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4Ways to Gain Wisdom Through Curiosity

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1.जिज्ञासा से ज्ञान प्राप्ति के 4 उपाय (4Ways to Gain Wisdom Through Curiosity),जिज्ञासा से ज्ञान कैसे प्राप्त करें? (How to Gain Intellect from Curiosity?):

  • जिज्ञासा से ज्ञान प्राप्ति के 4 उपाय (4Ways to Gain Wisdom Through Curiosity) में जिज्ञासा का अर्थ है जानने की इच्छा,ज्ञान की चाह,ज्ञान प्राप्ति के लिए विचार,पूछताछ,खोज आदि।इस प्रकार जिज्ञासा के शब्दार्थ से ही स्पष्ट है कि जिसमें ज्ञान प्राप्ति की भूख,लगन हो,चाह हो वही ज्ञान प्राप्त करता है।
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2.पात्र व्यक्ति को ही ज्ञान प्राप्त होता है (Only the deserving person gets knowledge):

  • भोजन उसी को कराना चाहिए जो भूखा हो और ज्ञान उसी को देना चाहिए जो जिज्ञासु हो। जैसे दिन में दीया जलाना व्यर्थ होता है,सागर में वर्षा होना व्यर्थ होता है,बंजर भूमि में बीज बोना बेकार होता है,जंगल में रोने-चिल्लाने से कोई फायदा नहीं उसी प्रकार जो शिक्षा या ज्ञान प्राप्त करना न चाहता हो तो उसे शिक्षा देना व्यर्थ होता है।
  • आध्यात्मिक एवं सांसारिक-दोनों ही आयामों में ज्ञान प्राप्त करना महत्त्वपूर्ण और उपयोगी होता है।ज्ञान के बिना व्यक्ति को इष्ट की प्राप्ति नहीं होती।किसी भी उद्देश्य की प्राप्ति करने के लिए ज्ञान प्राप्त करना जरूरी होता है।ज्ञान प्राप्ति का आरंभ होता है कुतूहल से।यह अवस्था बच्चों जैसी होती है कि यह वस्तु क्या है? अर्थात् किसी वस्तु या व्यक्ति को देखने की उत्कट इच्छा,उत्सुकता,अचम्भा आदि।यह ज्ञान प्राप्ति की पहली सीढ़ी है।इस अवस्था से ‘जिज्ञासा’ का जन्म होता है जिसमें कुछ जानने की प्रबल इच्छा होती है।
  • यह जिज्ञासु भाव छात्र जीवन की अनिवार्य विशेषता है जिसके बिना छात्र-जीवन उतना व्यर्थ हो जाता है।मनुष्य का जीवन एक साधना है और जिज्ञासु भाव इस साधना की दूसरी सीढ़ी होती है।जिज्ञासा पैदा होती है कुतूहल से इसलिए पहली सीढ़ी होती है कुतूहल।जिज्ञासा की सीढ़ी पर चढ़ता हुआ छात्र अपनी शिक्षा और ज्ञान अर्जित करने की यात्रा पूरी करता है।
  • जब जिज्ञासा विकसित और सशक्त हो जाती है तब व्यक्ति मुमुक्षा की अवस्था में प्रवेश कर जाता है।मुमुक्षा  अर्थात् मोक्ष का अभिलाषी,मुक्ति का इच्छुक।किससे मुक्ति,मन के विकारों काम,क्रोध,लोभ,मोह,मत्सर (ईर्ष्या) आदि से मुक्ति।मन को निर्विकार करना,मन को शुद्ध,पवित्र कर लेना,सात्विक कर्मों को करना आदि।जिज्ञासा जैसे जिज्ञासु को विद्यार्थी बनाती है वैसे ही मुमुक्षा ‘मुमुक्षु’ को शिष्य बनाती है और मुमुक्षु को यह मुमुक्षा सतगुरु के पास ले जाती है।यह तीसरी सीधी है।
