Menu

State of Getting Engrossed in Meditation

Contents hide

1.ध्यानावस्था (State of Getting Engrossed in Meditation),Dhyanavastha

  • ध्यानावस्था (State of Getting Engrossed in Meditation) अर्थात् ध्यान में निमग्न होना,हर साधक की चाहत है।हालांकि इसमें विघ्न बाधाएँ बहुत हैं।अनेकों व्यतिरेक इस चाहत को पूरी होने नहीं देते।मन बार-बार डोलता-डगमगाता है।अपने डोलने-डगमगाने के अगणित कारण गिनाता है।जितना उसे स्थिर करने का प्रयास किया जाता है,उतना ही वह पत्ते की तरह काँप-काँप उठता है।
  • कल्पनाओं,कामनाओं के झोंके उसे इधर-उधर उड़ाते रहते हैं तर्क और विचारों के जाल में यह फंसा-उलझा रहता है।छूटने की हर कोशिश उसे और भी उलझा देता है।
  • परिणाम,ध्यान-साधना की परेशानी बनकर सामने आता है।इस परेशानी से उलझे साधक बार-बार यह सवाल करते हैं,मेरा ध्यान नहीं लगता? क्यों नहीं लगता? किस तरह लगेगा? इन सभी सवालों का एक ही जवाब है कि साधकों को ध्यान-साधना को जानना होगा।उसके सत्य और तत्व की अनुभूति करनी होगी।इस अनुभूति की प्रगाढ़ता में ही उन्हें अपने प्रश्नों के हल मिलेंगे।
  • आपको यह जानकारी रोचक व ज्ञानवर्धक लगे तो अपने मित्रों के साथ इस गणित के आर्टिकल को शेयर करें।यदि आप इस वेबसाइट पर पहली बार आए हैं तो वेबसाइट को फॉलो करें और ईमेल सब्सक्रिप्शन को भी फॉलो करें।जिससे नए आर्टिकल का नोटिफिकेशन आपको मिल सके।यदि आर्टिकल पसन्द आए तो अपने मित्रों के साथ शेयर और लाईक करें जिससे वे भी लाभ उठाए।आपकी कोई समस्या हो या कोई सुझाव देना चाहते हैं तो कमेंट करके बताएं।इस आर्टिकल को पूरा पढ़ें।

Also Read This Article:Meditation and Problem Solving in Math

2.ध्यान क्रिया नहीं है (Meditation is not an action):

