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How Parents to Make Children Superior?

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1.माता-पिता बच्चों को बेहतर कैसे बनाएं? (How Parents to Make Children Superior?),बच्चों को श्रेष्ठ कैसे बनाएं? (How to Make Children Superior?):

  • माता-पिता बच्चों को बेहतर कैसे बनाएं? (How Parents to Make Children Superior?) क्योंकि बच्चों की प्रथम पाठशाला घर-परिवार ही है।माता बच्चे की पहली शिक्षिका है और पिता दूसरा शिक्षक है तथा इसके बाद गुरु,अध्यापक तथा अन्य संस्थाओं का स्थान है।बच्चे अधिकांश बातें घर-परिवार के माहौल व माता-पिता से ही सीखते हैं।
  • माता-पिता का जैसा आचरण,आदतें होंगी वैसी ही बातें बच्चे सीखते हैं।अच्छी आदतें,अच्छा स्वभाव,सद्गुण,सदाचार के आधार पर बच्चों का जीवन उत्कृष्ट बनता है तथा बुरी आदतों,बुरे स्वभाव,दुराचरण का बुरा प्रभाव पड़ता है।अतः माता-पिता को केवल शिक्षण संस्थानों के भरोसे ही नहीं रहना चाहिए बल्कि बच्चों के चरित्र व आदतों को गढ़ने में सतर्कता बरतनी चाहिए।
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2.माता-पिता बच्चों को सही दिशा दें (Parents Should Give Children the Right Direction):

  • माता-पिता शिशु के प्रथम और सबसे महत्त्वपूर्ण शिक्षक होते हैं।बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते जाते हैं,वे स्वतंत्र रूप से घूमना-फिरना पसंद करने लगते हैं।समयांतर से वे नए-नए लोगों के संपर्क में आते हैं।नई-नई परिस्थितियों से गुजरते हैं।नया अनुभव प्राप्त करते हैं।लोगों के संपर्क में आने से न जाने कितने ही नए सवाल उनके दिमाग में उठते हैं।हर नया अनुभव किसी न किसी रूप में उनमें विकास और परिपक्वता लाता है और अपना अलग प्रभाव छोड़ता है।
  • स्कूल जाने की अवस्था से पहले तक एक सामान्य स्वस्थ,प्यारा बच्चा माता-पिता,संबंधियों,पड़ोसियों और मित्रों के लिए खिलौना-सा बना रहता है।सभी लोगों के संरक्षण और साहचर्य में वह छोटी-मोटी बातें सीखता है,जो उसके भावी जीवन के लिए बेहद जरूरी होती है।जीवन के बारे में पहली जानकारी उसे उन्हीं लोगों के माध्यम से प्राप्त होती है।ऐसे में समझदार माता-पिता बालक को सही प्रेरणा देकर उसे प्रशिक्षित करते हैं।
  • अपनी ज्ञानेंद्रिय के माध्यम से बालक विभिन्न अनुभव अर्जित करता है।तीन-चार साल का एक बच्चा यह समझ लेता है कि जब माता-पिता नाखुश नजर आएं तो किसी चीज की फरमाइश करना ठीक नहीं।