  • मुमुक्षा पर आचरण करने वाला व्यक्ति ‘साधक’ हो जाता है और तब उसका साध्य निश्चित हो जाता है।साधक के लिए पतंजलि योग के आठ अंग अथवा साधन बतलाए गए हैं:यम,नियम,आसन,प्राणायाम,प्रत्याहार,धारणा ध्यान और समाधि।(1.)यमःमन,वचन,कर्म से संयम को यम कहते हैं।इसमें निम्नांकित सम्मिलित है:अहिंसा-सर्वदा तथा सर्वथा जीवमात्र को दुःख न पहुंचाना।सत्य-मन,वचन और कर्म में यथार्थता।जिसको जैसा देखा,सुना और जाना हो,उसको वैसा ही कहना।अस्तेय:दूसरे की वस्तु,विचार का अपहरण न करना और ना उसकी कामना ही करना।ब्रह्मचर्य:ब्रह्म का आचरण।इंद्रियों में लोलुपता का अभाव।विशेषकर इन्द्रियों का संयम।(2.)नियम:शौच-मन,वचन और शरीर की पवित्रता,संतोष,तप,स्वाध्याय (इनके बारे में लेख वेबसाइट पर मिल जाएंगे);भगवद् भक्ति।(3.)आसन: जिस प्रकार बैठने से चित्त की स्थिरता और सुख मिले उसे आसन कहते हैं।यथा-सुखासन,पद्मासन,भद्रासन,वीरासन आदि। प्राणायाम:रेचक,कुंभक,पूरक।(5.)प्रत्याहार:इंद्रियों को उनके विषयों से हटाकर उनको अंतर्मुखी करना।(6.)धारणा:चित्त को किसी एक स्थान में स्थिर करने का नाम धारणा है।(7.)ध्यान:जब किसी एक स्थान में ध्येय वस्तु का ज्ञान देर तक एक प्रवाह में संलग्न होता है,तब उसे ध्यान कहते हैं।(8.)समाधि:जब ध्यान ध्येय के आकार में भासित होता है और अपना स्वरूप छोड़ देता है तो उस परिस्थिति को समाधि कहते हैं।इसमें ध्यान और ध्यान का ध्येय में लय हो जाता है।यह साधना की चौथी सीढ़ी है।अब साधक व्यक्ति व्यावहारिक रूप से साधना में लीन हो जाता है।
  • जैसे-जैसे साधना बढ़ती है,सफल होती है वैसे-वैसे साधक की भावदशा संन्यास की मानसिकता को उपलब्ध होने लगती है।संन्यासी ना तो संसार से दूर भागता है और न संसार से चिपकता है बल्कि वह अंदर की ओर मुड़ जाता है।यह संन्यास की पांचवी सीढ़ी है।संन्यास में पूर्णता प्राप्त कर साधक ‘सिद्धि’ प्राप्त कर लेता है,अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर लेता है।यह छठवीं सीढ़ी है।
  • जब व्यक्ति यानी साधक सिद्धि प्राप्त कर लेता है तो फिर साधना अपनी संपूर्णता को उपलब्ध हो जाती है और साधक का अगला कदम सातवीं यानी अंतिम सीढ़ी पर पड़ता है।यह सीढ़ी है परमश्रेष्ठ शुद्ध साक्षी भाव की,जहां पहुंचकर प्राप्त की हुई सिद्धि को वह सिद्ध पुरुष बांटने लगता है क्योंकि फिर पाने के लिए कुछ बचता नहीं।

