12 Toxic That Impede Progress in Maths
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1.गणित में प्रगति के लिए बाधक 12 टॉक्सिक (12 Toxic That Impede Progress in Maths),गणित में प्रगति के लिए बाधक छात्र-छात्राओं में 12 टॉक्सिक (12 Toxics in Students Hindering Progress in Mathematics):
1.गणित में प्रगति के लिए बाधक 12 टॉक्सिक (12 Toxic That Impede Progress in Maths),गणित में प्रगति के लिए बाधक छात्र-छात्राओं में 12 टॉक्सिक (12 Toxics in Students Hindering Progress in Mathematics):
- गणित में प्रगति के लिए बाधक 12 टॉक्सिक (12 Toxic That Impede Progress in Maths) में टॉक्सिक का वैसे शब्दार्थ होता है विषाक्त पदार्थ परंतु यहां छात्र-छात्राओं या गणित पढ़ने वालों में कुछ ऐसे नकारात्मक भाव से लिया गया है जो उनमें गणित की प्रगति में प्रबल रूप से आड़े आते हैं।
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2.गणित में प्रगति में बाधक टॉक्सिक भाव (Toxicity hinders progress in mathematics):
(1.)निंदा एवं क्रोध (Blasphemy and anger):
- जब हमारे अंदर दूसरों की निंदा करने की प्रवृत्ति और भला-बुरा कहने तथा नुकसान पहुंचाने का भाव पनपने लगता है तो गणित का अध्ययन करने से हमारा ध्यान हटने लगता है।क्योंकि सकारात्मकता से ही गणित व अन्य विषयों की नींव लगती है।दूसरे छात्र-छात्राएँ हमारे द्वारा की गई निंदा और अपशब्दों को सब तक पहुंचाने लगते हैं।दूसरे छात्र-छात्राएं हमारे से दूरी बनाने लगते हैं।गणित व विज्ञान जैसे विषयों को केवल अपने बलबूते हल कर पाना संभव नहीं है।गणित में कमजोर होने की अपनी दुर्दशा के लिए दूसरों को दोष देने की वृत्ति से हम जितना मुक्त होते हैं व क्षमा-भाव को धारण करते हैं,हमारी रचनात्मकता उतनी ही बढ़ती है व प्रेम की कुंठित शक्ति उतनी ही मुक्त होती है।
(2.)निराशावाद व अवसाद (Pessimism and depression):
- यह प्रायः तब अनुभव होता है,जब गणित विषय किसी ऊँचे लक्ष्य को पाने के लिए किया जाता है और उसे प्राप्त नहीं कर पाते हैं।जैसे आपका आईआईटी करने का लक्ष्य है।आईआईटी कॉलेज में प्रवेश के लिए जेईई परीक्षा आयोजित होती है।इस परीक्षा में लाखों छात्र-छात्राएं भाग लेते हैं परंतु सभी का सपना पूरा नहीं हो पाता है।इसे बचने के लिए हमें अन्य विकल्पों पर भी विचार करना चाहिए।जैसे पिलानी में भी इंजीनियरिंग करवाई जाती है,इसके अलावा राज्य में भी इंजीनियरिंग परीक्षा आयोजित होती है।इस प्रकार अपना लक्ष्य फ्लैक्सिबल रखें और अन्य विकल्पों को तलाशें।जब तक हमें जीवन में जो मिला है,उसके प्रति अपना हृदय खुला नहीं रखते,तब तक हम अपने उज्ज्वल भविष्य का अनुमान नहीं लगा सकते।
(3.)संशयजन्य उद्विग्नता (Skeptical anxiety):
- जब गणित की गुत्थियाँ बहुत प्रयास करने पर भी सुलझ नहीं पाती है तो छात्र-छात्राएं उद्विग्न अर्थात परेशान,खिन्न हो उठते हैं।संशयजन्य उद्विग्नता हमारी जड़ों को खोखली कर देती है।हर समस्याएं,सवाल हल कर पाना हमारे वश में नहीं होता है,हमारे वश में प्रयत्न करना होता है।प्रयत्न हम हमारी सामर्थ्य,योग्यता के अनुसार ही कर पाते हैं।अतः इसका परिष्कार करना और मुक्त होना जरूरी है।हमने पिछले आर्टिकल में विभिन्न प्रेम संबल के आधार पर गणित में प्रगति के बारे में बताया गया था।परंतु हमारे भीतर एक भी दुर्गुण या नकारात्मकता विद्यमान रहती है तो हमारी योग्यता पर पलीता लग जाता है।
