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5Best Tips for How to Develop Children

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1.बच्चों को विकसित करने की 5 सर्वश्रेष्ठ युक्तियाँ (5Best Tips for How to Develop Children),बच्चों के निर्माण में क्या सावधानियाँ बरतें? (What Precautions Should Be Taken in Formation of Children?):

  • बच्चों को विकसित करने की 5 सर्वश्रेष्ठ युक्तियों (5Best Tips for How to Develop Children) के आधार पर बच्चे का पालन-पोषण,संस्कारयुक्त तथा अच्छी शिक्षा-दीक्षा दी जा सकती है।बच्चों का सबसे पहला और प्रमुख विद्यालय होता है:घर।घर के वातावरण में मिली हुई शिक्षा ही बालक के संपूर्ण जीवन में विशेषतया काम आती है।माता बच्चे का पहला आचार्य बताई गई है,फिर दूसरा नंबर पिता का और इसके उपरांत शिक्षक,आचार्य,गुरु का स्थान है।
  • मानव जीवन की दो-तिहाई शिक्षा मां-बाप की छत्रछाया में घर के वातावरण में संपन्न होती है।घर के वातावरण की उपयुक्तता,श्रेष्ठता पर ही बच्चों के जीवन की उत्कृष्टता निर्भर करती है और जीवन की उत्कृष्टता शाब्दिक अक्षरीय ज्ञान पर नहीं,वरन् जीवन जीने के अच्छे तरीके पर है।
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2.बालक पर घर के वातावरण का प्रभाव (Effect of Home Environment on Child):

  • अच्छा स्वभाव,अच्छी आदतें,सद्गुण,सदाचार ही उत्कृष्ट जीवन के आधार हैं जो पुस्तकों के पृष्ठों से,स्कूल,कॉलेजों,बोर्डिंग हाउस की दीवारों से नहीं मिलते,वरन घर के वातावरण में ही सीखने को मिलते हैं।इन्हीं गुणों पर जीवन की सरलता,सफलता और विकास निर्भर होता है।जो मां-बाप इस उत्तरदायित्व को निभाते हुए घर का उपयुक्त वातावरण बनाते हैं,वे अपने बच्चों को ऐसी चारित्रिक संपत्ति देकर जाते हैं जो सभी संपत्तियों से बड़ी है,जिसके ऊपर संपूर्ण जीवन स्थिति निर्भर करती है।
  • घर में विपरीत वातावरण होने पर स्कूल,कॉलेजों में चाहे कितनी शिक्षा दी जाए,वह प्रभावशाली सिद्ध नहीं होती।हालांकि स्कूल के पाठ्यक्रम में चरित्र,सदाचार,साधुता,सद्गुणों की बहुत सी बातें होती हैं,पर वे केवल शाब्दिक और मौखिक ज्ञान का आधार रहती हैं अथवा परीक्षा के प्रश्नपत्रों में लिखने की बातें मात्र होती हैं।विद्यार्थी के जीवन में क्रियात्मक रूप से उनका कोई महत्त्व नहीं होता।इसका प्रमुख कारण घर के विपरीत वातावरण का होना ही होता है।जिन घरों में तना-तनी,लड़ाई-झगड़े,कलह,अशांति रहती है,वहाँ बच्चों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है।जो मां-बाप बच्चों के श्रद्धा,स्नेह के केंद्र होते हैं,उन्हें बच्चे जब परस्पर लड़ते-झगड़ते,तू-तू,मैं-मैं करते,एक दूसरे को बुरा कहते देखते हैं तो बच्चों के कोमल हृदय पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है।बच्चों में मां-बाप के प्रति तुच्छता,अनादर,संकीर्णता के भाव पैदा हो जाते हैं जो आगे चलकर उनके स्वभाव और व्यक्तित्व के अंग बन जाते हैं।अतः कभी भूलकर भी बच्चों के सामने माता-पिता को अपनी तकरार,लड़ाई-झगड़े की बात प्रकट नहीं होने देनी चाहिए।बच्चे सर्वत्र अपने मां-बाप,भाई,रिश्तेदार,पड़ोसी सभी से प्यार और दुलार पाने की भावना रखते हैं।इसके विपरीत लड़ाई,झगड़े,क्लेश,अशांति से बच्चों के कोमल मानस पर आघात पहुंचता है।
  • उदारता,प्रेम,आत्मीयता,बंधुत्व आदि की अनुकूल-प्रतिकूल भावनाओं का अंकुर बच्चों के प्रारंभिक जीवन में ही जम जाता है।जिन बच्चों को मां-बाप का पर्याप्त प्यार-दुलार मिलता है,जिन पर अभिभावकों की छत्रछाया बनी रहती है,जो मां-बाप बच्चों के जीवन में दिलचस्पी प्रकट करते हैं,उनके बच्चे मानसिक विकास प्राप्त करते हैं।उनका जीवन भी उन्हीं गुणों से ओत-प्रोत हो जाता है,जिनमें वे पलते हैं।माता-पिता के व्यवहार आचरण से ही बच्चों का जीवन बनता है।साहस,निर्भीकता,आत्म-गौरव की भावना बचपन में घर के वातावरण से ही पनपती है।
  • मां-बाप के व्यसन,आदतों का अनुकरण बच्चे सबसे पहले करते हैं।मां-बाप का सिनेमा देखना,ताश खेलना,बीड़ी,सिगरेट,फैशन,बनाव,श्रृंगार का अनुकरण कर बच्चे भी वैसा ही करने लगते हैं।इसी तरह जो मां-बाप सदाचारी,संयमी,विचारशील,सद्गुणी होते हैं,वैसा ही प्रभाव उनके बच्चों पर पड़ता है।
  • परिवार के वातावरण में बच्चों के संस्कार,भाव,विचार,आदर्श,गुण,आदतों का निर्माण होता है जो उनके समस्त जीवन को प्रभावित करते हैं।उपदेश और पुस्तकों से जीवन की महत्त्वपूर्ण शिक्षा नहीं मिलती,यह तो घरों के वातावरण को स्वर्गीय,सुंदर,उत्कृष्ट,बनाने पर ही निर्भर करती है।