  • बच्चे उन लोगों की ओर अधिक आकर्षित होते हैं,जिनसे उन्हें दुलार या सहमति मिलती है।वे उन्हीं जैसा बनने की कोशिश करने लगते हैं।यही उनकी अभिव्यक्ति और प्रशंसा पाने का बाल-सुलभ तरीका है।
  • बच्चों की दृष्टि बड़ी पैनी और गहरी होती है।वे बहुत ही गहराई से बड़ों के व्यक्तित्त्व को निरखते-परखते हैं।सामान्य व्यक्ति के लिए इसका अंदाज लगाना भी मुश्किल होता है।
  • बच्चा जब स्कूल जाना प्रारंभ कर देता है,तो वह एक बिल्कुल नए माहौल और नए लोगों के संपर्क में आता है।वे नए लोग जाने कितनी नई परिस्थितियाँ उसके सामने चुनौती के रूप में खड़ी कर देते हैं।स्कूल में अलग-अलग स्वभाव के बच्चे होते हैं।यहाँ उसका जीवन नियमितता के घेरे में बंधने लगता है।नई दोस्ती की भी शुरुआत होती है।स्कूल में ही उसे शिक्षक मिलते हैं,जो प्रतिदिन उसे कितनी ही नई व अनोखी बातें सुनाते और सिखाते हैं।
  • शिक्षक उसकी अनगढ़ विचार-प्रक्रिया को नई सुलझी हुई दिशा प्रदान करते हैं।प्रायः जिन बातों को उसे घर के माहौल में समझने में दिक्कत होती है,वे बातें वह स्कूल जाकर स्पष्ट सीख जाता है।वे बातें उसके दिमाग में अनुभव के रूप में जमकर बैठ जाती हैं।
    शिक्षकों की देखरेख में वह तर्क का इस्तेमाल करना सीख लेता है और धीरे-धीरे लिखना,पढ़ना और नए-नए सवाल करना भी शुरू कर देता है।जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता जाता है,वह विभिन्न प्रकार का ज्ञान अपने अंदर समेटता चलता है।
  • परिवार,समाज व दोस्तों के बीच रहकर वह न्याय,अन्याय,निर्दयता,उदासीनता आदि अनेक मानवीय भावनाओं से परिचय प्राप्त करता है।कभी-कभी विरोधी घटनाएं उसके अनुभव को हिला देती हैं,तब उसके मन में संघर्ष के बीज फूटने लगते हैं।
  • बच्चों का कोमल मन समाज की ऊँच-नीच देखकर जो सोचता और करता है,उन सब बातों और घटनाओं के सिलसिले में उसे स्वयं से बड़ों,शिक्षकों,माता-पिता और अभिभावकों के सही दिशा-निर्देश की निरंतर आवश्यकता पड़ती है।विद्यालय और दोस्तों के बीच रहने के बावजूद भली-बुरी बातों की पहचान और विवेकपूर्ण निर्णय शक्ति उसे परिवार से भी प्राप्त होती है।बच्चों के मन में विवेक तथा उचित निर्णय की ज्योति सदा माता-पिता,शिक्षक और अभिभावक ही जलाते हैं।अतः हमें बच्चों की गतिविधियों पर नजर रखते हुए इन्हें सदा नैतिक निर्देश देते रहना चाहिए,ताकि वे विभिन्न कठिन परिस्थितियों के सामने आने पर सही निर्णय कर सकें।