(4.)नकारात्मक भावों को सही ठहरना (Justifying Negative Emotions):
- जब परिस्थिति को बदलने की अपनी क्षमता पर अविश्वास रखते हैं,जैसे स्कूल में गणित शिक्षक नहीं है या कमजोर है,गणित से संबंधी विषय सामग्री उपलब्ध नहीं हो पाती है या अन्य कोई परिस्थिति आदि।इन परिस्थितियों को बदलने में अविश्वास रखकर,नकारात्मक भावों को उचित सिद्ध करते हैं,किंतु इससे मुक्त हुए बिना समस्या हल नहीं होती।नकारात्मक भावों का उदात्तीकरण हमारी सबसे बड़ी शक्ति है।यह विश्वास असहाय एवं शक्तिहीन अवस्था में भी समाधान यानी कि सकारात्मक परिणाम की आशा दिलाता है।किसी भी परिस्थिति को बदलने का भरसक प्रयास करना चाहिए।यदि परिस्थिति को आप नहीं बदल पाते हैं तो उसे भगवान पर छोड़ देना चाहिए।
(5.)कटाक्ष,विद्रोह का भाव (Sarcasm,revolt):
- यह भाव दूसरों के प्रति होता है परंतु इसका बीज हमारे अंदर ही होता है।अतः दूसरों पर आक्षेप करने की प्रवृत्ति से हमें बहुत हानि होती है।कोई भी यदि हमें समय पर सवाल नहीं बताता है,कोई हमारी मदद नहीं करता है तथा गणित में कम अंक आते हैं तो इसके लिए दूसरों पर कटाक्ष करते हैं।यथा अब तो मेरे कम अंक आ गए तो तुम्हारे दिल को शांति हो गई।हालांकि दूसरों के प्रति ऐसा असंतोष गलत नहीं है,किंतु कटुता-तिक्तता हमें हृदय के प्रेम से काट देती है।हम दूसरों द्वारा गणित में अधिक अंक प्राप्त करने को नकारते हैं।दूसरों द्वारा की गई उपेक्षा अथवा मदद न कर पाने के उनके प्रतिकूल व्यवहार से अधीर एवं कुंठित हो जाते हैं।वस्तुतः किसी भी छात्र-छात्रा द्वारा अपने मनोनकुल व्यवहार करना जरूरी नहीं है।अतः कटाक्ष,विद्रोह के भावों से दूसरों को और अधिक प्रतिकूल ही बनाते हैं,इनके द्वारा उनको अपना नहीं बनाया जा सकता है।इनसे स्वयं हमें ही हानि होती है।
(6.)अनिर्णय एवं किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति (Indecision and indecisiveness):
- इस प्रकार की स्थिति हमारे अंदर तब उत्पन्न होती है जब हमारे अंदर लक्ष्य का स्पष्ट अभाव होता है।अर्थात् हमने गणित विषय क्यों लिया है,गणित विषय लेने का हमारा लक्ष्य क्या है? या कभी अनेक लक्ष्यों को प्राप्त करने की लालसा जाग उठती है तो हम अनिर्णय की स्थिति में होते हैं।कई बार लक्ष्य स्पष्ट होता है परंतु वह लक्ष्य प्राप्त नहीं हो पाता है।अतः इससे उबरने के लिए हमें पहले की असफलताओं से सबक लेते हुए जीवन लक्ष्य के प्रति स्पष्ट दृष्टि रखनी होगी।
(7.)दीर्घसूत्रता (procrastination):
- इसका तात्पर्य गणित के सवालों व समस्याओं या प्रश्नावलियों को समय पर हल न करना।आज का काम कल पर टालना,तत्काल समय पर काम को न करना।अधिकांश छात्र-छात्राएं इसके शिकार होते हैं और उनकी आंखें परीक्षा के निकट खुलती हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।क्योंकि गणित,विज्ञान जैसे विषय के विशाल सिलेबस को कुछ समय में निपटाना बहुत मुश्किल है।जो प्रतिभाशाली छात्र-छात्रा हैं उनकी बात अलग है।परंतु ऐसे छात्र-छात्रा बहुत कम होते हैं।अधिकांश छात्र-छात्राएँ मध्यम स्तर व निम्न स्तर के होते हैं।उन्हें गणित की थ्योरी समझना पड़ता है फिर उदाहरण हल करते हैं और तब सवालों को हल कर पाते हैं तब भी एक बार के प्रयास से सवाल हल नहीं हो पाते हैं बल्कि बार-बार प्रयास करना पड़ता है।ऐसी स्थिति में हमारी इच्छाशक्ति कभी पवित्र एवं सशक्त नहीं होती और हम आधा-अधूरा जीवन जीने के लिए विवश हो जाते हैं।