  • प्रायः सोचा जाता है कि ध्यान कोई क्रिया है,उसे करना पड़ता है,पर दरअसल ध्यान क्रिया नहीं अवस्था है।अपने स्वरूप में होने की स्थिति है।पूरी तरह से क्रियाहीन एक भावदशा है।किसी भी क्रिया में हम अपने से बाहर के जगत से संबंधित होते हैं।अक्रिया में स्वयं से संबंधित होते हैं।जब हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं,तब हमें उसका बोध होता है जो कि हम हैं।अन्यथा,ढेरों क्रियाओं में फंसे-उलझे हम स्वयं से अपरिचित रह जाते हैं।कभी यह याद भी नहीं आ पाता है कि हम भी कोई हैं।हमारी रोजमर्रा की व्यस्तताएं बहुत सघन हैं।शरीर दो क्षण विश्राम भी कर ले,लेकिन मन तो विश्राम करता ही नहीं है।जागते हुए सोते हैं,सोते हुए स्वप्न देखते हैं।
  • अपनी ही क्रियाओं की भीड़ में हम खो गए हैं।यही हमारे जीवन का आश्चर्यपूर्ण सत्य है।यही अपनी वस्तुस्थिति है।हम खो गए हैं,किन्हीं बाहरी लोगों की भीड़ में नहीं,बल्कि अपने ही विचारों,अपने ही स्वप्नों,अपनी ही व्यस्तताओं और अपनी ही क्रियाओं में हम अपने आप में ही कहीं गुम हो गए हैं।
  • ध्यान अपनी ही बनाई हुई इस भीड़ से बाहर होने का मार्ग है।खुद की काल्पनिक भटकन से उबरने का रास्ता है।अब यह रास्ता कोई क्रिया की व्यस्तता तो हो नहीं सकता।यह तो अव्यस्त या व्यस्तताहीन मनःस्थिति का नाम है।हालांकि यह कहने में बड़ा अजीब-सा लगता है कि ध्यान कोई कार्य या क्रिया नहीं है,बल्कि अक्रिया है।दरअसल इंसान की भाषाएँ बड़ी कमजोर हैं।ये सभी तरह-तरह की क्रियाओं व कार्यों को प्रकट करने के लिए बनी हैं।इसी कारण ये आत्मा के सत्य को प्रकट करने में असमर्थ हो जाती हैं।ठीक भी है,जो वाणी के लिए बनाई गई हैं,उन्हें भला मौन को किस तरह अभिव्यक्ति मिल सकती है।
  • ध्यान शब्द के उच्चारण से लगता है कि यह भी कोई क्रिया होगी,पर ऐसा है नहीं।यह तो एक भावदशा है।इस भावदशा में होना ध्यान है।इसमें क्रिया का कोई धुँआ नहीं होता,बस आत्मसत्ता की अग्निशिखा प्रकाशित रहती है।केवल मैं रह जाता है।यह विचार भी नहीं अंकुरित हो पाता है कि मैं हूं।होना मात्र रह जाता है।
  • यह निर्विचार शून्यता ही ध्यान है।यही वह बिंदु है जहां से संसार का नहीं,सत्य का दर्शन होता है।इस शून्य में ही वह दीवार ढह जाती है,जिसकी वजह से अब तक अपने को नहीं जाना जा सका।इस भावदशा में विचारों के सभी परदे उठ जाते हैं,प्रज्ञा अपनी संपूर्णता में प्रकट होती है।इस अवस्था में विचारा नहीं,जाना जाता है।कल्पनाएं और तर्क नहीं किए जाते,देखा जाता है।यह दर्शन और साक्षात्कार की भावभूमि है।यद्यपि सचाई तो यह है कि इस अवस्था को प्रकट करने में शब्दकोश के सारे शब्द असमर्थ हैं,क्योंकि यहां ज्ञाता और ज्ञेय का कोई भेद नहीं है।यहाँ दृश्य और द्रष्टा का कोई भेद नहीं है।यहाँ ना तो ज्ञेय है और न ज्ञाता।यहाँ तो बस ज्ञान है।यह अवस्था किसी शब्द से नहीं,बस मौन मुस्कान से प्रकट होती है।

3.ध्यान का सत्य स्वभाव में है (The truth of meditation is in nature):

