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Culture of Admission to Public Schools

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1.पब्लिक स्कूलों में प्रवेश का कल्चर (Culture of Admission to Public Schools),भारत में पब्लिक स्कूलों में छात्र-छात्राओं के प्रवेश का कल्चर क्या है? (What is Culture of Admission of Students to Public Schools in India?):

  • पब्लिक स्कूलों में प्रवेश का कल्चर (Culture of Admission to Public Schools) जानकर हर कोई हैरत में पड़ सकता है।जिस देश में शिक्षा को व्यवसाय नहीं माना जाता था,जहाँ शिक्षा और विद्या का समग्र दायित्व ऐसे तपोनिष्ठ एवं साधना से युक्त आचार्यों को सौंपा गया था जो विद्या को मन-वचन-कर्म से विद्यादान करते थे,एक ऐसा दान जो मानवता और मानव समाज को सहज-सतत-सर्वांगीण विकास की ओर बढ़ते रहने की ऊर्जा देता रहे।जहां शिक्षा संस्थानों को अपेक्षित साधन और सुरक्षा सुलभ कराते रहना राज्य का अनिवार्य दायित्व था।
  • जिस देश में शिक्षा केवल व्यवसाय माना जा रहा हो,जहाँ माता पिताओं को एक अच्छी शिक्षण संस्था में अपने नन्नें-मुन्नों को दाखिला दिलाने के लिए असह्य यन्त्रणाएं झेलनी और अपमानजनक समझौते करने पड़ते हैं,जहां शिक्षा का अंतिम लक्ष्य मानवता और मानव समाज की तबाही का सबब बन कर रह जाता है।जहाँ शिक्षा की बाबत राष्ट्रीय चिंतन को अंतरराष्ट्रीय चिंतन का ‘ग्लोबल ओपन मार्केट’ (विश्वव्यापी खुला बाजार) लील गया है।
  • ये दोनों नजीरें हमारे भारत की ही हैं,जहां दुर्भाग्यों-दुश्चक्रों का मारा हमारा प्यारा देश भारत,जिसे शिक्षा की बाबत इतना बेतुका पलटा खाना पड़ा है।आज शिक्षा किस स्थिति तक जा पहुंची है इसके कटुक्ति अनुभव बताने-सुनाने के लिए लाखों अभिभावक बेताब हैं,पर कोई सुनने-गुनने वाला नहीं है,जबकि देश प्रवेश (एडमिशन-दाखिले) के दर्दनाक दौर से गुजर रहा है।जहाँ देखो वहीं माता-पिता चिन्ताग्रस्त और विकल-बेचैन नजर आते हैं।बच्चे भी दुःखी और उदास हैं,एक तोड़ने वाला तनाव लिए हुए हैं।
  • जिन बच्चों को मां-बाप स्कूल में दाखिला दिलाने के लिए जमीन-आसमान एक किए हुए हैं उनके इस तनाव को अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता।देश में जिन महीनों में प्रवेश दिलाया जाता है उनमें अभिभावकों और बच्चों के सिर पर एक अच्छा-सा स्कूल चुनने और उसमें दाखिला पाने की चिंता रहती है उनके लिए ये दिवास्वप्न बन जाते हैं।यही मौसम है जब शिशु कक्षाओं में दाखिले होते हैं और अभिभावक पब्लिक स्कूलों की दौड़ लगाने लगते हैं।
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2.पब्लिक स्कूलों में प्रवेश की पात्रता (Eligibility for Admission to Public Schools):