3.साक्षी और भोगी (Witness and enjoying):

  • भोगी और साक्षी ये दो ही स्थितियां मनुष्य की होती है। साक्षी को समझने के लिए भोगी को भी समझना होता है।साक्षी शब्द का मोटा अर्थ है गवाह,दर्शक मात्र होना।साक्षी शब्द अक्ष से बना है माने आंख वाला देखने वाला।साक्षी का पहला लक्षण है कि जो भी घटित हो रहा हो तो दुःख और सुख घटित हो रहा हो तो सुख को सिर्फ देखने वाला।साक्षी दुःख के साथ नहीं होता,अलग रहता है और जब तक हम दुख के साथ नहीं होते तब तक दुःखी नहीं होते।
  • साक्षी का दूसरा लक्षण है अहोभाव,अनुग्रहीत होने का भाव।जो मिल जाए उसे भगवान का प्रसाद,भगवान की अनुकंपा मानता है।साक्षी अपने को कर्त्ता नहीं मानता इसलिए जो कुछ भी मिलता है उसे भगवान का प्रसाद मानता है।जो कर्त्ता मानता है वही भोक्ता होता है,जो निष्काम भाव से कर्म करता है वह कर्त्ता नहीं होता सिर्फ साक्षी रहता है अतः भोक्ता भी नहीं होता।साक्षी भाव परम आनंद है और भोक्ता होना दुःखी होना है।भोगी मन का एक लक्षण है कि जो मिले वह कम मालूम पड़े और ज्यादा मिलने की लालसा बनी रहे।दूसरा लक्षण है जो मिल जाए उससे अरुचि हो जाए और जो अभी नहीं मिला है उसकी कामना बनी रहे।
  • भोगी मन का तीसरा लक्षण होता है कामनाओं का अनन्त होना।कामनाएँ अनंत होती है और उनकी पूर्ति के साधन सीमित होते हैं और जीवनकाल अल्प होता है अतः भोगी मन सदा अतृप्त और लालायित बना रहता है।यह स्थिति ही दुःख का कारण है।साक्षी भाव वाला कर्म तो करता है पर लालसा नहीं रखता,कामनाएं नहीं रखता सिर्फ कर्त्तव्य का पालन करता है।इसलिए दुःख से बचा रहता है।भोगी दुःख से बच नहीं सकता भोग में जो सुख की अनुभूति होती है वह क्षणिक होती है और उसके पीछे भी दुःख की अनुभूति होती है।साक्षी भाव वाला मन इस अनुभूति से सदा बचा रहता है इसलिए मस्त बना रहता है।
  • साधक की साधना का साध्य (लक्ष्य) भले ही आध्यात्मिक हो या सांसारिक हो,आत्मोन्नति की तरफ हो या दुनियादारी की तरफ-दोनों ही दिशाओं में ये सातों सीढियां चढ़ना उपयोगी होता है और लक्ष्य प्राप्ति के लिए अनिवार्य भी।इन सीढ़ीयों पर चढ़े बिना लक्ष्य की प्राप्ति हो नहीं सकती।
  • आप सोच रहे होंगे साक्षीभाव की स्थिति केवल साधु-संन्यासी,संतो-ऋषियों को ही प्राप्त हो सकती है।जो घर-बार छोड़कर लुटिया लंगोटी वाला और गेरुए वस्त्र पहनने वाला साधु-संन्यासी उपर्युक्त सातों सीढ़ियों तक पहुंच सकता है।छात्र-जीवन और घर-गृहस्थी वालों के लिए इन सीढ़ियों पर पहुंचना संभव नहीं है।परंतु ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जिसमें उन्होंने छात्र-जीवन और गृहस्थ जीवन का पालन करते हुए साक्षी भाव से कर्म करते रहें हैं।

4.जिज्ञासा के कुछ दृष्टांत (Parables of Curiosity):