3.बच्चों के निर्माण में माता-पिता सावधानी बरतें (Parents Should Be Careful in the Formation of Children):

  • आज की तरुण पीढ़ी अपराध एवं अनुशासनहीनता की दिशा में तेजी से बढ़ती जा रही है।यह प्रवृत्ति न केवल वर्तमान बल्कि भविष्य के लिए घातक है।इससे नैतिकता,सामाजिकता,सच्चरित्रता जैसे तत्त्वों के लिए जो सामाजिक सुव्यवस्था के आधार हैं,संकट उत्पन्न हो गया है।
  • किशोरावस्था एवं युवावस्था जीवन का महत्त्वपूर्ण मोड़ है।इसमें किशोर एवं युवा के अंदर शारीरिक परिवर्तन के साथ-साथ मानसिक आवेगों,संवेगों एवं भावनाओं का प्रवाह चलता रहता है।इस प्रवाह को यदि समुचित दिशा एवं मार्गदर्शन न दिया गया तो बाढ़ के पानी के समान समाज को क्षति पहुंचाएगा।
  • जीवन निर्माण के लिए इस अवस्था का अधिक महत्त्व है।बनने,बिगड़ने का यही उपयुक्त समय है।उचित दिशा एवं समुचित मार्गदर्शन से लड़के,लड़कियों का भावी जीवन उज्ज्वल बन सकता है।बचपन के विदा होते ही,भोलेपन का स्थान समझदारी लेने लगती है।संकोचशीलता की वृद्धि होने लगती है।
  • इस संधिकाल में विशेष सतर्कता बरतने की आवश्यकता पड़ती है।बचपन में डाँटने-डपटने एवं मारने की प्रतिक्रियाओं को बच्चा आसानी से भुला देता है,जबकि किशोरावस्था में इन घटनाओं को अधिक समय तक याद रखता है।इसी अवधि में किशोर-किशोरी,युवा-युवती जिन गुणों अथवा दुर्गुणों को ग्रहण कर लेते हैं,उन्हें प्रायः आजीवन नहीं छोड़ते।
  • जिज्ञासा की बहुलता के कारण भी अच्छी-बुरी बात की ओर शीघ्र ही आकर्षित हो जाते हैं।ऐसे समय में यदि यथोचित मार्गदर्शन किया जाए तो उनका भावी जीवन श्रेष्ठ एवं सुसंस्कृत बनता है।इसके विपरीत उनकी मन: स्थिति पर विचार किए बिना दिशा देने पर उनकी गलत दिशा में चल पड़ने की संभावना बढ़ जाती है तथा वे युवावस्था में अनुशासनहीन एवं उच्छृंखल हो जाते हैं।इस अवधि में अभिभावकों के ऊपर किशोर एवं युवाओं के मार्गदर्शन एवं देखरेख की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी आती है।
