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How Does Good Deeds Improve Our Lives?

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1.सत्कर्मों से हमारा जीवन कैसे सुधरता है? (How Does Good Deeds Improve Our Lives?),छात्र-छात्राओं को सत्कर्म क्यों करना चाहिए? (Why Should Students Do Good Deeds?):

  • सत्कर्मों से हमारा जीवन कैसे सुधरता है? (How Does Good Deeds Improve Our Lives?) क्योंकि सत्कर्मों के बिना हमारे गुण नहीं खिलते हैं,नहीं निखरते हैं।यश,पद,मान,प्रतिष्ठा की जो फसल हम काटते हैं वे सब हमारे ही शुभ कर्मों के परिणाम है।अपयश,अपमान हमारे ही अशुभ कर्मों के परिणाम हैं।अब यह हमारे ऊपर निर्भर है कि जीवन को सुधारना है या बिगाड़ना है।
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2.किसी का अपमान न करें (Don’t Insult Anyone):

  • प्रत्येक व्यक्ति के मन में सम्मान प्राप्त करने की लालसा होती है।सम्मान न भी मिले तो भी कोई अपमान तो नहीं ही सहना चाहता है।छोटे बच्चों का भी यदि बार-बार अपमान होता है,तो वे भी अत्यंत दुखी हो जाते हैं,फिर बड़े एवं समझदार लोगों की बात ही क्या है? यदि किसी कारणवश या भूलवश व्यक्ति का अपमान हो जाता है,तो उसके मन में जो दुःख पैदा होता है,वह उसे हमेशा बिच्छू के डंक की तरह चुभता रहता है।अतः सच्चा सम्मान प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को शिष्टाचार के कुछ नियमों का पालन अवश्य करना चाहिए,इसके बाद भी यदि अपमान मिलता है,तो उसे भगवान की कृपा-प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए,क्योंकि उससे व्यक्ति का कोई अहित नहीं होगा,बल्कि उसमें भी कोई ना कोई हित छिपा होता।हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमारा केवल कर्म पर अधिकार है,जो हमें मिल रहा है,उस पर नहीं।हमारे जैसे पूर्व कर्म होंगे,उनका ही परिणाम हमें भुगतना पड़ता है।अतः पूरे विश्वास के साथ सत्कर्म करना चाहिए।
  • दूसरों से सम्मान प्राप्त करने के लिए सबसे पहले बिना किसी कारण के ही सबके प्रति मन में सम्मान का भाव रखना चाहिए,सबसे मीठा बोलना चाहिए।जो भी व्यक्ति स्वयं से उम्र,पद या अधिकार में छोटे हों,उनके साथ व्यवहार करने में उनके सम्मान का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
  • हमेशा सत्य बोलना चाहिए,लेकिन अप्रिय सत्य एवं प्रिय झूठ नहीं बोलना चाहिए और ऐसा सत्य भी नहीं बोलना चाहिए,जिससे किसी का अहित हो।अनावश्यक झूठ तो कदापि नहीं बोलना चाहिए,लेकिन सामूहिक हित या किसी के गंभीर संकट को टालने के लिए बोला गया झूठ गलत नहीं होता।बोलते समय सोच-समझकर ही बोलना चाहिए या चुप रहना चाहिए।जब ऐसा प्रतीत हो कि परिस्थिति हमारे पक्ष में या हमारे हित में नहीं है,तो यथासंभव मौन रहना चाहिए।पलटकर जवाब देने से बात बिगड़ने की संभावना ज्यादा होती है।प्रायः ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति का अपने ऊपर से नियंत्रण समाप्त हो जाता है और वह कुछ भी बोलने लगता है,अतः सावधानी रखनी चाहिए।
  • जहां तक संभव हो,वहां तक अपने वचन का पक्का होना चाहिए।इसलिए जिस किसी भी व्यक्ति से जो भी कहें,उसमें पूरी सतर्कता बरतें और जो कहें,उसका पालन करें।यदि किसी कारणवश अपनी कही गई बात को पूरा न कर सकें,तो उसे समय पर सूचित कर दें,क्योंकि इसी वचनबद्धता के माध्यम से दूसरे व्यक्तियों पर या स्वयं पर विश्वास पनपता है।बातचीत में एक बात यह भी ध्यान रखनी चाहिए कि जो कार्य करने की सामर्थ्य व्यक्ति में ना हो,उसे पूरा करने का वचन नहीं देना चाहिए,विनम्रतापूर्वक उसके लिए अपनी असमर्थता स्वीकार कर लेनी चाहिए।
  • अपने व्यवहार के प्रति बहुत सचेत होना चाहिए।ऐसा व्यवहार कदापि नहीं करना चाहिए,जिससे किसी को कष्ट हो या मन में दुःख महसूस हो।यदि भूलवश ऐसी गलती हो जाए तो क्षमा अवश्य मांगनी चाहिए।व्यवहार  में यह भी ध्यान रखना चाहिए कि परिस्थिति के अनुसार अपने व्यवहार में सामंजस्यता लानी चाहिए।किसी भी कार्य के प्रति बहुत ज्यादा समय की कठोरता न बरतकर अपनी व दूसरों की सुविधा का ध्यान रखते हुए कार्य करना चाहिए।

3.दूसरों से सीखें और शिष्टता का व्यवहार करें (Learn From Others and Behave Politely):

  • दूसरे व्यक्तियों में जो भी अच्छी बातें देखने के लिए मिलें,उन्हें अपने व्यवहार में शामिल करने का प्रयास करना चाहिए।उन्हें सीखना चाहिए,लेकिन किसी के दोषों का अनुकरण नहीं करना चाहिए और न ही किसी की निंदा करनी चाहिए।अपने व्यवहार में उत्तेजना और क्रोध को प्रश्रय नहीं देना चाहिए।यदि ये हमारी आदत में शामिल है तो यथासंभव इन पर नियंत्रण करने का प्रयास करना चाहिए; क्योंकि ये दोनों प्रवृत्तियां हमारे संबंधों को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाती हैं और दूसरों के मन को भी दुखी करती है।
  • अपने जीवन में स्वाध्याय का नियमित अभ्यास बनाकर रखना चाहिए।इसके माध्यम से हमारे मन में कुविचारों को प्रश्रय नहीं मिलता और अच्छे विचारों से मन व भावनाओं को पोषण मिलता रहता है।स्वाध्याय को आत्मा का भोजन कहा गया है।अतः प्रतिदिन स्वयं के लिए कुछ ना कुछ अच्छा अवश्य पढ़ना चाहिए।ऐसा देखा गया है कि मनोरंजन के लिए व्यक्ति अपने एक दिन के समय का अधिक से अधिक उपयोग कर लेता है,अतः इसमें समय सीमा निर्धारित करनी चाहिए।
  • जो भी व्यक्ति हमसे आचरण,व्यवहार या ज्ञान में श्रेष्ठ है,उनसे पूछने में कभी संकोच नहीं करना चाहिए।अभिमान का त्याग करना चाहिए और विनम्रता अपनानी चाहिए।छोटे बच्चों द्वारा कही जाने वाली सही बात का समर्थन करना चाहिए और बड़ों द्वारा कही जाने वाली गलत या असभ्य बात की उपेक्षा करनी चाहिए,लेकिन उनका अपमान नहीं करना चाहिए।
  • कभी भी अपनी प्रशंसा स्वयं नहीं करनी चाहिए,स्वयं अपनी प्रशंसा करना तुच्छता की निशानी है,लेकिन दूसरों की सच्ची प्रशंसा करना उत्कृष्टता का चिन्ह है,क्योंकि इससे दूसरों को प्रोत्साहन मिलता है।यदि कहीं अपनी प्रशंसा सुनने को मिल जाए,तो अहंकार नहीं करना चाहिए,क्योंकि मनुष्य में जो कुछ भी अच्छा होता है,वह परमेश्वर द्वारा दिए गए बुद्धि-विवेक व सामर्थ्य से होता है और गलती हमेशा हमारे कारण हो जाती है,उसमें भगवान का कोई दोष नहीं होता है।
  • बातचीत करना एक बहुत बड़ी कला है।इसलिए इसे सीखना चाहिए।व्यर्थ की बातें नहीं करना चाहिए।दूसरों को क्या सुनना पसंद है,उनकी उत्सुकता किसमें है,यह सब समझकर ही बोलना चाहिए।दूसरों की बात भी धैर्यपूर्वक सुननी चाहिए।अपनी ही बात करते रहने वाले लोगों की बातों पर अन्य व्यक्ति विशेष ध्यान नहीं देते हैं।इसलिए दूसरों की बातों का भी सम्मान करना चाहिए।जो इन सरल उपायों को जीवन में धारण करते हैं,उन्हें सम्मान पाने के लिए भटकना नहीं पड़ता और वे स्वतः ही लोगों की श्रद्धा के पात्र बन जाते हैं।

