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How to Do Predicative Hypothesis?

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1.विधेयात्मक कल्पना कैसे करें? (How to Do Predicative Hypothesis?),विधेयात्मक कल्पना को कैसे साकार करें? (How to Realize Predicative Assumption?):

  • विधेयात्मक कल्पना कैसे करें? (How to Do Predicative Hypothesis?) क्योंकि कल्पनाएं हवाई किला,अटकलबाजी,निरर्थक,नकारात्मक,विधेयात्मक (सकारात्मक) आदि कई प्रकार की हो सकती हैं।जैसे मैं पक्षी बन जाऊं,मैं आकाश में पौधे लगा दूं आदि इसी प्रकार की निरर्थक कल्पनाएं जो हमारे विकास,उन्नति और सफलता में बाधक न होकर हमारा समय नष्ट करने वाली होती है।
  • कल्पना से संबंधित एक आर्टिकल पूर्व में भी इस वेबसाइट पर पोस्ट किया जा चुका है।उसमें कल्पनाशक्ति की उपयोगिता,कल्पनाशक्ति को कैसे विकसित करें आदि के बारे में बताया गया है।इस आर्टिकल में आपको ऐसी तकनीक बताई जा रही है की कल्पनाशक्ति को सही दिशा कैसे दें,कैसे विधेयात्मक चिंतन करें जिससे हमारे समय और ऊर्जा की बचत हो।
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2.विभिन्न कल्पनाएं और सही कल्पना के चरण (Different Hypothesis and Stages of Perfect Imagination):

