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Teacher VS Preceptor

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1.शिक्षक बनाम गुरु (Teacher VS Preceptor),अध्ययन के लिए शिक्षक और गुरु में किसकी जरूरत है? (Who Needs a Teacher and a Preceptor for Study?):

  • शिक्षक बनाम गुरु (Teacher VS Preceptor) में गुरु से तात्पर्य है अज्ञान को दूर करने वाला,अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाने वाला।एक समय था जब गुरु का नाम लेते ही मन श्रद्धा से भर जाता था।गुरु के दर्शन होने पर शिष्य उनके चरण स्पर्श करके अपना अहो भाग्य समझते थे।राजा,महाराजा तथा लोगों की गुरु में अगाध श्रद्धा थी।परंतु समय के साथ-साथ गुरु का अवमूल्यन होता गया और अब गुरु को शिक्षक,अध्यापक,मास्टर से संबोधित किया जाता है।छात्र-छात्राएं शिक्षक के प्रति श्रद्धा नहीं रखते हैं बल्कि यार-दोस्त जैसा बर्ताव करते हैं।
  • हमारे शास्त्रों में माता-पिता व गुरु तीनों की बालक-बालिकाओं के जीवन निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती थी।माता-पिता बालक-बालिकाओं का न केवल पालन-पोषण करते थे बल्कि कथा-कहानियों के द्वारा उनके चरित्र का निर्माण करते थे।गुरु और आचार्य छात्र-छात्राओं का शारीरिक,मानसिक,बौद्धिक,आत्मिक,व्यावहारिक और चारित्रिक गुणों का विकास करते थे इसलिए गुरु व आचार्य के प्रति श्रद्धा,समर्पण व आदर से सिर झुक जाता था,उसे पूजनीय माना जाता था।
  • परंतु वर्तमान युग में शिक्षक विद्यार्थी को डिग्री व डिप्लोमा के योग्य बना पाता है।आधुनिक विद्यार्थी में चरित्र,ज्ञान,सभ्यता,संस्कार,व्यावहारिक ज्ञान,अनुशासन,सामूहिकता,सहयोग,संस्कृति,विनम्रता इत्यादि गुणों का अभाव है।इन गुणों के बजाय आज का छात्र उच्छृंखल,अनुशासनहीन,उद्दण्ड,अहंकारी,बेईमान इत्यादि दुर्गुणों को अपनाता है।इसका तात्पर्य है कि शिक्षकों तथा शिक्षा संस्थानों द्वारा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध नहीं कराई जा रही है।
  • पत्राचार विश्वविद्यालय,खुले विश्वविद्यालय,निजी विद्यालयों,निजी महाविद्यालयों में छात्र-छात्राओं को पढ़ाने की प्रवृत्ति बढ़ने का एक कारण यह भी है कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा (सरकारी संस्थानों) का न मिलना भी है।हालांकि निजी शिक्षा संस्थानों में भी पाठ्यक्रम तो वही रहता है,वहाँ भी चारित्रिक व नैतिक शिक्षा का अभाव ही है।विचारणीय बात यह है कि शिक्षा के प्रति ऐसी उपेक्षा और बगावत क्यों पनप रही है।असन्तोष लंबे समय तक नहीं बना रह सकता है,उसका विकल्प उभरता है भले ही विकल्प में उसके उद्देश्य की पूर्ति न हो रही हो।
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2.गुरु द्वारा प्रदान की गई विद्या की विशेषता (Characteristic of the Knowledge Imparted by the Preceptor):

