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6 Tips for Caution in Youth

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1.युवावस्था में सतर्कता बरतने की 6 टिप्स (6 Tips for Caution in Youth),युवावस्था में सतर्कता कैसे बरती जाए? (How to Be Cautious at Young Age?):

  • युवावस्था में सतर्कता बरतने की 6 टिप्स (6 Tips for Caution in Youth) के आधार पर युवावस्था में सदाचरण की सुदृढ़ नींव डाल सकते हैं।सज्जन और दुर्जन बनने की नींव उठती उम्र में पड़ती है।बड़े होने पर तो मनुष्य आदतों का गुलाम हो जाता है और स्वभाव का अभ्यासी।फिर उसका बदलना,सुधारना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य हो जाता है।
  • मनुष्य स्वयं चाहे तो अपनी संकल्प शक्ति के सहारे अपने को कभी भी सुधार की दिशा में अग्रसर कर सकता है,अनगढ़ स्थिति से उबरकर सज्जन,सभ्य एवं सुसंस्कृत बन सकता है,पर इसके लिए निजी मान्यता,भावना के परिवर्तन की आवश्यकता पड़ती है।दूसरे लोग सिखा समझाकर बदलना चाहे तो बड़ी आयु के व्यक्ति पर उसका प्रभाव कम पड़ता देखा गया है।गीली लकड़ी को आसानी से मोड़ा जा सकता है,पर उसके पक जाने पर परिवर्तन का प्रयत्न किया जाए तो उसमें कठिनाई से ही थोड़ी-बहुत सफलता मिलेगी।उपयुक्त समय उठती उम्र ही है।
  • किसान अपने पौधों की काट-छाँट आरंभिक दिनों में ही करता है।बड़े वृक्ष बन जाने पर उनके स्वरूप में सुधार थोड़ा-बहुत ही हो पाता है।किसी पेड़ से कलम काटकर किसी में लगाई जाए तो वह कार्य तभी तक ठीक तरह पूरा हो पाता है,जब तक कि वह पौधे नए हैं।बड़े वृक्षों में कलम कहां लगती है?
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2.दुर्गुणों की नींव बचपन में लगती है (The Foundation of Vices Begins in Childhood):