  • कुछ साल पहले तक एक या दो स्कूलों का प्रवेश-प्रपत्र (एडमिशन फॉर्म) भर देना पर्याप्त होता था।’इस’ नहीं उस स्कूल में प्रवेश मिल जाता था।परंतु वर्तमान समय में न बच्चों की खुशकिस्मती रह गयी है और न ही स्कूलों की वह उदारता।प्रवेश का बाजार अब विक्रेता का बाजार बन गया है।पब्लिक स्कूल अब ‘क्वालिटी एजुकेशन’ बेच रहे हैं।अभिभावक इसका अर्थ गुणवत्ता सम्पन्न,स्तरीय शिक्षा लगा रहे हैं और ललक के मारे लुटे जा रहे हैं।लेकिन इस ‘क्वालिटी एजुकेशन’ का व्यावहारिक आशय क्या है,यह पब्लिक स्कूलों के व्यवस्थापकों के अलावा ओर कोई नहीं जानता।
  • माता-पिता या अभिभावक अपने बच्चों के लिए विद्यालय का चयन नहीं करते बल्कि विद्यालय ही अपने लिए बच्चों का चयन करते हैं।यह शिक्षार्थी चयन एक साक्षात्कार (जिसे विद्यालयों के संचालक ‘इंटरैक्शन’, अर्थात् पारस्परिक प्रभाव कहते हैं) के माध्यम से होता है।ये विद्यालय बच्चों के अभिभावकों का चयन भी करते हैं-एक गहन गंभीर साक्षात्कार के माध्यम से विभिन्न उद्देश्यों को लेकर विभिन्न प्रकार की उनकी पूछताछ से उनकी पूरी जांच-परख कर ली जाती है।बच्चे का प्रदर्शन और माता-पिता के व्यक्तित्त्व या प्रभाव मिलकर प्रवेश की पात्रता निर्धारित करते हैं।इस प्रक्रिया में एडमिशन (प्रवेश) का काम लम्बा और दुष्कर भी हो जाता है।कुछ स्कूल,दो इंटरव्यू (साक्षात्कार) लेते हैं,एक बच्चे का और दूसरा उसके अभिभावकों का। परंतु ये सब ऊपरी दिखावा है।वास्तव में ये स्कूल क्या तलाश रहे होते हैं? हालांकि स्कूल के प्रधानाचार्य की सफाई है कि हम नन्हें-मुन्नों का ‘इंटरव्यू’ हरगिज नहीं लेते।अजनबियों से घिर जाना और फिर सवालों के जवाब देना बच्चों के लिए भारी यातना है,इसलिए हम उन पर गौर करके प्रवेश नहीं देते।वास्तव में हम साक्षात्कार माता-पिता का ही लेते हैं जबकि बच्चे आस-पास खिलौने से खेलते रहते हैं।
  • यह स्कूल माता-पिता की पृष्ठभूमि,बच्चे के प्रति उनके रुझान और बच्चे के साथ बिताए जाने वाले उनके समय पर विचार करता है।स्कूल की शिशु कक्षाएं दो पारियों में चलती हैं।प्रत्येक पारी में 25 से 50 तक छात्र-छात्राएं होती है।स्कूलों के संचालकों का तथाकथित दिग्दर्शन यह सिद्धांत करता है कि नर्सरी (शिशुशाला) का दौर बच्चे के जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण दौर होता है और इस दौर पर व्यक्तिगत तथा विशेष ध्यान देने से ही बच्चे का भविष्य उज्ज्वल हो सकता है।उनका मानना है कि स्कूल किसी बच्चे की शिक्षा में महज हिस्सेदार होते हैं और माता-पिता की सक्रिय सहायता और सहयोग के बिना आप किसी बच्चे को अच्छी शिक्षा नहीं दे सकते।इसलिए उनका ध्यान बुनियादी तौर पर माता-पिता (अभिभावक) पर ही रहता है।वे इस बात पर गौर करते हैं कि प्रवेशार्थी बच्चे के मां-बाप की क्षमता कितनी है,वे अपने बच्चे के साथ कितना समय व्यतीत करते हैं और बच्चे के साथ उनके आपसी बर्ताव किस तरह के होते हैं।स्कूल पूर्णतः आश्वस्त हो लेता है कि बालक को एक बार प्रवेश दे दिए जाने पर मां-बाप अपने बच्चे को सहायता और पृष्ठभूमिभूमिगत सहयोग दे पाएंगे या नहीं।
  • कुछेक स्कूल तो इससे भी कुछ कदम आगे बढ़कर परीक्षा लेते हैं।ये स्कूल बाकायदा पैसा खर्चकर बाल-विशेषज्ञ और मनोविदों की सेवाएं लेते हैं।इन स्कूलों को प्रवेश के तौर-तरीके से कुछ भी लेना-देना नहीं है।वो तो बाहर से लाए गए एक्सपर्ट (विशेषज्ञ) होते हैं जो प्रवेश पाने के लिए आये बच्चों की पात्रता का आकलन करते हैं और चुने हुए अभ्यर्थियों के नाम स्कूल बोर्ड के पास भेज देते हैं,जहां से नामों की सूची प्राचार्य के पास आ जाती है।अब यह भी जान लें कि ये विशेषज्ञ प्रवेशार्थी बनकर आने वाले बच्चों में वास्तव में कौन-सी खूबियाँ टटोलते हैं? वे बारीकी से देखते-परखते हैं कि प्रवेश चाहने वाले बालक का व्यवहार और प्रवृत्ति दूसरे बच्चों और जिन खिलौनों से वह खेलता है उनके साथ कैसी है।बस इसी से वे (विशेषज्ञ) उस मासूम नादान की प्रवेश-पात्रता का निर्धारण कर लेते हैं।बच्चे की तेजी उसके भोंदेपन,उसके लालन-पालन और दूसरी-दूसरी खूबियों-खामियों का,साथ ही उसकी किस्मत का निर्धारण चंद लम्हों की निगरानी के आधार पर करना वाकई कितना वैज्ञानिक है?

