Who is Student Inside Us?
1.हमारे अंदर विद्यार्थी कौन है? (Who is Student Inside Us?),हमारे अन्दर के विद्यार्थी को पहचानें? (How Do We Recognize Student Inside Us?):
- हमारे अंदर विद्यार्थी कौन है? (Who is Student Inside Us?) प्रकृति ने हमारे शरीर के अंदर विद्यार्थी को बैठा रखा है जो हमें हमेशा जागरुक,सचेत और सावधान करता रहता है।आपने अनुभव किया होगा कि हमें अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करने की तड़प महसूस होती रहती है।यदि आप किसी प्रश्न या सवाल में उलझे हुए हो,कोई समस्या हल नहीं हो रही हो,आप किसी गुत्थी को नहीं सुलझा पा रहे हो तो कुछ समय बाद वह अचानक हल हो जाती है।इस तरह हमारे शरीर के अंदर गणित के सवालों,किसी विषय के प्रश्नों तथा अन्य समस्याओं को सुलझाने का काम जारी रहता है।विद्या प्राप्ति में बाधक विकार आलस्य,लोभ,लालच इत्यादि से छुटकारा मिलता रहता है।ये सब कार्य कौन करता है? आपको पता नहीं रहता है कि शरीर में इन सब क्रियाओं का केंद्र कहां है?, कहां से ये सब कार्य संचालित होते रहते हैं? यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जिस शरीर के कर्त्ता-धर्त्ता स्वयं को माने हुए हैं उसके अंदर कहां क्या हो रहा है,उसके अंदर ऐसी कौनसी शक्ति छिपी हुई है उसके बारे में जानकारी नहीं है।यदि जानते-समझते तो हमारे शरीर के अंदर के इस विद्यार्थी की बात सुनना,समझना और मानना बहुत जरूरी है।
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2.अंदर विद्यार्थी कौन है? (Who is the Student Inside?):
- आप शायद यह सोचेंगे कि हमारे शरीर के अंदर विद्यार्थी? यह कौनसी बात हुई? अंदर कोई विद्यालय खुला है? अंदर कोई शिक्षक वगैरह है क्या? सबसे पहले विद्यार्थी का अर्थ समझते हैं।विद्यार्थी का अर्थ अक्सर छात्र-छात्रा या स्टूडेंट समझा जाता है।आपका यह समझना गलत नहीं है क्योंकि छात्र-छात्रा या स्टूडेन्ट के लिए विद्यार्थी का प्रयोग किया जाता है।लेकिन विद्यार्थी का अर्थ छात्र-छात्रा या स्टूडेन्ट ही नहीं होता है।विद्यार्थी,विद्या+अर्थी से मिलकर बना है जिसका अर्थ है विद्या प्राप्त करने का इच्छुक,विद्या पढ़ने वाला।इस प्रकार केवल स्कूल में पढ़ने वाले छात्र-छात्राएं ही विद्यार्थी नहीं हैं बल्कि किसी भी क्षेत्र में,किसी भी विषय में,किसी भी उम्र का व्यक्ति जो विद्या प्राप्त करने का इच्छुक हो,विद्या प्राप्त कर रहा हो वह विद्यार्थी होता है।
- इसी प्रकार एक विद्यार्थी,विद्वान,ज्ञानी हमारे शरीर के अन्दर हमेशा मौजूद रहता है।यह विद्यार्थी हमारे हित और अहित को जानता है जो शक्ति और ऊर्जा का स्वरूप है,चेतन शक्ति है जिसे आत्मा कहते हैं और अंग्रेजी में Soul कहते हैं।शरीर में मौजूद इस विद्यार्थी में ज्ञान-विज्ञान प्राप्त करने की भूख,तड़प होती है।
- हमारी नजर हमेशा बाहर की ओर होती है अन्दर की ओर नहीं।हम दूसरों के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी जुटाते हैं और दूसरों पर निर्भर होते जाते हैं।हमारा मन भी बाहर की ओर दौड़ लगाता रहता है,अन्दर की ओर नहीं।इन्द्रियों का उपयोग भी बाहर की जानकारी जुटाने में लगाते रहते हैं और अपने अंदर के इस विद्यार्थी की ओर हमारा कोई ध्यान नहीं रहता है।