  • रहन-सहन,दिनचर्या,परंपरा,व्यवहार,भाषा एवं पहचान आदि के लिए 10 वर्ष की आयु में ही सुधार परिवर्तन होते हैं।इसमें घर के वातावरण का ही प्रधान प्रभाव रहता है।अभिभावकों की सतर्कता उन्हीं दिनों पूरी तरह काम करती है।इसके बाद बच्चा स्कूल जाने लगता है।अध्यापकों के प्रभाव से प्रभावित होता है,साथियों की भली-बुरी आदतों को भी वह अपनाने लगता है।
  • इसे सामाजिक जीवन का आरंभ कह सकते हैं।आज समाज में भले लोग कम और बुरे अधिक हैं।बच्चों में भी वैसी आदतें पारस्परिक मेलजोल से आती देखी जाती हैं।यही समय है जब बुराइयों से बचाया और अच्छाइयों के प्रति आस्थावान,अभ्यस्त बनाया जा सकता है।
  • आमतौर से सभी को अपने बच्चे प्यारे लगते हैं।जो प्रिय होता है,उसमें गुण ही दिखाई देते हैं।दोष या तो दीखते नहीं या फिर अनदेखे किए जाते रहते हैं।इस उपेक्षा का प्रतिफल यह होता है कि दोषों का आक्रमण जो होने लगा या उसकी न तो जानकारी मिल पाती है,न समीक्षा होती है और सुधार की चेष्टा तो ऐसी स्थिति में चल ही नहीं पाती।
  • रोग इसी प्रकार पलते और पनपते हैं।आरंभ उनका बहुत छोटे रूप में होता है,पर उपचार न होने पर वे जड़ें जमाते रहते हैं और प्रकट तब होते हैं,जब उनका विकराल रूप सामने आता है।यही बात दुर्गुणों के संबंध में भी है।वे साधारण होने पर हंसी-खेल जैसे लगते हैं,पर उनकी जड़ें जब आदतों के रूप में पकने पनपने लगती हैं,तब स्थिति ऐसी बन जाती है कि उपचार सुधार अतिशय कठिन बन गया होता है।
  • बालकों में समझ कम होती है।वे भलाई-बुराई का अंतर ठीक तरह नहीं कर पाते।अनुकरण में उत्साह अधिक होता है।जिन्हें भी अपने से वरिष्ठ देखते हैं,उनकी चाल ढाल को अपनाने लगते हैं।यह उनकी सहज प्रवृत्ति होती है।गुण-दोष का विश्लेषण करना उन्हें नहीं आता।परिणामों का अनुमान भी वे नहीं लगा पाते।ऐसी दशा में किसी दोष पर उनकी प्रताड़ना करने से भी कुछ काम नहीं बनता।वे प्रताड़ना का कारण,उद्देश्य समझ नहीं पाते,मात्र अपने तिरस्कार को,कष्ट मिलने की बात को ध्यान में रखते हैं और धीरे-धीरे प्रताड़ना देने वालों के प्रति दुर्भाव बनाने लगते हैं।
  • बच्चों और अभिभावकों के बीच प्रेम संबंध ही वह श्रृंखला है जिसके आधार पर उसका मनोबल बढ़ता है और उत्साह स्थिर रहता है।प्रताड़ना उस मर्मस्थान पर चोट पहुंचाती है,फलतः वे अपने को एकाकी उपेक्षित अनुभव करने लगते हैं।इस मनः स्थिति में उसमें कई प्रकार की अन्य कुंठाएं पनपने लगती है,जो विकृत दुर्गुणों से कम भयंकर नहीं होती है।ऐसी दशा में सुधार-प्रयत्न करने वालों की दोहरी जिम्मेदारी बढ़ जाती है।जन्म दे देना कर्त्तव्य की इतिश्री नहीं है,वरन अनेकानेक उत्तरदायित्वों को संभालने का शुभारंभ है।इसके लिए अभिभावकों को पहले से ही तैयारी करनी चाहिए।बच्चों को सद्गुणी-सुसंस्कृत बनाने के लिए क्या-क्या करना पड़ेगा,इसकी रूपरेखा पहले से ही बनानी चाहिए।अन्यथा उन्हें अन्न-वस्त्र देने,खाली समय में खेल-खिलवाड़ करते रहने के अतिरिक्त और कुछ न तो सूझ पड़ेगा और न कुछ करते-धरते।यह मुसीबत तब ओर भी अधिक बढ़ जाती है,जब बच्चों की संख्या बढ़ बढ़ जाती है और वे जल्दी-जल्दी पैदा होने लगते हैं।
  • उनकी शारीरिक आवश्यकताएँ पूरी करने में ही सारा ध्यान और समय लगा रहता है।पनपने वाली बुराइयों की ओर ध्यान ही नहीं होता फिर उनके सुधार का उपाय भी समझ में नहीं आता।गाली-गलौज करने,कोसने,मारने-पीटने से बच्चे सहम या डर तो जाते हैं,पर यह समझ नहीं पाते कि उनसे क्या भूल हुई और उसे सुधारने के लिए उन्हें क्या करना चाहिए।मारपीट से बच्चे ढीठ और बागी हो जाते हैं,जो मर्जी होती है उसे इस प्रकार छुपकर करते हैं कि घर वालों को उन हरकतों का पता न चलने पाए।यह एक ओर नई मुसीबत की बात है।
  • जब तक वे सीधे सरल रहते हैं तब तक उनकी गलतियां आसानी से देखी-समझी जा सकती हैं,पर जब वे छिपकर अनौचित्य बरतने की ओर बढ़ते हैं,तो उनमें चोरी की धूर्तता की नई कुटेबें आरंभ होती हैं।ऐसी दशा में सुधार होना ओर भी अधिक कठिन देखा गया है।इन्हीं परिस्थितियों में बच्चे अक्सर घर छोड़कर बाहर निकल जाते हैं और दुष्टों के चंगुल में फंसकर जो नहीं सीखा था,वह भी सीख लेते हैं।प्रायः ऐसी ही आवारागर्दी में पले और बढ़े हुए लड़के बड़े होकर अपराधी प्रकृति के बन जाते हैं।