  • शब्दों के जोड़ से बनी धारणा एक प्रकार की कल्पना होती है।शब्दों के जोड़ से हर एक का परिचय है।हम सभी अपने जीवन के क्षणों को कल्पनाओं से सँवारते रहते हैं।कई बार ये कल्पनाएं हमारे अतीत से जुड़ी होती हैं और कई बार हम इन कल्पनाओं के धागों से अपने भविष्य का ताना-बाना बुनते हैं।हममें से बहुसंख्यक कल्पना के इतने आदी हो चुके हैं कि मन ठहरने का नाम ही नहीं लेता। किसी भी कार्य से उबरते ही कल्पनाओं के हिंडोले में झूलने लगता है।भाँति-भाँति की कल्पनाएं,रंग-बिरंगी और बहुरंगी कल्पनाएं,कभी-कभी तो विद्रुप और भयावह कल्पनाएं चाहे-अनचाहे हमारे मन को घेरे रहती हैं।कभी हम इनकी सम्मोहकता में खो जाते हैं,तो कभी इनकी भयावहता के समक्ष हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।स्थिति यहां तक है कि कल्पना-रस हमारा जीवन-रस बन चुका है।
  • कल्पना-रस में डूबे और विभोर रहने के बावजूद हमने इसे ठीक तरह से पहचाना नहीं है।कल्पना सदा ही कोरी और खोखली नहीं होतीं,इन्हें ऊर्जा व शक्ति के स्रोत के रूप में भी अनुभव किया जा सकता है।जो छात्र-छात्राएं ऐसा कर पाते हैं,वे ही सही ढंग से मन की विकल्प वृत्ति का सदुपयोग करना चाहते हैं।कैसे किया जाए यह सदुपयोग? इस प्रश्न का पहला बिंदु है कि कल्पना में निहित शक्ति को,उसकी संभावनाओं को पहचानिए।यह समस्त सृष्टि ब्रह्म की कल्पना ही तो है।हम सब उसके सनातन अंश हैं।ऐसी स्थिति में हमारी कल्पनाओं में भी संभावनाओं के अनंत बीज छिपे हैं।
    कल्पना में समाई शक्ति की संभावनाओं पर विश्वास करने के बाद दूसरा बिंदु है:कल्पनाओं की दिशा।हमें सदा ही विधेयात्मक कल्पनाएं करनी चाहिए,क्योंकि निषेधात्मक कल्पनाएं हमारी अंत:ऊर्जा को नष्ट करती हैं,जबकि विधेयात्मक कल्पनाएं हमारे अंतःकरण को विशद ब्रह्मांड की ऊर्जा-धाराओं से जोड़ती है।उसे ऊर्जावान और शक्तिसंपन्न बनाती है।इस तकनीक का तीसरा बिंदु है:कल्पनाओं को अपनी रुचि के अनुसार अंत:भावनाओं अथवा विवेकपूर्ण विचार से जोड़ना।इस प्रक्रिया के परिणाम बड़े ही सुखद और आश्चर्यजनक होते हैं।अंत:भावनाओं से संयुक्त होकर कल्पना कला को जन्म देती है,जबकि विवेकपूर्ण विचार से जुड़कर कल्पना शोध की सृष्टि करती है।
  • काव्य-कला सहित विश्व-वसुधा की समस्त कलाएं प्रायः इसी रीति से जन्मी,पनपी एवं विकसित हुई हैं।विश्व को चमत्कृत कर देनेवाले शोध (गणितीय शोध,वैज्ञानिक शोध आदि) भी कल्पनाओं के तर्कपूर्ण,विवेकयुक्त विचार से संबद्ध होने से हुई है।अंतःभावनाओं एवं तर्कपूर्ण विचार से कल्पना के जुड़ने से इन दोनों के अलावा एक अन्य सुखद परिणति भी होती है और वह परिणति है,जीवन जीने की कला का विकास।जीवन में एक अपूर्व कलात्मकता,लयबद्धता का सुखद जन्म।इस सत्य से प्रायः बहुत कम लोग परिचित हो पाते हैं,लेकिन जो परिचित हो जाते हैं,उनका जीवन सुमधुर काव्य की भांति सुरीला,संगीत की तरह लययुक्त एवं नवीन शोध की भांति आश्चर्यजनक उपलब्धियों का भंडार हो जाता है।
  • उचित कल्पना का संस्पर्श पाकर जीवन बड़ी ही आश्चर्यजनक रीति से बदल जाता है।यह बदलाव ऐसा होता है,जैसे कि पारस लोहे के काले-कलूटे टुकड़े को छूकर सुगंधित स्वर्ण बना देता है।अतः कल्पना को ख्याली पुलाव मत बनाओ।उसे अपनी शक्ति समझो।अपना ऊर्जा-स्रोत बनाओ।
  • कल्पनाओं को यूं भटकने देना,यूं ही बहकने देना और उस बहाव में स्वयं भी भटकने व बहने लगना,न केवल कल्पनाशक्ति की बर्बादी है,बल्कि इससे जीवन भी बर्बाद होता है।ऐसे में विकल्प की यह वृत्ति क्लेश उत्पादक बन जाती है।लेकिन इसका सदुपयोग होने से यह क्लेश-निवारक बन जाती है।बस,सब कुछ हम साधकों पर है कि उसे अपनी साधना (अध्ययन करना) का साधक तत्त्व बनाते हैं या फिर उसे बाधक बने रहने देते हैं।हमारी योग-साधना के खरे होने की कसौटी इसे अपनी साधना का साधक तत्त्व बनाने में है।इस विकल्प वृत्ति की साधना यदि बहिर्मुखी हो तो हमें सांसारिक उपलब्धियों के वरदान देती है और यदि इसे अंतर्मुखी कर लें,कल्पना हमारी धारणा का स्वरूप ले ले,तो हमें यौगिक-विभूतियों के वरदान देती है।

3.विधेयात्मक कल्पना करने की शर्तें (Predicative Visualization Conditions):

  • विधेयात्मक कल्पना करने में हमारी सूझ (vision),बुद्धि और अनुभव से मदद मिलती है।विधेयात्मक कल्पना करने के लिए कुछ शर्ते हैं जिनका पालन करके कल्पना को सही दिशा दी जा सकती है।

(1.)कल्पना आत्मविरोधी न हो (Imagination should Not Be Self-contradictory):