  • देखा यह गया है कि किशोरावस्था एवं युवावस्था में भी अभिभावक उनके साथ बच्चों जैसा ही व्यवहार करते हैं अथवा प्रौढ़ के समान।यह दोनों प्रकार के व्यवहार से किशोर एवं युवा का मन क्षुब्ध होने लगता है।उम्र के साथ-साथ व्यवहार में अभीष्ट परिवर्तन माता-पिता द्वारा किया ही जाना चाहिए।वास्तव में इस अवस्था में संतुलित व्यवहार,आचरण की कला का विकास अभिभावक को अपने अंदर करना चाहिए,जिससे किशोर की भावनाओं को ठेस न पहुंचे तथा स्वाभिमान सुरक्षित रह सके।तिरस्कार का रास्ता तो कभी भी नहीं अपनाना चाहिए।
  • आरम्भ से ही बच्चों में अच्छे संस्कारों के बीज बो दें तो ये आगे चलकर श्रेष्ठ नागरिक बनते हैं।किशोर की स्वयं की बुद्धि परिपक्व नहीं होती,इसलिए अपने भले-बुरे के विषय में निर्णय लेना,उसके लिए संभव नहीं होता।इस समय यदि उसे स्वयं उसी के निर्णय पर छोड़ दिया गया तो उसके बहक जाने की संभावना सदा बनी रहती है और एक बार पतन की ओर बढ़ जाने पर वह अपने चरित्र को बुरी तरह नष्ट कर करना आरंभ कर देता है।परिमाणस्वरूप उसका जीवन परिवार एवं समाज के लिए अभिशाप सिद्ध होता है।ऐसी स्थिति में अभिभावकों को विशेष सतर्कता रखनी चाहिए।उनके निर्माण में सहयोग देना चाहिए।सुधार की प्रक्रिया मारपीट,डाँट-डपट के रूप में न होकर परामर्श व सुझाव के रूप में चलनी चाहिए।
  • श्रेष्ठ संस्कारों के लिए किशोरावस्था आरंभ होने के पूर्व ही प्रयास आरंभ कर दिया जाए।सुसंस्कारों का प्रादुर्भाव होने के लिए घर का वातावरण अनुकूल होना आवश्यक है।उपयुक्त वातावरण के अभाव में उपदेश अथवा परामर्श का प्रभाव अनुकूल नहीं पड़ता।वाणी की अपेक्षा वातावरण का प्रभाव मन और मस्तिष्क पर अधिक पड़ता है।उपयुक्त वातावरण में श्रेष्ठ विचारों की शिक्षा का दूना प्रभाव किशोरों के मन पर पड़ता है।
  • परिवार की लड़ाई-झगड़े तथा माता-पिता के निकृष्ट आचरण का प्रतिकूल प्रभाव बच्चे के मन पर पड़ता है।शारीरिक तथा मानसिक विकास में इसका विशेष प्रभाव देखा जाता है।माता-पिता के परस्पर झगड़े के कारण किशोर की संवेदनाओं पर गहरी ठेस पहुंचती है तथा उसके अंदर उदारता,सहानुभूति,सहयोग जैसे मानवोचित गुणों का ह्रास होने लगता है।आगे चलकर ये बच्चे कुसंस्कारी,उद्दंड हो जाते हैं तथा समाज के अनुपयोगी सिद्ध होते हैं।अभिभावकों को चाहिए कि उनके सर्वांगीण विकास के लिए समुचित ध्यान दें।

