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How to Become Devoted?

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1.श्रद्धावान कैसे बनें? (How to Become Devoted?),छात्र-छात्राएँ श्रद्धावान कैसे बनें? (How Can Students Become Reverent?):

How to Become Devoted?

How to Become Devoted?

  • श्रद्धावान कैसे बनें? (How to Become Devoted?) यहाँ श्रद्धा से क्या तात्पर्य है,क्या अर्थ होना चाहिए? क्या गुरु अथवा मार्गदर्शक द्वारा बताई गई बात को ज्यों की त्यों स्वीकार कर लेना चाहिए? क्या उचित-अनुचित का ध्यान नहीं रखना चाहिए? क्या श्रद्धावान को ही ज्ञान प्राप्त हो सकता है? क्या श्रद्धावान ही सफलता की सीढ़ियां चढ़ सकता है आदि का उत्तर जानने का प्रयास करेंगे।
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2.श्रद्धा क्या है? (What is faith?):

How to Become Devoted?

How to Become Devoted?

  • श्रद्धा के गूढ़ और दार्शनिक अर्थ की तह में न जाकर दैनिक जीवन में और छात्र-छात्राओं के लिए उपयोगी अर्थ तक ही श्रद्धा के अर्थ को जानने का प्रयास करते हैं।शास्त्रों में कहा गया है कि श्रद्धावान को ही ज्ञान प्राप्त होता है।गुरु अथवा शिक्षक द्वारा बताई गई ज्यों की त्यों  बात को स्वीकार कर लेना,उचित-अनुचित की कसौटी पर न कसना,तर्क या विवेक के आधार पर न परखना श्रद्धा नहीं बल्कि अंधश्रद्धा है।गुरु,शिक्षक अथवा मार्गदर्शक द्वारा बताई गई बात को परखना कि वह सत्य से परे तो नहीं है,जो जैसा हो वैसा ही उसको बताया गया या नहीं लेकिन गुरु या मार्गदर्शक में अगाध श्रद्धा  भी रखना वास्तविक रूप में श्रद्धा है।
  • श्रद्धा ही आपके सपनों को पंख लगाती है और उन्हें साकार करने का प्रयत्न कराती है।जो जैसा है उसको वैसा ही स्वीकार कर लिया,उसको मन में धारण कर लिया,अपनी स्मृति में सँजो लिया यानी जानना,स्वीकार करना,धारण करना और पकड़े रखने की इच्छा और प्रयत्न करता श्रद्धा है।
  • श्रद्धा के अनुसार ही हमारा लक्ष्य तय होगा।यह इंजीनियर बनना,प्राध्यापक बनना,डॉक्टर बनना,भगवद् साक्षात्कार करना आदि कुछ भी हो सकता है।यानी सांसारिक या आध्यात्मिक लक्ष्य तय करना और उसको प्राप्त करने का आधार श्रद्धा है।आपकी जितनी अधिक श्रद्धा होगी,जितना उसके प्रति अखंड विश्वास होगा वैसा ही लक्ष्य तय होगा और उसे पाने की इच्छा होगी।
  • छात्र-छात्राएं बचपन से ही कुछ ना कुछ बनने का सपना देखते हैं,उन सपनों को पूरा करने के लिए अथक परिश्रम करते हैं,अपने दिल में प्राप्त करने की आकांक्षा रखते हैं,यह आकांक्षा,अभिलाषा जगी रहती है तो लक्ष्य को पाने के लिए उकसाती है।
  • श्रद्धावान बनकर ही सपनों को साकार करने की तीव्र उत्कंठा मन में पैदा होती है।श्रद्धाहीन सपने नहीं देखता है परिणामतः वह उन्हें पूरे भी नहीं कर पाता।कामना नहीं तो प्रयत्न नहीं,प्रयत्न और पुरुषार्थ नहीं तो सफलता नहीं।निष्कर्ष यह है की सफलता पाने के लिए सपने देखना जरूरी है,सपने देखने के लिए श्रद्धा होना जरूरी है।श्रद्धा होने के लिए सत्य को जानना,मानना और धारण करना जरूरी है।अतः आप श्रद्धावान बनने के लिए वस्तु और व्यक्ति की उपयोगिता,महत्ता और स्थायित्व की सच्चाई को जानें।जानना,मानना और उसे धारण करना,पकड़ कर रखना ही तो ज्ञान है।यह ज्ञान संस्कार-रूप में हमारे मन के अंदर होता है।
  • जिस विषय में श्रद्धा होती है,उसी में ‘जिज्ञासा’ होती है और उसी में ‘स्वाध्याय’ होता है।श्रद्धा से स्वाध्याय और स्वाध्याय से श्रद्धा बढ़ती है।विद्या बढ़ने पर श्रद्धा बढ़ती है;श्रद्धा बढ़ी तो विद्या यानी श्रद्धा स्वाध्याय की प्रेरक है,श्रद्धा ज्ञानवर्धक है।श्रद्धा ही ज्ञान रूपी खजाने की कुंजी है।गुरु से ज्ञान लेने लायक बनाती है-श्रद्धा।अगर गुरु पर श्रद्धा है तो ही उसकी बात समझ में आएगी।