  • बालक-बालिकाओं में चरित्र का निर्माण,व्यावहारिक बातों का शिक्षण केवल पुस्तकों के अध्ययन से संभव नहीं है।चरित्र,आचरण,व्यावहारिक बातों को छात्र-छात्राएं शिक्षक व माता-पिता के आचरण एवं सम्पर्क से सीखता है।जब बालक-बालिकाएं माता-पिता व शिक्षक को आदर्श आचरण का पालन करते हुए देखता है,समझता है तभी उन पर प्रभाव पड़ता है तथा वे आदर्श आचरण अपनाने के लिए प्रेरित होते हैं।प्राचीनकाल में गुरुकुल में विद्यार्थी गुरु के समीप रहकर उनके जीवन चरित्र,व्यवहार व गुणों को सीखता था।
  • शिष्य को आध्यात्मिक दृष्टि गुरु के संपर्क में रहने पर मिल सकती है।गुरु को संसार के समस्त उतार-चढ़ावों का मालूम होता है इसलिए शिष्य के लिए गुरु एक योग्य मार्गदर्शक और सहायक है।गुरु में जीवन की पूर्णता होती है।वह पवित्रता,शांति,प्रेम,ज्ञान और सद्बुद्धि व विवेक की साक्षात मूर्ति होता है।गुरु इस कला में निपुण होता है कि शिष्यों में गुणों को कैसे प्रकट कराया जाए।गुरु केवल बाह्य विकास ही नहीं करता है बल्कि शिष्य के आन्तरिक गुणों का विकास करके उसका पूरी तरह रूपान्तरण कर देता है।वैसे गुरुतत्त्व प्रत्येक शिष्य के अंतःकरण में मौजूद रहता है परंतु प्रत्येक विद्यार्थी अपने गुरुतत्त्व (आत्मा) की अनुभूति नहीं कर पाता है अतः उसके मार्गदर्शन से वंचित रहता है।
  • साधारण छात्र-छात्राएं और लोग अन्तरात्मा की आवाज को सुन और समझ नहीं पाते हैं क्योंकि वे सांसारिक प्रपंचों,उलझनों और समस्याओं से घिरे रहते हैं।गुरुतत्त्व (आत्मा) से अनभिज्ञ होने के कारण वे कोई भी निर्णय ठीक से नहीं ले पाते हैं और दिग्भ्रमित रहते हैं।हालांकि आत्म-तत्त्व उसे सचेत करती रहती है परन्तु उनकी दृष्टि सांसारिक होने के कारण वे सुन-समझ नहीं पाते हैं।
  • स्थूल गुरु हमारे अन्तर के गुरुतत्त्व का प्रतीक है।यदि हम बाह्य गुरु के प्रति सच्चे और ईमानदार बनें तो कर्त्तव्य का पालन ही सच्ची साधना बन जाती है।फिर हमें जप-अनुष्ठान,पूजा-पाठ,ध्यान-धारणा और योगाभ्यास की कोई आवश्यकता नहीं है।परंतु अध्यात्म में भी हम सांसारिक तौर-तरीकों का इस्तेमाल करते हैं जिससे आध्यात्मिक जागरण नहीं हो पाता है फिर गुरुद्वारा हमारी साधना को सफल कराना संभव नहीं हो पाता है।
  • यदि गुरु का शिष्य से संबंध वास्तविक तथा गहराई से जुड़ा हुआ है तो शिष्य का अपने आंतरिक गुरु से संबंध विकसित करना संभव हो जाता है।दोनों संबंध अन्योन्याश्रित हैं।बाह्य गुरु से सम्बन्ध विकसित होने के साथ-साथ आंतरिक गुरु से शिष्य का संपर्क सजीव,साकार और स्पष्ट होने लगता है।
  • परंतु योग्य गुरु द्वारा आंतरिक गुरु (आत्मा) से संपर्क करना तभी संभव है जब शिष्य में पात्रता है।इसके लिए शिष्य को गुरु के प्रति आत्मसमर्पण करना होगा और अपनी समस्त इच्छाओं व कामनाओं को गुरु में विसर्जित करना होगा।
  • प्राचीन काल में गुरुकुल प्रणाली थी तथा संस्थाएं दान-दक्षिणा से चलती थी।आवागमन और संचार के साधन नहीं थे।जीवन मितव्ययतापूर्वक बिताना होता था।निर्धन तथा अमीर व्यक्तियों के बालकों को समान सुविधाएं थी।सबको मिल-जुलकर ही रहना होता था।बालक ऐशोआराम जैसी सुविधाएं नहीं पाते थे।विद्यार्थी काल तप व साधना में व्यतीत करना होता था।कष्ट और तपपूर्ण जीवन से ही बालकों के गुणों का विकास हो सकता है।गुरुकुल से निकलने वाले बालक सुयोग्य और प्रतिभा संपन्न होते थे।इसलिए गुरु पद का दर्जा गुरुकुल के शिक्षकों को प्राप्त था और उसी प्रकार का मान-सम्मान व श्रद्धा शिष्य गुरु में रखते थे।
  • शिष्य गुरु के संतोष में ही अपना सन्तोष मानता है।अपना सर्वस्व गुरु को समर्पित कर देता है तो गुरु का निरंतर सहयोग शिष्य को मिलता है न केवल भौतिक क्षेत्र में बल्कि आत्मिक प्रगति में भी समान रूप से।शिष्यों से सहयोग-संरक्षण मिलता है जो निष्ठावान शिक्षक है जिनके लिए गुरु कार्य ही सर्वोपरि है ऐसे शिष्यों पर ही गुरु अहैतुकी कृपा करते हैं।