4.सम्मान या अपमान हमारे कर्मों के फल (Honor or Insult the Fruits of Our Deeds):

  • संसार में यश-प्रतिष्ठा सभी पाना चाहते हैं।एक अद्भुत आकर्षण है:इसे प्राप्त करने में।एक अजीब सी दौड़ यश-प्रतिष्ठा प्राप्त करने में लगी हुई है।यश-प्रतिष्ठा-सम्मान सभी अर्जित करना चाहते हैं,लेकिन ये मिलते सभी को नहीं है।ये केवल उन्हें मिलते हैं,जिनके पास पुण्यसंपदा यानी शुभकर्मों की वह जमा पूंजी होती है,जिसके पकने की कार्यविधि पूर्ण हो चुकी होती है।जिस तरह बैंक में व्यक्ति कुछ पैसों को एक निश्चित समय के लिए फिक्स डिपाजिट करता है और वह समय पूरा होने के बाद व्यक्ति उस जमा पूंजी को अधिक बढ़ी हुई मात्रा में कभी भी निकाल सकता है या उस पूंजी के जमा होने की अवधि को ओर बढ़ा सकता है,कुछ इसी तरह का हिसाब होता है,हमारे शुभ कर्म के साथ।
  • प्रतिष्ठा-यश-सम्मान वह जरिया हैं,जिनके माध्यम से हमारी जमा पूंजी को उसके बैंक से बाहर निकाल लिया जाता है और इन्हें अर्जित करने में वह व्यय हो जाती है और एक दूसरा तरीका यह है कि इन्हें प्राप्त करने का कोई प्रयास नहीं किया जाए,इनकी इच्छा न की जाए और अपनी जमा पूंजी को लगातार बढ़ने के लिए बैंक में ही जमा रहने दिया जाए; क्योंकि जो पूंजी बैंक से निकलने पर व्यय हो जाती है,उसे पुनः अर्जित करने के लिए दोबारा मेहनत करनी पड़ेगी।शुभ कर्मों को जीवन का अभिन्न अंग बनाना होगा,लेकिन फिर भी न जाने कब वह पुण्यसंपदा अपनी परिपक्व अवस्था में पहुंचेगी,जब उसका उपयोग व उपभोग किया जा सके।
  • इसके विपरीत अपमान-तिरस्कार वह जरिया हैं,जिनसे हमारे द्वारा अर्जित किए गए अशुभ कर्मों का शमन होता है।जब अशुभ कर्म अपनी परिपक्वता की अवस्था में पहुंचते हैं तो इनके भोग के परिणामस्वरूप अपयश-अपमान-तिरस्कार व अन्य शारीरिक व मानसिक कष्टों का सामना करना पड़ता है।अशुभ कर्मों के द्वारा व्यक्ति को कष्ट सहन करने पड़ते हैं,लेकिन ये कष्ट उसके अशुभ कर्मों का शमन करते हैं,उसे परिष्कृत करते हैं।
  • इस संसार में मान-प्रतिष्ठा-यश व्यक्ति को जितना आकर्षित करते हैं,उतना ही अपयश-निंदा-तिरस्कार विकर्षित करते हैं।कोई भी स्वेच्छा से अपयश को गले नहीं लगाना चाहता,लेकिन स्वेच्छा से यश लूटना चाहता है,प्राप्त करना चाहता है।
  • पर प्रकृति इस संसार में कभी किसी के साथ पक्षपात नहीं करती है,ना वह किसी व्यक्ति विशेष की ओर मेहरबान होती है।वह तो हर व्यक्ति का सही हिसाब करती है।जितनी जिसके हिस्से में पुण्यसंपदा होती है,उसके हिस्से में उतनी ही मात्रा में यश-सम्मान-प्रतिष्ठा-सफलताएं डाल देती है और जिसके हिस्से में जितना पाप होता है,उसके पास उतनी मात्रा में बीमारियां-अपयश-बदनामी को डाल देती है।प्रकृति का कार्य तो संतुलन का है,बैंक बैलेंस को बनाए रखने का है।यदि कोई व्यक्ति अपनी जमा की गई पुण्यसंपदा से अधिक मात्रा में सुख का भोग करता है,तो प्रकृति उसे दंड देती है और यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को उसके संचित पाप कर्मों से अधिक मात्रा में सताता है,परेशान करता है तो प्रकृति उस व्यक्ति को दंड देती है,जो आवश्यकता से अधिक मात्रा में दूसरों को सताता है।
  • प्रकृति के इस रहस्य को जो व्यक्ति समझता है,वह कभी अपने जीवन के प्रति शिकायत नहीं करता,बल्कि स्वयं को शुभकर्मों की ओर प्रेरित करता है।तप-अनुष्ठान-व्रत आदि के माध्यम से अपने अशुभ कर्मों के फलों को क्षीण करने का प्रयास करता है,इसके साथ ही भगवान से करुण पुकार अपनी प्रार्थना के माध्यम से करता है,ताकि भगवान उसे सही मार्गदर्शन दें,उसकी सहायता करें।