- ऐसे कई गणितज्ञ व वैज्ञानिक हुए हैं जिन्होंने अपने अंदर के इस विद्यार्थी की शक्ति को पहचाना है और उसकी सहायता से वे गणित के सवालों,समस्याओं को सुलझाते थे।यदि हम भी इसको पहचान सके तो दूसरों पर निर्भरता कम होती जाती है।जटिल से जटिल सवालों,समस्याओं को बिना किसी बाहरी मदद के हल कर सकते हैं।परंतु हमें हमारे माता-पिता तथा अन्य व्यक्तियों द्वारा शुरू से यही सिखाया जाता है कि शिक्षकों,मित्रों,पुस्तकों इत्यादि की सहायता-सहयोग लेकर ज्ञान प्राप्त करो,सवालों,समस्याओं को हल करो।
- यहाँ यह मन्तव्य नहीं है कि बाहरी शिक्षकों,मित्रों इत्यादि से सहायता-सहयोग लेना गलत है।परन्तु हमारी दृष्टि जब बाहर की ओर हो जाती है तो हमारी आत्मिक शक्ति को भूले हुए रहते हैं।जब आत्मिक शक्ति को भूले हुए हैं तो स्वाभाविक है कि उसकी शक्ति का उपयोग नहीं कर पाते हैं।
- हमारी दृष्टि में ज्ञान प्राप्ति का माध्यम स्कूल के शिक्षक,बाहरी विद्वान,कोचिंग के शिक्षक,मित्र,माता-पिता,अभिभावक इत्यादि हैं।अतः ज्ञान प्राप्ति के असली स्रोत (अंदर के विद्यार्थी) को भूलकर बाह्य साधनों से अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करते रहते हैं।हमें हमारी इस अद्भुत शक्ति और ऊर्जा का बोध नहीं है।फलतः सही अर्थों में हम विद्या और ज्ञान अर्जित नहीं करते हैं।ऊँची-ऊँची डिग्रियां हासिल करने के बाद भी लुंज-पुंज बने रहते हैं।
- हमें अधिक से अधिक दूसरे पर निर्भर रहना सिखाया जाता है।जो विद्यार्थी बाह्य साधनों के आधार पर आगे बढ़ने के सपने देखता है तथा स्वयं अपनी समस्याओं व सवालों को हल नहीं करता है वह अपने लिए खाई खोदने का कार्य करता है।आपमें विद्या और ज्ञान प्राप्ति की सच्ची भूख,तड़प व लगन तभी जागृत होगी जब आप अपने अंदर के विद्यार्थी के बल पर आगे बढ़ेंगे।
- विद्यार्थी विद्या और ज्ञान की प्राप्ति माता-पिता,शिक्षक,मित्रों,पुस्तकों इत्यादि से प्राप्त करता है और यही उसे सिखाया जाता है।तब उसके मन में ग्रन्थि पड़ जाती है कि असफलता,परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने,परीक्षा में कम अंक आने अथवा गणित विषय समझ में न आने के लिए शिक्षक,विद्यालय,माता-पिता,प्रश्न-पत्र कठिन आने इत्यादि को जिम्मेदार ठहराता है।वह यह स्वीकार करता ही नहीं है कि उसने पूर्ण एकाग्रता और ध्यान के साथ अध्ययन नहीं किया है तथा असफलता इत्यादि के लिए वह स्वयं जिम्मेदार है।
3.प्रत्येक कर्म का उत्तरदायी विद्यार्थी स्वयं है (The Student is Responsible for Every Action):
- श्रीमद्भगवद्गीता के छठवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है किः
“उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत।
आत्मैव ह्यात्मनों बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।” - अर्थात् मनुष्य विवेकयुक्त अपना उद्धार आप ही करे किन्तु अपने आपको नीचे न गिरने दे।मनुष्य स्वयं ही (मन),आत्मा का बंधु अर्थात् संसार से मुक्ति प्राप्त करने पर मित्र तथा मन ही आत्मा का शत्रु है जब वह संसार सागर से नीचे गिराता है।
- यदि विद्यार्थी अपनी सहायता स्वयं करता है,अपने आपको पहचान लेता है,अपनी दृष्टि बाहर से हटाकर अन्दर की ओर कर लेता है तो वह अपना मित्र है।यदि वह अध्ययन के लिए कदम-कदम पर दूसरों पर निर्भर हो जाता है,स्वयं अपने बल पर गणित तथा अन्य विषयों को हल नहीं करता है,अध्ययन करने पर लापरवाही करता है तथा असफलता पर दूसरों को दोषी ठहराता है तो वह स्वयं ही अपना शत्रु है।