3.लालन पालन में सतर्कता बरतें (Be Careful in Parenting):

  • बड़ी आयु में जो दुष्ट दुरात्मा,कुकर्मी,असभ्य अपराधी के रूप में सामने आता है।वे दुर्गुण उनमें यकायक प्रकट नहीं होते,वरन बहुत पहले से ही धीरे-धीरे उनकी जड़ें स्वभाव का अंग बनने लगती हैं।तब वे छोटी होने के कारण समझ भी नहीं पड़ती और भयंकर भी नहीं लगती,पर समय के साथ-साथ उनका जब विकास-विस्तार और परिपाक होने लगता है तो स्थिति ऐसी बन जाती है कि सुधार परिवर्तन में असाधारण कठिनाई का सामना करना पड़े।
  • जैसे-जैसे समझदारी बढ़ती चले,वैसे-वैसे ही बच्चों के प्रति अभिभावकों को,अध्यापकों को,परिवार वालों को अधिक सतर्कता बरतनी चाहिए और जहां कहीं अवांछनीयता पनपती दिखाई पड़े,उसकी रोकथाम के लिए सचेष्ट होना चाहिए।इस प्रकार की नीति को “एक आंख प्यार की-एक आंख सुधार की” रखना कहा जाता है।
  • बच्चों का मन ही सब कुछ होता है,उनकी बुद्धि सीमित होती है।न वे व्यवस्था बना पाते हैं और न विकृतियों को सुधारने में ही अपने बलबूते समर्थ हो पाते हैं।इसके लिए उन्हें दूसरों की सहायता की आवश्यकता पड़ती है।छोटे बच्चे तो मल-मूत्र तक की सफाई नहीं कर पाते।थोड़े बड़े होने तक उनके कपड़ों को धोना,पुस्तकों,जूतों को,बालों को संभालना भी प्रायः बड़ों के जिम्में ही होता है।
  • सफाई एवं व्यवस्था की अन्य जिम्मेदारियों को भी प्रायः घर वाले ही संभालते हैं।इसी प्रकार एक ओर दायित्व भी घर वालों को ही उठाना चाहिए कि वे बच्चों में पाई जाने वाली बुरी आदतों को सुधारें।अच्छी आदतें सिखाने के लिए सचेष्ट रहें।दोनों के बीच रहने वाले अंतर की परिणति एवं प्रतिक्रिया समझाएं।
  • यह कार्य भी अक्षर ज्ञान सिखाने और शिष्टता के आरंभिक चरण में प्रवेश करने की तरह ही आवश्यक है।इस प्रकार की सतर्कता न बरती जाने पर वैसा उपक्रम चलने पर प्रायः बालक उजड्ड अनगढ़ रह जाते हैं और यही असभ्यता धीरे-धीरे पलती रहने पर बड़े होने पर ऐसी बन जाती है कि उसे सुधारना कठिन हो जाता है।उनका स्वभाव जो बेतुका बन जाता है।शालीनता से दूर हटते जाते हैं और संपर्क रखने वालों के लिए सिरदर्द बन जाते हैं।तिरस्कार सहते और असहयोग के भाजन बनते हैं।
  • यह सब होता इसलिए है कि संरक्षकों ने दुलार तो दिया पर उनके सुधार की आवश्यकता पर ध्यान नहीं दिया।अभिभावक यदि बच्चों की सफाई पर ध्यान न दें,उन्हें सुंदर,सुसंस्कृत बनाने के लिए प्रयत्नशील न रहें तो हर बालक असभ्य दिखाई देगा।यही बात स्वभाव के संबंध में भी है।यदि उसे आरंभ से ही संभाला नहीं गया है तो वह बड़ा होने पर बुराइयों का गट्ठर बन जाएगा।अपने भविष्य को अंधकारमय बना लेगा।
  • दूसरों का स्नेह,सम्मान,सहयोग प्राप्त कर सकेगा।यही अनगढ़ स्थिति आगे चलकर दुर्व्यसनों,अनाचरणों की ओर मुड़ सकती है और किसी समय में भोला-भाला बालक दुष्प्रवृत्तियों से ग्रस्त हो सकता है।अपराधों की दिशा में अग्रसर हो सकता है।असभ्य,असामाजिक,अनैतिक बन सकता है।