  • भारतीय पद्धति के प्रणेता ऋषियों ने मानव जीवन में जिज्ञासा के अन्यत्तम महत्त्व को जाना-पहचाना तथा प्रत्येक श्रेयार्थी को जिज्ञासु का सर्वश्रेष्ठ पद प्राप्त करने की प्रेरणा दी।सत्य की प्राप्ति में जिज्ञासा से श्रेष्ठ अन्य कोई सहायक नहीं है।
    मैं कौन हूं? कहां से आया हूं? मैं भविष्य में भी रहूंगा या नहीं? प्राणी दुखी क्यों होता है? सच्चा सुख क्या है? इंद्रियों से प्राप्त होने वाला ज्ञान विश्वसनीय है या नहीं? कर्मों का फल मिलता है या नहीं? इस जन्म से पूर्व मेरा अस्तित्व था या नहीं? आदि असंख्य प्रश्नों की जिज्ञासा न केवल संसार के दुखों से पीड़ित प्राणी को ही झकझोरती है,अपितु कई बार सब प्रकार से सुखी मनुष्यों के मन में भी उथल-पुथल मचा देती है।यह जिज्ञासा दिव्य अग्नि के समान है,जिसमें तपने पर मनुष्य का हृदय सत्य के अवतरण का पुण्य तीर्थ बन जाता है।
  • दर्शन का अर्थ है,’आत्मानुभव।’ दूसरों के दर्शन के आधार पर सच्ची तृप्ति संभव नहीं।तार्किक प्रश्नात्मक जिज्ञासा का अर्थ श्रद्धा का अभाव नहीं है।इसके विपरीत जिज्ञासा का अभाव अश्रद्धा है।जिज्ञास्य विषय को अपने अध्यवसाय की क्षमता से अनुभव का विषय बना लेना श्रद्धा का लक्षण है।
  • दार्शनिक कांट ने कहा है,नीतिमय जीवन का प्रारंभ होने के लिए विचारक्रम में परिवर्तन तथा आचार का ग्रहण आवश्यक है।” जिज्ञासा उत्पन्न हो जाने पर यदि जीवनक्रम में परिवर्तन नहीं होता है तो इसका अर्थ है कि व्यक्ति वास्तविकता के साथ अपना सीधा संबंध जोड़ना नहीं चाहता।
  • व्यक्ति में यदि सही-सही जिज्ञासा का उदय हो जाए तो वह सकाम कर्मों के फल का भी उल्लंघन कर जाता है अर्थात् वह उससे भी आगे बढ़ जाता है।
  • संदेह या प्रश्नों को परास्त करने की शक्ति ही जिज्ञासु की श्रद्धा है।सत्य को जानने के लिए मात्र प्रश्नों या तर्कों का उदय ही पर्याप्त नहीं है।गीता के अनुसार इसके लिए योगयुक्त एकनिष्ठ अभ्यास की भी आवश्यकता है, ‘अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिता।’
  • ‘ज्ञान’ का सामान्य अर्थ जानकारी है।भौतिक पदार्थों एवं परिस्थितियों की तथा प्रयोग विधियों की जानकारी को ही लोकव्यवहार में ‘ज्ञान’ कहा जाता है,किंतु आत्मविज्ञान में इसे आत्मसत्ता की स्थिति एवं परिणीति के संबंध में आवश्यक अनुभव कराने वाली अनुभूति को ही ‘ज्ञान’ कहा गया है।इसी की उपलब्धि मानव जीवन की सबसे बड़ी सफलता है।अपने संबंध में भ्रांतियां बनी रहने पर लोक-व्यवहार एवं पदार्थों का उपार्जन-उपयोग सभी गलत हो जाता है और सुख-संवर्द्धन के लिए किया गया पुरुषार्थ संकट भरे जाल-जंजालों में फँसता जाता है।शांति एवं प्रगति का सही मार्ग उसी को मिल सकता है,जो आत्मचेतना और लोक-व्यवस्था के मध्यवर्ती अंतर को जोड़ने वाली सूत्र-श्रृंखला को भली प्रकार समझ लेता है।उसी जानकारी को शास्त्र में ‘आत्मज्ञान’ (अपने आपको जानना,अपनी क्षमता व योग्यता को जानना) कहा गया है।यह आत्मज्ञान ही वह अमृत है,जिसे पाने के उपरांत और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता है।
  • छांदोग्य उपनिषद में एक कथा आती है-प्राचीन काल में दो पुरुष थे।एक का नाम विरोचन था,दूसरे का इंद्र।दोनों के मन में यह प्रश्न उठा कि ‘मैं कौन हूं?’ शिष्यभाव से जिज्ञासु की भाँति दोनों हाथ में समिधाएँ लिए प्रजापति के पास पहुंचे।वहां पहुंचकर उन्होंने प्रश्न किया,आचार्यश्रेष्ठ,हमें बताइए कि हम कौन हैं?
  • प्रजापति ने उत्तर देने के पूर्व उनकी योग्यता की परीक्षा लेना उचित समझा।उन्होंने कहा, “थाली में पानी भर लो और उसमें मुख देखो,अपने आपका साक्षात्कार कर लोगे।” उत्तम वस्त्र धारण करके दोनों ने जल में अपनी आकृति देखी।विरोचन अपना सौंदर्य देखकर प्रसन्न हो उठा और कहने लगा, “मैं कितना सुंदर हूं।” वह अपने सभी साथियों से कहने लगा, “मैं का पता लगा लिया है।”अपने शरीर को ही ‘मैं’ समझकर वह उसे ही पुष्ट करने एवं सँवारने में लग गया।
  • इंद्र दूरदर्शी थे।उनने सोचा कि यदि वस्त्र,आभूषण एवं शरीर ही मेरा स्वरूप है तो इसका अर्थ यह है कि उनके मैले होने,जरा-जीर्ण पड़ने पर मेरी भी वैसी ही स्थिति हो जाएगी।निश्चय ही यह मेरा स्वरूप नहीं हो सकता।वह कहने लगे मैं तो उसमें कुछ भी कल्याण नहीं देखता।