  • कल्पनाओं को आत्म-विरोधी नहीं होना चाहिए अर्थात् उन्हें ऐसा नहीं होना चाहिए कि वे अपना खण्डन अपने ही निष्कर्षों से कर दें,जैसे दो और दो ग्यारह होते हैं या मलेरिया साफ-सुथरी जगहों में रहने से होता है आदि।
  • कल्पनाओं को अनिश्चित (indefinite) तथा अस्पष्ट (vague) भी ना होना चाहिए।कल्पनाएँ तो किसी घटना की व्याख्या के लिए की जाती है अर्थात् उन्हें स्पष्ट करने के लिए।परंतु यदि कल्पना खुद ही अनिश्चित और अस्पष्ट हो तो वह घटना को स्पष्ट क्या करेगी।हमें किसी प्रकार को स्पष्ट करना चाहिए और निश्चित रूप से कुछ कहना चाहिए।

(2.)कल्पना हास्यापद नहीं होनी चाहिए (Don’t Let the Hypothesis Be Absurd):

  • कल्पना ऐसी नहीं होनी चाहिए जिसमें कोई तुक ही नहीं हो,जो बिना सिर-पैर की हो।जैसे चन्द्र या सूर्यग्रहण हो और उसके कारणस्वरूप कोई यह कल्पना कर ले कि कोई राक्षस चंद्रमा या सूर्य पर पहुंचकर अपने हथियार से उसे काटता जा रहा है,इसलिए ग्रहण लगा हुआ है,तो यह एक ऊटपटांग एवं हास्यास्पद बात होगी।उसी तरह यदि कोई घर से गायब हो और हम यह कल्पना कर लें कि उसे कोई परी उठा कर ले गई होगी तो यह भी वैसे ही बिना सिर-पैर की कल्पना होगी।
  • यहां एक बात कह देना आवश्यक है और वह यह कि बहुत सी कल्पनाएं ऐसी होती हैं जो किसी खास समय में लोगों को हास्यास्पद (absurd) मालूम पड़ती हैं,परंतु बाद में चलकर यह देखा जाता है कि वे ही कल्पनाएं सत्य भी निकल जाती हैं; जैसे आरम्भ में जब कॉपरनिकस ने टोलेमी के सिद्धांत के खिलाफ यह कल्पना की कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती हैं,तो यह कल्पना लोगों को हास्यास्पद और बेकार लगी,परंतु बाद में इसी कल्पना को सत्य पाया गया और आज यह विज्ञान का एक सर्वमान्य नियम है।

(3.)कल्पना को सुस्थापित सत्यों के विरुद्ध नहीं होना चाहिए (Imagination should Not Contradict Well-established Truths):

  • विज्ञान के क्षेत्र में कुछ ऐसे नियम पहले से ही स्थापित हैं जिनकी सत्यता अनेक वर्षों से मान्य है और जो निश्चितरूप से वैज्ञानिक नियम के रूप में वैज्ञानिक काम करते हुए अनेक सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक फल उत्पन्न कर चुके हैं।कल्पना करते समय हमें यह ध्यान रखना आवश्यक है कि हमारी कल्पना इन सुमान्य,सुस्थापित तथा सुप्रतिष्ठित नियमों के विरुद्ध ना हो,उनके सत्य का खंडन न करे।वैज्ञानिक ज्ञान नियमों (laws) का एक ऐसा व्यवस्थित (organised) रूप होता है जिसमें एक नियम दूसरे पर आधारित (interrelated with one another) होते हैं तथा एक का दूसरे से ऐसा आंतरिक संबंध होता है कि सब मिलकर एक अकाट्य इकाई प्रस्तुत करते हैं।इसलिए कल्पना को किसी स्थापित सत्य के विरुद्ध नहीं जाना चाहिए।
  • परंतु,कल्पना के इस शर्त को भी हमें अक्षरशः सत्य रूप में नहीं लेना चाहिए।यदि सचमुच हम कभी ऐसी कल्पना करें ही नहीं जो परिचित नियमों के विरुद्ध जाय तब तो विज्ञानों की प्रगति ही रुक जाएगी।कभी-कभी तो विज्ञानों में ऐसी कल्पनाएं की गई हैं जो स्थापित सत्य के बिल्कुल विरुद्ध रही हैं और पीछे चलकर वास्तविकता ने उनकी सत्यता भी सिद्ध की है।इसका एक ज्वलन्त उदाहरण तो कोपरनिक्स (copernicus) का यह सिद्धांत है कि सूर्य नहीं बल्कि पृथ्वी ही सूर्य के चारों ओर घूमती हैं।
  • इसके पहले टोलेमी (Ptolemy) का यह सर्वमान्य सिद्धांत था कि सूर्य ही पृथ्वी के चारों ओर घूमता है।इस प्रकार कल्पना की इस शर्त को अक्षरशः सत्य रूप में हमें नहीं लेना है।परंतु सामान्य रूप से हमें इतना देखना आवश्यक है कि जिन स्थापित नियमों के पक्ष में ठोस भावात्मक प्रमाण है तथा जिन नियमों के आधार पर अनेक महत्त्वपूर्ण नियम प्राप्त हो चुके हैं उनकी सत्यता के विरुद्ध हमारी कल्पनाओं को नहीं जाना चाहिए।

