Adopt Indian Civilization and Culture
1.भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अपनाएं (Adopt Indian Civilization and Culture),युवावर्ग भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अपनाएं (Youth Should Adopt Indian Civilization and Culture):
- भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अपनाएं (Adopt Indian Civilization and Culture) जिससे समस्त कष्टों,बाधाओं,दुःखों और विपत्तियों का निवारण हो सके।वस्तुतः आज अधिकांश युवावर्ग भारतीय संस्कृति को छोड़कर पाश्चात्य संस्कृति को अपनाते जा रहे हैं इसलिए दुःखी,परेशान,उद्विग्न हैं।प्रश्न उठता है कि भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति में क्या अंतर है? पाश्चात्य संस्कृति दिखावे,बाहरी रूप को,भौतिकता को महत्त्व देती है जबकि भारतीय संस्कृति आंतरिक गुणों को महत्त्व देती है साथ ही आचरण में अपनाने पर भी बल देती है।हितोपदेश के इस वाक्य से भारतीय संस्कृति को समझा जा सकता हैः
- “अयं निजःपरोवेत्ति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम।।” - अर्थात् यह मेरा है,यह दूसरे का है ऐसा संकीर्ण (ओछे) हृदय वाले समझते हैं।उदार चित्त वाले तो सारी दुनिया को कुटुंब (परिवार) समझते हैं।
- किसी भी विचारधारा,नीति,सिद्धांत आदि को सभ्यता कहा जाता है तथा इनको जीवन में,आचरण में उतारने तथा पालन करने पर निर्मित संस्कारों को संस्कृति कहते हैं।आज का युवावर्ग भारतीय संस्कृति के प्रति इतना उदासीन क्यों है? इसका उत्तर है बचपन से ही भारतीय संस्कृति की महत्ता,उपयोगिता,शिक्षा न मिलने,वातावरण के प्रभाव तथा पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होने के कारण आज युवा भारतीय संस्कृति के प्रति उदासीन है।
- एक समय ऐसा था जब भारतीय संस्कृति (आर्य संस्कृति) विश्व संस्कृति थी तथा सैद्धान्तिक रूप से आज भी है।परन्तु प्राचीनकाल के ऐसे अनेक दृष्टांत मिलते हैं जिनके आधार पर प्रमाणित होता है कि भारतीय संस्कृति विश्व में फैली हुई थी।हमारे पूर्वज समस्त विश्व को अपना घर मानते थे और अपने को विश्व के नागरिक समझकर समस्त संसार को उन्नत करने का उत्तरदायित्व अनुभव करते थे।
- भगवान बुद्ध ने जनमानस में छाए हुए अज्ञान को दूर करने के लिए विभिन्न देशों यथा गांधार,यूनान,अरब,मिश्र,पेगू,सालमीन,लंका,मध्य एशिया,पूर्वी द्वीप,थाईलैंड,चीन इत्यादि में अपने भिक्षुक भेजें और भारतीय संस्कृति की जड़ें जमाई। इतिहास पुराणों में जिसे पाताल लोक कहा जाता है वह आधुनिक अमेरिका ही था।
- आपको यह जानकारी रोचक व ज्ञानवर्धक लगे तो अपने मित्रों के साथ इस गणित के आर्टिकल को शेयर करें।यदि आप इस वेबसाइट पर पहली बार आए हैं तो वेबसाइट को फॉलो करें और ईमेल सब्सक्रिप्शन को भी फॉलो करें।जिससे नए आर्टिकल का नोटिफिकेशन आपको मिल सके । यदि आर्टिकल पसन्द आए तो अपने मित्रों के साथ शेयर और लाईक करें जिससे वे भी लाभ उठाए । आपकी कोई समस्या हो या कोई सुझाव देना चाहते हैं तो कमेंट करके बताएं।इस आर्टिकल को पूरा पढ़ें।
Also Read This Article:Culture of Admission to Public Schools