  • इंद्र की आशंका उचित थी।जिन आकर्षक वस्त्रों द्वारा हम शरीर को सजाते-संवारते हैं,वह मैला होता है और फटता भी है,किंतु ‘मैं’ का भाव तो सदा एक जैसा बना रहता है।संबोधन किए जाने वाले स्थूल अवयव का स्वरूप बदल जाता है।
    बचपन में भी ‘मैं’ का संबोधित किया जाता था,युवावस्था एवं वृद्धावस्था में भी।शरीर तो परिवर्तित हो जाता है,किंतु ‘मैं’ सदा एक जैसा बना रहता है।स्पष्ट है नित्य परिवर्तनशील यह शरीर ‘मैं’ नहीं हो सकता है।’मैं’ का भाव शाश्वत,अपरिवर्तनशील होना इस बात का प्रमाण है कि यह कोई शाश्वत,अविनाशी एवं अपरिवर्तनशील सत्ता होनी चाहिए।
  • उपनिषद के कथानक का निष्कर्ष यह है कि आत्मसत्ता को शरीर से पृथक और स्वतंत्र मानकर चला जाए।अपना हितसाधन,आत्मकल्याण एवं आत्मोत्कर्ष की समस्याओं एवं उपलब्धियों के साथ जोड़ा जाए।इस स्तर का दृष्टिकोण न अपनाया जाए जैसा कि पेट और प्रजनन तक अपनी आकांक्षा तथा चेष्टा को सीमाबद्ध रखने वाले नरपशु अपनाते देखे जाते हैं।वासना और तृष्णा,लोभ और मोह के भव-बंधन उन्हीं को बांधते हैं,जो अपने को शरीर मानकर चलते हैं और उसी के साथ जुड़े हुए पारिकर के साथ बालक्रीड़ा करते रहते हैं।इस तरह से ऊंचे उठकर जीवन-संपदा का महत्त्व एवं सदुपयोग को समझते हुए चरम लक्ष्य की दिशा में चल पड़ने की प्रेरणा आत्मज्ञान पर अवलंबित है।इसी प्रेरणा को ऋतंभरा प्रज्ञा एवं ब्रह्मविद्या कहते हैं।
  • व्यक्ति की तीन तस्वीरें हैं:(1.) लोग उसे किस रूप में समझते हैं।(2.)वह किस रूप में जीता है।(3.)वह किस रूप में अपने आपको प्रस्तुत करता है।तीनों चित्रों में से पहला मान्यता का,दूसरा यथार्थ का और तीसरा अयथार्थ का है।
  • राजा भोज की राज्यसभा जुड़ी हुई थी।बड़े-बड़े विद्वान अपने-अपने आसनों पर विराजमान थे।उसी समय एक भद्र-सा पुरुष आभूषणों से विभूषित वहाँ आ उपस्थित हुआ।राजा भोज सिंहासन से उठे,अभिवादन किया और सम्मान दें ऊँचे आसन पर बिठाया।उसी समय एक दूसरा व्यक्ति फटे-पुराने वस्त्र पहने सभा में आया।राजा ने उसकी और कोई ध्यान नहीं दिया और वह एक किनारे बैठ गया।
  • विद्वानों के वक्तव्य हुए,चर्चा-परिचर्चा चलने लगी।फटे कपड़े में उपस्थित व्यक्ति प्रभावशाली वक्ता एवं विद्वान था।सभा विसर्जन होने पर राजा स्वयं उसके साथ दरवाजे तक विदा करने के लिए गया और उसे विविध प्रकार के वस्त्र आभूषणों से सम्मानित किया।जाते समय जो व्यक्ति वस्त्र-आभूषणों से सुसज्जित होकर आया था,उसकी ओर राजा ने ध्यान तक नहीं दिया।
    इतने में एक विदूषक घूंघट लगाए रूपसी जैसे आवरण पहनकर दरबार में दाखिल हुआ और फरियाद सुनने की प्रार्थना करने लगा।आरम्भ में सभी का ध्यान उसकी ओर आकर्षित हुआ,पर पीछे जब वास्तविकता पता चला तो सभी दरबारी उस छद्मवेशी पर ठहाका लगाकर हंस पड़े और उस बहरूपिये को कुछ दे-दिलाकर भगा दिया।
  • उपस्थित विद्वानों ने तीन प्रकार के लोगों के प्रति तीन तरह का व्यवहार करने और आरंभ में प्रदर्शित किए रुख बदल देने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा,प्रथम व्यवहार में प्रारंभिक परिचय,दूसरे में यथार्थ निरूपण और तीसरे में भ्रम-निवारण के तथ्यों ने काम किया और प्रारंभिक मान्यता को बदल दिया।
  • यथार्थ जिज्ञासु को भी ऐसे कितने चरणों (सात) से होकर गुजरना पड़ता है,तब जाकर सच्चे ज्ञान की प्राप्ति होती है।कई बार भ्रम सत्य-सा प्रतीत होता है तो उसकी पड़ताल कर उक्त धारणा को परिवर्तित भी करना पड़ता है।जिज्ञासा की इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है बिना जिज्ञासा के व्यक्ति प्रगति नहीं कर सकता।चाहे विकास भौतिक हो या आत्मिक दोनों के लिए यह समान रूप से आवश्यक है।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में जिज्ञासा से ज्ञान प्राप्ति के 4 उपाय (4Ways to Gain Wisdom Through Curiosity),जिज्ञासा से ज्ञान कैसे प्राप्त करें? (How to Gain Intellect from Curiosity?) के बारे में बताया गया है।