  • ध्यान का सत्य हमारी किसी क्रिया में नहीं,बल्कि हमारे स्वभाव में है।क्रिया तो वह है जिसे हमारा मन हो तो करें,हमारा मन हो तो न करें।स्वभाव कोई क्रिया नहीं है।इसका हमारे करने या न करने से कोई संबंध नहीं है।स्वभाव की उपस्थिति हममें समाई है।वह हम स्वयं ही हैं।हमारा स्वरूप ही हमारा स्वभाव है।वह हमारा निर्माण नहीं,हमारा आधार है।स्वभाव यानि कि शुद्ध सत्ता।इसका अनुभव ही ध्यान है।यह अविच्छिन्न स्वभाव क्रियाओं के विच्छिन्न प्रवाह से ढक जाता है,दब जाता है।सागर को जैसे लहरे ढाँप लेती हैं।सूरज को जैसे बदलियां घेर लेती हैं।ऐसे ही हम अपनी शारीरिक,मानसिक क्रियाओं से ढके हुए हैं।सतह पर क्रियाओं के आवरण ने,गहराइयों में उपस्थित सत्य को छिपा लिया है।
  • छोटी-छोटी लहरें सागर की असीम गहराई को ओझल कर देती हैं।कैसा आश्चर्यजनक और विचित्र सत्य है कि क्षुद्रताओं से विराट् ढक जाता है।आंख में यदि छोटा-सा तिनका पड़ जाए,तो सामने खड़ा विशालकाय पर्वत भी नजर नहीं आता।हालांकि यह मिटता नहीं है।उसकी उपस्थिति यथावत रहती है।सागर भी लहरों के कारण मिटता नहीं है।लहरों का प्राण भी तो वही है।लहरों में उसी की तो उपस्थिति है।जो जानते हैं,वे उसे लहरों में भी जानते हैं।जो नहीं जानते हैं,उन्हें लहरों के शांत होने का इंतजार करना पड़ता है।लहरों के शांत होने पर सागर का असीम विस्तार व गहराई झलकने लगती है।ध्यान,इस स्वभाव में ही जीना है।लहरों को छोड़कर सागर में चलना है।अपनी इस गहराई को जानना है,जहाँ सत्ता है,सागर है,लेकिन कोई तरंग नहीं है।जहां आत्मा का प्रकाश तो है,पर वासना का अंधेरा नहीं है।वह निरंतर,निष्कम्प प्रज्ञा का जगत हममें प्रतिक्षण उपस्थित है।बस हमीं उसकी ओर उन्मुख नहीं है।
  • हम अपनी रोजमर्रा की क्रियाओं में,शारीरिक एवं मानसिक व्यवस्तताओं में इस कदर उलझे हैं कि उस ओर देखने की फुर्सत ही नहीं निकाल पाते।हम बाहर की तरफ देख रहे हैं,वस्तुओं को देख रहे हैं,संसार को देख रहे हैं।बस दिशा थोड़ी उलटी है।यह बात ठीक है कि जो दिखाई पड़ रहा है,वह संसार है।लेकिन जो देख रहा है,वह तो संसार नहीं है।वह तो स्वयं हम ही हैं।इस समूची प्रक्रिया में एक बात बड़ी सूक्ष्म है।इसे समझ लिया जाए तो सचाई सामने आ जाएगी।दृष्टि-दृश्य से बंधी हुई हो,तो विचार है और यदि दृष्टि दृश्य से मुक्त हो,तो ध्यान है।
  • यह बात गहराई से समझने की है।देखना तो दोनों में है,एक में वह विषयगत है,दूसरे में आत्मगत है।हम विचार में हो या फिर ध्यान में,क्रिया में उलझे हों या अक्रिया में शांत हों,दर्शन दोनों में ही बना रहता है।जागते हुए हम संसार देखते हैं।सोते हुए सपने देखते हैं।समाधि में स्वयं को देखते हैं,लेकिन यह देखना हर दशा में बना रहता है।यह देखना हमसे हर स्थिति में जुड़ा हुआ है।यह हमारा अपना स्वभाव है,जो किसी भी स्थिति में हमसे अलग नहीं हो सकता।यहां तक की मूर्च्छा या सुषुप्ति में भी नहीं।बेहोशी आ जाए,तो बेहोशी टूटने पर हम कहते हैं कि मैं कहां था,मुझे कुछ भी मालूम नहीं।इसे अज्ञानता नहीं कहा जाना चाहिए।यह भी एक तरह का ज्ञान है।

4.संसार और आत्मा की दिशा विपरीत (The opposite direction of the world and the soul):