(4.)कल्पना को वास्तविक तथ्यों पर आधारित होना चाहिए (Imagination Must Be Based on Real Facts):

  • यह तो स्पष्ट ही है कि कल्पना को वास्तविक तथ्यों पर आधारित होना चाहिए क्योंकि हम जानते हैं की कल्पना का प्रारंभ और अंत दोनों वास्तविकताओं में ही होता है।इसका प्रारंभ निरीक्षण (observation) से होता है तथा इसका अंत जाँच (verification) में होता है।और ये दोनों वास्तविकता (fact) से संबंध रखते हैं।
  • न्यूटन ने कहा कि कल्पना को सच्चा या वास्तविक कारण (vera causa) से संबंध रखना चाहिए।इस तरह सिर्फ सच्चा कारण ही कल्पना का विषय बन सकता है।यहां पर सच्चे कारण से मतलब वैसे कारण से है जिसकी सत्ता वास्तविक हो:किसी भ्रम,अंधविश्वास या मानसिक उड़ान पर जो आधारित न हो और जिसके अस्तित्व का प्रमाण हमें मिल सके।ऐसा कारण जिसके अस्तित्व का कोई ज्ञान ही हमें ना हो और ना जिसके अस्तित्व में विश्वास करने का कोई बौद्धिक आधार (Rational ground) ही हो उसे वास्तविक कारण नहीं कहा जा सकता।जैसे,कुछ लोग पृथ्वी को एक नाग के सिर पर अवस्थित मानते हैं और भूकंप के कारणस्वरूप उसी नाग के सिर हिलाने की कल्पना करते हैं।परंतु पृथ्वी का नाग के सिर पर अवस्थित होना एक मिथ्या कल्पना है क्योंकि वह नाग जिस पर पृथ्वी है,कभी भी ज्ञात नहीं होता और न उसके अस्तित्व के विषय में कोई बौद्धिक प्रमाण ही है।वह मनुष्य की अनुभूति के बाहर है और अंधविश्वास पर आधारित है।इस तरह चूँकि इस कल्पना का आधार vera causa नहीं है; इसलिए इसे यथार्थ नहीं माना जा सकता।
  • यहां भी एक बात ध्यान देने योग्य है।ऊपर कहा गया है कि vera causa से मतलब वैसे कारण से है जिसका वास्तविक अस्तित्व हो,जिसका हमें ज्ञान हो सके,जिसकी हमें अनुभूति हो सके,इत्यादि।परंतु,इसका ऐसा मतलब नहीं लगाना चाहिए कि सिर्फ वही vera causa है जिसका हमें प्रत्यक्ष हो सके।यदि ज्ञानेंद्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष होने वाले कारण को ही vera causa के अन्दर रखा जाय तब तो परमाणु (atom),आकाश (ether),दिक् (space) इत्यादि जिनका हमें साक्षात प्रत्यक्ष नहीं होता,vera causa के अंतर्गत नहीं आ सकेंगे।इसलिए vera causa का अर्थ वैसे कारणों से समझना चाहिए जिसके अस्तित्व को मान लेने से हमारे विचार में कोई विरोध उपस्थित ना हो या जिसे वास्तविकता (Reality) का अंग मान लेने से उसमें कोई ऐसी बात न उत्पन्न होती हो जो विरोधी एवं अविश्वासजनक प्रतीत होती हो।
  • परमाणु,आकाश इत्यादि जैसे यथार्थ कारणों का,जिनका हमें साक्षात प्रत्यक्ष तो नहीं होता परंतु जिसके प्रभावों या परिणामों का प्रत्यक्ष होता है और जिनके आधार पर इन अप्रत्यक्ष यथार्थ कारणों में हम विश्वास करते हैं।