2.पाश्चात्य संस्कृति के पनपने के कारण (Reasons for the Rise of Western Culture):
- पाश्चात्य देशों विशेषकर यूरोप में आध्यात्मिक जीवन और उसकी समस्याओं में रुचि नहीं जितनी रुचि उन्होंने आचार नीति तथा गणित और (बाद में) विज्ञान व तकनीकी की समस्याओं में ली।प्लेटो गणित शास्त्र (ज्यामिति) का बड़ा प्रेमी था और गणित शास्त्र को बड़ा महत्त्व देता था।प्लेटो से पहले पाइथागोरस की मान्यता थी कि यह विश्व संख्यामय है तथा कहा था कि गणित के अध्ययन से आत्मा शुद्ध होती है।
- अपनी ‘रिपब्लिक’ पुस्तक में प्लेटो ने सामाजिक न्याय (जस्टिस) आदि नैतिक मूल्यों के मण्डन का गम्भीर प्रयत्न किया है।प्लेटो और अरस्तू दोनों ने,जो यूनान के प्रतिनिधि दार्शनिक है,सामाजिक,नैतिक तथा राजनीतिक आदर्शों के बारे में गंभीर चिंतन किया है।
- यही बात पश्चिमी यूरोप के जाॅन लॉक,रूसो,कांट,हेगेल,कार्ल मार्क्स,ग्रीन बोसांके आदि के विचारों पर लागू होती है।इसके अतिरिक्त डेकार्ट,स्पिनोजा,लाइबनिज,काण्ट,रसेल,व्हाइटेड आदि दार्शनिक विज्ञान और गणित से संबंधित समस्याओं में बराबर गहरी रूचि लेते रहे हैं।
- इसके विपरीत भारतवर्ष के किसी भी महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ने न तो कभी सामाजिक,नैतिक मूल्यों की स्थापना में विशेष रूचि ली और न गणित व विज्ञान में ही।सम्भवतः यह एक मुख्य कारण है कि हमारे देश में महत्त्वपूर्ण राजनीतिक क्रांतियाँ नहीं हुई और सदियों तक देश में एकमात्र राजतंत्र का विधान चलता रहा।सम्भवतः इसी कारण हमारे देश में आधुनिक प्रयोगात्मक विज्ञान का उदय भी नहीं हुआ।मानना पड़ता है कि भौतिक व सामाजिक विज्ञानों तथा सामाजिक-नैतिक मूल्यों से संबंधित चिन्तन की दृष्टि से आधुनिक यूरोप इतिहास की सभी सभ्य जातियों से आगे पहुंच गया है।
- हमारे देश में विगत शताब्दी के धार्मिक आंदोलनों के बावजूद,जो आज सामाजिक-नैतिकता का स्तर नीचे है,इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण शायद यह भी है कि हमारे देश के उच्चतम दार्शनिक मस्तिष्क जीवन के नैतिक धरातल के प्रति उदासीन रहे हैं।हमारे देश के अतीत में नैतिक आदर्शों की स्थापना का काम स्मृतिकारों ने किया है,दार्शनिकों ने नहीं।और उन स्मृतिकारों ने विधि-निषेधों का ऐसा जटिल जाल रचा कि लोगों में आचारनीति संबंधी जिज्ञासा कायम नहीं रह सकी।इस प्रकार की जिज्ञासा महाभारत के समय में बहुत ज्यादा वर्तमान थी।स्मृति-ग्रंथों के अतिरिक्त हम काव्य-नाटकों में ही भलाई-बुराई की सूक्ष्म संवेदना पाते हैं।
- प्राचीन यूनानियों में और वर्तमान यूरोपियों में भी बौद्धिकता का तत्त्व प्रधान रहा है।आधुनिक यूरोप की सभ्यता विज्ञान पर आधारित है,विज्ञान में तर्क-मूलक गणित शास्त्र और निरीक्षण-मूलक प्रयोग दोनों का ही योग रहता है।आधुनिक यूरोप का मस्तिष्क एक जहाँ एक ओर बहुत सूक्ष्म व तर्कशील है,वहाँ दूसरी ओर भौतिक और सामाजिक दोनों धरातलों पर नितांत व्यावहारिक भी है।आधुनिक यूरोप और अमेरिका में वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ उच्च कोटि की यान्त्रिक तथा नैतिकता का स्तर बहुत ऊँचा है और आज वहाँ जैसे भव्य नगर निर्मित हो सके हैं वैसे संभवतः विश्व के इतिहास में कभी कहीं निर्मित नहीं हुए।यह साधारण उपलब्धि नहीं है।