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5.कोई धन साथ लेकर नहीं जाता (हास्य-व्यंग्य) (No one Carries Money with Him) (Humour-Satire):

  • छात्र (टीचर से):मैंने आपको कोचिंग की पूरी फीस दी है,परंतु मैंने आधा कोर्स ही किया है।अतः मेरे बाकी के रुपए लौटाओ।
  • टीचर:कोचिंग के निदेशक का देहावसान हो गया है,अतः कुछ दिन ठहरो।
  • छात्र:मैं कुछ नहीं जानता,मेरा हिसाब चुकता करो।कोई भी मरता है तो अपने साथ धन लेकर नहीं जाता है।

6.जिज्ञासा से ज्ञान प्राप्ति के 4 उपाय (Frequently Asked Questions Related to 4Ways to Gain Wisdom Through Curiosity),जिज्ञासा से ज्ञान कैसे प्राप्त करें? (How to Gain Intellect from Curiosity?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.ज्ञान से यहां क्या अर्थ लिया है? (What is the meaning of knowledge here?):

उत्तर:यहाँ ज्ञान से तात्पर्य भौतिक विषयों का,सांसारिक विषयों का,व्यावहारिकता का और आध्यात्मिक ज्ञान से लिया गया है।आध्यात्मिक ज्ञान से तात्पर्य है स्वयं को जानना,साक्षात्कार करना।जिज्ञासु के लिए ज्ञान का अर्थ मात्र बौद्धिक कलाबाजियां खाना नहीं है।वह एकांत में बैठकर चिंतन करता हुआ अपने कर्त्तव्य की इतिश्री भी नहीं समझता।

प्रश्न:2.जिज्ञासा कब जाग उठती है? (When does curiosity arise?):

उत्तर:यों तो बचपन से ही जिज्ञासा जाग जाती है परंतु जिज्ञासा की उत्तरोत्तर सीढ़ियों पर नहीं चढ़ते हैं तो यह समाप्त हो जाती है या वहीं तक सीमित हो जाती है।बिना सच्ची जिज्ञासा के तत्वज्ञान बुद्धि का कुतुबुल मात्र बनकर रह जाती है।यह जिज्ञासा वृत्ति मनुष्य में प्रायः मृत्यु के सन्निकट होने अर्थात मृत्यु का भय उपस्थित होने पर भी जाग उठती है।

प्रश्न:3.व्यक्ति ज्ञान का व्याख्यान कब करने में समर्थ होता है? (When is a person able to lecture knowledge?):

उत्तर:जब तक स्वयं ज्ञान का अनुभव न कर लिया हो तब किसी उपदेष्टा या ज्ञानी की ऐसी विश्वस्त स्थिति ना हो,तब वह मानव जीवन के लिए असंदिग्ध या महत्त्वपूर्ण तत्व का व्याख्यान नहीं कर सकता।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा जिज्ञासा से ज्ञान प्राप्ति के 4 उपाय (4Ways to Gain Wisdom Through Curiosity),जिज्ञासा से ज्ञान कैसे प्राप्त करें? (How to Gain Intellect from Curiosity?) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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