5.हमेशा शुभ कर्म करें (Always Do Good Deeds):

  • मनुष्य जीवन की एक खास विशेषता है,उसके द्वारा किए जाने वाले कर्म।अपने शुभ कर्मों के माध्यम से मनुष्य न केवल इस संसार में सुखी,संतुष्ट,शांतिपूर्ण जीवन जीता है,बल्कि अपना आंतरिक विकास करके चेतना के उच्च शिखरों का भी स्पर्श करता है,लेकिन हर मनुष्य के जीवन में जाने-अनजाने भूलें हो जाती हैं या परिस्थितियों के दबाववश अशुभ कर्म हो जाते हैं।ऐसी परिस्थिति में अपने जीवन में कुछ ना कुछ नियमित रूप से तप-अनुष्ठान करते रहना चाहिए,ताकि जीवन अंधियारों से न घिरे,प्रकाश का संस्पर्श जीवन में बना रहे।
  • यदि मनुष्य का मन शुभ कर्मों की ओर नहीं है,अच्छे कर्म से वह कतराता है,बुराई का साथ देता है तो इसका अर्थ यह है कि उसने अपने जीवन में अशुभ कर्म करने की आदत डाल ली है,जिसका परिणाम उसके भावी जीवन के लिए अशुभ हो सकता है,चाहे उसका परिणाम उसे इसी जन्म में मिले या अगले जन्म में,लेकिन भोगना अवश्य पड़ता है।अशुभ कर्मों का एक परिणाम है:जीवन का अंधकार से घिर जाना,जिसमें कुछ भी समझ नहीं आता,कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता और एक अजब सी बेचैनी,घबराहट मन में बनी रहती है,जो उसे सतत परेशान करती है।इसके विपरीत शुभकर्मों के परिणामस्वरूप जीवन प्रकाशित होता है,जीवन का तेजी के साथ विकास होता है,मन में प्रसन्नता,संतोष का अनुभव होता है।
  • चयन मनुष्य को करना होता है कि वह किस राह पर चले,शुभ कर्मों की राह पर या फिर अशुभ कर्मों की राह पर।कई बार अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए मनुष्य गलत राह का चयन कर लेता है,अतिशीघ्र मनोवांछित इच्छाओं की प्राप्ति हेतु यदि उसे अशुभ कर्म भी करना पड़े तो चूकता नहीं है,लेकिन इसके दूरगामी परिणाम उसे भोगने अवश्य पड़ते हैं और इन्हें भोगने के लिए उसे तैयार रहना चाहिए,न की अपने कर्मों का दोष दूसरों पर मढ़ना चाहिए।
  • कर्मों के भोग के माध्यम से प्रकृति मनुष्य को संस्कारों के बोझ से मुक्त करती है,लेकिन चित्त के इन कर्मों की संख्या भी अनगिनत होती है और इससे जीवन भोग का पर्याय बन जाता है।हमारा वर्तमान जीवन हमारे अतीत के कर्मों के फलानुसार अपनी दिशा तय कर चुका है और हमारे वर्तमान में किए जाने वाले कर्म भविष्य की दिशा तय करते हैं।जीवन में हमें जो कुछ भी मिलता है,वह सब हमारा किया धरा ही है,लेकिन मन इसे सहज स्वीकार नहीं करता और दोषारोपण करने लग जाता है,तर्क-वितर्क करता है,फिर भी सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता।इसलिए जीवन को यदि संवारना है तो निष्काम भाव से शुभ कर्म किए जाएं,ताकि जीवन का परिष्कार हो सके।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में सत्कर्मों से हमारा जीवन कैसे सुधरता है? (How Does Good Deeds Improve Our Lives?),छात्र-छात्राओं को सत्कर्म क्यों करना चाहिए? (Why Should Students Do Good Deeds?) के बारे में बताया गया है।