- हम अपने साथ अच्छा व्यवहार करेंगे तो हमारा व्यक्तित्त्व अच्छा बनेगा तथा यदि हम हमारे साथ बुरा व्यवहार करेंगे तो हमारा व्यक्तित्त्व ओछा बनेगा।
- प्रश्न उठता है कि यदि विद्यालय में शिक्षक नहीं है,ओर कोई मार्गदर्शक नहीं है ऐसी स्थिति में असफलता,कम अंक प्राप्त होने,अनुत्तीर्ण होने का उत्तरदायित्व तो दूसरों का ही हुआ।वस्तुतः परिस्थिति कैसी भी हो परंतु अपनी दिशा का निर्धारण करना,परिस्थिति को पहचान कर प्रगति-प्रयास करना,प्रतिकूल परिस्थियाँ हो तो उसके लिए उचित प्रयास करना,अपने अंदर छिपे हुए विद्यार्थी से सहायता-सहयोग लेकर अध्ययन करना इत्यादि विद्यार्थी को स्वयं ही करना चाहिए और यदि नहीं करता है तो वह स्वयं जिम्मेदार है।इस प्रकार उत्थान और पतन की कुंजी विद्यार्थी के स्वयं के हाथ में है और गीता के उक्त श्लोक का मन्तव्य भी यही है।
- एकलव्य को विद्या प्रदान करने से आचार्य द्रोणाचार्य ने मना कर दिया था।एकलव्य ने उसका बुरा नहीं माना बल्कि स्वयं ही अपनी आत्मिक शक्ति के बल पर,अपने अंदर के विद्यार्थी के दिशा-निर्देश पर विद्या अर्जित की।सच्चे ज्ञान के उपासक किसी का आश्रय लेने की ताककर बैठे नहीं रहते हैं।एकलव्य ने आत्मश्रद्धा और भगवद् श्रद्धा के बल पर विद्या अर्जित की।यहां तक कि गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अंगूठा गुरु दक्षिणा में मांगा तो भी बिना विचलित हुए उन्होंने अपना अंगूठा तत्काल काटकर दे दिया।धैर्यवान,श्रद्धावान,जिज्ञासु व्यक्ति को आगे बढ़ने से कोई भी बाधाएँ नहीं रोक सकती है।
- दूसरों पर जिम्मेदारी डालने पर हमारे अंदर आलस्य और अकर्मण्यता पनपती है।ऐसे छात्र-छात्राएं और व्यक्ति ऐशोआराम और भौतिक सुख-सुविधाओं में जीने के आदी हो जाते हैं।मनमाना आचरण करने,अध्ययन न करने,पढ़ाई-लिखाई न करने,अपने व्यक्तित्त्व को विकसित न करने,अपनी आत्मिक शक्तियों की पहचान करने की कोशिश न करने पर असफलता (परीक्षा में अनुत्तीर्ण,कम अंक आना इत्यादि) मिलने पर आपकी यह दलील मान्य नहीं होगी कि उनके विद्यालय में कोई पढ़ाने वाला नहीं था,प्रश्न-पत्र कठिन था इसलिए उन्हें अनुत्तीर्ण नहीं किया जाए।
- जैसे कानून न जानने पर अपराध करने वाले यह कहकर माफी नहीं मांग सकते हैं कि हमें पता नहीं था।क्योंकि कहावत है कि “Ignorance of Laws is no Excuse” यानी कानून का न जानना माफी के लिए दलील नहीं हो सकती है।
4.अपने अंदर के विद्यार्थी को कैसे पहचानें? (How Do You Recognize the Student Inside You?):
- हमें माता-पिता,समाज तथा भगवान के मामले में सन्तोष धारण करना चाहिए कि जो कुछ साधन-सुविधाएं उन्होंने हमें दे रखी है वह काफी है क्योंकि हम तो इतने के भी पात्र नहीं थे जितना भगवान ने हमें जो दिया है।हमें अपने मामले में असन्तोष रखना चाहिए।अपने बारे में असन्तोष रखने पर हम हमारी योग्यता,दक्षता तथा पात्रता का मूल्यांकन करते रहेंगे।हम हमेशा यह निरीक्षण करते रहेंगे कि क्या-क्या कमियां हैं जिन्हें दूर करके मैं अपने गुणों और व्यक्तित्त्व का विकास कर सकूं।
- धीरे-धीरे आत्म-निरीक्षण करने और कमियों को दूर करने पर हमारे अन्दर के विद्यार्थी को पहचानने में मदद मिलेगी।वस्तुतः हम इसका उल्टा करते हैं।माता-पिता,समाज,संसार के लोगों तथा भगवान् से यह शिकायत रहती है कि यह साधन-सुविधाएं नहीं दी,वह नहीं किया,यह नहीं दिया,पढ़ने के लिए कोचिंग की व्यवस्था नहीं की,पढ़ने के लिए पुस्तके नहीं है इत्यादि।