4.कुसंग के रोकथाम का तरीका (How to Prevent Constipation):

  • अपराधों की दो धाराएं हैं:एक चोरी-ठगी और दूसरी आवारागर्दी,गुंडागर्दी।साहस के अभाव में चोरी ठगी ही बन पड़ती है,पर जो उद्दंड प्रकृति के होते हैं,वे सीनाजोरी करने लगते हैं।लूट,आक्रमण,अपहरण,आतंक,हत्या,षड्यंत्र,गिरोहबंदी के कुचक्र रच लेते हैं।
  • आदत जब परिपक्व हो गई तो उन्हें समझाने-बुझाने से भी नहीं बदला जा सकता है।धर्मोपदेश बेकार होते हैं।नीति,सदाचार,सज्जनता का सिखावन और महत्त्व उनके गले ही नहीं उतरता।
  • यह संघर्ष का प्रसंग हुआ।अच्छा यह है कि समय से पूर्व चेता जाए।दुष्टता की विषबेल उगने,पनपने और फैलने से पहले ही उसके उन्मूलन का प्रयत्न किया जाए।इसके लिए सर्वसुलभ उपाय यह है कि किशोरावस्था में प्रवेश करते ही हर अभिभावक अपने बालकों की समीक्षा करना सीखे।
  • इस तथ्य का ध्यान रखें कि उनमें दुष्प्रवृतियां तो नहीं पनप रही हैं।यदि ऐसा कुछ चल रहा है तो गंभीरतापूर्वक समझाने,कड़ी नजर रखने,अनौचित्य को रोकने से काम चल जाता है,पर जब पेड़ की जड़े गहरी धँस जाती हैं और तना मजबूत हो जाता है तो फिर उसे उखाड़ना सरल नहीं रहता।
  • इस रोकथाम का अच्छा तरीका है कि कुसंग में पड़ने का अवसर ही न आने दिया जाए।इसका उपयुक्त उपाय यह है कि उनके लिए अच्छी संगति रहने,अच्छे वातावरण में समय गुजारने की व्यवस्था बनाई जाए।
  • महापुरुषों के जीवन से संबंधित कथा-कहानियों की ओर रुचि जागृत की जाए।आस्तिकता का भाव पैदा किया जाए।महामृत्युंजय मंत्र या गायत्री मंत्र का जाप सिखाया जाए।सुबह उठकर भगवान को प्रणाम करने की आदत डाली जाए।घर में जन्मदिन,संस्कार एवं सत्संग इत्यादि का आयोजन करते रहना चाहिए।
  • किशोरों के संबंध में यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है,क्योंकि यही आयु ऐसी होती है,जिसमें व्यक्तित्व तेजी से विनिर्मित होता है।इन्हीं दिनों उसके पकने की फसल होती है।यदि यह आयु संभल सकी तो समझना चाहिए की अवांछनीयता अपनाने और भविष्य को अंधकारमय बनाने की आशंका टल गई।