(5.)कल्पना को परीक्षनीय होना चाहिए (The imagination Must Be Verifiable):

  • यह शर्त यथार्थ कल्पना संबंधी सबसे आवश्यक और महत्त्वपूर्ण शर्त है।कल्पना का निर्माण घटनाओं की तब तक की व्याख्या के लिए किया जाता है और बाद में जब जाँच के द्वारा पाया जाता है कि वह कल्पना सचमुच एक यथार्थ व्याख्या उपस्थित करती है तो उसे हम एक वैज्ञानिक नियम (scientific law) का स्थान दे देते हैं और यदि जाँच के द्वारा वह कल्पना असत्य सिद्ध हो जाती है अथवा व्याख्या की जाने वाली घटना के साथ उसका कोई अनिवार्य तार्किक संबंध नहीं पाया जाता है तो फिर उसे अस्वीकृत कर दिया जाता है।इसलिए कल्पना का अपने-आप में कोई मोल नहीं है।उसका मूल्य इस बात में है की जांच या परीक्षा के बाद वह सत्य सिद्ध हो,यानी,वह सचमुच घटना की एक व्याख्या उपस्थित करती हो।इसलिए कल्पना की यह सबसे जरूरी शर्त है कि उसे जांच के योग्य (परीक्षनीय) होना चाहिए।
  • यदि कोई कल्पना ऐसी हो जिसकी कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष जांच ही संभव न हो तो फिर वह कल्पना किसी काम की नहीं (worth less) है।प्रत्यक्ष या साक्षात जांच बहुत कम कल्पनाओं की हो सकती है।इसलिए इससे किसी कल्पना की अपरीक्षनीयता सिद्ध नहीं होती की बिल्कुल सीधे रूप में उससे संबंधित तथ्यों का निरीक्षण या प्रयोग हो और उसकी सत्यता-असत्यता की निश्चित जांच हो जाय।उसकी अपरिक्षनीयता तब सिद्ध होती है जब उसकी किसी अप्रत्यक्ष जांच की भी संभावना नहीं प्रतीत होती।अप्रत्यक्ष जाँच से तात्पर्य उस जाँच से है जिसमें कल्पना से कुछ निष्कर्ष प्राप्त किए जाते हैं और इन निष्कर्षों से संबंधित तथ्यों या परिणामों का निरीक्षण किया जाता है।तो कल्पना को परीक्षानीय होने के लिए ऐसा अवश्य होना चाहिए कि कम से कम उससे कुछ निगमनात्मक निष्कर्ष निकाले जा सकें।यदि कोई कल्पना ऐसी हो जिससे हम कोई निष्कर्ष ही नहीं निकाल सकें अथवा जिसके बारे में हम समझ ही नहीं सकें यदि वह सत्य होगी तो उसके क्या अनिवार्य परिणाम होंगे तो फिर उसकी सत्यता-आसत्यता की जांच हम नहीं कर सकते और वैसी कल्पना बिल्कुल बेकार सिद्ध होती है।उदाहरण के लिए यदि किसी घटना की तब तक की व्याख्या के लिए हम यह मान लें कि उसके पीछे किसी भूत प्रेत या परी आदि का हाथ है तो यह कल्पना ऐसी है जिसकी प्रत्यक्ष जांच तो नहीं ही संभव है,इससे कोई ऐसे निश्चित निगमनात्मक निष्कर्ष भी हम नहीं निकाल सकते जिनसे संबंधित कोई निरीक्षण या प्रयोग हम कर सकें।फलतः ऐसी कल्पनाओं की सत्यता-असत्यता की जांच करना संभव नहीं है और इसलिए ये कल्पनाएं बेकार हैं।
  • इसके विपरीत यदि हम कोई ऐसी कल्पना करें जिसका संबंध परमाणु या आकाश जैसे तत्त्वों से हो तो यद्यपि इन तत्त्वों का सीधा प्रत्यक्ष संभव नहीं और इसलिए इनसे संबंधित कल्पनाओं की सीधी जांच संभव नहीं है,परंतु फिर भी उनकी अप्रत्यक्ष जांच संभव है।इन कल्पनाओं से कुछ निश्चित निष्कर्ष प्राप्त किया जा सकते हैं जिनकी वैज्ञानिक जांच संभव है।इसलिए ये ऐसी कल्पनाएं हैं जो परीक्षनीय है।किसी भी कल्पना में परीक्षनीयता का होना अनिवार्य है।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में विधेयात्मक कल्पना कैसे करें? (How to Do Predicative Hypothesis?),विधेयात्मक कल्पना को कैसे साकार करें? (How to Realize Predicative Assumption?) के बारे में बताया गया है।