(8.)पूर्णतावादी होना (Being a perfectionist):
- यह अतिवाद है,जीवन अपूर्णता से पूर्णता की ओर प्रवाहित होता है।आप जीवन भर गणित का कितना ही अभ्यास कर लें,ज्ञान प्राप्त कर लें परंतु फिर भी गणित का संपूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता है।अतः इस तथ्य से शून्य होते हैं,तो पूर्णतावादी बन जाते हैं।गणित अथवा किसी भी विषय में या अन्य किसी क्षेत्र में पूर्णता का आग्रह रखना स्वस्थ चाह नहीं है।इसकी पूर्ति तो आत्मिक प्रेम संबल से ही हो सकती है।छात्र-छात्रा कितना ही ज्ञान प्राप्त कर ले परन्तु आत्मिक संतुष्टि से ही उसका जीवन सहज और सरल बनता है।
(9.)क्षोभ एवं द्वेष (Resentment and Hatred):
- ऐसी स्थिति तब होती है जब गत परीक्षाओं (पिछली कक्षाओं में) अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुए हों परंतु वर्तमान में अच्छे अंक प्राप्त न कर पाएं हों तो हम भूतकालीन सफलता पर विचार करके दुःखी होते हैं और मन में क्षोभ पैदा होता है कि वर्तमान में ऐसा नहीं कर सकें।इस प्रकार हमारा ध्यान नकारात्मकता पर लगा होता है और ऐसा लगता है कि हम गणित में कमजोर हो गए हैं।गणित में हम अब दूसरों को कुछ नहीं समझा सकते हैं।हमारे पास देने के लिए कुछ नहीं है।यह विचारधारा क्षोभ उत्पन्न करती है।क्षोभ इस बात का स्पष्ट संकेत होता है कि हम गलत दिशा में काफी ध्यान दे रहे हैं।दूसरे छात्र-छात्राओं के अधिक अंक आ जाते हैं,अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होते हैं तो उनसे द्वेष करने लगते हैं।अतः दूसरों में दोषदर्शन व क्षोभ की जगह हमें स्वयं से प्रेम व अन्य प्रेम सम्बलों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।तभी हम द्वेष से मुक्त हो पाएंगे।
(10.)आत्मदया का भाव (Sense of self-pity):
- आत्मदया के भाव से हम तब ग्रसित होते हैं जब हमें जितनी आशा थी उतने अंक प्राप्त नहीं होते हैं,जो अंक प्राप्त होते हैं उनको नकारते हैं।जैसे आपका लक्ष्य 90% अंक प्राप्त करना था परंतु आपको 85% अंक प्राप्त हुए।या आपका जेईई प्रवेश परीक्षा में चयन नहीं हुआ परंतु AIEEE में आपका चयन हो गया,तब हम उपलब्ध सफलताओं एवं पुरस्कारों को नकारते हैं और सारा ध्यान कमियों पर केंद्रित करते हैं।इससे होता यह है कि गणित तथा अन्य विषयों को पढ़ने का उत्साह ठंडा पड़ जाता है,हम सोचते हैं कि गणित पढ़ने का हमें कोई लाभ नहीं हुआ है।ऐसी चीज स्थिति में आप अपने सपनों को साकार नहीं कर सकते हैं।हमें सकारात्मक दृष्टि रखते हुए गणित में अध्ययन करना जारी रखना चाहिए,हताश बिल्कुल भी नहीं होता होना चाहिए।
(11.)संभ्रांति (confusion):
- संभ्रांति का अर्थ होता है उतावलापन,घबड़ाहट।यह स्थिति तब होती है जब हम सवालों,समस्याओं का हल तुरंत चाहते हैं।कक्षा में अनेक विद्यार्थी होते हैं अतः प्रतीक्षा भी करनी पड़ सकती है अथवा हो सकता है हमारी बारी आए ही नहीं।परंतु सभी तुरंत उत्तर चाहते हैं और प्रश्नों के साथ जीने की कला नहीं जानते है।अर्थात् हमारी आदत सवालों व समस्याओं के हल के साथ जीने की हो जाती है।अनुत्तरित सवालों के साथ हमें जीना नहीं आता है।आवश्यकता है भूतकालीन सीखों से उपकृत होने व हर कटु अनुभव से शिक्षण पाने के अभ्यास की।आपके द्वारा पूछे गए सवाल या समस्याओं का हल मिल भी जाए तो भी बहुत से सवाल या समस्याएं ऐसी होती है जिनका उत्तर आप नहीं जानते हैं।यह स्थिति हमेशा रहने वाली है।कभी भी हमारे समस्त सवालों या समस्याओं का हल प्राप्त नहीं हो सकता है।हमारी जिंदगी ही पूरी हो जाएगी परंतु अनेक अनुत्तरित सवाल फिर भी रहने वाले हैं।