- हम स्वयं पर संतोष रखते हैं कि हम ठीक हैं।हम ठीक से अध्ययन करते हैं।हम निकम्मे,आलसी,लापरवाह और अकर्मण्य नहीं है।हम एक-एक क्षण का उपयोग करते हैं।इस प्रकार हमें अपने आपसे कोई शिकायत नहीं रहती है।अपने प्रति संतोष हमारी उन्नति,प्रगति और विकास में रुकावट बन जाता है और हमारे अंदर अहंकार की वृद्धि करता है।हमें हमारे अंदर योग्यता और क्षमता बहुत अधिक नजर आती है।
- शरीर के अंदर जो विद्यार्थी मौजूद है उसकी मौजूदगी का एहसास करें इसके लिए अपनी दृष्टि को बाहर की ओर से हटाकर अंदर की ओर करें।अंदर के विद्यार्थी की तड़प,पुकार व आवाज को सुनकर अपने अंदर सुधार कर लें ताकि असफलता का स्वाद चखना न पड़े।आकस्मिक रूप से दुर्घटनाग्रस्त हो जाएं या बाह्य किसी कठिन विपत्ति के कारण असफल हो जाए उसकी बात अलग है।
- परन्तु जो जानबूझकर लापरवाही करते हैं,आलस्य करते हैं अथवा अन्य किसी कारण के उपस्थित होने पर उसका उपाय नहीं करते हैं वे असफल होने के लिए स्वयं जिम्मेदार हैं।गलत रास्ते पर चलते समय अंदर से आवाज आती है कि ऐसा मत करो,यही अंदर विद्यमान विद्यार्थी की आवाज है,अन्तरात्मा की आवाज है।जो विद्यार्थी इस आवाज को अनसुनी करते हैं वे इसके परिणाम भी भुगतते हैं।
- रोजाना ध्यान (Meditation) और योग करें।प्रातःकाल नित्यकर्मों से निवृत्त होकर ध्यान करने से हमें अपने आपका बोध होता है।ध्यान होश में रहते हुए निर्विकार और अमनी (Absence of Mind) की दशा प्राप्त होने की अवस्था है।ध्यान की स्थिति सधते ही अपने अंदर विद्यमान विद्यार्थी की अनुभूति हो जाती है।
5.हमारे अंदर विद्यार्थी होने का दृष्टान्त (The Illustration of Being a Student Within Us):
- एक नगर में गणित अध्यापक रहते थे।उनका स्वभाव बहुत सौम्य और मिलनसार था।मेहनत और ईमानदारी से वे छात्र-छात्राओं को पढ़ाते थे।वे अक्सर आत्मा-परमात्मा के बारे में चर्चा करते रहते थे।एक बार उन्होंने आत्मा के बारे में इतनी रोचक,सरल और सारगर्भित बात बताई कि सभी छात्र-छात्राएं मन्त्रमुग्ध होकर सुनते रहे।
- उनमें एक छात्र को आत्मा के बारे में जानने की जिज्ञासा हुई।वह विद्यार्थी अध्ययन कार्य छोड़कर आत्मा की खोज में लग गया।घर वाले कोई काम बताते तो उन्हें झिड़क देता।बात-बात में गुस्सा करने लग जाता।रात-दिन उस पर आत्मा की खोज की धुन सवार रहती।
- घरवालों को उसके इस अप्रत्याशित व्यवहार पर आश्चर्य और दुःख हुआ।माता-पिता व छात्र के संबंधों में कटुता आ गई।धीरे-धीरे गणित अध्यापक को भी यह बात पता चल गई।गणित अध्यापक उसकी स्थिति देखकर समझ गए।
- गणित अध्यापक ने छात्र से पूछा आजकल तुम गणित की पढ़ाई में रुचि नहीं ले रहे हो।छात्र से कुछ भी जवाब देते हुए नहीं बन पड़ा।गणित अध्यापक बोले तुम गलत राह पर जा रहे हो।जीवन में द्वेष,क्रोध,कटुता जैसे दुर्गुणों से बढ़कर कोई बुराई नहीं है।
- आत्मा (सच्चा विद्यार्थी) तो तुम्हारे अंदर ही है।उसे खोजने के लिए बाहर क्यों भटक रहे हो? अपने कर्त्तव्य (अध्ययन) को छोड़कर तुम आत्मा की अनुभूति नहीं कर सकते हो।अपने अध्ययन कार्य को पूर्ण निष्ठा,श्रद्धा,लगन के साथ करो तो तुम्हें अपने अंदर आत्मा की अनुभूति होने लग जाएगी।जीवन में शांति,संतोष,सौम्यता और मधुर सम्बन्ध ही आत्मा के लक्षण है इसलिए अपने कर्त्तव्य (अध्ययन) को छोड़ने से ये गुण जीवन में नहीं खिल सकते हैं।छात्र को सच्चा बोध हुआ और वह अपने कर्त्तव्य (अध्ययन) में फिर से जुट गया।
