,वर्ना मेधावी तो मेरी फीस सुनकर ही हो जाओगे।

7.भारतीय शिक्षा प्रणाली की समालोचना (Frequently Asked Questions Related to Criticism of Indian Education System),भारतीय शिक्षा प्रणाली के दोष और समाधान (Defects and Solution of Indian Education System) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.भारतीय शिक्षा में गिरावट क्यों हुई? (Why Has Indian Education Declined?):

उत्तर:धर्म,अध्यात्म को भौतिक विकास से अधिक महत्त्व देने के कारण असंतुलन पैदा हो गया।इसके कारण भारत का आर्थिक विकास कम होता गया।शिक्षा में जो गतिशीलता एवं निरन्तरता थी उसमें ठहराव आ गया।विचारों की स्वतंत्रता खत्म होने लगी।ग्रंथों में जो लिखा हुआ था उसी को अंतिम सत्य मान लिया गया जिससे नवीन चिंतन,नई दृष्टि और निरंतर खोज करते रहने का सिद्धांत भुला दिया गया।पुराने सिद्धांतों को बस रट लेने की प्रवृत्ति को कर्त्तव्य मान लिया गया।शूद्रों पर अत्याचार और स्त्री शिक्षा का लोप हो गया।कर्मकांड को महत्त्व दिया जाने लगा जिसके कारण भारतीय शिक्षा में गिरावट होती गई।

प्रश्न:2.सुख-सुविधाओं तथा तकनीकी विकास के बावजूद बच्चों का उचित विकास क्यों नहीं हो रहा है? (Why is the Proper Development of Children Not Happening in Spite of all the Amenities and Technological Development?):

उत्तर:वर्तमान शिक्षा प्रणाली परीक्षा केंद्रित है अतः शिक्षक,माता-पिता,अभिभावकों का एक ही लक्ष्य रहता है कि परीक्षा में अव्वल आना है।इस प्रतिस्पर्धा में चारित्रिक विकास गौण हो जाता है।विद्यार्थियों के मानसिक चिंतन का विकास करने के बजाय रटने पर जोर दिया जाता है।अतः पाठ्यक्रम,पुस्तकें,गाइडें सभी परीक्षा केन्द्रित हो गई हैं जिससे विद्यार्थियों के विकास पर घातक प्रभाव पड़ा है।ज्योंही परीक्षा निकट आती है विद्यार्थियों को रात-दिन पाठ्यपुस्तकें,नोट्स व गाइडों का पाठ करना,उनको रटना शुरू करा दिया जाता है।अतः उनका शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हो पाता है।

प्रश्न:3.शिक्षण संस्थाओं को बच्चों की शिक्षा में क्या योगदान करना चाहिए? (What Contribution Should Educational Institutions Make in the Education of children?):

उत्तर:शिक्षा संस्थाओं का काम यह होना चाहिए कि वे छात्र-छात्राओं में छिपी शक्ति को जगाएँ और उस शक्ति के पूर्ण उपयोग के लिए वातावरण तैयार करें।शिक्षा को कक्षाओं की सीमित परिधि से निकालकर सामाजिक परिवर्तन की दिशा में लगाया जाना चाहिए।साथ ही बच्चे अपने भार से अधिक भार के बस्ते को लेकर चलें,इस व्यवस्था को समाप्त करना चाहिए।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा भारतीय शिक्षा प्रणाली की समालोचना (Criticism of Indian Education System),भारतीय शिक्षा प्रणाली के दोष और समाधान (Defects and Solution of Indian Education System) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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