3.सक्षम आदेशों की परवाह नहीं (Don’t Care About Competent Commands):

  • नर्सरी (शिशु कक्षा) में प्रवेश-पूर्व के साक्षात्कार को प्रायः प्रत्येक भारतीय शिक्षाविद शिशु और उसके मां-बाप के साथ अवांछनीय अत्याचार मानता है।न्यायालय तक इसे गलत करार देता है।इसीलिए एक अदालती आदेश द्वारा स्कूलों को बच्चों के साक्षात्कार लेने से वर्जित कर दिया गया है।इसके बावजूद कई स्कूलों ने अपनी विवर्णिकाओं (प्रास्पेक्टस) में साक्षात्कार की सूचनाएं विधिवत विज्ञापित की है।उनका तर्क है कि दूसरा कौन-सा तरीका है कि वे प्रवेश के लिए संपर्क कर रहे सैकड़ों-हजारों में से अपनी जरूरत के थोड़े बच्चों का चयन कर लें? कई पब्लिक स्कूलों के प्राचार्य तो इस तरीके को चयन-प्रक्रिया (सेलेक्शन प्रोसेस) के बजाय निरस्त्रीकरण प्रक्रिया (इलिमिनेशन प्रोसेस) कहना बेहतर मानते हैं।
  • कुछ स्कूल नौकरीशुदा पृष्ठभूमि वाले और पास-पड़ोस में रहने वाले बच्चों को वरीयता देते हैं।बकौल इन स्कूलों के प्राचार्यों, “ऐसे बच्चे उनकी स्कूल में चलने वाली कक्षाओं के छात्रों के साथ आसानी से घुलमिल जाते हैं।वे मां-बाप का ज्ञान देखते हैं।”मां-बाप की स्कूल से क्या अपेक्षाएं हैं,उनका नजरिया क्या है,यह जानने की जहमियत स्कूलों के कर्त्ता-धर्त्ता नहीं उठाते हैं।हालांकि वे (स्कूल के व्यवस्थापक) जताते यही हैं कि यदि वे (माता-पिता) अपनी ओर से अपनी इच्छा और तत्परता से आश्वस्त करते हैं तो वे (प्राचार्य) अवश्य उनकी मदद करते हैं।उनका मानना है कि रुपयों की गड्डियाँ दिखाने आने वाले धनवान छात्रों को लेने से बाज आते हैं क्योंकि इससे विद्यालय का वातावरण बिगड़ जाता है।
  • गनीमत है कि प्रकट तौर पर इन पब्लिक स्कूलों में प्रवेश के लिए छात्र-छात्राओं की वित्तीय पृष्ठभूमि विचारणीय नहीं रह गई है।कम से कम सभी विद्यालय यह दावा प्रकट तौर पर समान रूप से करते हैं।
  • कुछ स्कूलों में आठ-दस किलोमीटर के दायरे में रहने वाले छात्रों को ही दाखिला दिया जाता है।ऐसा कुछ सरकारों द्वारा अधिसूचना जारी होने के बाद होने लगा है जिसमें स्कूलों से पास-पड़ोस के छात्रों को प्रवेश के लिए कहा गया है।कुछ स्कूल प्रगट तौर पर दावा यही करते हैं कि वे दूर के छात्र-छात्राओं को प्रवेश नहीं देते हैं,यदि सीटें पूरी नहीं भरी होती हैं तभी दूर के छात्र-छात्राओं को प्रवेश देते हैं।