- इसके विपरीत सांप्रदायिक भारत में सामाजिक न्याय व नैतिकता का धरातल बहुत नीचा है।यहां के लोगों में सामाजिक ईमानदारी की भावना बड़ी ही निर्बल हो गई है।यूरोप में व्यक्तियों के निजी संबंधों पर वैसे नियंत्रण व प्रतिबंध नहीं पाए जाते हैं जैसे इस देश में; वहाँ नैतिकता का आधार सामाजिक सुविधा व व्यक्तियों का सुख है न कि रूढ़ियाँ व अंधविश्वास।यही कारण है कि वहाँ व्यक्ति स्वाधीन व सुखी है और वह आज की जटिल सभ्यता के निर्माण व संरक्षण में भरपूर योग दे पाता है।
3.भारतीय संस्कृति के प्रराभव के कारण (Reasons for the Defeat of Indian Culture):
- आधुनिक भारतवासी पाश्चात्य विचारों से प्रभावित होते रहे हैं।यह प्रभाव राजा राममोहन राय,विवेकानंद,बाल गंगाधर तिलक और गांधी जैसे भारतीय संस्कृति के विद्वानों और धार्मिक नेताओं में भी देखा जा सकता है।गांधीजी के कुछ अनुयायी जैसे सरदार वल्लभभाई पटेल,भूतपूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री,राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद जहां अपनी मनोवृत्ति में अधिक भारतीय रहे हैं वहाँ आचार्य नरेंद्र देव,जय प्रकाश नारायण एवं जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं पर पश्चिमी सामाजिक-राजनीतिक विचारों का प्रभाव ही मुख्य रहा है।वस्तुतः हमारे देश का जनतांत्रिक संविधान और देश के युवाओं में समाजवाद तथा साम्यवाद के विचारों का प्रचार मुख्यतः यूरोपीय संस्कृति की ही देन है।यह लक्ष्य करने की बात है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी ‘ग्लिम्सेज ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ तथा ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ पुस्तकों में गत शताब्दी के धार्मिक आंदोलनों व शिक्षकों को विशेष महत्त्व नहीं दिया है।
- स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश का सांस्कृतिक वातावरण एकदम ही बदला हुआ दिखाई पड़ता है।आर्य समाज,रामकृष्ण मिशन और गांधीवाद का भी प्रभाव बहुत कुछ खत्म हो चला है।देश में बड़े-बड़े उद्योग धन्धों की नींवें डाली जा रही है और लोगों की मनोवृत्ति क्रमशः भौतिकता से युक्त होती जा रही है।आचार-विचार के क्षेत्र में व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा व्यक्तिवाद बढ़ रहे हैं,साहित्य में भी व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों का प्राधान्य है।किंतु चूँकि भारत एक बड़ा देश है और यहां की अधिकांश जनता अशिक्षित तथा अर्ध-शिक्षित है इसलिए बहुत-सी पुरानी सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियाँ व विश्वास भी गांवों तथा छोटे शहरों की जनता के बीच विभिन्न रूपों तथा मात्राओं में चले ही जाते हैं।
- सुशिक्षित एवं समझदार भारतीयों के बीच आज जीवन के ऊंचे स्तर तथा वैज्ञानिक रहन-सहन की मांग बढ़ती जा रही है।किंतु इन लोगों में भी उच्च कोटि के बोध की सर्जनात्मक माँग और उनके लिए व्यवस्थित प्रयत्न की प्रवृत्ति नहीं पाई जाती।यूरोपीय संस्कृति व सभ्यता के प्रभाव से उन्होंने अपने को परम्परा की रूढ़ियों से बहुत-कुछ मुक्त कर लिया है किन्तु वे यह जरूरत महसूस नहीं करते कि देश की प्रगति के लिए स्वस्थ नये विश्वासों एवं नई परंपराओं का निर्माण किया जाए।
- यूरोप तथा अमेरिका में जनतांत्रिक संस्थाओं का संरक्षण एवं पोषण करने वाली वाले व्यावहारिक पद्धतियाँ व संस्थाएँ दृढ़ रूप में प्रतिष्ठित है किन्तु हमारे देश में वैसी परम्पराओं तथा व्यवहार पद्धतियों का अभाव है।यहाँ के शिक्षित लोग जहां अपने लिए स्वतंत्रता तथा सुविधाएं चाहते हैं वहाँ निम्न वर्गों के कम शिक्षित देशवासियों को वे चीजें देते-दिलाते हुए संकोच का अनुभव करते हैं।कहने को देश की सरकारें जनतांत्रिक हैं,पर शासकों और जनता दोनों में ही प्रायः वास्तविक जनतांत्रिक मनोवृत्ति का अभाव दिखाई देता है।इस समय देश में जांत-पांत पर आधारित भेदभाव भी बढ़ रहा है जो कि जनतांत्रिक मनोवृत्ति के एकदम विपरीत है।एक दूसरी चौंकानेवाली स्थिति भी देखने में आ रही है,शिक्षित लोगों में नैतिकता का आग्रह घट रहा है और वे अधिकाधिक अवसरवादी बनते जा रहे हैं।उनके बीच प्राचीन धार्मिक तथा उनसे संबंधित नैतिक मान्यताओं का प्रभाव क्रमशः लुप्त हो रहा है और उनमें यह मनोवृत्ति बढ़ रही है कि किसी भी तरह अपने भौतिक जीवन स्तर को ऊंचा बनाया जाए।
- उक्त स्थिति का उल्लेख यहाँ इसलिए नहीं किया जा रहा है कि हम वर्तमान भारत के किसी वर्ग या वर्गों की बुराई-भलाई का विज्ञापन करें।इसके विपरीत हमारा उद्देश्य उन सांस्कृतिक परिस्थितियों की छानबीन है जो उक्त स्थिति का कारण है।इन कारणों पर प्रकाश डालते हुए हम भारतीय संस्कृति के भविष्य के संबंध में अपने कुछ विचार प्रकट करेंगे।
- मनुष्य स्वभावतः मूल्यान्वेषी प्राणी है,वह निरन्तर मूल्यों के उत्पादन में लगा हुआ जीवित रहता है।मनुष्य का मूल्यों संबंधी चिन्तन उसके शेष ज्ञान-विज्ञान से निरपेक्ष नहीं होता।जिस जाति में मौलिक मूल्यानुचिन्तन की प्रवृत्ति होती है,उसमें प्रायः यह जिज्ञासा और साधना भी होती है जो ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में नित नए अनुसंधान करती है।प्राचीन भारत के मनीषियों में इस प्रकार की सर्वतोमुखी जिज्ञासा थी,यही कारण है कि वे दर्शन,कला आदि क्षेत्रों में इतना मौलिक व ऊँचा कार्य कर सके।
- प्राचीन यूनानियों में भी ऐसी जिज्ञासा व चिन्तन प्रवृत्ति थी।पिछली तीन-चार शताब्दियों के यूरोप में भी वैसी ही अन्वेषण और चिन्तन की प्रवृत्ति रही है।इस प्रवृत्ति के फलस्वरूप यूरोप ने विभिन्न विद्याओं में अभूतपूर्व प्रगति की है और सामाजिक सहयोग एवं न्याय की प्रतिष्ठा करनेवाली बहुत-सी संस्थाओं एवं व्यवहार-पद्धतियों को भी संगठित किया है।इधर यूरोप में व्यक्तिगत स्वाधीनता एवं चिंतन स्वातन्त्र्य के आदर्शों का पूर्ण विकास हुआ है।