5.युवावस्था में सतर्कता बरतने की 6 टिप्स का निष्कर्ष (Conclusion of 6 tips for Caution in Youth):

  • बच्चों की दुर्दशा के लिए माता-पिता सबसे अधिक जिम्मेदार हैं।उनकी दुर्दशा के लिए देश की शिक्षा प्रणाली भी जिम्मेदार है जिसमें बच्चों को यही नहीं सिखाया जाता है कि क्या हितकारी है और क्या हानिकारक है।
  • माता-पिता सबसे अधिक जिम्मेदार इसलिए हैं कि बच्चों को सरकार ने पैदा नहीं किया है और न सरकार बच्चों का लालन-पालन ही करती है।बच्चा माँ की गोद में ही आंखें खोलता है,माँ से बोलना सीखता है फिर बच्चा बाप की अंगुली पकड़ बाहर निकलता है और माता-पिता की छत्रछाया में दुनिया देखता है,दुनियादारी सीखता है और एक दिन अपने पैरों पर खड़ा होता है।
  • इस प्रकार बच्चे की मां उसकी पहली गुरु होती है,पिता दूसरा गुरु होता है और फिर बाद में शिक्षा देने वाले गुरु या गुरुवर्ग का नंबर आता है।माता-पिता को चाहिए कि वे अपने बच्चों को अच्छे और बुरे का ज्ञान दें,हितकारी और अहितकारी कार्य के बारे में समझाएं।अच्छा व्यक्ति बनने के गुणों की शिक्षा देने के साथ ही साथ बुराइयों और बुरे कामों के प्रति सावधान भी कर दें ताकि बच्चे अनजाने में,भोलेपन और कौतूहल की भावना में बुरी हरकतें न करने लगें।
  • कामकाज की व्यस्तता के कारण माता-पिता बच्चों को पर्याप्त समय नहीं दे पाते।परंतु उन्हें समय देना ही होगा क्योंकि माता-पिता का सबसे प्रमुख कर्त्तव्य है संतान को योग्य,संस्कारवान तथा गुणवान बनाना।

6.माता-पिता का बच्चों का लालन पालन में सतर्कता का दृष्टांत (The Example of Parents Being Cautious in Raising Children):

  • एक बार दो महिलाएं बाजार में सामान खरीदने गई।जाते समय उनमें आपस में वार्ता छिड़ गई।दोनों महिलाएं अपने-अपने पुत्रों के गुणों की प्रशंसा करने लगी।पहली औरत ने कहा कि मेरा पुत्र गणित से बीएससी कर रहा है।बड़ा होने पर तथा शिक्षा समाप्त करने पर अच्छा जाॅब प्राप्त करेगा।दूसरी महिला ने इतना ही कहा कि मेरा लड़का गांव के ओर लड़कों की तरह साधारण ही है।
  • इतने में ही कॉलेज की छुट्टी होते ही दोनों बच्चे घर चल पड़े।रास्ता बाजार से होकर ही था।पहली औरत का लड़का हाथ में खुली पुस्तक (गणित की) लिए हुए आ रहा था;उसे पढ़ रहा था।दूसरी औरत का लड़का आया,उसने दोनों औरतों के चरण स्पर्श किए और प्रणाम किया।अपनी माता के सिर पर बाजार से खरीदे गए सामान का थैला लिया और घर की ओर चल पड़ा।
  • एक वृद्ध व्यक्ति जो उसकी बात सुन रहा था,उसने दोनों औरतों को रोककर कहा।यह दूसरा वाला लड़का सबसे अच्छा है।इसके संस्कार,शिष्टाचार देखा न।इसके माता-पिता ने शुरू से इसमें संस्कारों का निर्माण करने की सतर्कता बरती है।वरना आजकल की शिक्षा प्राप्त लड़के छैल-छबीले होकर घूमते हैं।माता-पिता की कोई परवाह नहीं करते बल्कि माता-पिता को हुकुम फरमाकर काम करवाते हैं।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में युवावस्था में सतर्कता बरतने की 6 टिप्स (6 Tips for Caution in Youth),युवावस्था में सतर्कता कैसे बरती जाए? (How to Be Cautious at Young Age?) के बारे में बताया गया है।