4.पब्लिक स्कूलों में प्रवेश का यथार्थ (The Reality of Admission to Public Schools):

  • यदि पास-पड़ोस में रहने वाले सभी बच्चे अपने क्षेत्र के पब्लिक स्कूल में प्रवेश पा जाते तो उनके मां-बाप दूर के स्कूलों के दरवाजे क्यों खटखटाते?दरवाजे ही नहीं खटखटाते बल्कि अनेकानेक मां-बाप अपने बच्चों को खास-खास स्कूलों में प्रवेश दिलाने के प्रयास में गलत तरीके अपनाने से भी बाज नहीं आते।जो विद्यालय कुछ किलोमीटर की निश्चित सीमा से बाहर के छात्रों को प्रवेश देने पर रोक लगाए हुए हैं उनमें अपने बच्चों को नाजायज तरीके से दाखिला दिलाने के लिए मां-बाप अपने रिश्तेदारों या मित्रों के ऐसे पते दे देते हैं जो स्कूल द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर हों।इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए स्कूल पंजीकरण फॉर्म भरने के समय आवासीय प्रमाण पत्र की सत्यापित प्रति भी मांगने लगे हैं।किन्तु मां-बाप ऐसी जहमत,यह सरदर्द मोल लेते ही क्यों हैं? क्योंकि वे अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा,उत्तम कोटि की शिक्षा दिलाना चाहते हैं,क्योंकि पब्लिक स्कूल ही क्वालिटी एजुकेशन (स्तरीय शिक्षा) देने वाले स्कूल हैं।
  • ये स्कूल तमाम तरह की नाजायज मांगे करते हैं,शर्ते रखते हैं,फिर भी मां-बाप उनके दरवाजे खटखटाते हैं क्योंकि उनके लिए अन्य कोई विकल्प नहीं है।वे केवल अच्छी शिक्षा की कीमत देते हैं।तथ्य यही है कि इसी उद्देश्य के लिए लोग भारी दान की रकम चुकाने में भी नहीं हिचकिचाते।
  • जिस शिक्षा की शुरुआत ही भेदभाव,अन्याय और शोषण के साथ होती है उसके अंजाम क्या होंगे?यह तस्वीर दिल्ली,मुंबई,कोलकाता,चेन्नई,कानपुर,पटना,भोपाल इत्यादि परम स्वतन्त्र महानगरों की हैं जहाँ मां-बाप इतने परेशान हैं और पब्लिक स्कूलों के नखरे और नागरिकों के दुखड़े क्या होंगे,यह आसानी से समझा जा सकता है।संकट की तस्वीर फिर अधूरी है क्योंकि इसमें ग्रामीण,कस्बों और असमर्थ (बहुसंख्यक) शिशु और उनके माता-पिता नहीं है।
  • प्रवेश की यह चर्चा पब्लिक स्कूलों के प्रवेश-द्वार पर ही खत्म करने के लिए यह भी जान लेना जरूरी है कि जो स्कूल प्रवेश देने के पूर्व अभिभावकों के सामने इतनी बड़ी-बड़ी शर्तें और माँग रखते हैं वे यह क्यों नहीं बताते कि नर्सरी शिक्षा की बाबत उनकी महत्त्वपूर्ण उपादेयता क्या है? कई स्कूल अभिभावकों को यह बताने का कष्ट नहीं उठाते कि उनके स्कूल हुलिया क्या है? वे अपनी विवरण पुस्तिका तक नहीं छपवाते।जो छपवाते भी हैं वे सच-सच यह नहीं बताते कि उनमें ऐसी (उल्लेखनीय) विशिष्ट बात क्या है? फिर कदाचित ही कोई विद्यालय ‘क्वालिटी टीचिंग’ (उत्तम,स्तरीय शिक्षण) को अपना परम लक्ष्य बनाने की प्रतिबद्धता छपे रूप में प्रस्तुत करता है।अपनी ‘पोल’ आम न करना,असली राज तोपे-ढंके रखना क्या बताता है? यही न कि यह धंधे का मामला है।हर वर्ष प्रवेश के समय यह भीड़ नजर आती है जो साल-दर-साल बढ़ती जा रही है,मानों लोग सनक गए हों,भूल गए हों,कि वे शिक्षा के चौखट पर नहीं,शोषण के बाजार में खड़े हैं।सब जानते हैं कि प्रवेश के लिए यह पागलों की भीड़ तब तक बढ़ती जाएगी जब तक सरकारे ऐसी संस्थाएं नहीं बनाती जो प्रवेश के लिए सांसत झेलते सहस्रों नर-नारियों और बच्चों को बराबरी,अच्छा वातावरण और पब्लिक स्कूलों जैसी शिक्षा सुलभ कराये।लेकिन जो सरकार इसे अपना दायित्व ही मानतीं वह ऐसी संस्थाएं क्यों बनाएगी? मगर बना भी सकती है बशर्ते इस भीड़ को एक आंदोलन में तब्दील कर दिया जाए।