- इसका तात्पर्य यह नहीं है कि यूरोप में जो कुछ सोचा-किया गया और किया जा रहा है वह सर्वथा निर्दोष और पूर्णतया अपनाने योग्य है; मनुष्य के सभी प्रयत्न न्यूनाधिक अपूर्ण होते हैं और यूरोप में वैचारिक व्यावहारिक निष्कर्ष व आदर्श भी पूर्ण नहीं है।हम जोर इस बात पर देना चाहते हैं कि वर्तमान यूरोप में ज्ञान-विज्ञान के विकास के साथ-साथ मूल्यानुचिन्तन की क्रिया निरन्तर जारी रही है और इस क्रिया ने उसके वैयक्तिक-सामाजिक जीवन-ढाँचे को निश्चित रूप में प्रभावित व गठित किया है।
- पूछा जा सकता है कि हम यांत्रिक आविष्कारों की भाँति,उपयोगी संस्थाओं व व्यवहार-पद्धतियों को यूरोप और अमेरिका अथवा रूस से क्यों न ले लें?उत्तर है;इस प्रकार का आदान या ग्रहण कुछ दूर तक ही संभव है।हमने इंग्लैंड और अमेरिका से जनतंत्र के विधान का ढांचा ले लिया,पर हम वहां के लोगों की जनतांत्रिक मनोवृत्ति कहां पा सके? हमसे पहले जापान ने यूरोप की यान्त्रिक उपलब्धियों को अपनाया,पर इससे जापान जहां कुछ दिनों के लिए शक्तिशाली राष्ट्र बन गया,वहां वह इस लायक नहीं बन सका कि विज्ञान,दर्शन आदि के क्षेत्रों में विश्व को बड़ी चीजें दे सके।जापान की जो प्रगति हुई उसका एक कारण वहां के लोगों की परिश्रमशीलता भी थी,जो आज भी उनके चरित्र का अंग है।उचित बौद्धिक-नैतिक मनोवृत्ति के अभाव में जापान ज्यादा स्थायी उन्नति न कर सका।
- एक दूसरे देश से कुछ चीजें लेकर काम चला सकता है,पर ज्यादा महत्त्व देश-विशेष के लोगों की मनोवृत्ति,उनकी मूल्य भावना और चरित्र (अर्थात् मूल्यों को उचित महत्त्व देने का व्यावहारिक स्वभाव) होता है; ये चीजें कहीं विदेश से अनुकरण द्वारा प्राप्त नहीं होती।मानव व्यक्तित्त्व में सबसे महत्त्वपूर्ण चीज उपयुक्त मूल्य भावना और उससे अनुप्राणित चरित्र होता है।ये वस्तुएँ किसी भी व्यक्ति या जाति को लम्बी साधना के बिना नहीं मिलती।
- व्यक्ति के जीवन में महत्त्वपूर्ण बोध वही होता है जिसे वह अपने परिश्रम से प्राप्त करता है और जो अंतर्दृष्टि एवं जीवन-विवेक का रूप धारण करके अपने जीवनचर्या को प्रभावित करता है।महत्त्वपूर्ण जीवन-विवेक,किसी व्यक्ति अथवा जाति को,गहरी साधना द्वारा ही उपलब्ध होता है।जातीय जीवन-विवेक किसी जाति की ऐतिहासिक साधना का फल होता है और व्यक्तिगत जीवन-विवेक व्यक्ति की साधना का।एक बुद्ध अथवा गांधी अपने जीवनव्यापी चिन्तन-मनन द्वारा कुछ सत्यों की उपलब्धि करता है;वे सत्य उसके जीवन को महान् बना देते हैं।उसके विभिन्न अनुयायी अपने-अपने सामर्थ्य के अनुरूप ही उन सत्यों का साक्षात्कार कर पाते हैं।एक समूची जाति महापुरुषों द्वारा उद्घाटित सत्यों को न्यूनाधिक आत्मसात करती है,तो वे सत्य जातीय चेतना के अंग बन जाते हैं।इससे यह स्पष्ट है कि महापुरुष जातीय चेतना को वही तक समृद्ध कर सकते हैं जहाँ तक जाति-विशेष ने अपने को उनके द्वारा आविष्कृत सत्य ग्रहण करने के योग्य बना लिया है।
- जागरूक नेता चेतना की पृष्ठभूमि में निरंतर जीवन के सम्भाव्य मूल्यों के बारे में चिंतन करते रहते हैं। इस क्रिया के दो सम्बद्ध परिणाम होते हैं ; एक ओर जातीय चेतना लगातार नए विश्व या परिवेश को समझती चलती है और दूसरी ओर वह उन मूल्यों तथा जीवन-पद्धतियों की स्थापना करती चलती है जो विश्व की नयी पृष्ठभूमि में प्रभावशील एवं सुन्दर ढंग से जीने के लिए जरूरी है।