(12.)अपराध बोध (Guilt):
- यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब सवाल व समस्याओं को हल करते समय बार-बार गलती होती है और हम अपने आप पर खीझ उठते हैं।अपने आपको कोसने लगते हैं,नकारा समझने लगते हैं।हम सोचते हैं कि गणित को हल करने की हमारे अंदर बिल्कुल भी काबिलियत नहीं है।बड़े-बड़े गणितज्ञों से बार-बार गलतियां हुई हैं अगर वे ऐसा सोचते तो शिखर पर नहीं पहुंच पाते।ये सभी स्थितियां दरअसल हमारे अंदर प्रेम,उपासना या आराधना के अभाव को प्रकट करती हैं।हम संसार में केवल बौद्धिक दृष्टि से जीते हैं,संसार को बौद्धिक दृष्टि से देखते हैं,हर व्यवहार को बौद्धिक दृष्टि से निभाते हैं।ऐसी स्थितियाँ तभी पनपती हैं जब हम स्वयं से प्रेम नहीं करते व गलतियों को क्षमा नहीं करते।ऐसी स्थिति में हम हमारी मासूमियत से वंचित हो जाते हैं।इस मासूमियत के अनुभव के लिए यह समझ जरूरी है कि गलतियों के बावजूद हम प्यार के काबिल हैं।
3.गणित में बाधक टॉक्सिक भाव का निष्कर्ष (Conclusion of Toxicic Emotion Hindering Mathematics):
- इन बाधाओं के निराकरण का प्रयास बाह्य सफलताओं की तरह समय,ऊर्जा व समर्पण की मांग करता है।पिछले आर्टिकल में गणित की प्रगति के लिए टॉनिक (प्रेम सम्बल) के साथ,इनके प्रति सतत जागरूकता एवं इनका अध्यवसायपूर्वक परिशोधन करते हुए हम गहनतम इच्छा के संपर्क में आना शुरू करते हैं।
- नकारात्मक भावनाओं का दमन नहीं करना चाहिए बल्कि नकारात्मक भावों का हमें उदात्तीकरण (महान् बनने की क्रिया का भाव) करना चाहिए।परंतु नकारात्मक भावों का हम उदात्तीकरण नहीं कर पाते,तो सरलतम तरीका उनका बहिष्कार एवं दमन रह जाता है।परिणामस्वरूप हम अपनी वास्तविक इच्छा से दूर हो जाते हैं,अपने लक्ष्य से भटक जाते हैं,गणित के प्रति एक भय उत्पन्न हो जाता है,गणित पढ़ने से अरुचि होने लगती है और गणित में फिसड्डी होते चले जाते हैं,जबकि छात्र-छात्रा को अपनी शारीरिक,मानसिक,भावनात्मक एवं आध्यात्मिक सभी तरह की इच्छाओं का सम्मान करना होगा तभी हम वास्तविक रूप से गणित में प्रगति कर सकते हैं।इन्हें सम्मान करने का अर्थ उनको क्रियारूप में परिणत करना नहीं है,बल्कि उनको सुनना,समझना और उन्हें सुसंगत करना है।ऐसी स्थिति में हमारा रूपांतरण स्वतः ही होने लगता है।जब किसी एक स्तर पर उत्पन्न इच्छा दूसरे स्तरों से सद्भावपूर्ण हो तो वह सच्ची इच्छा होगी।
- जितना हम इच्छा के अनुरूप गणित का अध्ययन करते जाएंगे उतना ही हमारे जीवन में गणित में प्रगति का परिणाम दिखाई देने लगेगा।आंतरिक एवं बाहरी दोहरी प्रगति का मार्ग प्रशस्त होता जाएगा और हमारे सपने साकार रूप लेने लगेंगे।रोजाना छात्र-छात्राएं अध्ययन करने,स्कूल में जाने या शिक्षा संस्थानों में अध्ययन करने में इतने व्यस्त रहते हैं कि हमें यह ध्यान नहीं रहता है कि हमारे भावों को विकसित करना एक टाॅनिक की तरह है और नकारात्मक भावों का परिष्कार करना विषैले पदार्थों (टॉक्सिक) को शरीर से बाहर निकाल फेंकना पूरी तरह अपना रूपांतरण करना है।दरअसल इन चीजों की हम अहमियत नहीं समझते हैं और इसी कारण हमें यह समझ नहीं आता कि हम गणित या अन्य विषयों में फिसड्डी क्यों बने हुए हैं और इसके लिए हमें क्या-क्या उपाय करना चाहिए।हम चाहते भी खूब हैं कि हम गणित में होशियार या अव्वल हो जाएं परंतु केवल चाहने से ही कुछ नहीं होता है बल्कि मूल कारण को जान समझकर उसके अनुरूप उपाय करने पड़ते हैं।