  • हम जानते हैं कि हम किसी ऐसी स्थिति में थे कि कुछ भी नहीं जान रहे थे।यह ज्ञान ही है,दर्शन इसमें भी रहा है।हां यादों की लेखनी ने इस बीच कोई आंतरिक या बाहरी घटना का लेखन नहीं किया,परंतु दर्शन ने इस अंतराल को,इस गेप को देखा जरूर है।बाहरी या आंतरिक घटनाओं के बीच छूटा यही रिक्त स्थान बाद में यादें भी खोज लेती हैं।ऐसे ही सुषुप्ति में भी,जब कोई सपना नहीं आता है,तब भी दर्शन बना रहता है।सुबह-सबेरे उठकर हम कहते हैं कि रात नींद बड़ी गहरी आई।यह स्थिति भी देखी गई है,तो सचाई यह है कि स्थितियां बदलती हैं।भाव दशाएं परिवर्तित होती हैं।चेतना के विषय बदलते हैं,पर दर्शन में किसी भी तरह का कोई बदलाव नहीं आता है।हमारे अनुभव में सब-का-सब बदल जाता है।सारे प्रवाह के बीच एक यह दर्शन ही नित्य उपस्थित है।यही अकेला सारे परिवर्तन,सारे प्रवाह का साक्षी है,गवाह है।इस नित्य की अनुभूति ही,स्व का अनुभव है।यही अकेला स्वभाव है,बाकी सब तो दूसरों पर निर्भर है।यही बाकी सब संसार है।
  • इस साक्षी को किसी क्रिया से नहीं पाया जा सकता,क्योंकि यह तो उन क्रियाओं का भी साक्षी है।यह तो बस ध्यान की अक्रिया में झलकता है।यह तो तब प्रकट होता है,जब ना तो कोई कर्म है,ना कोई दृश्य है।जब केवल साक्षी मात्र ही शेष रह गया है।जब हम देख तो रहे हैं,पर दिखाई कुछ भी नहीं दे रहा है।जब हम जान तो रहे हैं,पर जान कुछ भी नहीं रहे हैं।इस विषय शून्य चैतन्य में वह जाना जाता है,जो कि सबको जानने वाला है।दृश्य जब नहीं है,तब द्रष्टा के आवरण गिरते हैं और जब ज्ञेय कुछ भी नहीं है,तब ज्ञान जागृत होता है।तरंगे जब नहीं होती है,तब सागर के दर्शन होते हैं।यह सागर हर एक के भीतर है।यह आकाश प्रत्येक के भीतर है।ध्यान इसी को पाने,इस तक पहुंचाने की राह है।
  • यहाँ समझने की बात यह है कि प्रत्येक राह को दो दिशाओं में,दो विपरीत दिशाओं में सत्ता रखती है।जो मार्ग आपके घर से तीर्थयात्रा तक लाया है,वही आपको वापस घर भी पहुंचाने में समर्थ है।मार्ग तो वही होगा,पर दिशा विपरीत होगी।संसार और आत्मा का मार्ग तो एक ही है।जो संसार में लाता है,वही आत्मा की ओर भी ले जाएगा।केवल दिशा विपरीत होगी।अभी तक जो सामने था,वहीं अब पीछे होगा और जो पीछे की ओर था,उस पर आँखें जमानी होगी।रास्ता वही है,बस मुड़ने भर की देर है।संसार की वासना से उल्टी दिशा में ध्यान ही साधना है।हम अभी किसके सम्मुख हैं? इसका विचार करें।हम किसे देख रहे हैं? इसे अनुभव करें।हमारे दर्शन की,चैतन्य की धारा अभी किस दिशा में प्रवाहित हो रही है? इस पर सोचें।
  • इस निरीक्षण में पता चलेगा कि हम बाहर को बहे जाते हैं।पूरी-की-पूरी चैतन्य धारा बाहर की ओर बही जा रही है।आंख बंद करने पर भी बाहर की ही प्रतिध्वनि गूँजती रहती है।बाहर वस्तुओं का जगत है और भीतर उससे संबंधित विचार घेरे रहते हैं।शरीर वस्तुओं से घिरा है और मन उनसे जुड़े विचारों,कल्पनाओं से घिरा रहता है।अतः निरीक्षण को थोड़ा गहरा सकें,तो पता चलेगा कि वस्तुओं का घेरा ध्यान-साधना में बाधा नहीं है।बाधा  विचार का घेरा है।वस्तुएँ आत्मा की चैतन्य सत्ता को घेर भी कैसे सकती हैं? पदार्थ केवल पदार्थ से ढकता है।आत्मचेतना तो विचारों से ढकी है।दर्शन की,चैतन्य की धारा विचार की ओर बह रही है।विचारों का महाविज्ञान हमारे सामने है।दर्शन उसी से ढका है।विचार से विमुख और निर्विकार के सम्मुख होना है।यही ध्यान-साधना का सत्य है।यही आत्मक्रांति है।

5.विचार और साक्षीभाव (Thoughts and Saksibhav):