- उपर्युक्त आर्टिकल में हमारे अंदर विद्यार्थी कौन है? (Who is Student Inside Us?),हमारे अन्दर के विद्यार्थी को पहचानें? (How Do We Recognize Student Inside Us?) के बारे में बताया गया है।
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6.छात्र का लड़की से शादी का ख्वाब (हास्य-व्यंग्य) (Student Dreams of Marrying Girl) (Humour-Satire):
- एक छात्र (दूसरे छात्र से):यार मैं जिस कोचिंग में गणित पढ़ता हूं,वह गणित अध्यापक बहुत पिटाई करते है।
- दूसरे छात्र ने कहा:क्यों नहीं उस कोचिंग को छोड़ देते हो?
- पहला छात्र:क्या करूं यार,गणित अध्यापक की एक सुंदर लड़की भी उसी कोचिंग में पढ़ती है।वह जब भी कोई शैतानी करती है तो गणित अध्यापक कहते है मैं तेरी शादी इस मूर्ख छात्र के साथ कर दूंगा।बस यही सोचकर रुका हुआ कि किसी दिन मेरी शादी कर ही देंगे और फिर अपनी बीवी को साथ लेकर फरार हो जाऊंगा।
7.हमारे अंदर विद्यार्थी कौन है? (Frequently Asked Questions Related to Who is Student Inside Us?),हमारे अन्दर के विद्यार्थी को पहचानें? (How Do We Recognize Student Inside Us?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:
प्रश्न:1.विद्यार्थी की उन्नति का मार्ग कौनसा है? (What is the Path of Progress of the Student?):
उत्तर:विद्यार्थी की उन्नति के दो मार्ग हैं और दोनों की उन्नति आवश्यक है।भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति।पारिवारिक व सांसारिक कर्त्तव्यों का पालन करने के लिए धन-संपत्ति अर्जित करना,पद-प्रतिष्ठा इत्यादि प्राप्त करना भौतिक उन्नति है।अहिंसा,सत्य,अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य (यम) तथा शौच,सन्तोष,तप,स्वाध्याय,भगवद् भक्ति (नियम) आदि का पालन करना आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर होना है।
प्रश्न:2.अपने अन्दर के विद्यार्थी की अनुभूति कैसे कर सकते हैं? (How Can You Feel the Student Inside You?):
उत्तर:इन्द्रियों तथा मन पर विवेक का नियंत्रण करके विद्यार्थी अपने अंदर के विद्यार्थी की अनुभूति कर सकता है।मन चंचल रहता है और इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं रहता है तो हम कुमार्ग की तरफ चले जाते हैं।
प्रश्न:3.हमारी मुख्य शक्तियां कौन-कौनसी हैं? (What are Our Main Powers?):
उत्तर:कर्म,विचार और भावना ये तीन चेतना की मुख्य शक्तियां है।श्रेष्ठ कार्य को करने की दिशा में जब ये शक्तियां बढ़ती है तो सत्कर्म,सद्ज्ञान और सद्भाव के रूप में उन्हें काम करते हुए देख सकते हैं।उन्हें सुविकसित करने के विज्ञान को अध्यात्म कहते हैं।अध्यात्म का ढांचा इन्हीं के निमित्त खड़ा किया जाता है।चेतना को श्रेष्ठता के साथ जोड़ देने को योग कहते हैं।योग साधना की तीन प्रमुख धाराएं हैंःकर्मयोग,ज्ञानयोग,भक्तियोग।इन्हीं के सहारे जीवन के लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है।
- उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा हमारे अंदर विद्यार्थी कौन है? (Who is Student Inside Us?),हमारे अन्दर के विद्यार्थी को पहचानें? (How Do We Recognize Student Inside Us?) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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Satyam
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