4.शिक्षा के लिए किशोरावस्था एवं युवावस्था उपयुक्त है (Adolescence and Youth are Suitable for Education):

  • शिक्षा का मनुष्य के व्यक्तित्व के निर्धारण में महत्त्व है।उसके अभाव में विनम्र व्यक्ति भी पूरी तरह सभ्य नहीं कहा जा सकता है।विद्याध्ययन के विषय में किशोरावस्था में विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।बाल्यकाल से ही शिक्षा के प्रति रुचि पैदा करने के लिए माता-पिता को हर संभव प्रयास आरंभ कर देना चाहिए।
  • बाल्यावस्था से लेकर किशोरावस्था तक ही शिक्षा में संस्कार डालने की उपयुक्त आयु है।इस समय बच्चों की बुद्धि बड़ी कोमल एवं ग्रहणशील होती है।यदि इस अवधि में शिक्षा के प्रति रुचि जाग्रत हो गई तो ऐसे बच्चे विशेष अध्ययनशील निकलते हैं तथा जीवन क्षेत्र में सफल सिद्ध होते जाते हैं।
  • संपत्ति का अपना महत्त्व है,परंतु शिक्षा के अभाव में संपत्तिवान व्यक्ति भी सामाजिक क्षेत्र में अपना योगदान नहीं दे सकता है।उसकी सोचने की क्षमता सीमित दायरे तक ही बनी रहती है,समाज,राष्ट्र,विश्व की गतिविधियों के विषय में प्रायः वह अनजान बना रहता है,सहयोग करना तो दूर की बात है।
  • विद्यालय की शिक्षा के साथ ही बालकों की नैतिक शिक्षा पर भी विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।धार्मिक शिक्षा पर भी विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।धार्मिक शिक्षा के अंतर्गत बालकों में परस्पर आत्मीयता,सहिष्णुता,उदारता,शिष्टता,श्रमशीलता जैसे सद्गुणों का विकास करना अपेक्षित है।
  • स्वच्छता,नियमितता,व्यवस्था,भगवान में आस्था का भी उसमें समावेश होना चाहिए।सामाजिक गुणों के विकास के लिए सामाजिक कार्यों में भी भाग लेने के लिए बच्चों को प्रेरित करते रहना चाहिए।परिवार के सदस्यों तथा समाज के व्यक्तियों के प्रति कैसा व्यवहार करना,उसका अभ्यास भी इसी अवधि में कराना चाहिए,इससे बच्चे का चरित्र निर्मित होता है।
  • देखा यह जाता है कि अभिभावक बच्चों को इसलिए काम नहीं सौंपते कि वे उस काम को कर नहीं पाएंगे।जबकि इस आयु में उनमें कुछ ना कुछ करते रहने की प्रबल इच्छा रहती है।काम न मिलने पर बच्चों में सीखने की प्रवृत्ति घटने लगती है तथा वे अपने को अयोग्य समझने लगते हैं।खाली समय में उचित मार्गदर्शन तथा व्यस्तता के अभाव में बहुधा वे उच्छृंखलता की प्रवृत्तियों की ओर मुड़ते हैं।
  • आजकल किशोर अपराधियों की वृद्धि का एक बड़ा कारण यह भी है कि उनके साथ समय का सदुपयोग नहीं कराया जाता है।’खाली दिमाग शैतान का घर’ की उक्ति उनके ऊपर चरितार्थ होती है।उनके खाली समय का उपयोग किया जाना चाहिए।उन्हें कला,संगीत,सांस्कृतिक धर्मकृत्य से लेकर उद्योग एवं तकनीकी ज्ञान की शिक्षा इस समय में अध्ययन के साथ ही साथ अतिरिक्त रूप में दी जा सकती है।इससे मनोरंजन एवं उनकी प्रतिभा का विकास होता है।वे अपराधी प्रवृत्तियों की तरफ बढ़ने से बच जाते हैं।अभिभावकों को चाहिए कि बच्चों के निर्माण के लिए परिवार का वातावरण उपयुक्त बनाएं तथा स्वयं ऐसी गतिविधियां अपनाएं,जिससे उनके ऊपर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।
  • बाल्यावस्था,किशोरावस्था तथा युवावस्था में बच्चों को शिक्षित करना,उनकी बुद्धि का विकास करना ज्यादा आसान होता है।यदि बच्चों को शुरू से ही ध्यान,योग,चारित्रिक,व्यावहारिक इत्यादि की शिक्षा प्रारंभ से दी जाए तो वे गलत दिशा में भटकने से बच सकते हैं।जीवन को उन्नत व विकसित करने के लिए शिक्षा सबसे अधिक और पहले पायदान का काम करती है।इसका तात्पर्य यह नहीं है की युवावस्था के बाद शिक्षा अर्जित नहीं की जा सकती,की जा सकती है परन्तु युवावस्था के बाद आदतें,संस्कार परिपक्व हो जाते हैं जिनको बदलने के लिए सुदृढ़ संकल्पशक्ति,तीव्र उत्कंठा एवं रुचि की आवश्यकता होती है।

5.बच्चों की शिक्षा का दृष्टांत (The Parable of Children’s Education):

  • बच्चों के नैतिक एवं चारित्रिक स्तर का पता लगाने के लिए विद्यालय में परीक्षा लेने के पश्चात उत्तर पुस्तिका को जाँचने के लिए उनको स्वयं की उत्तर पुस्तिकाएँ जाँचने के लिए कहा गया।सभी छात्र-छात्राओं ने उत्तर पुस्तिका जाँचने के लिए बहुत उदार दृष्टिकोण अपनाया।जांच करने पर पता चला की बहुत से छात्र-छात्राओं ने अपने गलत सवाल में भी नंबर दे दिए।जब पूछा गया कि उन्होंने ऐसा क्यों किया तो उन्होंने जवाब दिया कि सर सवाल थोड़ा-सा ही तो गलत था।
  • कई छात्र-छात्राओं ने नकल करके सही उत्तर दे दिए।उनसे पूछा गया तो उनका उत्तर था कि सर एक-दो सवाल ही तो नकल करके सही लिखे गए हैं,बाकी सवाल के हल तो मैंने ही किए हैं।
  • आश्चर्य की बात यह थी कि उनमें समृद्ध,खाते-पीते,धनवान,अच्छे पढ़े-लिखे,अच्छे स्तर के कहे जाने वाले घरानों के बच्चे ही अधिक थे।गरीब अथवा साधारण स्थिति के घरों के बच्चे कम थे।ऐसा क्यों? अच्छे धनवान,सपत्तिशाली घरानों के बच्चे तो अच्छे होने चाहिए,किन्तु यह भूल है।ऐसे घरों में प्रायः बड़प्पन,सफेदपोश,चातुर्य की आड़ में सदाचार,नैतिकता,सद्गुणों पर केवल ऊपरी,मौखिक निष्ठा होती है।
  • बाह्य सफलता प्राप्त करना ही इनका लक्ष्य होता है।उसके समक्ष जरूरत पड़ने पर वे सरलता से जीवन के नैतिक तत्त्वों का बलिदान कर देते हैं।धन,पद,प्रतिष्ठा,साधन-सामग्री आदि जैसे उपलब्ध हो सके,वैसा ही वे लोग आचरण करते हैं।इस तरह के अभिभावकों की छत्रछाया में पलने वाले बच्चे भी उनका अनुकरण करके अपनी सफलता के लिए अनैतिक तत्त्वों का आचरण करने में नहीं झिझकते।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में बच्चों को विकसित करने की 5 सर्वश्रेष्ठ युक्तियाँ (5Best Tips for How to Develop Children),बच्चों के निर्माण में क्या सावधानियाँ बरतें? (What Precautions Should Be Taken in Formation of Children?) के बारे में बताया गया है।

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6.शिक्षक और छात्र में अंतर (हास्य-व्यंग्य) (Difference Between Teacher and Student) (Humour-Satire):

  • शिक्षक:प्रकाश,बताओ शिक्षक और छात्र में क्या अंतर है।
  • प्रकाश:जी बहुत अंतर है।शिक्षक छात्र को निकम्मा,जाहिल,मूर्ख,बुद्धू,कामचोर,आलसी,गधा आदि कई विशेषणों से संबोधित कर सकता है याकि करता है।परंतु तब भी छात्र शिक्षक को गुरुजी,सरजी,मास्टरजी,श्रीमान,गुरुदेव जैसे सम्मान सूचक शब्दों का ही प्रयोग कर सकता है याकि करता है।

7.बच्चों को विकसित करने की 5 सर्वश्रेष्ठ युक्तियाँ (Frequently Asked Questions Related to 5Best Tips for How to Develop Children),बच्चों के निर्माण में क्या सावधानियाँ बरतें? (What Precautions Should Be Taken in Formation of Children?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.आधुनिक शिक्षा पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। (Write a Note on Modern Education):

उत्तर:आधुनिक शिक्षा से न तो चरित्रवान,न संस्कारवान और न वास्तविक रूप में बुद्धिमान बन सकता है।वास्तविक रूप में आधुनिक शिक्षा को शिक्षा कहा ही नहीं जा सकता है।आधुनिक शिक्षा में जो छात्र-छात्राएं कोर्स की किताबें सिर्फ परीक्षा उत्तीर्ण करने और डिग्री प्राप्त करने के लिए पढ़ते हैं।यह शिक्षा छात्र-छात्राएं सिर्फ नौकरी,जाॅब प्राप्त करने के उद्देश्य से अर्जित करते हैं शिक्षित और बुद्धिमान बनने के लिए नहीं क्योंकि डिग्री का होना नौकरी या जॉब प्राप्त करने के लिए उपयोगी हो सकता है पर जीवन के संघर्ष में,निर्वाह में और पूरे सफर में यह डिग्री न ओढने के काम आती है और न बिछाने के।

प्रश्न:2.आधुनिक शिक्षा के साथ ओर कौनसी शिक्षा अर्जित करनी चाहिए? (What Other Education Should Be Acquired Along with Modern Education?):

उत्तर:आधुनिक शिक्षा के साथ व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करने वाली,आध्यात्मिक,चारित्रिक व धार्मिक शिक्षा भी अर्जित करनी चाहिए।स्कूल के कोर्स की पढ़ाई तो पूरी लगन और मेहनत के साथ पढ़ना ही चाहिए ताकि आप जाॅब प्राप्त करने के काबिल हो सके।साथ ही व्यावहारिक ज्ञान भी अर्जित करते रहना चाहिए।क्योंकि व्यावहारिक ज्ञान के अभाव में हमारा सर्वांगीण विकास नहीं होता है और जाॅब या नौकरी करके भी हमें आत्मिक सुख-शांति प्राप्त नहीं होती है,जीवन की व्यावहारिक समस्याओं का समाधान नहीं किया जा सकता है।

प्रश्न:3.उज्जवल भविष्य का आजकल के संदर्भ में क्या अर्थ लिया जाता है? (What is the Meaning of a Bright Future in Today’s Context?):

उत्तर:आजकल के संदर्भ में उज्जवल भविष्य का अर्थ केवल धन कमाना ही रह गया है,यह धन चाहे किस तरीके से भी कमाया जाए।जबकि धन कमाने के तरीके नैतिक व साफ-सुथरे होने चाहिए ताकि हमारा चरित्र अच्छा रहे क्योंकि अच्छे भविष्य के लिए अच्छे चरित्र का होना पहली शर्त है।इसके लिए हमें अपने लक्ष्य को बिना किसी दाब-दबाव और प्रभाव के निर्धारित कर उसे प्राप्त करने के लिए कठिन परिश्रम करना चाहिए।अतः सच्चे मन और संतुलित दिमाग से विचार करें तो उज्जवल भविष्य का वास्तविक अर्थ यही समझा जा सकता है।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा बच्चों को विकसित करने की 5 सर्वश्रेष्ठ युक्तियाँ (5Best Tips for How to Develop Children),बच्चों के निर्माण में क्या सावधानियाँ बरतें? (What Precautions Should Be Taken in Formation of Children?) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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