  • यह क्रांति आत्म-चेतना में घटित हो,तभी ध्यान-साधना सफल होगी।इसकी सफलता के लिए विचारों के विज्ञान को जानना जरूरी है।आमतौर पर इसे समझे बिना ही साधक उसके दमन में लग जाते हैं।इस दमन से कोई विक्षिप्त तो हो सकता है,पर मुक्त नहीं हो सकता।विचारों के दमन से कोई खास अंतर पड़ने वाला नहीं है,क्योंकि ये तो हर क्षण जन्मते हैं।बिना मारे क्षणभर में मर जाते हैं।नहीं मरता है तो विचार प्रवाह।यह अविरल बहता रहता है।एक विचार अभी मर नहीं पाया कि दूसरा उसका स्थान ले लेता है।यह काम बड़ी तेजी से होता है।प्रवाह की गति उतनी ही तीव्र बनी रहती है।जो यह सचाई नहीं समझता है,वह खुद ही एक ओर तो कुछ नए विचार पैदा करता है,दूसरी ओर उनसे लड़ता रहता है।इससे विचार तो नहीं थकते,हां इनसे लड़ने वाला थककर चकनाचूर हो जाता है।
  • ध्यान-साधना की प्रधान बाधा विचार नहीं,विचार की उत्पत्ति है।इस उत्पत्ति पर रोक लगे,तो ध्यान निर्विघ्न हो पाए।जो विचार अभी हैं,वे तो क्षणभर में विलीन हो जाते हैं,लेकिन नयों का आगमन होता चला जाता है।पुराने विचारों का लय,नवीन की उत्पत्ति से मन हर पल चंचल बना रहता है।विचारों की यह उपज रोकी जा सके,तो चित्त की चंचलता भी थम जाएगी।साधकगण सवाल करेंगे कि विचार उपजते कैसे हैं? तो विचारों की उत्पत्ति,उसका गर्भाधान हमेशा ही बाह्य जगत के प्रति हमारी प्रतिक्रिया,रिएक्शन से होता है।बाहर घटनाओं और वस्तुओं का जगत है।इस जगत के प्रति हमारी प्रतिक्रिया ही हमारे विचारों की जन्मदात्री है।
  • हमने एक फूल को देखा।यह देखना कोई विचार नहीं है।यदि देखते ही यह कह देना कि फूल बहुत सुंदर है,विचार को जन्म देता है।देखने से सौन्दर्य की अनुभूति तो होगी पर विचार नहीं उपजेगा,लेकिन अनुभूति होते ही हम उसे शब्द देने में लग जाते हैं और विचार का जन्म हो जाता है।यह प्रतिक्रिया,यह शब्द देने की आदत,अनुभूति को,दर्शन को,विचार से ढक लेती है।अनुभूति दब जाती है,बस चित्त में शब्द तैरते जाते हैं।विचार तरंगित होते रहते हैं।यह इन शब्दों और विचारों का अवरोध न हो,बस केवल देखने की प्रक्रिया चलती रहे,तो अंतर्चेतना में एक क्रांति घट जाती है।यह भावदशा ही ध्यान है।
  • साक्षी भाव से निहारना,साक्षी भाव में जीना एक अलौकिक शांति को जन्म देता है।साक्षी भाव से निहारते हुए हम पाएंगे कि एक शून्य परिव्याप्त हो रहा है।शब्द और विचार का न होना ही तो शून्य है।ध्यान में उपजे इस शून्य में चेतना की दिशा बदल जाती है।फिर हम ही नहीं दिखते,वह भी उभरने लगता है,जो हमें देख रहा है।चेतना क्षितिज पर नया जागरण होता है।जैसे कि हम किसी स्वप्न से जाग उठे हों।एक निर्मल आलोक से,एक अपरिसीम शांति से चित्त भर जाता है।यही ज्ञान की प्रगाढ़ता है।ध्यान के इस आलोक में स्वयं का दर्शन होता है।ध्यान के इस शून्य में सत्य का अनुभव होता है।
  • ध्यान के प्रयोग के लिए शांत बैठें।शरीर को शिथिल कर रीड की हड्डी को सीधा रखें।शरीर की सारी हलचलों को छोड़ दें।शांत-धीमी पर गहरी श्वास लें।मौन भाव से अपनी श्वास को देखते रहें।बाहर की जो ध्वनियां सुनाई पड़े,उन्हें सुनते रहें।ना तो इन्हें सुनने के लिए कोई प्रयास करें,न ही इन पर कोई प्रतिक्रिया करें।इन पर किसी तरह के विचार की जरूरत नहीं है।बस कुछ ऐसा अनुभव करें कि अंदर-बाहर जो कुछ भी हो रहा है,हम केवल उसे दूर खड़े जान रहे हैं,देख रहे हैं।ऐसे भाव में अपने को छोड़ दें।कहीं कोई किसी तरह का प्रयत्न नहीं करना है।बस चुपचाप जो कुछ भी हो रहा है,उसके प्रति जागरूक बने रहना है।
  • इस अवस्था में पहले आस-पास की आवाजें सुनाई देंगी, पर उनके प्रति कोई प्रतिक्रिया ना होने से वे मंद पड़ती जाएँगी।अपने भीतर के श्वास के स्पंदन,हृदय की धड़कन सुनाई देगी। फिर इसके बाद सब ओर अंतर्चेतना में चारों तरफ पहले कभी ना अनुभव की गई हो,ऐसी शांति उतरने लगेगी।एक बड़ा ही आंनदायक सन्नाटा,बड़ी मधुर शून्यता अंतर्जगत में फैल जाएगी।साधकगण पाएंगे कि बाहर ध्वनि है,पर भीतर नीरवता है।साधकों को अनुभव होगा कि मानो किसी नए जगत में प्रवेश हुआ है।ध्यान की इस सघनता में समाधि जन्म लेगी और हम स्वयं को आश्चर्यों के आश्चर्य के सामने खड़ा पाएंगे।यह अकथ कथा है।साधक स्वयं ही इसे अपनी ध्यान-साधना में अनुभव करें।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में ध्यानावस्था (State of Getting Engrossed in Meditation),Dhyanavastha के बारे मे बताया गया है।