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7.शिक्षक की बात नहीं समझा (हास्य-व्यंग्य) (Didn’t Understand Teacher’s Point) (Humour-Satire):

  • गणित शिक्षक (छात्र से):जो गणित शिक्षक किसी सवाल या थ्योरी को अथवा बात को एक बार में छात्र-छात्राओं को नहीं समझ सकता,वह एकदम मूर्ख होता है।
  • एक छात्र:सर,मैं कुछ समझा नहीं।

8.युवावस्था में सतर्कता बरतने की 6 टिप्स (Frequently Asked Questions Related to 6 Tips for Caution in Youth),युवावस्था में सतर्कता कैसे बरती जाए? (How to Be Cautious at Young Age?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.बच्चों को कब से शिक्षा देना प्रारंभ करें? (When Should You Start Teaching Your Children?):

उत्तर:वैसे तो बच्चा गर्भ में होता है तब से ही माता-पिता को अपने आचार-विचार को पवित्र रखना चाहिए।माता के आचार-विचार का प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर ही पड़ना प्रारंभ हो जाता है।यदि बच्चों को बचपन से अच्छे संस्कारों,गुणों,ध्यान,योगासन-प्राणायाम आदि की अनिवार्य शिक्षा देकर,अपने चरित्र की रक्षा करने का अभ्यास कराया जाए तो युवक-युवतियां गलत दिशा में भटकने से बच सकते हैं।अब देश के लाखों-करोड़ों बच्चों के सामने बेरोजगार तथा दिशाहीन होकर भटकने की नौबत आती है,वह नहीं आए।परंतु आजकल माता-पिता द्वारा शिक्षित न करने तथा शिक्षा प्रणाली में चरित्रवान बालकों को तैयार करने की बातें शामिल न होने के कारण बच्चे समझ ही नहीं पाते कि अब करें तो क्या करें?

प्रश्न:2.ज्ञान और अनुभव में श्रेष्ठ क्या है? (What is Best in Knowledge and Experience?):

उत्तर:ज्ञान कितना ही श्रेष्ठ हो पर अनुभव उससे भी श्रेष्ठ होता है क्योंकि अनुभव ही ज्ञान को व्यावहारिक रूप से उपयोगी या अनुपयोगी सिद्ध करता है।

प्रश्न:3.दृष्टांत क्यों दिए जाते हैं? (Why are Parables Given?):

उत्तर:दृष्टांत,उदाहरण,सत्य घटनाएं नहीं होती,सत्य घटना पर आधारित हो सकती है यह काल्पनिक भी हो सकती है।परंतु इस बहस में पड़ना इसलिए उचित नहीं है कि दृष्टांतों,उदाहरणों,कथा-कहानियों का उद्देश्य प्रतीकात्मक (symbolic) रूप से उचित प्रेरणा व मार्गदर्शन देने का होता है।कथा कहानियों व दृष्टांतों के द्वारा किसी भी प्रेरक विचार,प्रेरक लेख को समझने में मदद मिलती है।प्राचीन काल में तो बड़े-बुजुर्ग बच्चों में संस्कारों का निर्माण कथा-कहानियों,किस्सों के माध्यम से किया करते थे।इसीलिए प्राचीन भारत महान था तथा जगतगुरु था क्योंकि भारत के नागरिक,बच्चे चरित्रवान,सदाचारी थे।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा युवावस्था में सतर्कता बरतने की 6 टिप्स (6 Tips for Caution in Youth),युवावस्था में सतर्कता कैसे बरती जाए? (How to Be Cautious at Young Age?) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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