- हमारी जातीय आत्मा आज उच्च कोटि के चिन्तन-मनन के अभ्यास से वंचित हो गई है,उसकी सर्जनशील जिज्ञासा एवं विचार की वृत्तियों को घुन लग गया है।फलतः वह बौद्धिक एवं व्यावहारिक प्रेरणाओं के लिए असहाय भाव से कभी अपने अतीत की ओर देखती है और कभी यूरोप व अमेरिका की ओर।विगत शताब्दी के धार्मिक आंदोलन,जिनकी प्रेरणा अतीत से आयी थी,आज हमें आगे बढ़ाने में असमर्थ सिद्ध हो रहे हैं।इनसे सहज ही यह निष्कर्ष निकलता है कि सिर्फ अतीत की ओर देखना हमारी जातीय प्रगति के लिए पर्याप्त नहीं है।अतीत के गौरव का स्मरण हमें आगे बढ़ने का साहस दे सकता है।नैतिकता तथा अध्यात्म से संबंधित अतीत की कुछ अन्तर्दृष्टियाँ आज भी उपयोगी सिद्ध हो सकती है,किन्तु अतीत का बोध और विवेक आज के लिए पर्याप्त नहीं है।आज हम अतीत के बोध को आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के आलोक में संशोधित करके ही अपने उपयुक्त बना सकते हैं।तात्पर्य यह है कि अपने पूर्वजों की समझ तथा विवेक से वहीं तक लाभ उठा सकते हैं जहां तक हम स्वयं समझदार और विवेकशील हैं।
- आज हम अपने अतीत की ज्ञान-राशि का उचित उपयोग नहीं कर पा रहे हैं।हम प्रायः अतीत की उन शिक्षाओं तथा रूढ़ियों पर ज्यादा जोर देते हैं जो अब प्रामाणिक तथा उपयोगी नहीं रह गई है,जो समयातीत हो चुकी है।इसके विपरीत हमारा ध्यान उन तत्त्वों की ओर नहीं जाता जो नवीन और इसलिए आज भी महत्त्वपूर्ण है।
- इस प्रकार की एक अन्तर्दृष्टि इस विचार में निहित है कि जातीय समृद्धि व ऐश्वर्य की प्राप्ति एवं रक्षा के लिए हम नैतिक तथा चारित्रिक आधार का होना अनिवार्य रूप से आवश्यक है।यह नहीं हो सकता है कि एक ओर हम नैतिक जीवन-स्तर को ऊँचा बनाने की कामना करें और दूसरी ओर उसके आधारभूत नैतिक-सामाजिक मूल्यों के प्रति उदासीन रहे।इसके लिए यह जरूरी है कि हमारे देश के विचारक मूल्यों के संबंध में जिम्मेदारी के साथ चिंतन करें और जीवन के युगोचित आदर्शों का नया निरूपण व मण्डन प्रस्तुत करें।
- विज्ञान निर्मित नए परिवेश ने हमारे सामने जीवन की नई संभावनाओं को उद्घाटित किया है।प्राचीन युगों की अपेक्षा आज मनुष्य के सुख और दुःख दोनों की संभावनाएं बहुत-कुछ बदल गई है।विभिन्न जातियों की देशगत दूरी खत्म हो गई है,जिसके फलस्वरूप यह देखना सरल हो गया है कि विभिन्न समाजों में कितनी तरह की प्रथाएं हैं और भलाई-बुराई के कितने भेद विशुद्ध रूढ़िमात्र हैं।पुराने हिंदू नीतिशास्त्र अथवा स्मृति-ग्रन्थ असंख्य विधि-निषेधों से भरे हैं जिनमें से अधिकांश आज अर्थहीन हो चुके हैं।आज के विचारकों को नीति तथा दूसरे क्षेत्रों में ऐसे उदार एवं व्यापक आदर्शों का निरूपण करना है जो नए परिवेश की जीवन-संभावनाओं को निषेधित न करते हुए लोगों पर यह स्पष्ट कर सके कि उच्चतर एवं निम्नतर,बढ़िया और घटिया,जीवन पद्धतियों में बुद्धिग्राह्य अंतर क्या होता है? नए युग में जीवन-दर्शन न्यूनाधिक नया रूप धारण करता है किंतु कोई भी जीवनदर्शन उस मौलिक अन्तर को नहीं मिटा सकता जो ऊँचे और नीचे जीवन के बीच रहता है।ऊँच-नीच,भले-बुरे का भेद मानव-चेतना की एक अनिवार्य प्रतीति है।इस प्रतीति को बुद्धिगम्य भाषा में प्रकट कर देना ही जीवन दर्शन है उस दर्शन को व्यावहारिक रूप देना ही जीवन-विवेक है।
- उपर्युक्त आर्टिकल में भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अपनाएं (Adopt Indian Civilization and Culture),युवावर्ग भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अपनाएं (Youth Should Adopt Indian Civilization and Culture) के बारे में बताया गया है।
Also Read This Article:Consumerist Culture Hindering in Study
4.गणित इतना कठिन क्यों है? (हास्य-व्यंग्य) (Why Is Math So Hard?) (Humour-Satire):
- छात्र (गणित शिक्षक से):गणित विषय को इतना कठिन क्यों बनाया गया है?
- गणित शिक्षक (छात्र से):ताकि कोई भी मनचला छात्र गणित विषय न ले सके और गणित विषय की प्रतिष्ठा को धक्का न पहुँचा सके।
5.भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अपनाएं (Frequently Asked Questions Related to Adopt Indian Civilization and Culture),युवावर्ग भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अपनाएं (Youth Should Adopt Indian Civilization and Culture) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:
प्रश्न:1.भारतीय संस्कृति को किस प्रकार समझने की आवश्यकता है? (How Do We Need to Understand Indian Culture?):
उत्तर:हमें इस मन्तव्य से झगड़ने की जरूरत नहीं है कि अध्यात्म की दृष्टि से प्राचीन भारतीय दर्शन बहुत ऊँचा है।किन्तु इसका यह अर्थ नहीं होना चाहिए कि इस लोक या जीवन के नैतिक तथा दूसरे मूल्यों की उपेक्षा करनी है।सच यह है कि जहाँ हमें यहाँ के जीवन-मूल्यों का साक्षात अनुभव है,वहां मोक्ष (मुक्ति) नाम की स्थिति बहुत कुछ-कुछ कल्पना की ही चीज है।अवश्य ही हमारे विचारकों ने जीवन्मुक्ति की स्थिति भी मानी है;जिसके महत्त्व का यहीं अनुभव किया जा सकता है।किंतु जीवन्मुक्ति का मतलब यह नहीं है कि हम मानव-जाति के सुख-दुःख तथा समाज की नैतिक व्यवस्था के प्रति उदासीन बन जाएं।जीवन्मुक्ति की स्थिति का वास्तविक आशय यह है कि साधक व्यक्तिगत हानि-लाभ में विशेष आसक्ति न रखें।जीवन में प्राप्त होने वाले समस्त मूल्य सीमित हैं; किंतु वे सीमित मूल्य एकदम उपेक्षा की चीज नहीं हो सकते।जिन्हें हम असीम मूल्य समझते हैं वे संभवतः हमारे अनुभव के दायरे के बाहर हैं।संभव है कि कालिदास तथा शेक्सपियर के काव्य से ऊँची रचनाएं किसी दूसरे लोक में होती है हों किन्तु वह मनुष्य सचमुच अभागा है जो किसी कल्पित अलौकिक काव्यानन्द के फेर में इन धरती के महाकाव्यों की उपेक्षा करे।हम आध्यात्मिकता का यही अर्थ समझते हैं कि विवेकी व्यक्ति इस लोक के मूल्यों का उपयोग करते हुए भी उनमें ऐसी आसक्ति महसूस न करें कि उनके अभाव में व्याकुल बन जाए।इस दृष्टि से आध्यात्मिकता का अर्थ जीवन-मूल्यों के सर्जन व उपभोग के प्रति उपेक्षा की भावना नहीं है ; इसके विपरीत उसका अर्थ ऐसी अनासक्ति है जो हमें चरम संतुलन एवं निराकुल प्रयत्नशीलता की क्षमता देती है।
प्रश्न:2.महापुरुष से क्या तात्पर्य होना चाहिए? (What Do You Mean by Great Man?):
उत्तर:महापुरुष वे नहीं है जो संन्यास लेकर दुनिया के बड़े प्रयत्नों से छुट्टी लेते हैं बल्कि दुनिया में रहते हुए ही अनासक्ति के साथ बड़े-बड़े लोक-संग्रह के कार्य करते हैं।बुद्ध और ईसा,शंकर और गांधी इसी प्रकार के कर्मयोगी थे; कर्मयोग का यही आदर्श कालिदास के रघु-जैसे विश्वनिजयी वीर चरित्र में प्रतिष्ठित हुआ;इससे काफी पहले कुछ बौद्ध तथा जैन शिक्षकों ने वैसे आदर्श का प्रचार किया था।परन्तु स्वयं बुद्ध अतियों के रास्ते को बचाकर मध्यमार्ग पर चलने के पक्षपाती थे।मीमांसकों के मत में भी एकांत रूप में संन्यस्त जीवन अवांछनीय है।लौकिक होना और एकान्त रूप में परलोक-परायण होना दोनों ही रास्ते खतरनाक है।पुरुषार्थी मनुष्य के जीवन में आसक्ति और अनासक्ति का उचित सामंजस्य होना चाहिए; श्रेष्ठ जीवन में गहरी लोक-संग्रही आसक्ति के साथ-साथ ऊंची अनासक्ति का पुट रहता है।
प्रश्न:3.कबीर जैसे संतों के उपदेश कहां तक सार्थक हैं? (To What Extent are the Teachings of Saints Like Kabir Meaningful?):
उत्तर:कबीर आदि संतों के उपदेश जहाँ एक दृष्टि से अपर्याप्त या एकांगी है।कबीर आदि प्रायः सभी सन्त जगत को माया का क्रीडास्थल करार देते हुए,किसी न किसी रूप में वैराग्य या विरक्ति की शिक्षा देते हैं।सन्त संस्कृति मुख्यतः आध्यात्मिक साधना से संबंधित है।वैसी शिक्षा जहाँ व्यक्ति की आध्यात्मिक प्रगति एवं आन्तरिक शांति के लिए महत्त्वपूर्ण है वहाँ वह किसी जाति के प्रभावी जीवन के लिए उपयोगी नहीं है।साधारण नागरिकों के लिए जो नितान्त आवश्यक है वह है:सामाजिक जीवन के अंतर्गत अपने विहित और चयनित या स्वेच्छा से मनोनीत किए गए कर्त्तव्य कर्म को ईमानदारी से पूरा करना।इसी के लिए गीता में कहा गया हैःअपने कर्म में निष्ठा के साथ संलग्न रहना।इस प्रकार की कर्त्तव्यनिष्ठा सन्तोषप्रद समाज व्यवस्था की रीढ़ है।अतः हमारे देश में जन-जीवन की नैतिक रीढ़ चरमराती दिखाई पड़ रही है।
- उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अपनाएं (Adopt Indian Civilization and Culture),युवावर्ग भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अपनाएं (Youth Should Adopt Indian Civilization and Culture) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
No. | Social Media | Url |
---|---|---|
1. | click here | |
2. | you tube | click here |
3. | click here | |
4. | click here | |
5. | Facebook Page | click here |
6. | click here |
Related Posts
About Author
Satyam
About my self I am owner of Mathematics Satyam website.I am satya narain kumawat from manoharpur district-jaipur (Rajasthan) India pin code-303104.My qualification -B.SC. B.ed. I have read about m.sc. books,psychology,philosophy,spiritual, vedic,religious,yoga,health and different many knowledgeable books.I have about 15 years teaching experience upto M.sc. ,M.com.,English and science.