5.पब्लिक स्कूलों में प्रवेश का दृष्टान्त (Illustration of Public School Admission):

  • एक नगर के पब्लिक स्कूल में मां-बाप ने अपनी बच्ची को प्रवेश दिला दिया।बच्ची ने अपनी जिंदगी के लिए एक ऐसा जुनून कायम किया जो उसकी पहचान बन चुका है।आज वह आत्मनिर्भर है,अपने पैरों पर खड़ी है।प्रवेश के समय वह पोलियो की शिकार हो चुकी थी।उस समय स्कूल ने तय किया कि उसकी कक्षा स्कूल की पहली मंजिल पर लगेगी।फिर स्कूल के व्यवस्थापक ने उस बच्ची का ख्याल रखते हुए यह निर्णय लिया कि ग्राउंड फ्लोर पर ही कक्षा चलने दो।हालांकि टीचर्स का यह फैसला उस बच्ची की सुविधा के लिए लिया गया था लेकिन बच्ची ने जब देखा कि उसके प्रति दया का भाव दिखाया जा रहा है तो उसे अच्छा नहीं लगा।
  • वह बच्ची टीचर्स के पास गई और कहा कि मेरी वजह से आप बैठने की व्यवस्था न बदले,जहाँ बैठना तय हुआ है,हम वही बैठेंगे।
  • बच्ची की हिम्मत देखकर स्कूल के प्राचार्य और टीचर्स को बड़ी खुशी हुई।धीरे-धीरे पोलियो की शिकार वह बच्ची ठीक होती गई।आगे की कक्षाओं में उसकी कक्षा स्कूल भवन की चौथी मंजिल पर लगती थी।
  • कोई भी उसके प्रति दया दिखाता तो उसे बुरा लगता था।लेकिन जो उसे उत्साहित करता,उसे सृजनात्मक और कुछ नया करने की सलाह देता तो वह उसे अच्छा लगता और उसे आत्मविश्वास तथा ऊर्जा से भर देता था।
  • वह समय गुजर गया और विश्वविद्यालय से डिग्री लेकर आज वह आत्मनिर्भर है।वह अपने अतीत और आज के बारे में सोचती है तो उसे आश्चर्य होता है।वह क्या थी और क्या बन गई?
  • यह बदलाव उसे सुकून देता है।हर बच्चे को सपने देखने का अधिकार है बस जरूरत है हिम्मत और सही मार्गदर्शन की।दया मन में कुंठा पैदा कर देता है।सोचने,समझने व सीखने के दायरे को सीमित कर देती है जबकि सकारात्मक सोच,सहयोग व सही मार्गदर्शन भविष्य निर्माण के कई रास्ते खोल देता है।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में पब्लिक स्कूलों में प्रवेश का कल्चर (Culture of Admission to Public Schools),भारत में पब्लिक स्कूलों में छात्र-छात्राओं के प्रवेश का कल्चर क्या है? (What is Culture of Admission of Students to Public Schools in India?) के बारे में बताया गया है।