3.बच्चों के चरित्र निर्माण में अभिभावकों का दायित्व (Parents’ Role in Building Children’s Character):

  • बच्चे देश के भविष्य हैं।उनके ‘चरित्र निर्माण’ की जिम्मेदारी माता-पिता की है।ऐसे में बच्चों के सामने उनके माता-पिता को आदर्श बनना होगा।उनके अच्छे व्यवहार की तारीफ करनी होगी।बच्चों के सामने झगड़ने से बचना होगा।यूं कहें तो एक ऐसी लकीर खींचनी होगी,जहां बच्चे को लगे कि उनके माता-पिता उसके रोल मॉडल हैं।
  • सीमाएं निर्धारित करनी होगी:जिन अच्छी आदतों की हमें अपेक्षाएं हैं,उसे बच्चों को साफ-साफ बताकर सिखाना होगा।अगर हम चाहते हैं कि बच्चों में अपने ऊपर नियंत्रण हो,वे जिम्मेदारी प्रदर्शित करें,बड़ों के प्रति आभार एवं आदर हो,उनमें किसी समस्या को सुलझाने की क्षमता हो,तो हमें रोल मॉडल की तरह उचित व्यवहार करना होगा।
  • उन्हें इसका महत्त्व समझना होगा कि उन्हें किन-किन परिस्थितियों में कैसे व्यवहार करना चाहिए? उन्हें बताना होगा कि यदि वे ठीक ढंग से होमवर्क नहीं करते,टीवी,कंप्यूटर,गेम में समय बर्बाद करते हैं तो उनसे शिक्षक नाराज रहेंगे।छोटे बच्चे समझाने पर अपनी गलतियों को अवश्य सुधार लेते हैं।
  • बच्चों के चरित्र निर्माण में माता-पिता की भूमिका अहम है।ऐसे में माता-पिता को बच्चों के स्वभाव का सूक्ष्मतम अध्ययन करना होगा।बच्चों का मन कोमल होता है।युवावस्था के पड़ाव तक बच्चों का चरित्र निर्माण आजीवन काम आता है,लेकिन बच्चे अलग-अलग परिस्थितियों में अलग तरह से प्रतिक्रिया करते हैं।ऐसे में उनके लिए चरित्र-निर्माण का कार्यक्रम अलग-अलग होना चाहिए।
    बच्चों के सामने न झगड़ें:अगर हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे दूसरों का आदर करें,तो हमें रोल मॉडल के रूप में अपने
  • परिवार,दोस्तों,पड़ोसियों,अजनबियों से आदर से व्यवहार करना होगा।माता-पिता को अपनी सभी समस्याओं को बेहतर ढंग से सुलझाना होगा।बच्चों के सामने लड़ने-झगड़ने से उन पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है।
  • खुले दिल से प्रोत्साहित करें:बच्चे जब अभिभावकों की अपेक्षाओं को समझ जाएं,तो अभिभावकों को चाहिए कि जब भी बच्चे उनके आशा के अनुरूप अच्छा व्यवहार करें,तो उनको खुले दिल से प्रोत्साहित करें।
  • चरित्र निर्माण एक दिन का काम नहीं:चरित्र निर्माण का प्रयास एक दिन,एक सप्ताह में पूरा नहीं होता।इसे तो रोजमर्रा की जिंदगी में शामिल करना होगा।बच्चों को अच्छी-बुरी घटनाओं का उदाहरण देते हुए उन्हें अच्छे-बुरे का अंतर समझाएं।
  • प्रेरणादायक प्रसंग सहायक:बच्चों के चरित्र निर्माण में प्रेरणादायक बोध कथाएं,दृष्टांत जैसे हितोपदेश की कहानियां,चरित्र निर्माण की कहानियां,महान गणितज्ञों,वैज्ञानिकों के प्रेरक प्रसंग,जीवनियां अत्यंत ही सहायक होती हैं।बच्चे भी उन्हीं के करीब होते हैं और बात मानते हैं,जो अभिभावक उन्हें कहानियां सुनाते हैं।इससे बच्चों में ईमानदारी,परोपकार,सदाचार एवं देशप्रेम की भावनाएं उत्पन्न होती हैं।बच्चों को विभिन्न परोपकारी सेवाओं जैसे गरीबों को भोजन कराना,घर की सफाई,वृक्षारोपण इत्यादि में लगाने से उनमें सेवा भाव,उदारता,ईमानदारी एवं जिम्मेदारी आती है।
  • जिम्मेदारी बांटें:परिवार के सभी छोटे-बड़े सदस्यों में जिम्मेदारी बांटें जैसे खाने के टेबल को साफ करना,आलमारी सजाना इत्यादि।घर में होने वाले आयोजनों में छोटे बच्चों की जिम्मेदारी निर्धारित करें।अभिभावकों को यह जताना होगा कि वे बच्चों का भरपूर ध्यान रखते हैं।वे उनके अनुशासन,चरित्र निर्माण के प्रति सजग हैं।बच्चों के दोस्तों तथा उनके अभिभावकों से मिलते रहें तथा उन्हें पहचानें।यह जानने का प्रयास करें कि टीवी पर बच्चे कौनसा धारावाहिक देखना चाहते हैं।
  • सकारात्मक कामों में व्यस्त रखें:बच्चों को सकारात्मक क्रियाओं में व्यस्त रखें जैसे खेलकूद,संगीत,भजन गाना,एनसीसी,स्काउटिंग अथवा अन्य हाॅबी इत्यादि।इनसे बच्चों में सहयोग,मिल-बाँटकर रहने,किसी कार्य को सफलतापूर्वक करने की कला आती है।बच्चे अगर अनुशासनहीनता व गलत हरकत पर कोई चालकीपूर्ण बहाना बनाते हैं,तो उन्हें कभी बचाने में सहयोग न करें।

4.व्यक्तित्व निर्माण में माता-पिता का योगदान (Parents’ Contribution in Personality Building):

  • बच्चे मानवता की दिव्यतम निधि हैं।इनके लालन-पालन में स्नेह एवं मार्गदर्शन में विवेकपूर्ण दृष्टि तथा दूरदर्शिता की आवश्यकता रहती है।बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण में माता-पिता के त्याग,धैर्य,साहस,परिश्रम आदि वे सूत्र हैं,जिनके द्वारा उनमें आत्मविश्वास भरा जा सकता है।बच्चों के व्यक्तित्त्व निर्माण की पहली कार्यशाला उसका परिवार है।बच्चों को बाल्यकाल से ही सामान्य सुरक्षा एवं प्रोत्साहन देना चाहिए।संतोषजनक पारिवारिक जीवन व्यक्तित्व के उचित विकास के लिए आवश्यक है।घर ही ऐसा स्थान है,जहाँ बच्चे को निपुणता प्राप्त होती है एवं घर तभी एक पूर्ण घर माना जाता है,जब वे बालक का लालन-पालन इतने उत्तम ढंग से करें कि बच्चे का शारीरिक,मानसिक,बौद्धिक एवं सामाजिक रूप से पूर्ण विकास हो।
  • माता-पिता बच्चों के व्यक्तित्त्व और चरित्र दोनों को प्रभावित करने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।उनके आपसी संबंधों और व्यवहार से बालक का मन सहज ही जुड़ जाता है।माता-पिता उसके लिए सुरक्षा और स्नेह का स्रोत हैं।उनके परस्पर मधुर संबंध जहां बच्चों के चहुंमुखी विकास में सहायक होते हैं,वहीं उनके आपसी तनावपूर्ण टूटते रिश्ते उनके विकास को न केवल अवरुद्ध कर देते हैं,वरन उनके जीवन को अनेक कुंठाओं-विकारों से भर देते हैं।फलस्वरूप दमन,निराशा और पराजय जैसे भाव उनमें पनपने लगते हैं।हम याद रखें,बच्चे आयु में छोटे होते हैं,समझ में नहीं।वे चेहरे के भावों की भाषा पढ़ने में सर्वाधिक निपुण होते हैं।अतः माता-पिता को चाहिए कि उनका परस्पर व्यवहार बच्चे के सामने सभ्य और सम्मानजनक हो।वे एक-दूसरे के प्रति शालीन भाषा का प्रयोग करें।
  • बच्चों के प्रति हमारा व्यवहार शिष्ट एवं मर्यादित होना चाहिए।हमें उन्हें आत्मसम्मान एवं आत्म-विश्वास प्रदान करना चाहिए ताकि भविष्य में वे सम्मानित एवं सफल जीवन जी सकें।बच्चों के व्यक्तित्त्व निर्माण में कुछ बातों की जानकारी अत्यंत महत्वपूर्ण है।जैसे क्या हम उनकी जिज्ञासावृत्ति का सम्मान करते हैं? उनकी बौद्धिक क्षमताओं को पहचानते हैं? अथवा उन पर अपनी महत्त्वाकांक्षाएं लादकर उनका जीवन बहुत बोझिल बना देते हैं? उन्हें अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान कर उन्हें पंगु बना देते हैं अथवा बचपन से ही उन्हें स्वावलंबी बनने की प्रेरणा देते हैं? बच्चों के विचारों एवं उनके द्वारा दिए गए सुझावों को सम्मान देते हैं? कभी-कभार उनके साथ छुट्टी मनाते हैं अथवा अपनी व्यस्तता एवं आर्थिक तंगी का रोना रोते रहते हैं? अपने-अपने पूर्वाग्रह उन पर थोपते हैं अथवा उन्हें स्वतंत्र चिंतन के लिए प्रेरित करते हैं? जीवन के प्रति निषेधात्मक सोच को अपनाते हैं अथवा उनमें सकारात्मक दृष्टिकोण को विकसित करते हैं?
  • माता-पिता बच्चों की जिज्ञासावृत्ति का सदा सम्मान करें।अक्सर ऐसा होता है,समयाभाव के कारण हम बच्चों की समस्याओं,उनके प्रश्नों को ना तो पूरे मन से सुन पाते हैं और उनके कौतूहल को शांत कर उन्हें संतुष्ट कर पाते हैं।कुछ भी पूछने पर उन्हें डांटकर उनकी निरीक्षण-क्षमता को दबा देने का अनजाने में अपराध कर जाते हैं।ऐसा करके हम उनके भीतर की सृजनात्मक संभावनाओं को पल्लवित होने से पूर्व ही दमित कर देते हैं।ऐसे बच्चे अक्सर वर्जित अभिव्यक्ति तलाशने लगते हैं।
  • बच्चे के अच्छे कार्यों की प्रशंसा सबके सामने करें और उसकी कमियों की बात एकांत में उसके साथ करें।अन्यथा आप जाने-अनजाने बच्चों को नकारात्मक दिशा की ओर प्रेरित करने की भयंकर भूल कर रहे हैं।यह सब बच्चों के हित में नहीं है।माता-पिता का कर्त्तव्य है कि वे बच्चे की हरसंभव जिज्ञासा का शमन करें।क्रोध और खीझ में भरकर नहीं,स्नेह और धैर्य के साथ उनकी हर शंका का यथासंभव निवारण करें।उन्हें समय दें।उन्हें अभय प्रदान करें,ऐसा ना हो की माता-पिता के उग्र रूप की परछाई पकड़े बच्चे अपनी ही जिज्ञासाओं के भंवर-जाल में डूब जाएं।
  • अतः लाख कामों में मशगूल होते हुए भी उनसे इस प्राकृतिक अधिकार को न छीनें,जो आपके सभी कर्त्तव्यों से ऊपर है।उन्हें समय और स्नेह दें।उनके साथ बैठें,उनकी परेशानियों के विषय में उनसे बात करके उनकी सहायता करें।बच्चे की कक्षा व गृहकार्य की कॉपी देखें।शिक्षक के लिखे नोट पढ़ें।बच्चों के मित्र बनकर उनके साथ खुलकर बातचीत करें।उन्हें डराएं-धमकाएं नहीं वरन सहायता का आश्वासन देकर उन्हें मानसिक उलझन से मुक्त करें।
  • किसी टेस्ट या परीक्षा में कम अंक पाने पर उन्हें प्रताड़ित न करें।कारण की तह तक जाएं,न कि पीटकर,अपशब्द बोलकर या डांटकर उन्हें शारीरिक व मानसिक दुःख पहुंचाए।उनका मनोबल बढ़ाते हुए उन्हें उत्साहवर्धक शब्द दें।उन्हें कहें कि वह प्रतिभाशाली हैं।पुरुषार्थी हैं।एक उन्नत भविष्य उन्हें पुकार रहा है।उन्हें उनकी प्रतिभा से परिचित कराएं।
  • बच्चों की मानसिक,बौद्धिक एवं रचनात्मक क्षमताओं को पहचानें।अक्सर माता-पिता अपने बच्चों की रुचियों एवं क्षमताओं से अनभिज्ञ रहकर उन पर अपनी इच्छाओं,महत्त्वाकांक्षाओं और सपनों को थोप देने की भारी भूल कर बैठते हैं।स्वयं अगर डॉक्टर,इंजीनियर,प्रोफेसर,वकील,आईएएस अफसर नहीं बन पाए तो अपनी अतृप्त लालसा को उनमें तलाशना शुरू कर देते हैं।अपनी चाहत उन पर लादकर उनकी बुद्धि को कुंठित करने की भूल कदापि न करें।उनके अपने सपने हैं,जिन्हें वे पूरा करना चाहेंगे।प्रकृति ने हर व्यक्ति को एक विशेष योग्यता देकर भेजा है।
  • हम एक चित्रकार के हाथ में रंग और तूलिका थमाने के स्थान पर उसे ईंट-पत्थर गारे-चूने में दखेलकर सिविल इंजीनियर बनाने की गलती ना करें।बचपन में ही उसकी रुचि,ऊर्जा को पहचानें।जबरदस्ती से चुने गए विषय और कैरियर उसे पूरा जीवन संतोष नहीं दे पाते और वह व्यक्ति उसे ढोता हुआ अपना जीवन बोझिल बना लेता है।उनकी क्षमता के अनुरूप उन्हें सही दिशा देना हमारा कर्त्तव्य है,अन्यथा हम व्यक्ति के नहीं,समाज के भी अपराधी माने जाएंगे और देश भी ऐसी प्रतिभाओं के विकास के लाभ से वंचित रह जाएगा।
  • माता-पिता की महत्त्वाकांक्षा से जुड़ी एक दूसरी समस्या है-आज के मध्यवर्गीय माता-पिता की आधुनिक सभ्यता की होड़ में अपने बच्चों को पब्लिक स्कूल में डालने की प्रवृत्ति,जो बाल चरित्र के स्वाभाविक विकास में बहुत बड़ी बाधा है।घर में अंग्रेजी बोलने का वैसा वातावरण न होने के कारण बच्चे पर इसकी विपरीत प्रतिक्रिया होती है।पब्लिक स्कूल में पढ़ने के उपरान्त भी आत्मविश्वास की कमी रहती है तथा उसमें अनेक कुंठाएं भर जाती है।अतः अभिजात्य वर्ग का अंग बनने की अपनी ललक के लिए बच्चों को बलि का बकरा न बनाएं,अन्यथा प्रदर्शनप्रियता की होड़ में बच्चा गलत दिशा की ओर मुड़ सकता है अथवा आजीवन हीन मनोभावना का शिकार रहेगा।
  • बच्चों को अति लाड़-प्यार अथवा अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान न करें।अधिक संरक्षण उनके स्वतंत्र व्यक्तित्त्व विकास में बाधक बनता है।बच्चों को खेलने और गिरने दीजिए।गिरकर संभलना अधिक महत्त्वपूर्ण है।

5.बच्चे को हतोत्साहित करने का दृष्टांत (Parable of Discouraging the Child):

  • एक असाधारण प्रतिभाशाली छात्र था।उसके पिता बहुत बड़े उच्चाधिकारी थे।वे देश-विदेश की हर जानकारी रखने वाले,विज्ञान,गणित से लेकर भूगोल और मार्केटिंग तक के विषय में गहरी पैठ रखते थे।उनकी योग्यता और विद्वता अद्वितीय है,पर मजाल है कि वे अपने ज्ञान सागर की दो बूंदे भी अपने बच्चों को देकर उन्हें तृप्त कर सकें।
  • कुछ भी पूछने पर बच्चों को निरा गधा कहकर डांट देते हैं।बेवकूफ या नालायक कहकर उसे अपमानित कर उसका मजाक उड़ाने लगते हैं।उसे प्रोत्साहित करना,उसकी अभिवरूचियों को बढ़ावा देना पिता के कर्त्तव्यों में नहीं आता।
  • बच्चों की मां इस व्यवहार से बहुत दुःखी थी,वह कहती है-केवल इतना होता तो भी ठीक था,वे उल्टा बच्चों की कमियां ढूंढ-ढूंढकर उन्हें ही उजागर कर उनका मनोबल गिराते हैं।
  • कक्षा में प्रथम आने पर भी बच्चों को यही लगता है कि पिताजी को तो कभी खुश होना नहीं है।वे अक्सर अपने रिपोर्ट कार्ड पर साइन मुझसे (माँ) ही करवा ले जाते हैं।घर में तो वे जरा-जरा सी गलती पर उन्हें अपमानित,दंडित और लज्जित तो करते ही हैं,पड़ोस और रिश्तेदारी में भी बच्चों की निंदा और उसकी कमियों की चर्चा करना नहीं चूकते।अक्सर उसकी तुलना दूसरे बच्चों से करते हुए उसे बुद्धिहीन सिद्ध करते हैं।
  • ऐसी स्थिति में बच्चों का चारित्रिक विकास कैसे किया जा सकता है? कैसे बच्चों को बेहतर बनाया जा सकता है? कैसे उनकी छुपी हुई प्रतिभा को उभारा या निखारा जा सकता है।ऐसा कदापि नहीं करना चाहिए।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में माता-पिता बच्चों को बेहतर कैसे बनाएं? (How Parents to Make Children Superior?),बच्चों को श्रेष्ठ कैसे बनाएं? (How to Make Children Superior?) के बारे में बताया गया है।

Also Read This Article:Why Do Children Deteriorate?

6.बिना दिमाग के जिंदा (हास्य-व्यंग्य) (Living without a Brain) (Humour-Satire):

  • श्यामू (गणित अध्यापक से):सर,क्या बिना दिमाग के भी छात्र-छात्राएं गणित के सवाल हल कर सकता है और जिंदा रह सकता है क्या?
  • गणित अध्यापक:क्यों नहीं तुम भी तो जिंदा हो और दूसरे छात्र-छात्राओं के सवालों के हल की नकल करके सवाल दिखाते ही हो।

7.माता-पिता बच्चों को बेहतर कैसे बनाएं? (Frequently Asked Questions Related to How Parents to Make Children Superior?),बच्चों को श्रेष्ठ कैसे बनाएं? (How to Make Children Superior?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.क्या पढ़ाई के साथ सहायक गतिविधियाँ भी आवश्यक हैं? (Are Supportive Activities Also Necessary Along with Studies?):

उत्तर:शिक्षा के द्वारा यह सीखा जाता है की जीविका कैसे बनाई जाए और सहायक गतिविधियों से सीखा जाता है कि जीवन कैसे जिया जाए।दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं।अध्ययन और सहपाठयक्रम गतिविधियां दोनों ही एक छात्र-छात्रा के संपूर्ण व्यक्तित्त्व को उभारने में सहायक होती हैं।

प्रश्न:2.एक अच्छे स्कूल की क्या खासियत है? (What is the Beauty of a Good School?):

उत्तर:कोई स्कूल कितना अच्छा है,यह आज इसी बात से तय किया जाता है कि वह पढ़ाई के साथ-साथ कितनी अच्छी सहपाठयक्रम गतिविधियां अपने छात्र-छात्राओं को उपलब्ध करा सकता है।भाषण से लेकर अभिनय,घुड़सवारी,चित्रकला और आउटडोर खेल जैसे वॉलीबॉल,फुटबॉल तथा क्रिकेट आदि आज हर छात्र के नियमित टाइम टेबल का हिसाब बन गए हैं।
यही अभ्यास आजकल कॉलेजों में भी देखा जा रहा है।जहां छात्रों को विभिन्न सामूहिक विचार-विमर्श में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।इससे न सिर्फ अन्य क्षेत्रों को लेकर छात्र-छात्राओं में रुचि बढ़ती है बल्कि उसका आत्मविश्वास भी बढ़ता है और जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा मिलती है।

प्रश्न:3.छात्र को पढ़ाई के अलावा सहायक गतिविधियों से क्या लाभ हैं? (What Does the Student Gain From Supportive Activities Other Than Studies?):

उत्तर:अध्ययन के अलावा अतिरिक्त गतिविधियों में संतुलन रखने से कई लाभ होते हैं।इससे न सिर्फ छात्र-छात्रा का आत्मसम्मान बढ़ता है बल्कि उसकी आंतरिक कुशलताओं को भी सामने लाता है।इसके अलावा बच्चा यह निर्णय लेने में सक्षम हो जाता है कि उसे कौनसे विकल्प अपने लिए खुला रखने हैं और किन चीजों को प्राथमिकता देनी है।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा माता-पिता बच्चों को बेहतर कैसे बनाएं? (How Parents to Make Children Superior?),बच्चों को श्रेष्ठ कैसे बनाएं? (How to Make Children Superior?) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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