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4.सबसे छोटा और सबसे बड़ा विषय (हास्य-व्यंग्य) (The Smallest and Biggest Subject) (Humour-Satire):

  • अध्यापक:बताओ ऐसा कौन सा विषय है जो सबसे छोटा भी है और बड़ा भी है।
  • छात्र:सर,मैथेमैटिक्स।
  • अध्यापक:यह तुम कैसे कह सकते हो कि यह सबसे छोटा और बड़ा मैथेमैटिक्स विषय ही है।
  • छात्र:सर,Math बोलने पर यह सबसे छोटा और Mathematics  बोलने पर यह सबसे बड़ा हो जाता है।

5.विधेयात्मक कल्पना कैसे करें? (Frequently Asked Questions Related to How to Do Predicative Hypothesis?),विधेयात्मक कल्पना को कैसे साकार करें? (How to Realize Predicative Assumption?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.कल्पना के तीन चरण कौन से हैं? (What are the Three Stages of Imagination?):

उत्तर:कल्पना के तीन चरण हैं:घटनाओं का निरीक्षण (observation),अंदाज लगाना (supposition) और अंदाज की परीक्षा या सत्यापन (verification)।

प्रश्न:2.घटनाओं का निरीक्षण से क्या तात्पर्य है? (What is Meant by Observation of Events?):

उत्तर:कल्पना के घटनाओं का निरीक्षण जरूरी है,क्योंकि निरीक्षण में ही कुछ तथ्य मिलते हैं जिनकी व्याख्या के लिए कुछ कल्पना करनी पड़ती है; जैसे न्यूटन ने पहले कई उदाहरण देखें कि वृक्ष से सेव नीचे जमीन पर गिरता है और तब इसकी व्याख्या-स्वरूप उन्होंने यह अंदाज लगाया कि शायद पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण है।

प्रश्न:3.अंदाज लगाने से क्या तात्पर्य है? (What Do You Mean by Guessing?):

उत्तर:घटनाओं के निरीक्षण के बाद उनकी व्याख्या के निमित्त तब तक के लिए कुछ अंदाज़ लगाया जाता है,कुछ मान लिया जाता है जैसा कि ऊपर के उदाहरण में बतलाया गया है।यह अंदाज इस विचार से लगाया जाता है कि अगर वास्तविकता के साथ वह मेल खाएगा तब तो उसे सही मान लिया जाएगा,अन्यथा उसे छोड़ दिया जाएगा।

प्रश्न:4.अंदाज की परीक्षा या सत्यापन से क्या तात्पर्य है? (What is Meant by Examination or Verification of Guess?):

उत्तर:इस तरह,तीसरे चरण में तब तक के लिए किए गए अंदाज की वास्तविकता से मिलान कर जांच की जाती है।उस अंदाज से कुछ निष्कर्ष निकाले जाते हैं और यह देखा जाता है कि उस निष्कर्ष की बातें वास्तविकता से मेल खाती है या नहीं।यदि हां तो कल्पना सत्य सिद्ध होती है और यदि नहीं,तो वह बेकार हो जाती है और फिर दूसरी कल्पना करनी पड़ती है।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा विधेयात्मक कल्पना कैसे करें? (How to Do Predicative Hypothesis?),विधेयात्मक कल्पना को कैसे साकार करें? (How to Realize Predicative Assumption?) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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