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6.गणितज्ञ को भगवान का बुलावा (हास्य-व्यंग्य) (God’s Call to Mathematician) (Humour-Satire):

  • पिंकी (रिंकी से):भगवान भी गणित में कमजोर हैं।
  • रिंकीःतुम्हें कैसे पता?
  • पिंकीःआज बड़े भैया कोचिंग में गणित बिना पढ़े ही आ गए।माँ से कह रहे थे कि गणितज्ञ (टीचर) को भी भगवान ने अपने पास बुला लिया।

7.पब्लिक स्कूलों में प्रवेश का कल्चर (Frequently Asked Questions Related to Culture of Admission to Public Schools),भारत में पब्लिक स्कूलों में छात्र-छात्राओं के प्रवेश का कल्चर क्या है? (What is Culture of Admission of Students to Public Schools in India?) से संबंधित पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.पब्लिक स्कूलों में बच्चों के दाखिले की प्रक्रिया क्या है? (How is the Admission Process in Public Schools?):

उत्तर:आज पब्लिक स्कूलों में भी बच्चों के दाखिले की प्रक्रिया अत्यंत जटिल और बोझिल हो चुकी है। बावजूद इसके लोग अपने बच्चों का दाखिला इन स्कूलों में करवाने के लिए लालायित रहते हैं।आज हर माता-पिता व अभिभावक अपने बच्चों को इन पब्लिक स्कूलों में पढ़ाना चाहता है।इसी कारण महानगरों और बड़े शहरों में ही नहीं बल्कि गांवों व कस्बों में भी ये पब्लिक स्कूल कुकुलमुत्तों की तरह बढ़ते जा रहे हैं।

प्रश्न:2.क्या पब्लिक स्कूलों में स्तरीय शिक्षा प्रदान की जाती है? (Is Quality Education Provided in Public Schools?):

उत्तर:बहुत कम,गिने-चुने पब्लिक स्कूल ऐसे हैं जिनमें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान की जाती है।ज्यादातर पब्लिक स्कूलों का उद्देश्य अधिक से अधिक धनार्जन करना है।उन्हें इससे कोई लेना-देना नहीं है कि बालकों को कितना समझ में आ रहा है, समझ में नहीं आ रहा है तो क्यों नहीं आ रहा है,उसको समझाने के लिए क्या प्रयास किए जाएं?फलतः आगे की कक्षाओं में तथा बोर्ड परीक्षा में बहुत से छात्र-छात्राएं असफल हो जाते हैं और फिर वे हिंदी माध्यम के स्कूलों में प्रवेश ले लेते हैं।इस प्रकार जब बच्चे की नींव तो अंग्रेजी माध्यम में लगी है और आगे की कक्षाओं में हिंदी माध्यम में पढ़ाया जाता है तो न तो वह जल्दी से हिंदी माध्यम में प्रगति कर सकता है और अंग्रेजी माध्यम में तो वह असफल हो चुका है।ऐसे बालक बालिकाएं न घर के रहते हैं और न घाट के।

प्रश्न:3.पब्लिक स्कूल क्यों पनप रहे हैं? (Why are Public Schools Flourishing?):

उत्तर:पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव और एक-दूसरे के देखा-देखी माता-पिता व अभिभावक अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के पब्लिक स्कूलों में पढ़ाना चाहते हैं।उन्हें इससे कोई मतलब नहीं रहता है कि बच्चे संस्कार सीख रहे हैं या नहीं।बच्चे योग्य बन रहे हैं या नहीं क्योंकि वे खुद धन कमाने में इतने व्यस्त रहते हैं कि बच्चों के बारे में सोचने-समझने की फुर्सत नहीं है।उनकी मान्यता यह है कि अच्छे स्कूल (पब्लिक स्कूल) में दाखिला दिला दो,बस इतना ही वे अपना कर्त्तव्य समझते हैं।परिणामस्वरूप बच्चे गुणवत्तापूर्ण व स्तरीय शिक्षा से वंचित रह जाते हैं।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा पब्लिक स्कूलों में प्रवेश का कल्चर (Culture of Admission to Public Schools),भारत में पब्लिक स्कूलों में छात्र-छात्राओं के प्रवेश का कल्चर क्या है? (What is Culture of Admission of Students to Public Schools in India?) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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