3.शिक्षक गुरु पद का दर्जा कैसे प्राप्त करें? (How to Get the Status of Teacher Preceptor?):

  • शिक्षक द्वारा आधुनिक युग में गुरुपद पाना बहुत कठिन है।हमारे देश में शिक्षक बहुत ही सामान्य स्थिति में जीवन निर्वाह करता है।इसके अतिरिक्त जीवन की जटिलताएँ बढ़ जाने,छात्रों की बढ़ी हुई संख्या के कारण भी आज के शिक्षक के लिए छात्रों से व्यक्तिगत संपर्क रखना कठिन हो गया है।परंतु समस्त अभाव,व्यक्तिगत कठिनाइयों के रहते हुए भी शिक्षक को अपने उत्तरदायित्वों,कर्त्तव्यों से विमुख नहीं होना चाहिए।छात्र-छात्राओं के हित की भावना रखकर शिक्षकों को बच्चों के जीवन निर्माण की दिशा में अग्रसर होना पड़ेगा।विद्यार्थी और शिक्षक का सम्पर्क बड़े महत्त्व का है।यदि केवल व्यावसायिक दृष्टिकोण न रखकर बच्चों के निर्माण की दिशा में शिक्षक ध्यान दें तो बहुत बड़ा परिवर्तन हो सकता है।
  • कोई संदेह नहीं कि इन्हीं बच्चों में से महान् गणितज्ञ,महान् वैज्ञानिक,महापुरुष,विद्वान,तपस्वी,कुशल नेता निकलकर न आए।जिस देश में योग्य व्यक्तियों की बहुतायत होगी उस देश का पतन नहीं हो सकता है और न उस देश को कोई हानि पहुंचा सकता है।
  • विद्यार्थी सबसे अधिक माता-पिता के बाद शिक्षक के साथ अपना समय व्यतीत करता है।शिक्षक के प्रति सहज श्रद्धा और कृतज्ञता का भाव भी रहता है।उनके उपकारों को भुलाया नहीं जाना चाहिए।उनसे आयु में ही नहीं,हर हालत में छोटी स्थिति वाले छात्र-छात्राओं पर शिक्षक के व्यक्तित्त्व और कृतित्व की छाप पड़ती है।
  • स्कूल के पाठ्यक्रम को पूर्ण करने के अलावा भी शिक्षक अपने संपर्क और व्यक्तित्त्व से छात्र-छात्राओं में शालीनता,सज्जनता,श्रमशीलता,जिम्मेदारी,बहादुरी,ईमानदारी और समझदारी जैसे सद्गुणों को विकसित करना चाहिए।परंतु इन गुणों का विकास तभी किया जा सकता है जब शिक्षक स्वयं भी सदाचार और पवित्र आचरण धारण करता हो।
  • हमारे देश,समाज,सभ्यता,संस्कृति का विकास करना शिक्षकों के द्वारा ही संभव है।अपने इस उत्तरदायित्व को समझते हुए शिक्षकों की यह जिम्मेदारी है कि जो पाठ्यक्रम सामने है उनमें से अच्छी आदतों को चुन-चुनकर विद्यार्थियों के सामने रखे तथा जिन प्रसंगों के परिणाम गलत निकलते हैं उन्हें अपनी टिप्पणियों के साथ इस प्रकार पढ़ाया जाए जिससे उसका दुष्परिणाम छात्र-छात्राओं को समझ में आ सके।
  • गुण-कर्म-स्वभाव में सुधार करने पर छात्र-छात्राएं अपने लिए,देश,समाज व परिवार के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकता है।यह सब शिक्षकों को इस प्रकार समझाया जाना चाहिए जिसमें गहरे तर्क,प्रभावी तथ्य और उन उदाहरणों की बहुतायत हो जिनमें आदर्श पर मिलने वाले अनेक लाभों का विस्तारपूर्वक वर्णन हो।साथ ही छात्र-छात्राओं को यह भी बताना चाहिए कि सद्गुणों,अच्छी आदतों और अच्छे संस्कारों को न अपनाने पर छात्र-छात्राओं का पतन हो सकता है।
  • शिक्षक गुरु जैसा सम्मान और श्रद्धा का पात्र तभी बन सकता है जबकि उसकी कथनी और करनी में अंतर न हो।शिक्षक छात्र-छात्राओं के लिए आदर्श है,छात्र-छात्राएं शिक्षक का अनुसरण करते हैं।यदि कथनी और करनी में अंतर होता है तो वह गुरु तो क्या शिक्षक जैसा सम्मान भी अर्जित नहीं कर सकता है।
  • किसी भी विषय को पढ़ाते समय शिक्षक नैतिक शिक्षा के प्रसंगों को जोड़ सकता है।ईमानदारी,सज्जनता,सरलता व सादगी जैसे गुणों के दृष्टान्त अपने विषय के शिक्षण के साथ जोड़े जा सकते हैं।शर्त यही है कि शिक्षक का व्यक्तित्त्व उज्जवल व पवित्र हो,छात्र-छात्राओं की समस्याओं को सुलझाने में भागीदार बने तो छात्र-छात्राओं को मनचाहे रूप में ढाला जा सकता है।