Also Read This Article:4 Best Tips for Yoga Nidra

6.विद्यार्थी लड़का है या लड़की (हास्य-व्यंग्य) (Is Student a Boy or a Girl) (Humour-Satire):

  • बदमाश (दूसरे बदमाश से):ये पता कैसे चलेगा कि सामने जो विद्यार्थी आ रहा है वह लड़का है या लड़की।
    दूसरा बदमाश:सिंपल है।उसे डराना यदि वह भागा तो लड़का और भागी तो लड़की है।

7.ध्यानावस्था (Frequently Asked Questions Related to State of Getting Engrossed in Meditation),Dhyanavastha से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

प्रश्न:1.क्या नशीले पदार्थ चेतना के विस्तार में सहायक हैं? (Are drugs helpful in the expansion of consciousness?):

उत्तर:पदार्थ (नशीले) चेतना को प्रभावित करता है-यह सत्य है,किंतु वह उसके स्तर को ऊंचा उठाता है-इसमें कोई तथ्य नहीं।जो ऐसा नहीं मानते,वे वस्तुतः स्वयं भ्रमित हैं और दूसरों को दिग्भ्रांत करते हैं,अन्यथा यदि चेतना के उत्थान और विस्तार का इतना ही सरल तरीका रहा होता,तो योगी-यतियों को इतनी कष्टसाध्य प्रक्रिया से होकर गुजरने और तपपूर्ण जीवन बिताने की क्या आवश्यकता थी? फिर वे एल. एस. डी. की कुछ खुराक लेकर दिव्य अनुभूतियाँ प्राप्त कर लेते।सच तो यह है कि ऐसे द्रव्य आत्मोन्नति के मार्ग में बाधक हैं।

प्रश्न:2.परंतु कुछ व्यक्तियों ने नशीले पदार्थ का सेवन करके असाधारण कार्य किए हैं,स्पष्ट करें। (But some people have done extraordinary things by consuming drugs please clarify):

