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How is Knowledge and Wisdom True Guide?

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1.ज्ञान और विवेक सच्चा मार्गदर्शक कैसे हैं? (How is Knowledge and Wisdom True Guide?),ज्ञान और विवेक की साधना करने की 6 टिप्स (6 Tips for Practicing Knowledge and Wisdom):

  • ज्ञान और विवेक सच्चा मार्गदर्शक कैसे हैं? (How is Knowledge and Wisdom True Guide?) क्योंकि ज्ञान के बिना हम अज्ञान के अंधकार में रहते हैं।ज्ञान से ही हमें सही और सच्चा मार्ग दिखाई देता है।इस संसार में श्रेष्ठ अनेक वस्तुएं हैं।एक से एक उत्तम पदार्थ विद्यमान हैं,पर सबसे श्रेष्ठ,सबसे महत्त्वपूर्ण,सबसे पवित्र यदि कोई वस्तु है,तो वह ‘ज्ञान’ है।ज्ञान की विशेषता ही नर-पशु को नर-नारायण की स्थिति में पहुंचाने में समर्थ होती है।
  • यह मंगलमय ज्ञान किसी की कृपा से मिलता हो,सो बात भी नहीं।थोड़ी-सी रुचि और प्रयत्नशीलता होने से ही ज्ञान-वृद्धि का मार्ग प्रशस्त हो जाता है और गई-गुजरी परिस्थितियों में पड़ा हुआ व्यक्ति ज्ञान-संपदा से संपन्न होने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ने लगता है।
  • वास्तविक निर्धनता ज्ञान की कमी ही मानी जाती है।रोटी की कमी सामयिक निर्धनता है,बुद्धिमान रोटी की समस्या हल कर लेता है,पर यदि रोटी का ही बाहुल्य रहे और ज्ञान की कमी बनी रहे,तो इस स्थिति में शांतिपूर्वक उन रोटियों को खा सकना भी संभव न होगा।अस्तु अन्य कठिनाइयाँ उठाकर भी हमें अपने ज्ञान में वृद्धि के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
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2.लक्ष्य प्राप्ति में मुख्य बाधा अज्ञान (Ignorance is the Main Obstacle in Achieving the Goal):

  • हमारे जीवन का निश्चित उद्देश्य है तथा हमें इस उद्देश्य को अवश्य पाना है,किंतु विचारणीय है कि दूसरे इसमें कहां तक हमारी सहायता कर सकते हैं? शास्त्र या महापुरुष इसमें हमारी सहायता तो कर सकते हैं,किंतु यदि हमारे पास नेत्र न हों,तो क्या कोई हमें प्रकाश के बारे में बता सकता है? कदापि नहीं।हमें स्वतः ज्ञान की अनुभूति करनी पड़ेगी तथा इसके लिए विवेक की नितांत आवश्यकता है।
  • तमोगुण का स्वरूप है:अज्ञान,उसका स्वभाव है-आलस्य और बुद्धि की मूढ़ता।जब वह बढ़कर सत्वगुण और रजोगुण को दबा लेता है,तब प्राणी तरह-तरह की आशाएं करता है,शोक-मोह में पड़ जाता है,हिंसा करने लगता है अथवा निद्रा-आलस्य के वशीभूत होकर पड़ा रहता है।
  • यदि एक ही शब्द में कहा जाए तो अज्ञान ही है वह प्रधान बाधा,जिसके कारण हम अपने लक्ष्य की ओर नहीं बढ़ पाते।यह एक ही है हमारा शत्रु।अज्ञान के सिवा अन्य कोई शत्रु नहीं है।यदि हमने इस पर विजय पा ली,तो हमारे अंतःकरण में ज्ञान का प्रकाश आलोकित हो उठेगा।
  • जो ज्ञान और विज्ञान से संपन्न सिद्ध पुरुष हैं,वे ही अपने आत्मिक स्वरूप को जानते हैं।स्पष्ट है कि ज्ञान-दृष्टि के अभाव में हम आत्मप्रकाश का अनुभव नहीं कर सकते।
  • ज्ञान ही है सच्चा तीर्थ तथा उसी में अपने अंतःकरण को स्नान कराकर हम अज्ञान से मुक्त हो सकते हैं।यदि यह रहस्य हमारी समझ में आ गया होता,तो हमने समस्या के समाधान का प्रयास किया होता।तब हमने छुटपुट पूजा-पाठ या किसी नदी,सरोवर में डुबकी लगा लेने मात्र से अपने कर्त्तव्य की इतिश्री न समझी होती,किंतु अज्ञान जब सिर पर चढ़ जाता है,तो उल्टी बात भी सीधी लगती है।
  • आध्यात्मिक क्षेत्र में भी अज्ञान हमें जगह-जगह भटकाता रहता है तथा जीवन के अंत में हम पाते हैं कि हम जहाँ के तहाँ बने हुए हैं तथा यह स्वप्न लेकर संसार से विदा होते हैं कि इस लोक में न सही परलोक में तो हमें सुख-शांति मिलेगी ही,किंतु जो इस लोक को ही नहीं सुधार सका,वह परलोक में क्या कर लेगा? हमारा शत्रु अज्ञान तो हमारे पीछे ही लगा रहता है।
  • जब हम अज्ञान से मोहित होते हैं तो संसार-चक्र में भटकते रहते हैं तथा सदा-सर्वदा सर्वत्र सुख और दुःख भोगते रहते हैं।यह है अज्ञान की करतूत।हम जहां भी जाते हैं,अज्ञान हमारे पीछे ही लगा रहता है।इस पृथ्वी पर अनेक महापुरुष और महामानव जन्म ले चुके हैं,किंतु अपने अज्ञान के कारण हम उनका जरा भी लाभ नहीं उठा पाते।जब अज्ञान से छूटे बिना कोई मार्ग ही नहीं है,तो हमें इससे छुटकारा पाना ही होगा,किंतु अज्ञान के विरुद्ध युद्ध करने से पूर्व हमें उसका स्वरूप समझ लेना चाहिए,जिससे हम अपने बैरी को पूर्णतः समाप्त कर सकें।उच्च आदर्शो को छोड़कर छोटे स्वार्थों की ओर दौड़ पड़ना अज्ञान है।यह अज्ञानवश समझदारी जैसा लगता है परंतु होती उससे हानि ही है।प्रश्न उठता है कि मनुष्य ऐसा करता क्यों है? उसका कारण है:विवेक का अभाव।

3.ज्ञान के द्वारा अज्ञान का निवारण (Removal of Ignorance Through Knowledge):

  • विवेक न होने से विषय भोगों के आकर्षण से मनुष्य चकाचौंध हो जाता है तथा अपनी वास्तविक हानि-लाभ का निर्णय नहीं कर पाता।इस अनर्थकारी आकर्षण से विवेक ही रक्षा कर सकता है।भगवान ने मनुष्य को प्रचुर समर्थ साधन देकर भेजा है।वह उन साधनों का ठीक प्रयोग करके दिखा दे तो उसे अनंत शांति का अधिकारी मान लिया जाता है।काम,क्रोध आदि शत्रु मनुष्य की परीक्षा के लिए हैं।उन्हें प्राप्त करने के सारे साधन मनुष्य की परीक्षा के लिए हैं।उन्हें परास्त करने के सारे साधन मनुष्य के पास होते हैं,किंतु अज्ञानवश संशय में पड़कर क्या करूं,क्या न करूं,इस उलझन में ही वह फँस जाता है और साधन का उपयोग नहीं कर पाता।संशय रूपी उलझनों के ताने-बाने ज्ञान की तलवार से ही काटे जा सकते हैं।
  • इस मनुष्य शरीर को रथ की उपमा दी है।इसमें इंद्रियाँ-घोड़े,मन-लगाम,बुद्धि-सारथी तथा आत्मा रथी है।जिस तरह कहीं जाने के लिए हम रथ पर सवार होते हैं,उसी तरह आत्मा को परमात्मा तक पहुंचाने के लिए यह शरीर रूपी रथ मिला हुआ है,किंतु जिस तरह रथी के प्रमाद के कारण सारथी और घोड़े मनमानी करने लगते हैं,उसी तरह हमारे प्रमाद के कारण हमारा जीवन रथ भी गलत मार्ग पर जा रहा है।
  • हमें याद रखना चाहिए कि एक निश्चित अवधि के लिए ही हमें यह शरीर रूपी रथ उपलब्ध हुआ है।समय बीतता जा रहा है,अतः हमारी बुद्धिमानी इसी में है कि जितनी शीघ्र हो सके,हम अपनी यात्रा समाप्त कर लें।यदि सारा जीवन रथ की साज सँभाल में ही बीत गया,तो यात्री और उसकी यात्रा का क्या होगा?
  • हमें अपने स्वरूप को समझकर अपने सिंहासन पर बैठना चाहिए।फिर हम देखेंगे कि जिस तरह राजा के सामने कोई भी कर्मचारी अपराध करने की हिम्मत नहीं कर सकता,उसी तरह आत्मबोध होते ही हमारी बुद्धि,मन और इंद्रियाँ भी किस तरह हमारे बैरी न रहकर सहायक बन जाते हैं।
  • यदि हम ऐसा न कर सके,तो परिणाम स्पष्ट है।नहीं तो तनिक भी प्रमाद हो जाने पर यह इंद्रिय रूपी दुष्ट घोड़े और उनसे मित्रता रखने वाला बुद्धि रूपी सारथी रथ के स्वामी हमें (जीव) उल्टे रास्ते पर ले जाकर विषय रूपी लुटेरों के हाथ में डाल देंगे।वे डाकू सारथी और घोड़ों के सहित इस जीव को मृत्यु से अत्यंत भयावने और अंधकारमय संसार के कुएं में गिरा देंगे।
  • वास्तव में ज्ञान आत्मा की सजकता का प्रतीक है।इंद्रियां,मन आदि आत्मा को असावधान पाकर मनमानी करने लगते हैं।जिस तरह मालिक के अनुपस्थित रहने पर हर नौकर अपने आपको मालिक बताने लगता है,उसी तरह आत्मा के सोए रहने पर इस शरीर रूपी घर के अनेक मालिक बन जाते हैं।
  • यह शरीर आत्मा को अपना लक्ष्य पूरा करने के लिए मिला है,मन और इंद्रियों की वासना पूर्ति के लिए नहीं।हमें अपने उद्देश्य को समझकर अपना उचित स्थान ग्रहण करना चाहिए।नहीं तो हमारी सारी उपलब्धियां बेकार चली जाएँगी।यह विवेक हमें सदैव जागृत रखना चाहिए।विवेक को कुंठित करने वाले दोषों से बचकर चलना चाहिए।
  • विद्या,तप,धन,सुदृढ शरीर,युवावस्था और उच्च-कुल,ये छः पुरुषों के तो गुण हैं,परंतु नीच पुरुषों में ये ही अवगुण हो जाते हैं क्योंकि इससे उनका अभिमान बढ़ जाता है और दृष्टि दोषयुक्त हो जाती है एवं विवेक शक्ति नष्ट हो जाती है।
  • नीच पुरुष की सारी विशेषताएं उसके पतन का कारण बनती है।जिस तरह सांप को दूध पिलाने से उसके जहर में वृद्धि होती है,उसी तरह नीच के गुण ही उसके अभिमान वृद्धि का कारण बनते हैं।नीच का अर्थ है:दूषित दृष्टिकोण वाला।
  • अतः दृष्टिकोण का महत्त्व सर्वोपरि है।हम क्या करते हैं,यह महत्त्वपूर्ण नहीं है,जितना हम किसलिए करते हैं?अतः हमें उपलब्धियां पाने से पहले दृष्टिकोण को परिमार्जित करना चाहिए।इसी का अर्थ है-विवेकी बनना।यद्यपि यह मार्ग कठिनाइयों से भरा हुआ है,किंतु यदि हम ईमानदारी और सतर्कता के साथ चित्त वृत्तियों का निरीक्षण करते रहें,तो एक न एक दिन अपने लक्ष्य को अवश्य पा लेंगे।
  • संसार में ऐसे उतार-चढ़ाव हर व्यक्ति के जीवन में आते हैं,जब बुद्धि लड़खड़ाने लगती है,किंतु विवेक संपन्न व्यक्ति सावधानी से उस समय भी मार्ग बना ही लेता है।यद्यपि विवेकी पुरुष का चित्त भी कभी-कभी रजोगुण और तमोगुण के वेग से विक्षिप्त होता है तथापि उसकी विषयों में दोष दृष्टि बनी रहती है,इसलिए वह बड़ी सावधानी से अपने चित्त को एकाग्र करने की चेष्टा करता रहता है।जिससे उसकी विषयों में आसक्ति नहीं होती।
  • हमारे चित्त पर अनेक जन्मों के बुरे संस्कार जमे रहते हैं। अतः हमारी चित्त वृत्तियाँ बार-बार विषयों की ओर आकर्षित होंगी ही।हमें उन्हें रोककर लक्ष्य की ओर केंद्रित करना चाहिए।इसी का नाम है-साधना तथा इसमें विवेक के सिवा कोई हमारा साथी नहीं है।इसी तरह से हम अपने लक्ष्य को पा सकते हैं।

4.विवेक ही हमारा सच्चा मार्गदर्शक (Conscience is Our True Guide):

  • शास्त्रों में अनेक स्थल है,जिनमें आपसी बहुत भारी मतभेद है।एक ग्रंथ में एक बात का समर्थन किया गया है,तो दूसरे में उसका विरोध है।इसी प्रकार ऋषियों,संतों,महापुरुषों,नेताओं के विचारों और आदर्शों में कभी-कभी असाधारण विरोध होता है।इन उलझनों में साधारण व्यक्ति का मस्तिष्क भ्रमित हो जाता है।किस शास्त्र को,ऋषि को,महापुरुष को,नेता को वह गलत ठहराए,किसे सही ठहराए।सभी का अनुकरण नहीं हो सकता,क्योंकि विरोधी मतों का एक साथ मानना और उनका अनुसरण करना असंभव है।
  • किसी पुस्तक या व्यक्ति की अपेक्षा विवेक का महत्त्व अधिक है।इसलिए जो बात बुद्धिसंगत हो,विवेक सम्मत हो,अपनाने योग्य हो,उचित हो केवल उसी को ग्रहण करना चाहिए।
  • देश,काल और परिस्थिति का ध्यान रखकर समय-समय पर आचार्यों ने उपदेश किए हैं।इसलिए जो बात एक समय के लिए बहुत उपयोगी एवं आवश्यक थी,वह दूसरे समय में अनुचित अनावश्यक हो सकती है।जाड़े के दिनों में पहने जाने वाले गरम ऊनी कपड़े गर्मी में हानिकारक है,इसी प्रकार गर्मी की हल्की पोशाक को ही जाड़े के दिनों में पहने रहना निमोनिया को निमंत्रण देना है।अपने समय में जो पोशाक आवश्यक होती है,वही काल और परिस्थिति बदल जाने पर त्याज्य हो जाती है।
  • अग्नि का आविष्कार होने पर आदिकाल में मनुष्य इस देवी तत्त्व को पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ,उसने अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए अग्नि को घृत,मेवा,मिष्ठान्न,पकवान,सुगंधित वनस्पतियों का भोजन करने का विधान,यज्ञ आरंभ किया।समय के साथ उस यज्ञ व्यवस्था में विकार आया और गौ,अश्व,नर आदि का वध करके हवन किया जाने लगा।
  • इस विकृति को रोकने के लिए गौतम बुद्ध ने प्रयास किया।बाद में गौतम बुद्ध (बौद्ध धर्म में) में भी विकार आए और उनका शंकराचार्य को खंडन करना पड़ा।शंकर मतानुयायी भी धीरे-धीरे शुष्क वेदांती मात्र रह गए तब प्रेम और भावना को जागृत करने के लिए भक्ति मार्गी संतों ने वेदांत का विरोध करके भक्ति की ध्वजा फहराई।
  • भक्ति में अंधविश्वास आ गया,स्वामी दयानंद जी ने उसका भी खंडन किया।इस प्रकार देखते हैं कि एक आचार्य दूसरे का खंडन करता चला आ रहा है।जैसे एक समय का स्वादिष्ट भोजन कालांतर में विष्टा बन जाता है,वैसे ही एक समय की व्यवस्था कालांतर में जीर्ण-शीर्ण हो जाती है और उसका पुनरुद्धार करना पड़ता है।अपने-अपने समय का प्रत्येक शास्त्रकार सच्चा है,पर कालान्तर में उनमें सुधार होना अवश्यम्भावी है।
  • देश काल का ध्यान न रखते हुए,जब हम शास्त्रों को समकालीन मानकर चलते हैं तब उनमें विरोध दिखाई पड़ता है,किंतु काल भेद और परिस्थिति भेद को ध्यान में रखते हैं,तो सभी व्यवस्थाएं सही मालूम पड़ती हैं।
  • केवल विवेक ही हमें बता सकता है कि आज की स्थिति में क्या ग्राह्य है और क्या अग्राह्य है? यह हो सकता है कि अपरिष्कृत विवेक कुछ भूल कर जाए और उसका निर्णय पूर्णतया निर्दोष न हो फिर भी यदि निष्पक्ष विवेक को जागृत रखा जाए,तो बहुत शीघ्र ही वह भूल प्रतीत हो जाएगी और सच्चा मार्ग मिल जाएगा।यह डर की हमारा विवेक गलत होगा,तो गलत निर्णय पर पहुंच जाएंगे,उचित नहीं,क्योंकि विवेक के अतिरिक्त ओर कोई सत्यासत्य के निर्णय का है ही नहीं।यदि किसी शास्त्र,संप्रदाय,महापुरुष का मत का अनुकरण किया जाए,तो भी अनेक शास्त्रों,संप्रदायों,महापुरुषों में से एक को अपना पथ-प्रदर्शक चुनने का काम विवेक पर ही पड़ेगा।
  • विवेक का अनुगमन कभी भी हानिकारक नहीं होता,क्योंकि बुद्धि का पवित्र,निस्वार्थ,सात्विक भाग होने के कारण विवेक द्वारा वही निर्णय किया जाता रहेगा,जो आज हमारी मनोभूमि की अपेक्षा श्रेष्ठ हो।उसका अनुगमन करने से मनोभूमि दिन-दिन अधिक पवित्र एवं विकसित होती जाएगी,तदनुसार हमारा विवेक भी अधिक सूक्ष्म होता जाएगा।यह उभय पक्षीय उन्नति धीरे-धीरे आत्मबल को बढ़ाती चलेगी और क्रमशः हम सत्य के निकट पहुंचते जाएंगे।इसी मार्ग पर चलते-चलते एक दिन पूर्ण सत्य की प्राप्ति हो जाएगी।

5.ज्ञान और विवेक का दृष्टांत (An Example of Knowledge And Wisdom):

  • एक बार कुछ लोग एक अंधे को प्रकाश के बारे में समझाने का प्रयत्न कर रहे थे।उन्होंने अपनी सारी अक्ल खर्च कर डाली,किंतु वे असफल ही रहे।अंधा कह रहा था कि प्रकाश मेरे हाथ में थमा दो,मैं उसे टटोलकर ही उसके बारे में जान सकूंगा।अजीब उलझन थी।प्रकाश भी क्या कोई टटोलने की वस्तु है?
  • परेशान होकर वे उसे एक संत के पास ले गए और कहा-आप तो ज्ञानी है,इसे प्रकाश के बारे में समझा दीजिए।हम तो हार गए।संत ने कहा-तुम इसे गलत जगह ले आए हो।इसे किसी डाॅक्टर के पास ले जाओ।जब इसकी आंखें ठीक हो जाएंगी,तब यह अपने आप प्रकाश के बारे में समझ जाएगा।अंधे की चिकित्सा की गई।उसकी आंखें ठीक हो गई तथा वह प्रकाश को देखकर पुलकित हो उठा।
  • उसने संत से कहा-आपकी कृपा से मैं प्रकाश को देखने-समझने में समर्थ हुआ।संत ने कहा-इसमें मेरी क्या कृपा? प्रकाश तो था ही,आंखें न होने के कारण तुम उसे नहीं देख सकते थे।अब यह बाधा दूर हो गई,अतः तुम प्रकाश को देख,समझ सकते हो।
  • जिस तरह प्रकाश को जानने के लिए नेत्रों की आवश्यकता है,उसी तरह तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिए ज्ञान और विवेक की आवश्यकता है,जिसके बिना जीवन व्यर्थ है।मानव की मुख्य विशेषता पर शास्त्रों में कहा गया है कि 84 लाख शरीरों में मनुष्य शरीर ही तत्त्वज्ञान का आश्रय है।इसे छोड़कर अन्य योनियों में तत्त्वज्ञान नहीं हो सकता।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में ज्ञान और विवेक सच्चा मार्गदर्शक कैसे हैं? (How is Knowledge and Wisdom True Guide?),ज्ञान और विवेक की साधना करने की 6 टिप्स (6 Tips for Practicing Knowledge and Wisdom) के बारे में बताया गया है।

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6.गणित शिक्षक बनने का कारण (हास्य-व्यंग्य) (Reason to Become a Math Teacher) (Humour-Satire):

  • पिता:तुम बड़े होकर क्या बनोगे?
  • बेटा:गणित का शिक्षक।
  • पिता:गणित शिक्षक ही क्यों?
  • बेटा:पिताजी,क्योंकि जिस गति से गणित विषय का अन्य विषयों में संक्रमण बढ़ रहा है,उसे देखकर तो यही लगता है कि आने वाले समय में गणित पढ़ने वाले ही मिलेंगे।

7.ज्ञान और विवेक सच्चा मार्गदर्शक कैसे हैं? (Frequently Asked Questions Related to How is Knowledge and Wisdom True Guide?),ज्ञान और विवेक की साधना करने की 6 टिप्स (6 Tips for Practicing Knowledge and Wisdom) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.परंपराओं और रीति-रिवाज को अपनाने का निर्णय कैसे किया जाए? (How to Decide to Adopt Traditions and Customs?):

उत्तर:अनेक परंपराएं,प्रथाएं,रीति-रिवाज ऐसी प्रचलित हैं,जो किसी समय भले ही उपयुक्त रही हों,पर आज तो वे सर्वथा अनुपयोगी एवं हानिकारक ही हैं।ऐसी प्रथाओं एवं मान्यताओं के बारे में ऐसा न सोचना चाहिए कि हमारे पूर्वज इन्हें अपनाते रहे हैं तो अवश्य इनका महत्त्व होगा,इसलिए हम भी इन्हें अपनाएं रहें।हमें हर बात को वर्तमान काल की आवश्यकताओं और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ही निर्णय करना चाहिए।

प्रश्न:2.व्यक्तियों और विचारों को आपस में संबद्ध क्यों नहीं करना चाहिए? (Why Shouldn’t Individuals and Ideas be Related?):

उत्तर:भारतीय शास्त्रों का सदा से यह आदेश रहा है कि व्यक्तियों और विचारों को आपस में संबद्ध मत करो।संभव है कि कोई उत्तम चरित्र का व्यक्ति भ्रांत हो और उसके विचार अनुपयुक्त हों।इसी प्रकार यह भी संभव है कि कोई हीन चरित्र का व्यक्ति सारगर्भित बात कहता हो।उत्तम चरित्र के मनुष्य का व्यक्तिगत सम्मान करने में कभी संकोच नहीं करना चाहिए,किंतु उस सम्मान का यह अर्थ नहीं है कि उसके विचारों को स्वीकार करने के लिए हम बाध्य हों।यहां विवेक ही प्रधान है।भगवान बुद्ध के उत्तम चरित्र और महान तपश्चर्या से श्रद्धान्वित होकर हिंदू जाति ने उन्हें सर्वोपरि सम्मान “अवतार” उपाधि से विभूषित किया है।इससे बड़ा सम्मान और कृतज्ञता ज्ञापन हिंदू जाति के पास ओर कोई है भी नहीं। इतना होते हुए भी बौद्ध सिद्धांतों को स्वीकार नहीं किया।भगवान पर अनास्था,शून्यवाद,गृह-त्याग में मोक्ष,यज्ञ निषेध आदि बुद्ध की शिक्षाओं को हिंदी जाति अस्वीकार ही नहीं करती,वरन उसका कटु विरोध भी करती है।चार्वाक ऋषि हुए हैं।उनका नास्तिक दर्शन भी अन्य शास्त्रों की तरह ही आदरणीय है,परंतु यह आवश्यक नहीं है कि उनके प्रति आदर बुद्धि रखने वालों को ये विचार भी स्वीकार हों।गांधी और सुभाष दोनों के प्रति आंतरिक आदर रखते हुए भी यह हमारे विवेक के ऊपर निर्भर रहेगा कि हिंसा का सिद्धांत माना जाए या अहिंसा का।

प्रश्न:3.संसार में विभिन्न विचारधाराओं में से किसे अपनाया जाए? (Which of the Different Ideologies Should be Adopted in the World?):

उत्तर:संसार में अनेक धर्म,संप्रदाय,मत,मजहब,सिद्धांत,शास्त्र,संत,महापुरुष,नेता और विचारक हैं।उनकी अपने-अपने ढंग की अनेक मान्यताएं हैं।इनमें से अपने लिए आज किसका,कितने अंश में,किस प्रकार अनुसरण करना चाहिए,यह निर्णय करना हमारे विवेक के ऊपर है।हमारा निर्णय,जिसके पक्ष में है,उसके अतिरिक्त भी अन्य धर्मों या महापुरुषों के लिए घृणा या द्वेष करने की आवश्यकता नहीं है।उनका उपदेश आज भले ही हमारे लिए अनुकूल न हो,पर अपनी समझ से अपनी परिस्थितियों में उन्होंने भी शुभ उद्देश्य से अपना मत निर्धारित किया था,उनका उद्देश्य पवित्र था,इसलिए वे स्वभावतः हमारे आदर के अधिकारी हो जाते हैं।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा ज्ञान और विवेक सच्चा मार्गदर्शन कैसे हैं? (How is Knowledge and Wisdom True Guide?),ज्ञान और विवेक की साधना करने की 6 टिप्स (6 Tips for Practicing Knowledge and Wisdom) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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