Obstacles in Changing Education System
1.शिक्षा पद्धति में बदलाव में अड़चनें (Obstacles in Changing Education System),शिक्षा में मूलभूत बदलाव के बिना छात्र-छात्राओं में बदलाव कैसे करें? (How to Change Students without Changing Education System?):
- शिक्षा पद्धति में बदलाव में अड़चनें (Obstacles in Changing Education System) में बदलाव से तात्पर्य है मूलभूत बदलाव,गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का समावेश,नैतिक व आध्यात्मिक शिक्षा का समावेश।शिक्षा पद्धति में बदलाव में अड़चनों के लिए स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद प्रयासों,गैर जिम्मेदारपूर्ण रवैये तथा छात्र-छात्रा में कैसे बदलाव हो इस पर चर्चा की जाएगी।
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2.शिक्षा में बदलाव में अड़चन की मुख्य जड़ (The main root of the bottleneck in change in education):
- इस समस्या की जड़ के दो मुख्य सूत्रधार हैं:माता-पिता और सरकार।विशेषकर उस सरकार की जो भारत के स्वतंत्र होते ही पदासीन हुई थी और स्वतंत्रता के प्रारंभिक वर्षों में जो भारत पर शासन करती रही।यदि वह सरकार दूरदर्शिता से काम लेती तो यह सोचती कि आज का भारत जो हजारों वर्षों की लंबी गुलामी और अंधेरी गुफा से बाहर निकाला है और शिशु अवस्था में है अतः इसका चाल चरित्र किस तरह से निर्धारित किया जाए कि यह देशभक्त,चरित्रवान,नैतिक और स्वस्थ व्यक्ति के रूप में विकसित हों,न कि नशेड़ी,शराबी,चरित्रहीन,दुर्बल व्यक्ति के रूप में।
- वह सरकार यह भी सोचती कि इस शिशु को कैसे संस्कार दिए जाएं,कैसी शिक्षा दी जाए जिससे यह एक जिम्मेदार कर्त्तव्यपरायण और राष्ट्रीय भावना से भरे निष्ठावान नागरिक के रूप में विकसित हो,न कि गैर जिम्मेदार,कामचोर,राष्ट्रहित से निजी स्वार्थ को प्रमुखता देने की क्षुद्र भावना से भरे भ्रष्टाचारी के रूप में और सबसे बड़ी बात वह सरकार सोचती कि जिन मूल्यवान आदर्शों और सिद्धांतों वाली भारतीय संस्कृति के कारण कभी भारत देश जगदगुरु हुआ था उस महान् संस्कृति के रंग में इस शिशु को अभी से किस तरह रंगा जाए कि 1000 वर्ष की गुलामी से मुक्त होने के बाद राष्ट्र नया जन्म ले रहा हो तब उसे उसी संस्कृति में ढाला जाए जिसने तपे हुए आचार्य,गुरु,ऋषि,संत,महात्मा,महापुरुष दिए हैं और उन्होंने अपना सादगीपूर्ण जीवन जीते हुए राजा,महाराजाओं,सम्राटों को उच्छृंखल होने से बचाया है।
- दरअसल किसी भी छात्र-छात्रा के जीवन को उन्नत,विकास और ऊपर चढ़ने के लिए शिक्षा पहले पायदान का काम करती है।अतः छात्र-छात्राओं को अच्छी व श्रेष्ठ शिक्षा मिलनी चाहिए परंतु उस समय की सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया।प्राचीनकाल में शिक्षा स्वतंत्र थी राज्याश्रित नहीं थी तथा उस समय के तपे हुए आचार्यों द्वारा बिना किसी लोभ लालच के शिक्षा प्रदान की जाती थी।अब शिक्षा राज्याश्रित है अर्थात् उसी (शासन) के द्वारा निर्धारित नियम कानूनों का पालन करना है।परंतु उस सरकार ने देश की शिक्षा प्रणाली में भारतीय ढंग का कोई भी परिवर्तन नहीं किया और जो शिक्षा प्रणाली लार्ड मैकाले की नीति थी कि देश में क्लर्क यानी बाबू पैदा करने वाली शिक्षा दी जाए ताकि भारत का शिक्षित युवक बाबूगिरी के अलावा और कुछ करने लायक न रहे लिहाजा गुलाम बना रहे।उस समय की सरकार ने शिक्षा में नैतिक,धार्मिक (संप्रदाय नही),आध्यात्मिकता की शिक्षा देने वाला विषय नहीं रखा।यदि रखा होता तो आज के भारत की तस्वीर देशप्रेम,आचरणयुक्त जैसे विषयों की दी जाती तो जो आज अनेक समस्याएँ दृष्टिगोचर हो रही है वे गायब हो जाती।
- बुनियादी शिक्षा की ऐसी विधिवत व्यवस्था की होती की बचपन से बच्चा पढ़ने-लिखने में गहरी रुचि लेने लगे और एक श्रेष्ठ नागरिक के रूप में तैयार हो सके।उस समय की सरकार ने भविष्य के रंगीन सपने तो देखे पर उन सपनों को साकार करने की बुनियाद नहीं रखी।किसी भी राष्ट्र की बुनियाद बच्चे होते हैं,नन्हें-मुन्ने बालक होते हैं क्योंकि ये बालक ही कल को पालक बनते हैं और सिर्फ अपने परिवार के पालक ही नहीं बल्कि देश के पालक बनते हैं।आजादी के समय जो छोटे बच्चे थे वे ही तो आज वयोवृद्ध भारत के नागरिक हैं।अगर उस समय की सरकार ने दूरदर्शिता से काम लेकर यह योजना बनाई होती की 75 वर्ष (प्लेटिनम जुबली) के बाद का भारत एक महान राष्ट्र बनें,देशभक्तों का राष्ट्र बने,चरित्रवान,कर्त्तव्यपरायण और भद्र नागरिकों का राष्ट्र बनें तो उन्होंने उस वक्त के बच्चों को वैसी शिक्षा देने वाली प्रणाली लागू की होती।यदि की होती तो क्लर्क पैदा करके देश में बेरोजगारों की संख्या बढ़ाने वाली मैकाले छाप शिक्षा प्रणाली नहीं रहती।इन बेरोजगारों में से आज अधिकांश नवयुवक नशा करने,ड्रग्स लेने,हत्या,चोरी,लूटपाट,भ्रष्टाचार आदि में संलग्न है।
- इसके लिए एक उदाहरण देना पर्याप्त होगा कि जब तुर्की के सुल्तान कमालपाशा ने गद्दी पर बैठने के समय अधिकारियों से पूछा कि तुर्की भाषा को राजभाषा बनाने में कितना समय लगेगा? अधिकारियों ने उत्तर दिया 10 वर्ष।कमालपाशा की आज्ञा हुई की समझ लो कल प्रातः 10 वर्ष व्यतीत हो गए और अगले ही दिन पूरे देश में अंग्रेजी के स्थान पर तुर्की भाषा का प्रयोग होने लगा था।हमारे अंदर राष्ट्रीय चेतना का अभाव है इसीलिए इतने वर्षों बाद भी राजकाज के लिए एक विदेशी भाषा का भार ढो रहे हैं।वरना क्या रूस,जर्मनी,जापान,चीन ने अंग्रेजी भाषा के आधार पर विकास किया है,नहीं स्वयं की मातृभाषा से विकास किया है।
3.भारत में शिक्षा में बदलाव के प्रयास (Efforts to transform education in India):
- 5 नवंबर 1997 को बेसिक शिक्षा परिषद के विद्यालयों में केवल वंदे मातरम के लिए शासनादेश हुआ था (उत्तर प्रदेश में कल्याणसिंह के मुख्यमंत्रित्व) लेकिन कुछ व्यावहारिक कारणों से उक्त शासनादेश को 24 दिसंबर 1997 को निरस्त कर दिया गया था।1998-1999 में पूर्व मानव संसाधन यानी केंद्रीय सरकार के शिक्षा मंत्री मुरलीमनोहर जोशी (बोलो लेकिन करो नहीं।सीख यह थी कि यदि किया और वापस लिया तो भद्द होगी) ने शिक्षा के क्षेत्र में भारतीयकरण और आध्यात्मिक का प्रस्ताव किया।वह विवाद का विषय बन गया।इस प्रस्ताव के प्रबलतम विरोधी वे लोग हैं जो अपने को तथाकथित धर्मनिरपेक्ष एवं सेकुलर राजनीतिज्ञ कहते हैं।उनके साथ आला अफसर तथा पश्चिमी सभ्यता में रंगे हुए भारतीय भी हैं जो अपने को अंग्रेजों का वंशज प्रमाणित करने के लिए प्रतिपल प्रयत्नशील बने रहते हैं।वे भारतीय वेशभूषा,भारतीय भाषा,भारतीय रहन-सहन,खान-पान आदि सबसे परहेज करते हुए देखे जा सकते हैं।यह देखकर दुःख होना स्वाभाविक है कि हमारे युवावर्ग का का लगभग 90% भाग अंग्रेजीयत के रंग में रंगा हुआ दिखाई देता है।यह वर्ग अपनी भाव भंगिमा इस प्रकार बनाता है कि कहीं कोई उन्हें भारतीय न समझ ले।ऐसी दास मनोवृत्ति वाले व्यक्ति यदि यह सोचने लगें कि काश्मीर भारत में रहे अथवा न रहे क्या अंतर पड़ता है,तो क्या आश्चर्य है?
- कहा जाता है कि संस्कृत एक मूल भाषा है,परंतु विचारणीय यह है कि संस्कृत को मृतभाषा कहने वाले प्रकारान्तर से क्या यह प्रयत्न नहीं कर रहे हैं कि संस्कृत में लिखे हुए हमारे पास सहस्त्र ग्रन्थों को व्यर्थ,मृत,अनुपयोगी घोषित कर दिया जाए,यानी हम अपनी विपुल काव्य संपदा को भूल जाए और अपने को बर्बर एवं असभ्य राष्ट्र होना स्वीकार कर लें?
- देश की अस्मिता के प्रति उदासीनता का दूसरा उदाहरण है सरस्वती वंदना तथा राष्ट्रगान का विरोध।इस प्रकार की घटनाओं को लक्ष्य करके फ्रांस में सर्वाधिक प्रचारित समाचार पत्र ली फी गोरो दक्षिणपूर्व एशिया स्थित संवाददाता फ्रांस्वा गासिया ने 22 अक्टूबर 98 के अंक में एक लेख लिखा था जिसमें उक्त प्रकार की घटनाओं की भर्त्सना की गई थी और कहा था कि भारत के लोग मैकाले की शिक्षा-पद्धति को गले क्यों लगाए हुए हैं।प्रसंगवश उक्त लेख का शीर्षक का उल्लेख करना उचित होगा:’Hunted by Macaulay’s Ghost’ मैकाले के प्रेत बाधा द्वारा ग्रसित।
- राष्ट्रगान (National Song),राष्ट्रगीत (National Anthem) (वंदे मातरम) एवं सरस्वती वंदना के विरोधियों को सहन करके हमारी सरकारों ने वस्तुतः राष्ट्रीय अस्मिता को क्षत-विक्षत करने के अभिलाषियों को छूट दे दी थी।वंदे मातरम,सरस्वती वंदना एवं जन-गण-मन राष्ट्रीय गान शुरू के 50-60 वर्षों से प्रत्येक कार्यक्रम के आवश्यक अंग रहे हैं।इनका विरोध वस्तुतः खतरे की घंटी है और यह इंगित करता है कि देशद्रोह की शक्तियां क्रमशः बलवती हो रही हैं,परंतु वोट की राजनीति करने वालों ने इस ओर उपेक्षा का भाव दिखाकर अपना भविष्य बनाया है या बिगड़ा यह विवादास्पद है।परंतु उन्होंने राष्ट्रीय अस्मिता के प्रति निर्विवाद रूप से उपेक्षा प्रदर्शित की और देशद्रोह की भावना को पनपने का अवसर दिया।यदि शिक्षा पद्धति को भारतीयकरण एवं आध्यात्मिकता के साथ जोड़ना सांप्रदायिक है,तो हम कहना चाहेंगे कि सांप्रदायिकता के इस स्वरूप को स्वीकार करने के लिए हमारे युवक-युवतियों को आगे आना चाहिए।
- कुछ स्वयंभू ज्ञानी यह भी करते हुए लज्जा का अनुभव नहीं करते कि वेदों और उपनिषदों का अध्ययन सांप्रदायिक कार्य है,जबकि विश्व के श्रेष्ठतम विद्वान वेदों एवं उपनिषदों को ज्ञान,दर्शन एवं विज्ञान का अक्षय भंडार बताते हैं और कहते हैं कि जो कहीं नहीं है,वह इनमें हैं,जो इनमें नहीं है,वह कहीं नहीं है?
- हम चाहते हैं कि हमारा युवावर्ग भारतीय ज्ञान के अक्षय एवं अतुलनीय भंडारों का अध्ययन करें और देखे कि भारतीय चिंतन की जड़े कितनी गहरी है,हमारे युवावर्ग को समझ लेना चाहिए कि विश्व के पास भारतीय चिंतन धारा का कोई विकल्प नहीं है।क्या यह आश्चर्य चिंता एवं दुःख का विषय नहीं है कि भारत के जिस अंतर्मन को विदेशी विद्वान सहजभाव से ग्रहण कर सकते हैं,उसको नकारते हुए भारत में रहने वाले अभारतीयों को लाज नहीं आती है।
- हमारे युवाओं को समझ लेना चाहिए कि जब तक वह भारत को अपनी माता नहीं समझेगा और भारतीय होने का गर्व नहीं करेगा,तब तक वह स्वाभिमानी एवं स्वतंत्र व्यक्ति के गौरवमण्डित जीवन को नहीं जी सकेगा।
4.भारतीयता के प्रसंग एवं विरोध (Themes and Protests of Indianness):
- अशफाकउल्ला जैसे सच्चे देशभक्त वंदे मातरम गाते हुए शहीद हुए थे।देश के राष्ट्रपति रहे जाकिर हुसैन के कार्यक्रमों की शुरुआत इसी गीत से होती थी।यह गीत मजहब को नहीं बल्कि राष्ट्र प्रेम को प्रेरित करने वाला है।इसीलिए इसका विरोध किसी मुस्लिम नेता ने तब नहीं किया,जब इसे राष्ट्रगीत के रूप में मान्यता दी गई।जबाव में शिया नेता कल्बे सादिक का कहना था कि शायद कौम के नेता तब सो रहे थे,जिसका खामियाजा आज कौम को भोगना पड़ रहा है।यदि वंदे मातरम पर मुसलमानों को ऐतराज है तो इकबाल की नज्म ‘सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा’ का भी विरोध किया जाना चाहिए।क्योंकि इकबाल की नज्म में वही राष्ट्रप्रेम की अभिव्यक्ति है,जो वंदे मातरम में है।
- संविधान सभा ने 24 जनवरी 1950 को संसद में जब ‘जन-गण-मन…..’ को राष्ट्रगान का दर्जा दिया था,उसी समय ‘वंदे मातरम’ को भी उसी के समान राष्ट्रगीत के रूप में प्रतिष्ठा दी थी।24 जनवरी 1950 को संसद सत्र की समाप्ति पर संसद में मौजूद सभी सम्प्रदाय के सदस्यों ने ‘जन-गण-मन…..’ गाया था और उसके बाद ‘वंदे मातरम’ गीत से सभा का समापन किया गया था।वोटों की राजनीति के कारण इस राष्ट्रीय गीत को विवाद में घसीट कर इसका अपमान किया जाता है।
- तमिलनाडु के दिवंगत लोकप्रिय नेता करुणानिधि भगवान राम को काल्पनिक पात्र बताते हैं।1998 में बहुजन समाज पार्टी के विधानमंडल के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य का कहना था (दलित-मुस्लिम गठबंधन की रणनीति के तहत) कि भाजपा सरकार द्वारा स्कूलों में वंदे मातरम और सरस्वती वंदना को अनिवार्य किए जाने का बसपा प्रबल विरोध करेगी।
- 1998 में स्कूलों में वंदेमातरम के गाने और सरस्वती वंदना को लेकर कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं के बयान-फतवे हिंदुत्व की जगहर करा रहे थे,मुस्लिम-संगठनों ने हाय-तौबा मचायी,उनके नेताओं के बयान शुरू,यहां तक की फतवे जारी हो गए।वे तब स्तब्ध हुए जब उन्हें पता चला कि स्कूलों में वंदेमातरम व सरस्वती वंदना की अनिवार्यता के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने कोई शासनादेश ही नहीं जारी किया है।उनके सुर बदल गए,लेकिन कोफ्त हुई कि उनकी बयानबाजी ‘कौवा कान ले गया’ की कहावत बन गई,जिसकी प्रतिक्रिया में हिंदुत्व उभरा,जिसे भुनाने की भाजपा ने पूरी कोशिश की।
- 14 नवंबर 1998 को मुसलमानों के प्रमुख धार्मिक केंद्र दारुल उलूम देवबंद (सहारनपुर) के तीन मुफ्तियों ने वंदेमातरम को मुसलमान के लिए हराम करार देते हुए इसके खिलाफ फतवे जारी कर दिये।इस फतवे में प्रमुख मुफ्ती मौलाना हबीबुर्रहमान,मुफ्ती मौलाना कफीलुर्रहमान व मुफ्ती मुहम्मद बुलंदशहरी ने कहा कि वंदे मातरम इस्लामी मान्यताओं के खिलाफ है।इनके अनुसार ‘भगवान एक है’ के सिद्धांत के अनुकूल नहीं है।यह दस्तूर-ए-हिंद में दी गई मजहबी आजादी के भी खिलाफ है।इसका तीसरा बंद ‘फिरकापरस्ती’ फैलाने वाला है।इसलिए मुसलमान के लिए वंदे मातरम पढ़ना हराम है।इन मुफ्तियों का कहना था कि देश से प्रेम करना और बात है लेकिन इनकी पूजा करना अलग बात है।
- इस फतवे ने मुद्दे को देश स्तर पर उछाल दिया।16 नवंबर 1998 को दिल्ली में हुए अरबी मदरसों के सम्मिलन में इस फतवे की प्रतियाँ वितरित की गई।19 नवंबर को मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना अबुल हसन अली मियां ने मुसलमानों का आह्वान किया कि जिन स्कूलों में वंदेमातरम या सरस्वती वंदना होती है,वहां से वे अपने बच्चों को हटा लें।अगले दिन पर्सनल लॉ बोर्ड के उपाध्यक्ष प्रमुख धर्मगुरु मौलाना कल्बे सादिक ने भी वंदेमातरम के खिलाफ सख्त एतराज जाहिर करते हुए कहा कि यदि स्कूलों में इसे अनिवार्य किया गया तो उसका जबरदस्त विरोध होगा।उनका कहना था, “यह गीत आनंद मठ में रचा गया था,जहाँ मुसलमानों के खिलाफ तमाम साजिशे रची जाती थी और अंग्रेजों के आने का स्वागत किया जाता था।जबकि अली मियां का कहना था,”सरकार का यह आदेश संविधान के अनुच्छेद 28 का खुला उल्लंघन है,जिसमें सभी नागरिकों को अपनी इच्छानुसार अपने धर्म के पालन की अनुमति दी गई है।यह देश के संविधान,लोकतांत्रिक मर्यादा,धर्मनिरपेक्षता व अहिंसक चरित्र का भी उल्लंघन करता है।
- भाजपा प्रवक्ता श्यामनंदन सिंह का कहना था, “मुस्लिम दरगाह और मजार पर फूल चढ़ाते हैं,अगरबत्ती जलाते हैं,क्या यह पूजा नहीं है? जबकि मुस्लिम नेता कहते हैं,पूजा वर्जित है।इस पर इस्लामी शिक्षण संस्था नदवा के कर्नल एम जे शम्सी का कहना था,” इस्लाम में अल्लाह के सिवाय किसी दूसरे की पूजा या इबादत शिर्ख (भगवान के सिवा और को भी सम्मिलित करना,अनेक भगवान मानना) मानी जाती है।इस प्रश्न पर की क्या मुसलमान अपने पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब की भी इबादत नहीं कर सकते? शम्सी का कहना है,” मुसलमान को केवल चार मौकों पर सिज्दे (भगवान के लिए सर झुकाना) की इजाजत है।पहला नमाज से,दूसरा नमाज के जुज (खंड,भाग,अध्याय) टूट जाने पर दो सिज्दे करने पड़ते हैं।तीसरा कुरान के 14 जगहों में पाई जाने वाली आयतों पर कुरान बंद कर सिज्दा किया जाता है।चौथा सिज्दा किसी खास मुद्दे पर अल्लाह का शुक्र अदा करने के लिए किया जाता है।शम्सी साहब के कथन पर यकीन करें तो सिज्दा करना हराम नहीं है,क्योंकि उन्हीं के अनुसार सिज्दे की बात इस्लाम में है,भले ही उसके लिए मौके की मोहलत दी गई है।
5.छात्र-छात्राओं में चारित्रिक विकास कैसे हो? (How to develop character in students?):
- ऊपर के विवरण से यह तो स्पष्ट हो गया होगा कि सरकारें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा लागू करने में क्यों हिचकती हैं।जब हवा पर ही इतना हंगामा हो सकता है तो लागू करने पर क्या कुछ हो सकता है इसका अनुमान लगाया जा सकता है।वैसे भी अब केंद्र सरकार बैसाखियों के सहारे चल रही है।उसने राम मंदिर,कुख्यात गैंगस्टर,पंजाब व काश्मीर में आतंकवादियों के खिलाफ कार्यवाही करके देख लिया की जनता में उससे क्या मैसेज जाता है और उसका क्या प्रतिफल मिलता है? यानी पंजाब और काश्मीर की जनता एक आतंकवादी को जिता सकती है,उत्तरप्रदेश की जनता कुख्यात गैंगस्टर मुख्तार अंसारी के भाई को जिता सकती है।
- अव्वल तो केंद्र सरकार गुणवत्तापूर्ण शिक्षा लागू करेगी ही नहीं और यदि कर भी दे तो शिक्षा प्रणाली समवर्ती सूची में है इसलिए राज्य सरकारें इसे लागू नहीं करेंगी।क्योंकि अखिलेश यादव (भूतपूर्व मुख्यमंत्री),मायावती (भूतपूर्व मुख्यमंत्री),ममता बनर्जी,स्टालिन,चंद्रबाबू नायडू,नीतीश कुमार,अरविंद केजरीवाल,नवीन पटनायक (निवर्तमान मुख्यमंत्री),हेमंत सोरेन जैसे लोकप्रिय मुख्यमंत्रियों को तो सत्ता ही मुस्लिम वोटर्स के आधार पर मिलती है।
- अब चारित्रिक विकास तथा उत्तम गुणों के विकास में अन्य कौन-कौन भूमिका अदा करते हैं? सामान्यतः माता-पिता,शिक्षक (अनौपचारिक रूप से प्रसंगवश),वयस्क विद्यार्थी स्वयं,समाचार पत्र,सत्साहित्य के लेखक और साहित्य,सिनेमा,संत,महात्मा,गुरु,मार्गदर्शक आदि इस भूमिका को निभा सकते हैं।इनमें माता-पिता सबसे मुख्य है क्योंकि बालक जन्म से लेकर वयस्क होने (शिक्षित अर्जित करने तक) तक उनके संपर्क में रहता है।अतः उनके चाल-चरित्र का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है।यों भी बच्चों को सरकार ने पैदा नहीं किए हैं अतः जिम्मेदारी भी माता-पिता की ही सर्वोपरि है।शिक्षक भी जो चरित्रवान,निष्ठावान और जागरूक हैं (हांलाकि ऐसे विरले ही होते हैं) वे प्रसंगवश बच्चों को अच्छे गुण धारण करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।
- अन्य उपर्युक्त संत,महात्मा,गुरु,समाचार पत्र आदि के संपर्क में आज का छात्र-छात्रा बहुत कम समय के लिए संपर्क में आता है अतः जितने समय के लिए संपर्क में आता है उतने समय में छात्र-छात्रा को खड़ा करने का,आत्मनिर्माण का पाठ पढ़ाया जा सकता है।
- परंतु वस्तुस्थिति यह है कि भारत में चिंतक,मनीषी,ऋषि,महात्मा आदि होते हुए भी अधिकांश युवाओं में नशा करने,ड्रग्स लेने,हत्या-लूटपाट,चोरी,साइबर ठगी,अय्याशी करना,कामचोरी की आदत आदि अनेक दोषों से ग्रसित होती जा रही है।यह सोच-सोचकर ही मन व्यथित होता है कि भारत का भविष्य क्या होगा? हजारों वर्षों की गुलामी झेलने के बाद भी हम सुधरने के लिए तैयार नहीं है।यदि प्रत्येक प्रबुद्ध,विचारशील व्यक्ति यह सोच लें कि मुझे भारत माता का ऋण उतारना है,भले ही मेरा सर्वस्व चला जाए तो शिक्षण तो सुधरेगा ही,भारत का भविष्य (युवावर्ग) भी सुधरेगा।परंतु यदि हम एक-दूसरे की नुक्ताचीनी करने में ही लग रहे तो सुधार संभव नहीं है।
- नोट:बच्चों का चरित्र निर्माण के लिए और भी आर्टिकल लिखे हुए हैं।
- उपर्युक्त आर्टिकल में शिक्षा पद्धति में बदलाव में अड़चनें (Obstacles in Changing Education System),शिक्षा में मूलभूत बदलाव के बिना छात्र-छात्राओं में बदलाव कैसे करें? (How to Change Students without Changing Education System?) के बारे में बताया गया है।
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6.शिक्षक की पिटाई करने का कारण (हास्य-व्यंग्य) (Reasons for Beating Teacher) (Humour-Satire):
- एक हट्टे-कट्टे छात्र ने गणित शिक्षक को बहुत पीटा।स्कूल में उपस्थित छात्र-छात्राओं ने उस छात्र से पूछा कि उसने शिक्षक को क्यों पीटा,क्यों मारा?