3.श्रद्धावान को ज्ञान प्राप्त होता है (Does a devotee attain wisdom?):

  • श्रद्धावान विद्यार्थी ही गुरु द्वारा बताई गई बातों को ठीक से समझ पाता है।श्रद्धा से ज्ञान और ज्ञान से लक्ष्य की प्राप्ति होती है।
    श्रद्धाहीन,ज्ञान पाकर भी उसे खो बैठता है।इसी कारण असफल हो जाता है।यदि आपको किसी पुस्तक पर श्रद्धा है तो उसे पढ़ते जाएंगे,स्वीकार करते जाएंगे।जितनी बार पढ़ेगे हर बार आपको नई-नई जानकारी और ज्ञान प्राप्त होगा।बहुत अधिक दिमाग पर जोर डालने की जरूरत नहीं होगी।उसकी गुत्थियां सुलझती जाएगी और हर टॉपिक सरलता से समझ में आता जाएगा।
  • किसी पुस्तक,धर्मग्रंथ पर श्रद्धा होगी तो आप पुस्तक को पढ़ने जाएंगे और उसकी बातों का खंडन करते जाएंगे,उसे स्वीकार नहीं करेंगे फलस्वरूप आप उस पुस्तक से कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाएंगे।पुस्तकों,धर्मग्रंथो पर श्रद्धा है तो हमारी बहुत सी जटिल और गूढ़ समस्याओं का हल हो जाएगा अन्यथा बहुत बार पुस्तक को पढ़ने के बाद भी कुछ भी ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाएंगे।समय व्यर्थ नष्ट होगा सो अलग।
  • श्रद्धा बहुत व्यापक अर्थ रखने वाला शब्द है।श्रद्धा में केवल ज्ञान ही निहित नहीं होता है बल्कि श्रद्धा में भावनाएं,विश्वास,रुचि,प्रसन्नता और आदर की भावनाएं आदि भी शामिल होती है।अब इसे समझे कि मानना क्या है? जानना क्या है? जो जैसा है उसे वैसा ही तर्क और विवेक की कसौटी पर परखना जानना है।मानने का अर्थ है विश्वास,भरोसा।किस बात का विश्वास,भरोसा।इस बात का कि यह बात ऐसी है,आगे चलकर ऐसा ही होगा,बताने वाला जो बता रहा है वो ठीक बता रहा है।
    गुरुजनों,शिक्षकों,मार्गदर्शकों,गणितज्ञों,वैज्ञानिकों,ऋषियों,संतों ने जो कहा है,बताया है,लिखा है वह सही है।
  • सत्य को जाना,समझा फिर बुद्धि से उसका निश्चय किया,उससे हृदय में विश्वास उत्पन्न हुआ,विश्वास होने पर वह उस दिशा में चल पड़ा और जब चल पड़ा तो मंजिल मिल गई।कारण कि लगातार बिना थके चलता रहता है,वह पहुंचता है।
  • बिना श्रद्धा के विश्वास नहीं होता।बिना विश्वास के मन मूल विषय से उचटता है।वह उसे हासिल नहीं करना चाहता।इसलिए वह लक्ष्य को स्थिरतापूर्वक पकड़कर नहीं रख पाता।मेरा काम हो ही जाएगा,अगर ये विश्वास हो गया तो मन की उलझनें मिट जाती है और आदमी काम में जुट जाता है।
  • जो अविश्वासी होता है,वह पहले एक विषय में जाता है,उसे बेकार चीज़ मानकर छोड़ देता है।इस प्रकार वह एक लक्ष्य से दूसरे लक्ष्य,एक विषय से दूसरे विषय,एक गुरु से दूसरे गुरु की ओर भागता रहता है।कुल मिलाकर वह चक्करघिन्नी बना रहता है।इस प्रकार अविश्वास से न ज्ञान,न अर्थ और न आत्म-संतुष्टि मिल पाती है,वह सदा हर चीज,हर विषय,हर व्यक्ति और हर गुरु से असंतुष्ट रहता है।
  • जिसकी जिस क्षेत्र में श्रद्धा होती है,वह उसी क्षेत्र में आगे बढ़ने की चाहत रखता है।इसलिए वह उसी क्षेत्र में प्रवृत्त होता है।इससे वह उसी रंग में रंगकर उसी प्रकार का बन जाता है।श्रद्धा होने पर काम को पूरे मन से किया जाता है।जिसमें श्रद्धा उसमें रुचि,जिसमें रुचि उसमें एकाग्रता,जिसमें एकाग्रता उसमें मनन।मनन होने पर ज्ञान होता है।इसलिए श्रद्धावान ही ज्ञान को प्राप्त कर सकता है और ज्ञान के सहारे आत्म-साक्षात्कार कर सकता है।