4.शिक्षक और गुरु के संबंध में महत्वपूर्ण बातें (Important Things About Teacher and Preceptor):

  • (1.)ज्ञान दान सबसे बड़ा दान है।अतः शिक्षक केवल छात्र-छात्राओं को ही नहीं बल्कि माता-पिता व अभिभावकों को भी स्वाध्याय के लिए,पुस्तकों का अध्ययन करने के लिए प्रेरित कर सकता है।
  • (2.)शिक्षक छात्र-छात्राओं को जीवन जीने की कला सिखाए।स्वच्छता,स्वास्थ्य का महत्त्व समझाएं,व्यावहारिक बातों का पालन करना सिखाए,शिष्टाचार के सूत्र बताए तथा समाज और पड़ोसियों के साथ मधुर संबंध कैसे रखे जा सकते हैं इसके लिए प्रेरणा प्रदान करें।
  • (3.)विद्यालय में वार्षिकोत्सव,विभिन्न जयन्तियाँ,राष्ट्रीय पर्व व उत्सव मनाए जाते हैं उनमें राष्ट्रीयता,देशभक्ति तथा अच्छे गुणों को धारण करने से संबंधित भजन,गीत तथा बोध कथाएँ इत्यादि के लिए छात्र-छात्राओं को तैयार करें और उनकी प्रतिभा को विकसित करें।
  • (4.)बल,धन से प्रतिभाओं को प्रलोभन दिया जाता है और उन्हें खरीदा जाता है परंतु शिक्षक को इन प्रलोभनों में नहीं फंसना चाहिए।क्योंकि अध्यापक वर्ग पर राष्ट्र के निर्माण का महान् दायित्व अवलंबित है।देश को बनाने-बिगाड़ने की संपूर्ण जिम्मेदारी अध्यापक वर्ग पर है।
  • (5.)शिक्षक को शिक्षक का ही नहीं बल्कि गुरु का दायित्व निभाना चाहिए।गुरु ही अंधकार से प्रकाश की ओर,अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाने वाला मार्गदर्शक है।उसे हर कीमत पर अपने कर्त्तव्य का पालन करना चाहिए।तभी देश,समाज उन्नति,प्रगति और विकास कर सकता है।
  • (6.)विद्यालय में पढ़ाने के अलावा भी छात्र-छात्राओं में विद्या का प्रसार करने,ज्ञान का प्रसार करने के लिए सुबह-शाम अर्थात् विद्यालय के अतिरिक्त समय का सदुपयोग करना चाहिए। छात्र-छात्राओं,उनके माता-पिता व अभिभावकों से निरन्तर सम्पर्क करके विद्या प्राप्ति हेतु जागृति आंदोलन छेड़ देना चाहिए।शिक्षक के बच्चों की शिक्षा व विद्या का दायित्व पत्नी व घर के बड़े सदस्यों पर छोड़ देना चाहिए।

5.शिक्षक व गुरु का दृष्टान्त (The Vision of Teacher and Guru):

  • एक विद्यालय में गणित के शिक्षक थे।प्राचार्य उन्हें बहुत पसंद करते थे क्योंकि गणित पढ़ाने में वे इतने निपुण थे कि छात्र-छात्राएं उसे पढ़कर अपने आपको धन्य समझते थे।गणित पढ़ाने की कला छात्र-छात्राओं और प्राचार्य को मंत्रमुग्ध कर देती थी।एक दिन प्राचार्य के दिमाग में विचार आया कि गणित के शिक्षक को शिक्षा देने वाले गुरु की पढ़ाने की कला कैसी होगी? निश्चित रूप से गणित शिक्षक से भी अधिक प्रभावी ढंग से पढ़ाते होंगे।प्राचार्य ने गणित शिक्षक को अपने गुरु को विद्यालय में बुलाने का आग्रह किया।
  • गणित शिक्षक ने कहा कि मेरे गुरु गुरुकुल में पढ़ाते हैं।वे न तो मेरे बुलाने से आएंगे और न हमारे कहने से गणित पढ़ाने की कला का प्रदर्शन करेंगे।लेकिन प्राचार्य की तीव्र उत्कण्ठा को देखकर गणित शिक्षक प्राचार्य को लेकर अपने गुरु के गुरुकुल में ले गए।
  • जब वे गए तो गुरुजी अपने शिष्यों को पढ़ा रहे थे।गणित शिक्षक ने संकेत से प्राचार्य को मौन रहने के लिए कहा।गणित शिक्षक व प्राचार्य कमरे की खिड़की के पास खड़े होकर उनके पढ़ाने को देखने लगे।उन्होंने देखा कि छात्र-छात्राएं इतने मंत्रमुग्ध होकर पढ़ रहे हैं कि यदि एक आलपिन भी गिरा दी जाए तो उसकी भी आवाज आसानी से सुनाई दे जाए।
  • गणित शिक्षक के गुरु गणित सवालों को पढ़ाते समय प्रसंगवश ऐसे आध्यात्मिक,चारित्रिक बोध कथा भी कह देते थे।छात्र छात्राओं से भी सवाल हल करवा रहे थे।हर विद्यार्थी की जिज्ञासा का समाधान तर्क,युक्ति और प्रमाण के साथ करते थे।गणित शिक्षक व प्राचार्य को वहां खड़ा रहने में काफी समय व्यतीत हो गया कि उन्हें मालूम ही नहीं पड़ा।
  • उस दिन के बाद प्राचार्य को गणित शिक्षक के पढ़ाने की कला नीरस लगने लगी।प्राचार्य ने इसका कारण पूछा।गणित शिक्षक ने कहा कि मेरे गुरु गणित को साधना व पूजा समझकर पढ़ाते हैं।वे समर्पण भाव से छात्र-छात्राओं को पढ़ाते हैं।मैं विद्यालय में वेतन लेकर,वेतन के लिए गणित पढ़ाता हूँ।गणित शिक्षक भगवान को खुश करने के लिए पढ़ाते हैं।दोनों में यह फर्क होने के कारण मेरी गणित पढ़ाने की कला आपको प्रभावित नहीं कर पा रही है।जो गुरु या शिक्षक अपने विषय को श्रद्धा के साथ साधना व पूजा समझकर पढ़ाता है उसमें असीम आनन्द की अनुभूति होती है।यही फर्क है मेरे और मेरे गुरु के पढ़ाने में।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में शिक्षक बनाम गुरु (Teacher VS Preceptor),अध्ययन के लिए शिक्षक और गुरु में किसकी जरूरत है? (Who Needs a Teacher and a Preceptor for Study?) के बारे में बताया गया है।