- हट्टा-कट्टा छात्र बोला:ये शिक्षक बिल्कुल पागल है,इतनी गर्मी में भी कहता है कि तप करो।बिना पंखे के गणित को पढ़ने का अभ्यास करो।
7.शिक्षा पद्धति में बदलाव में अड़चनें (Frequently Asked Questions Related to Obstacles in Changing Education System),शिक्षा में मूलभूत बदलाव के बिना छात्र-छात्राओं में बदलाव कैसे करें? (How to Change Students without Changing Education System?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाली प्रश्न:
प्रश्न:1.शिक्षा में बदलाव का विरोध करने वालों के प्रति साधु-सन्तों की क्या राय है? (What is the opinion of the saints towards those who oppose change in education?):
उत्तर:संतो,ऋषियों,समाज सुधारक,चिंतक,मनीषियों का मानना है कि जो वंदेमातरम और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का विरोध करता है,ऐसा करना राष्ट्र का अपमान व भारत माता के प्रति अनास्था का परिचायक है।विरोध करने वाली ताकतों पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दर्ज कर उन्हें दंडित किया जाना चाहिए।
प्रश्न:2.माता-पिता बच्चों को क्यों नहीं सुधार पाते हैं? (Why can’t parents improve children?):
उत्तर:कुछ तो कामकाज की व्यस्तता के कारण तथा आजकल के माता-पिता मैकाले की शिक्षा पद्धति में पढ़े-लिखे हैं अतः वे अच्छे से अच्छे स्कूल में दाखिला दिलवाकर अपने कर्त्तव्य की इति श्री समझ लेते हैं।स्कूल वाले सिलेबस करने के चक्कर में रहते हैं।यहां तक की 10-15 मिनट के लिए होने वाली सामूहिक प्रार्थना तक भी स्कूल वाले नहीं कराते हैं।
प्रश्न:3.सरकारी स्कूलों में बच्चों का निर्माण क्यों नहीं होता है? (Why are there no building of children in government schools?):
उत्तर:सरकारी स्कूलों में अधिकांश वे शिक्षक होते हैं जिनको कोई अच्छा जॉब इंजीनियर,डॉक्टर,आईएएस,या अन्य पद की नौकरी नहीं मिली होती है।जो मजबूरी में शिक्षक बना है उससे चरित्र निर्माण की आशा रखना बेकार है।यदि सरकारी स्कूलों में ही अच्छी पढ़ाई होती तो माता-पिता अपनी गाड़ी कमाई के रुपए खर्च करके प्राइवेट स्कूलों में दाखिला क्यों दिलाते? हालांकि इसका अर्थ यह नहीं है कि प्राइवेट स्कूलों में चरित्र निर्माण होता है।दरअसल सिलेबस कराने के लिए अपना रिजल्ट अच्छा रखने के लिए बच्चों को पढ़ाई (भौतिक शिक्षा) तो करानी ही पड़ती है और पढ़ाई के लिए अनुशासन जरूरी है।इसलिए अनुशासन,समय का पालन,संघर्ष करना जैसी कई बातें तो विद्यार्थी निजी स्कूलों में सीखता ही है।
- उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा शिक्षा पद्धति में बदलाव में अड़चनें (Obstacles in Changing Education System),शिक्षा में मूलभूत बदलाव के बिना छात्र-छात्राओं में बदलाव कैसे करें? (How to Change Students without Changing Education System?) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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