- कोई भी विषय इतना जटिल या दुरुह नहीं होता है हमारी मशीन की तरह जीने की कार्यप्रणाली ही किसी भी विषय को दुरुह या जटिल बनाती हैं।आत्मिक शक्तियों,आत्मा पर,भगवान पर आस्था जैसी चीजों को न तो हम मानते हैं और न ही स्वीकार करते हैं क्योंकि हमारी बुद्धि चालाकी वाली बुद्धि हो गई है जो हमें यह मानने देती ही नहीं है।हम सोचते हैं कि गणित को हल करने के लिए भगवान पर आस्था रखने,आत्मा को जानने-समझने की कहां जरूरत पड़ गई,अंतर्बोध कहां और क्यों जरूरत पड़ गया है।ये सब पुरानी,दकियानूसी बातें हैं,पाखंड है इस तरह का दुराग्रह और हठवादिता ही हमें ले डूबता है।हम डूबने के लिए भले ही तैयार हो जाएं परंतु इन सब चीजों में हमें विश्वास नहीं है,आस्था नहीं है।जब आस्था व विश्वास ही नहीं तो किसी भी विषय का ज्ञान अर्जित कर ही नहीं सकते हैं।केवल जानकारी जुटाकर दिमाग में ठूँसते रहते हैं,कण्ठस्थ करते रहते हैं और इसी को ज्ञान समझकर अपनी जीवन नैया को ढोते रहते हैं।श्रद्धा,मुमुक्षा,प्रेम,समर्पण,इंद्रिय निग्रह आदि भी ज्ञान अर्जित करने के लिए आवश्यक है।
- उपर्युक्त आर्टिकल में गणित में प्रगति के लिए बाधक 12 टॉक्सिक (12 Toxic That Impede Progress in Maths),गणित में प्रगति के लिए बाधक छात्र-छात्राओं में 12 टॉक्सिक (12 Toxics in Students Hindering Progress in Mathematics) के बारे में बताया गया है।
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4.छात्र-छात्रा की प्रगति में बाधक (हास्य-व्यंग्य) (Hindering Progress in Mathematics) (Humour-Satire):
- राहुल:अंकल,दिमाग में जमे हुए टॉक्सिक को निकालने का कोई उपाय है क्या?
- दुकानदार:ये लो दवाई इसे पीकर सो जाना शरीर,मन और मस्तिष्क में जितने भी टॉक्सिक जमा हैं उनको बाहर निकाल देगी।
- राहुल:पर अंकल,दवा से शरीर का टॉक्सिक निकाला जाना तो फिर भी संभव है पर मन में जमा टॉक्सिक दवाओं से निकल सकता होता तो ऋषि,मुनि व अन्य लोग जप,तप,ज्ञान-ध्यान,योग,उपासना,आराधना आदि इतनी कठिन साध्य क्रियाएँ क्यों करते।
5.गणित में प्रगति के लिए बाधक 12 टॉक्सिक (Frequently Asked Questions Related to 12 Toxic That Impede Progress in Maths),गणित में प्रगति के लिए बाधक छात्र-छात्राओं में 12 टॉक्सिक (12 Toxics in Students Hindering Progress in Mathematics) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:
प्रश्न:1.बाधाएँ ही देखने वाले व्यक्ति की क्या स्थिति होती है? (What is the position of a person who sees obstacles?):
उत्तर:जिस आदमी को चारों ओर विघ्न-बाधाएँ दीख पड़ती है उसका आत्मबल क्षीण हो जाता है,वह कोई महान कार्य नहीं कर सकता है।
प्रश्न:3.अवसाद का क्या अर्थ है? (What does depression mean?):
उत्तर:सुस्ती,शिथिलता,उदासी,नाश,अंत,हार आदि।इससे दूर करने के लिए मन की चिकित्सा करनी चाहिए।
- उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा गणित में प्रगति के लिए बाधक 12 टॉक्सिक (12 Toxic That Impede Progress in Maths),गणित में प्रगति के लिए बाधक छात्र-छात्राओं में 12 टॉक्सिक (12 Toxics in Students Hindering Progress in Mathematics) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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Satyam
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