4.श्रद्धा से क्या-क्या प्राप्त होता है? (What do you attain through faith?):

  • श्रद्धाहीन व्यक्ति उद्देश्य तक पहुंचने के लिए आधा-अधूरा पुरुषार्थ करता है पूरा नहीं।इसलिए उसकी साधना का कोई फल नहीं मिलता।उसकी नैया बीच भंवर में गोते खाती रह जाती है।
  • किसी काम को दिल से करना और दिखावे के लिए करना,दो अलग-अलग बातें हैं।श्रद्धावान काम को दिल से करता है।वह लंबे समय तक निरंतर लगा रहता है।इससे अभ्यास में उच्चता आती जाती है।ऐसा अभ्यास दृढ़ हो जाता है।वह विघ्न-बाधाओं में अटकता-उलझता नहीं है और सफल हो जाता है।
  • श्रद्धाहीन काम को दिखाने के लिए करता है अतः अभ्यास शिथिल हो जाता है।उसका अभ्यास न तो दीर्घकाल तक और न ही निरंतर रह पाता है।दिखावटी काम करने वाले श्रद्धाहीन व्यक्ति का काम बिगड़ता है तो बिगड़ता ही चला जाता है।सफलता के करीब पहुंचकर भी वह उसे पा नहीं पाता।
  • जब व्यक्ति स्थायी,शुद्ध-हितकर,सुखद और बड़ा बनने वाले लक्ष्य के प्रति श्रद्धा रखता है तो उसके जरिए बनने वाले उज्ज्वल भविष्य की कल्पना उसके मन में प्रसन्नता का संचार करती है।प्रसन्नता लक्ष्य-प्राप्ति में रुचि उत्पन्न करती है।रुचि से प्रेरणा पाकर वह लक्ष्य प्राप्ति की इच्छा और संकल्प करता है।इन सबके फलस्वरूप उत्साह प्रकट होता है।
  • श्रद्धावान विवेक की अभिलाषा रखनेवाले को उत्साह प्राप्त होता है।उत्साह मन का बल है।यह आंतरिक-बल कार्य करने और मार्ग की बाधाओं से टकराने की शक्ति देता है।
  • श्रद्धावान कार्य-संपादन में व्यक्ति के उत्साह को सदा बनाए रखती है।श्रद्धावान अपने लक्ष्य को सिद्ध करने में उत्साहपूर्वक लगा हुआ होता है।श्रद्धा के अनुसार ही उत्साह प्रकट होता है।
  • जितना अधिक उत्साह होता है,उतना ही कार्य का वेग बढ़ता है और उतना ही साधना में तत्परता होती है।मन में श्रद्धा रखकर उत्साहपूर्वक कार्य करना,सफलता दिलाता है।अर्थात श्रद्धा सफलता की देवी है।सफलता की चाह रखने वालों ‘श्रद्धा’ को अपने साथ लेकर चलो।अगर विवश होकर किसी बात को मानते हैं,तो मन में उत्साह नहीं रहता।इससे जीवन में असफलता मिलती है।
  • आप यह जान चुके हैं कि लक्ष्य-प्राप्ति के साधनों के प्रति श्रद्धा आपको उस विषय का ज्ञानी बनाने के साथ-साथ विश्वासी,विनम्र और आनंदित बनाती है।श्रद्धा कार्य के प्रति रुचि पैदा करती है,मन में सपने जगाती है,आपको पुरुषार्थी और उत्साही बनाती है।
  • इन गुणों के परिणामस्वरूप आपका मन श्रद्धेय विषय पर रुक जाता है,ठहर जाता है,स्थिर हो जाता है।अर्थात श्रद्धा आपको एकाग्रचित्त बनाती है।
  • श्रद्धा ही आपको अनन्यचित्तता की ओर प्रवृत्त करती है। श्रद्धा के वश में हुए विद्यार्थी को एक ही चीज नजर आती है और वह है:’लक्ष्य’।वह इसमें तल्लीन हो जाता है,ध्यान मग्न हो जाता है,डूब जाता है।इसलिए वह बाकी दीन-दुनिया से बेखबर रहता है।अतः वह इधर-उधर की उधेड़बुन में नहीं पड़ता है।जिससे उसका समय बर्बाद होने से बच जाता है।
    अध्ययन कार्य हो,कैरियर-निर्माण हो,कोई काम-धंधा या फिर भगवत्-साक्षात्कार हो,एकाग्रता हर लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में तत्पर रखती है।व्यक्ति उसमें एकाग्रतापूर्वक लगा रहता है और उस दिशा में आगे बढ़ता जाता है।इससे पता चला कि-बिना श्रद्धा ‘एकाग्रता’ संभव नहीं।एकाग्रता बिना लौकिक-पारलौकिक सफलता संभव नहीं।इस कारण श्रद्धाहीन को बात पूरी तरह समझ में नहीं आती।इसीलिए वह विषय को कम पकड़ता है।
  • श्रद्धालु लक्ष्य के प्रति एकाग्र होता है।उसका मन विषय पर ठहरा हुआ होता है।जिससे उसकी बुद्धि उस विषय का ठीक से निर्णय कर लेती है।श्रद्धा बिना मनन नहीं होता।इसलिए श्रद्धाहीन विषय का ठीक से निर्णय नहीं कर पाता।

5.छात्र-छात्राओं में श्रद्धा के अभाव का कारण (The reason for the lack of faith among the students):

  • बालक आरंभ में माता-पिता एवं अपने परिवार के वरिष्ठ सदस्यों के सामने अपनी जिज्ञासाएं प्रस्तुत करता है। उनके उत्तर प्राप्त करके संतुष्ट हो जाता है,क्योंकि उसको विश्वास रहता है कि वे जो कुछ बताएंगे ठीक ही बताएंगे।यह वस्तुतः आत्म-समर्पण का प्रारंभिक रूप अथवा आत्म-समर्पण की प्रथम सीढ़ी होती है।इसके उपरांत वह स्कूल जाता है और अपने अध्यापक/अध्यापिका के कथन को ब्रह्म वाक्य मानता है।उदाहरण के लिए अध्यापक गिनती एक,दो,तीन आदि को बोर्ड पर रेखाएं खींचकर या कुछ गेंदों को दिखाकर कहता है कि तीन है,चार है तो वह इस प्रकार की शंका नहीं करता कि दो नहीं,तीन है या हो सकते हैं।यह भी आत्म-समर्पण का एक रूप है,परंतु यदि कदाचित अध्यापक कोई गलत बात बता देता है अथवा बालक की किसी जिज्ञासा का समाधान उचित प्रकार से नहीं कर पाता है,तो बालक को एक प्रकार का सदमा लगता है और उसकी समर्पण भावना को ठेस पहुंचती है।
  • अब यदि किसी भी व्यक्ति में हमारी आशा के विरुद्ध दोष दिखाई देंगे,तो हमारी श्रद्धा में व्याघात पहुंचेगा और हमारा मन आत्मग्लानि,विद्रोह आदि भावों की ओर प्रवृत्त होने लगेगा।हमारे युवक-युवतियों में गुरुजन एवं वरिष्ठजन के प्रति विद्रोह के जो भाव दिखाई देते हैं,उसका बहुत कुछ कारण उनके श्रद्धा-भाव में उत्पन्न होने वाला व्याघात है।वे जहां भी जाते हैं,उन्हें श्रद्धा का अभाव दिखाई देता है अथवा जिनके प्रति वह श्रद्धा करता है,वहां उसको ऐसा लगता है कि वह गलती कर गया है अथवा धोखा खा गया है।
  • विद्यालय अथवा विद्यालय में अध्यापकों के प्रति वह आदर्शवादी धारणा लेकर जाता है,परंतु वहां भी वह निराश होता है।कुछ अध्यापक पूरे समय पढ़ाते नहीं है।कुछ अपने विषय को पूरी तरह जानते नहीं है,कुछ दिनभर सिगरेट पीते हैं,कुछ विद्यार्थियों के साथ यारवासी करते हैं,कुछ छात्राओं के प्रति वासनात्मक दृष्टि रखते हैं,कुछ नेतागिरी के नाम पर प्रिंसिपल,कुलपति आदि को अपमानित करते हैं आदि।ये सब बातें युवा छात्र-छात्राओं पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है और उनकी मानसिकता को दूषित कर देती हैं।फलतः अध्ययन-अध्यापन के केंद्र विद्या मंदिरों में भी उन्हें श्रद्धा के पात्र नहीं मिलते हैं और वे विद्रोही बन जाते हैं।छात्र-छात्रा कक्षा में इसलिए जाना नहीं चाहते हैं,क्योंकि उनके अध्यापकों से उनको न ज्ञान प्राप्त होता है और न किसी प्रकार की प्रेरणा प्राप्त होती है।यह कहना गलत है कि वे पढ़ना नहीं चाहते हैं जो अध्यापक मनोयोगपूर्वक अध्यापन करते हैं,उनकी कक्षाओं में उपस्थित प्रायः शत-प्रतिशत रहती है और विद्यार्थी उनके चरण-स्पर्श करते हुए संतोष एवं गौरव का अनुभव करते हैं।
  • समाज में युवावर्ग जब अपने कर्णधारों,नेताओं का व्यवहार देखता है तो उसको वितृष्णा होने लगती है।उसको विश्वास हो जाता है कि कर्णधार बनने की राह पर चलने के लिए कुछ अन्य विशेषताएं ही चाहिए।उन विशेषताओं को गिनाने की आवश्यकता नहीं है।हमारा युवावर्ग पहले तो नेतागिरी से परहेज करने की सोचता है,परंतु आत्मप्रतिष्ठा की प्रेरणा उसको उधर ले जाती है।उस मार्ग पर चलने के लिए वह ऐसे गुणों का विकास करता है जिनको उसने अवगुणों के नाम पर पढ़ा है,परंतु वित्तेषणा एवं लोकेषणा का लाभ उनकी मानसिकता पर विजय पा लेता है और वह देश का भावी कर्णधार बनने का रास्ता अपनाने के लिए विवश हो जाता है।जिन नेताओं पर वह ‘राजा कालस्थ कारणम्’ का आरोप लगाता था,वे उसकी श्रद्धा के पात्र बन जाते हैं।यह श्रद्धा उसी प्रकार की होती है जिस प्रकार कुछ लोग चोर,लुटेरों,बदमाशों,हिस्ट्रीशीटरों और डाकुओं आदि की गुणगाथा गाते हैं और उनका नाटक खेलते हैं अथवा उनके नाम पर बनी हुई फिल्म देखकर प्रसन्न होते हैं।कारागार में बन्द अपराधी जब चुनावों में विजयी होकर विधायक और सांसद बन सकते हैं,तब कारागार न तो भय की वस्तु रह जाता है और न उसकी यात्रा करना अपमान का द्योतक रह जाता है।फूलन देवी का उदाहरण हमारी कितनी युवतियों को उस मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करेगा।
  • साधु संतों का भी एक वर्ग है जिसके प्रति समाज सामान्यतया आकर्षित एवं समर्पित होता है।निराश और हताश व्यक्ति सही मार्गदर्शन के लिए उनके पास जाते देखे जा सकते हैं,परंतु वहाँ जाकर भी हमारे युवावर्ग को निराशा हाथ लगती है।इस वर्ग के व्यक्तियों के पास जाकर वह यह निष्कर्ष निकालता है कि कहानी के गधे ने तो केवल शेर की खाल ओढ़ी थी; ये लोग तो शेर की खाल तो ओढ़ते ही हैं,शेर की बोली भी बोल लेते हैं।
  • उपर्युक्त विवेचन का निष्कर्ष यह है कि हमारे समाज में श्रद्धा के प्रेरणा के स्रोतों का सर्वथा अभाव हो गया है और हमारा युवावर्ग यह नहीं सोच पाता है कि अपनी समर्पण-वृत्ति की संतुष्टि किस प्रकार करे तथा उच्च आदर्शों के अनुसरण की प्रेरणा वह कहां और किस प्रकार प्राप्त करें? हमारा युवावर्ग श्रेष्ठ कार्य करना चाहता है,उसका विद्रोह यह द्योतित करता है की महान बनने के लिए वह छटपटा रहा है,परंतु इसके लिए उसको न मार्ग दिखाई दे रहा है और न मार्गदर्शक मिल रहा है।उसकी स्वर्णिम शक्ति का अपव्यय एवं दुरुपयोग हो रहा है और वस्तुस्थिति को समझते हुए भी वह विवश है।उसकी विवशता के लिए जब समाज के कुछ लोग उसको ही दोष देते हैं तब तोड़फोड़ करके,हड़ताल करके,जाम लगाकर तथा अन्य प्रकार से अपने आक्रोश एवं असंतोष को व्यक्त करता है।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में श्रद्धावान कैसे बनें? (How to Become Devoted?),छात्र-छात्राएँ श्रद्धावान कैसे बनें? (How Can Students Become Reverent?) के बारे में बताया गया है।

Also Read This Article:Where to Use Doubt and Devotion?

6.छात्र गिर गया था (हास्य-व्यंग्य) (The Student Had Fallen) (Humour-Satire):

  • शिक्षक:हनी,तुम कक्षा में देर से क्यों आए?
  • छात्र:सर,मैं गिर गया था और लग गई थी,इसलिए।
  • शिक्षक:अरे,कहां गिर गए थे? क्या ज्यादा लगी?
  • छात्र:हां सर,सवाल हल करते हुए मेज पर गिर गया था और नींद लग गई थी।

7.श्रद्धावान कैसे बनें? (Frequently Asked Questions Related to How to Become Devoted?),छात्र-छात्राएँ श्रद्धावान कैसे बनें? (How Can Students Become Reverent?) से सम्बन्धित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.श्रद्धा के आधार की कसौटी बताइए। (Describe the criterion of the basis of Faith):

उत्तर:सत्य से ज्ञात होने वाली जो चीज जितना ज्यादा स्थायी,शुद्ध (हितकर),सुखद और कद को बढ़ाने वाली महसूस होगी,उसके प्रति उतनी अधिक श्रद्धा होगी।

प्रश्न:2.ज्ञान क्या है? (What is wisdom?)

उत्तर:जैसे को तैसे जानना सत्य है,सत्य को जान लिया यह ज्ञान है,विद्या है।

प्रश्न:3.सत्य को मानना क्या है? (What is believing the truth?):

उत्तर:हम बात को प्रामाणिक मान लेते हैं,सिद्धांत को स्वीकार कर लेते हैं कि-हां यही सही है,ऐसा ही तो है।जैसे को तैसा मानकर सत्य को अपनी मंजूरी देते हैं।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा श्रद्धावान कैसे बनें? (How to Become Devoted?),छात्र-छात्राएँ श्रद्धावान कैसे बनें? (How Can Students Become Reverent?) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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