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6.गणित की फीस पुराने छात्र से (हास्य-व्यंग्य) (Math Fees From Old Student) (Humour-Satire):

  • गणित शिक्षक (छात्र से):चिंता मत करो मेरे पास गणित पढ़ने के बाद तुम बिल्कुल नए छात्र बन जाओगे।
  • छात्र:लेकिन गणित की फीस तो आप पुराने छात्र से ही लोगे न।

7.शिक्षक बनाम गुरु (Frequently Asked Questions Related to Teacher VS Preceptor),अध्ययन के लिए शिक्षक और गुरु में किसकी जरूरत है? (Who Needs a Teacher and a Preceptor for Study?) से सम्बन्धित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.शिक्षा और विद्या में क्या फर्क है? (What is the Difference Between Education and Knowledge?):

उत्तर:शिक्षा से बाहरी जानकारी मिलती है परंतु विद्या से भीतरी अनुभूति कराती है।शिक्षा पुस्तकों,शिक्षकों,शिक्षा संस्थानों से प्राप्त होती है जबकि विद्या मौलिक चिंतन से प्रारंभ होती है।शिक्षा केवल विचार देती है और विद्या विचार को आचार से जोड़ती है।शिक्षा के लिए शिक्षक की जरूरत होती है परंतु विद्या के लिए गुरु की आवश्यकता होती है।विद्या संयम और सेवा लाती है परंतु शिक्षा हमारे अन्दर लूट और शोषण करना सिखाती है।शिक्षा से आदतें बनती हैं जबकि विद्या से स्वभाव तैयार होता है।शिक्षा ध्यान में बाधक है जबकि विद्या साधक है।केवल शिक्षा खतरनाक है और केवल विद्या भी उपयोगी नहीं होती है।दोनों जीवन के लिए अनिवार्य है।शिक्षा से सांसारिक जीवन सुधरता है और विद्या से आध्यात्मिक जीवन सुधरता है।

प्रश्नः2.गुरु के साथ कैसा व्यवहार करें? (How to Deal with the Guru?):

उत्तरःगुरु की आज्ञा का पालन करना चाहिए।गुरु का अनुकरण नहीं अनुसरण करना चाहिए।गुरु के जैसे कपड़े पहनना,गुरु के व्यवहार,चाल-ढाल की नकल करना व्यर्थ है।ऐसा करने से हमारे जीवन का रूपांतरण नहीं हो सकता है।सार्थक वही है जो गुरु की आज्ञा पालन करता है।गुरु जो कहे,समझाए,जो विचार और आदर्श सामने रखें उन्हें श्रद्धा पूर्वक स्वीकार करना।

प्रश्न:3.गुरु की सच्ची सेवा क्या है? (What is True Service to the Guru?):

उत्तर:गुरु सेवा अपने आपमें संपूर्ण योगाभ्यास है।गुरु की आज्ञा को कर्त्तव्य समझकर,इसमें आनेवाली बाधाओं,विपत्तियों को अपने साहस,संकल्प से दूर करता है समझो वह योग की आधार भूमि तैयार करता है।इससे हठपूर्वक करना चाहिए।यह सच्चा हठयोग योग है।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा शिक्षक बनाम गुरु (Teacher VS Preceptor),अध्ययन के लिए शिक्षक और गुरु में किसकी जरूरत है? (Who Needs a Teacher and a Preceptor for Study?) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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