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6.एक गणित की पुस्तक का दो दिखना (हास्य-व्यंग्य) (Two Looks of a Math Book) (Humour-Satire):

  • छात्र (गणित शिक्षक से):सर,मुझे सवाल हल करते समय गणित पुस्तक दो दिखाई देने लगती है।
  • गणित शिक्षक:अच्छा,आप इस सवाल को हल करो।
  • छात्र:सर,इन दोनों सवालों में से किस सवाल को हल करूं।

7.सत्कर्मों से हमारा जीवन कैसे सुधरता है? (Frequently Asked Questions Related to How Does Good Deeds Improve Our Lives?),छात्र-छात्राओं को सत्कर्म क्यों करना चाहिए? (Why Should Students Do Good Deeds?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.कर्म किसे कहते हैं? (What is karma?):

उत्तर:फल की इच्छा से कोई भी कार्य किया जाता है तो उसे कर्म कहते हैं।कार्य करने में कर्त्ता का भाव रहता है अर्थात् अमुक कार्य मैं कर रहा हूं तो ऐसे कार्य को कर्म कहते हैं।मुझे अमुक परीक्षा उत्तीर्ण करनी है,मुझे अमुक वस्तु प्राप्त करनी है,ऐसा संकल्प करके फल की इच्छा से जो कार्य किया जाता है उसे कर्म कहते हैं।

प्रश्न:2.विकर्म किसे कहते हैं? (What is Vikarma?):

उत्तर:विकर्म का अर्थ होता है:विशेष कर्म।जब किसी कार्य में कर्त्तापन और कर्म करने का भाव मिट जाता है। यानी घटनाएं घटित हो रही हैं।जैसे शरीर में रक्त का संचार हो रहा है,हम सोते समय भी सांस लेते रहते हैं और शरीर की अन्य क्रियाएं घटित हो रही हैं।ये क्रियाएं प्रकृति द्वारा,परमात्मा की विधि-विधान के अनुसार हो रही हैं।इनके कर्त्ता हम नहीं है।विकर्म हमारी समझ है,इसे ही विजडम या प्रज्ञा कहते हैं।

प्रश्न:3.अकर्म किसे कहते हैं? (What is Called Inaction?):

उत्तर:अकर्म ठीक कर्म के विपरीत होता है।अकर्म का अर्थ है ऐसा कर्म जिसमें कोई भी कार्य करते समय कर्त्तापन का भाव नहीं रहता है।ऐसा भाव नहीं रहता है कि मैं इस कार्य को कर रहा हूं।अभिमान और फलासक्ति छोड़कर किया गया कर्म अर्थात् निष्काम कर्म को ही अकर्म कहते हैं।कर्त्ता भाव मिट जाता है तो कर्म का बंधन भी नहीं होता है।कर्म का बंधन तभी होता है,जब हम किसी कार्य को करने का अपने आपको कर्त्ता समझ लेते हैं,ऐसी स्थिति में किसी भी व्यक्ति अथवा विद्यार्थी द्वारा किया गया कर्म बंधनों से मुक्त होता जाता है और ऐसी स्थिति में व्यक्ति कर्म के परिणाम से सुखी-दुःखी नहीं होता है,बल्कि जो भी परिणाम मिलता है उसको सहज भाव से स्वीकार कर लेता है।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा सत्कर्मों से हमारा जीवन कैसे सुधरता है? (How Does Good Deeds Improve Our Lives?),छात्र-छात्राओं को सत्कर्म क्यों करना चाहिए? (Why Should Students Do Good Deeds?) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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