उत्तर:इन्हें सामान्य घटना नहीं अपवाद करना चाहिए।ऐसे ही एक अपवाद फ्रांस के प्रख्यात गणितज्ञ पायन केयर थे।उन्हें काॅफी पीने की आदत नहीं थी।ऐसा कहा जाता है कि जब वे इसे पी लेते,तो चेतना की एक ऐसी अवस्था में प्रवेश कर जाते थे,जैसी निद्रा के पूर्व होती है।तब उन्होंने ऐसे सूत्र और समीकरण खोजे तथा हल किया,जो सामान्य चेतना की अवस्था में संभव नहीं थे-ऐसा उनका स्वयं का मत है।किंतु ऐसे इक्के-दुक्के उदाहरणों को सर्वसाधारण पर तो घटित नहीं किया जा सकता।इससे ऐसा भी कोई संकेत नहीं मिलता कि काॅफी जैसे औसत पदार्थ से हर एक में उक्त प्रकार का परिवर्तन होता ही है।

प्रश्न:3.नशीले पदार्थ तथा ध्यान का क्या प्रभाव पड़ता है? (What is the effect of drugs and meditation?):

उत्तर:नशीले पदार्थों से मूर्च्छा तो नहीं आती,पर एक मस्ती जैसी स्थिति हमेशा बनी रहती है।कदाचित इसी को चेतना का विस्तार मान लिया जाता है।
ध्यान की फलश्रुति व्यक्ति में सदा मानसिक एकाग्रता,बौद्धिक कुशलता तथा शारीरिक दक्षता के रूप में सामने आती है,जबकि नशीले पदार्थों से सुस्ती,आलस्य,अवसाद के साथ-साथ शरीर-मन की क्षमताओं में ह्रास और बिखराव होता है (नशा उतरने के बाद)।इसके विपरीत ध्यान हमें अन्तर्यात्रा पर ले जाता है।वह हमें अपने शुद्ध स्वरूप की दर्शन-झाँकी कराता और बताता है कि व्यक्ति यदि उस तल पर स्थायी रूप से प्रतिष्ठित हो सके तो अंदर की दुनिया इतनी अद्भुत,अनुपम और अवर्णनीय आनंद की होगी कि उसके आगे बाह्य संसार एकदम नीरस और उबाऊ प्रतीत होगा।ध्यान से व्यक्ति में आत्मनियंत्रण की क्षमता विकसित होती है,जबकि नशा उसे हर प्रकार से अनियंत्रित बना देता है।इसके प्रयोग की अनुमति स्वास्थ्यशास्त्री सिर्फ विशेष परिस्थितियों में ही देते हैं।व्यक्ति यदि बीमार हो,असह्य कष्ट पा रहा हो,तो राहत पहुंचाने की दृष्टि से इन पदार्थों का सामयिक प्रयोग अनुचित नहीं,किंतु जब ये तथाकथित चेतनाविस्तारक सामान्य उपयोग की वस्तु बन जाएँ और गम गलत करने के निमित्त प्रयुक्त होने लगें,तो इसे अशुभ संकेत माना जाना चाहिए।जो शुभ न हो,वह सात्विक परिणाम कैसे उत्पन्न कर सकता है? जिसके कण-कण में तामसिकता घुली हो,उससे अभीष्ट फल की आशा कैसे की जा सकती है? वह तो विचारों में आक्रामकता और भावनाओं में अपवित्रता ही उत्पन्न करेगा।
मादक द्रव्य मूर्च्छना पैदा करते हैं।उनसे न तो चेतना का उर्ध्वारोहण होता है,ना कोई विशिष्ट आध्यात्मिक अनुभूति।बाह्य सजगता में कमी के कारण इस प्रकार की भ्रांति हो सकती है,पर नशा उतरने ही जल्द ही वह टूट भी जाती है।इसलिए यह अवधारणा पूरी तरह निरस्त हो जाती है कि नशीले पदार्थ हमें असाधारण भूमिका में ले जाते और अलौकिक अनुभव कराते हैं।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा ध्यानावस्था (State of Getting Engrossed in Meditation),Dhyanavastha के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
No. Social Media Url
1. Facebook click here
2. you tube click here
3. Instagram click here
4. Linkedin click here
5. Facebook Page click here
6. Twitter click here

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *