Intellectuals Fulfill Responsibilities?
1.बुद्धिजीवी अपना दायित्व कैसे निभायें? (How Intellectuals Fulfill Responsibilities?),बुद्धिजीवी का प्रमुख दायित्व (Main Responsibility of Intellectuals):
- बुद्धिजीवी अपना दायित्व कैसे निभायें? (How Intellectuals Fulfill Responsibilities?) जिससे समाज और देश समुन्नत हो सके।बुद्धिजीवी अपने दायित्व का निर्वाह तभी कर सकेंगे जब वे बुद्धि का सदुपयोग कर सकेंगे।बुद्धिजीवी निडर होकर और बिना किसी दाब-दबाव के कर्त्तव्यों का पालन करेंगे तभी सही मायने में बुद्धिजीवी हैं।
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2.बुद्धिजीवी कौन है? (Who are intellectuals?):
- वर्तमान समय में विभिन्न राज्यों व देश में व्याप्त भ्रष्टाचार,राजनीतिक शक्ति का अंधाधुंध केंद्रीयकरण,सामाजिक मूल्यों के निरंतर ह्रास,पूंजीवादी शक्तियों द्वारा शोषण नीति को प्रोत्साहन,सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति उदासीनता की एक सीमा तक निराशाजनक स्थिति में हमें बुद्धिजीवियों के सामाजिक दायित्व बोध के प्रति पुनर्विवेचन करने के लिए विवश कर दिया है।
- देश के बौद्धिक वर्ग पर हमारी आशापूर्णा निर्भरता का कारण यह भी है कि वही समाज को एक दिशा देने में समर्थ है।वही गांधी,सरदार पटेल,विवेकानंद,रविंद्रनाथ और प्रेमचंद है,वही अरस्तु,प्लेटो और दयानंद है।बौद्धिक वर्ग में ऐसे समाज दर्शकों के कारण उन पर आज भी हमारी निर्भरता अकारण नहीं है।
- राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों में भेद कितना ही क्यों ना हो,बुद्धिजीवी का सामाजिक व राष्ट्रीय दायित्व हर देश में हर काल में अपने समाज व देश की प्रतिबद्धता से जुड़ा हुआ है।बुद्धिजीवी के सामाजिक व राष्ट्रीय दायित्व बोध की चर्चा से पूर्व बुद्धिजीवी का परिचय प्रासंगिक होगा।
- सामान्य अर्थ में बुद्धि द्वारा जीविकोपार्जन करने वाला व्यक्ति ‘बुद्धिजीवी’ कहलाता है।परंतु बुद्धिजीवी के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है।महाभारत में कहा है कि “पंच महाभूतों से बनी वस्तुओं में प्राणी श्रेष्ठ है।प्राणियों में बुद्धिजीवी उत्तम है,बुद्धि से काम करने वालों में मनुष्य श्रेष्ठ है और मनुष्य में भी श्रेष्ठ है जिनकी बुद्धि जागृत है और जो उसका सदुपयोग करते हैं।” बुद्धि मानव के लिए एक श्रेष्ठ उपलब्धि है।कहना न होगा कि इस कम या अधिक क्षमता के अनुपात में ही व्यक्ति की बुद्धिमत्ता अर्थात् परोक्ष रूप से उसकी श्रेष्ठता व्यक्त होती है।यही कारण है कि महाभारत और मनुस्मृति में बुद्धिजीवी को प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ बताया गया है।मनुस्मृति में यह श्लोक निम्न है “भूतानां प्राणिनं श्रेष्ठा: प्राणिनां बुद्धिजीविन:।”
- हितोपदेश में दूसरों के मनोभावों को जानना ही बुद्धिमत्ता का लक्षण है:”परेंगित ज्ञान फला हि बुद्धय:।”
बुद्धिजीवी के लिए यह आवश्यक है कि सर्वप्रथम वह स्वयं को बुद्धि के आतंक से मुक्त करे।बुद्धि के आतंक से मुक्त होना मिथ्याभिमान से मुक्त होना है,ज्ञान के अहं से मुक्त होना है।बिना इसकी मुक्ति के बुद्धिजीवी अपने मूल लक्ष्य/उद्देश्य से नहीं जुड़ सकता।ईशावास्योपनिषद में तो ऐसे बुद्धिमानों को मूर्खों से भी अधिक मूर्ख कहा गया है:”अंधतम प्रविशन्ति वे अविद्यामुपासते।ततो भूय इ वते तमो य उ विद्यायां रताः।” अर्थात् स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर (ज्ञानेंद्रिय,मन,बुद्धि आदि) की उपेक्षा करके केवल कारण शरीर (आत्मिक उन्नति) की उन्नति चाहते हो तो अंधकार में पड़ना पड़ेगा क्योंकि बिना स्थूल और सूक्ष्म शरीरों के उन्नत हुए कारण शरीर को उन्नति प्राप्त नहीं हो सकती।और यदि कारण शरीर की उपेक्षा करके केवल कार्य शरीर (स्थूल व सूक्ष्म शरीरों) को उन्नत करना चाहते हो तो भी भविष्य अंधकार में होगा,क्योंकि इससे नास्तिकता उत्पन्न होगी जैसे चार्वाक और यूरोप के प्रकृतिवादी नास्तिक विद्वान।
3.बुद्धिजीवी का दायित्व (Intellectual’s Responsibility):
- बुद्धिजीवी का वैशिष्ट इसमें निहित है कि बुद्धि से उसका सरोकार केवल जीविकोपार्जन से नहीं है,सामाजिक हित,चिंतन से भी है।समाज में जो कुछ भी असामाजिक है,लोक मंगल रहित है तथा अकल्याणकारी है,उसकी ओर संकेत करना और केवल करना ही नहीं,वरन उसके विरुद्ध सामाजिक चेतना जगाना एवं उससे संघर्ष की शक्ति पैदा करना भी बुद्धिजीवी का मूल दायित्व है।उपनिषद में कहा है:
- “हिरण्यमयेन पात्रेण और सत्यस्यापिहितं मुखम।तत्वं पूषन्न प्रावृणु सत्य धर्माय दृष्टये।।” अर्थात् हे पूषण! हे ज्योति के देवता,सत्य धर्म की प्रतिष्ठा के लिए उसको उद्घाटित कर दो,क्योंकि सत्य का मुँह स्वर्ण के पात्र से ढँक दिया गया है।
- अतः “सत्य धर्माय दृष्टये” में ही बुद्धिजीवी का सामाजिक दायित्व निहित है।स्वामी विवेकानंद ने भी सत्यान्वेषण को बुद्धिजीवी का प्रमुख कर्त्तव्य माना है।साधारणतः गणितज्ञ,वैज्ञानिक,कवि,कलाकार,वैज्ञानिक,दार्शनिक,समाजशास्त्री,राजनैतिक चिंतक,शिक्षक और पत्रकार बुद्धिजीवी की श्रेणी में आते हैं।बुद्धिजीवी होने के नाते उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि उनकी व्यापक संवेदना सामाजिक हित चिंतन को अभिव्यक्ति देगी।
- भारत में सामाजिक दायित्व के प्रति बुद्धिजीवी की भूमिका का सवाल बहुत पुराना नहीं है।18वीं-19वीं शताब्दी से ही इस विषय पर चिंतन की परंपरा मिलती है।यह बात अलग है कि साहित्यकार चिंतक के रूप में दायित्व के प्रति बोध की एक सुदीर्घ परंपरा मिलती है,किंतु उसे हम एकांतिक परंपरा कह सकते हैं।वहाँ उपदेशात्मक की प्रवृत्ति अधिक है।एक सक्रिय चेतना का अभाव है,जो समाज में क्रियाशक्ति पैदा करती है।
- मुगलकाल के पतन व अंग्रेजों के भारत आगमन के बाद से ही सामाजिक परिवर्तन में बुद्धिजीवियों की सक्रिय भूमिका दृष्टिगोचर होती है।सती प्रथा,बाल विवाह,छुआछूत,जाति-पाति जैसी सामाजिक कुरीतियों के प्रति विवेकानंद,राममोहन राय,अंबेडकर जैसी विभूतियाँ सक्रिय रूप में हमारे सामने आती हैं।पूर्ण-स्वराज को लेकर क्रांति का बिगुल बजाने वाले बुद्धिजीवियों की संख्या बहुत है।राष्ट्रीय सांस्कृतिक गौरव को लेकर अरविंद जैसे लोग सामने आते हैं।
- बुद्धिजीवी को बुद्धि को सक्रिय करना न केवल स्वयं के हित में है बल्कि समाज व देश के हित में भी है।संसार में जो निपट मूर्ख है जो अत्यंत बुद्धिमान है अर्थात् जिन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया है,ये दोनों सुखी रहते हैं।परंतु इनके बीच के लोग क्लेश पाते रहते हैं।
निपट मूर्खों को भले-बुरे का,मान-अपमान का,गरीबी-अमीरी का,धर्म-अधर्म का,पाप-पुण्य का और दूसरों के सुख-दुःख का भान नहीं होता,इसलिए उनके मन में किसी तरह की चिंता उत्पन्न नहीं होती।वे सदा अपनी मौज में मस्त रहते हैं।दुनिया में कुछ भी हुआ करें इसकी उन्हें कोई परवाह नहीं होती। - दूसरी ओर,ज्ञानीजन भी सारे द्वन्द्वों से ऊपर होते हैं।गर्मी-सर्दी,जय-पराजय,निंदा-स्तुति,शुभ-अशुभ आदि बातें उनके मन को प्रभावित नहीं करते क्योंकि उनका अंतःकरण शुद्ध होता है।उनके सारे कार्य लोकमंगल के लिए अथवा मोक्ष प्राप्ति के लिए होते हैं।उनमें किसी के प्रति लेशमात्र भी दुर्भावना नहीं होती।इसलिए पाप-पुण्य का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
सुख का यहाँ अर्थ भौतिक सुखों से नहीं बल्कि आत्मिक सुख अर्थात् आत्म-संतोष है।मूर्ख आत्म-संतोषी तो नहीं हो सकता,संतोष की भावना से बे-खबर रहता है। - परंतु जो लोग न तो मूर्ख हैं और न ज्ञानी हैं,वे दुनिया के झंझटों से परेशान ही होते रहते हैं।भौतिक सुख-साधन होते हुए भी वे नाना प्रकार की चिताओं से ग्रस्त रहते हैं।
4.आज के बुद्धिजीवियों की स्थिति (The state of today’s intelligentsia):
- तात्पर्य यह है कि उन पराधीनता के क्षणों में देश का बौद्धिक वर्ग सामाजिक,राजनैतिक और आर्थिक परिवर्तन की उद्दाम आकांक्षाओं से पूर्ण था। इसके लिए उसके द्वारा किया गया प्रयास भी ऐतिहासिक था।आज हम अपने देश की जिन ऐसी हस्तियों पर गर्व कर सकते हैं,वे सब स्वतंत्रता पूर्व की देन हैं।
- वैज्ञानिक,गणितज्ञ,समाज सुधारक,राजनीतिक चिंतक,साहित्यकार,पत्रकार,शिक्षक सभी उस समय एक क्रांतिकारी ऊर्जा से संपन्न थे।उनके जीवन की सारी महत्त्वाकांक्षाएँ समाज से जुड़कर लोकमंगल की चिंताएं बन गई थीं।इन चिन्ताओं का समाधान करने में उन्होंने अपने जीवन का सब कुछ न्यौछावर करने में भी संकोच नहीं किया।वे किसी भी वर्ग के हों,किसी भी जाति के रहे हों,किसी भी राजनीतिक दल के सदस्य रहे हों अथवा किसी भी धर्म-संप्रदाय से जुड़े हों,उनकी सारी चेतना,उनका समस्त आचरण एवं उनकी संपूर्ण आशाएं सामाजिक कल्याण में केंद्रित थीं।
- देश के स्वतंत्र होते ही सामाजिक,राजनैतिक और आर्थिक क्षेत्रों में परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगे।स्वतंत्रता का उल्लास बौद्धिक वर्ग को अपने दायित्व से विमुख नहीं कर सका,बल्कि स्वतंत्र देश में सामाजिक दायित्व के प्रति उसका बोध और गहरा हो उठा।अब उसे अपने ही लोगों द्वारा किए गए अन्याय,भ्रष्टाचार और शक्ति प्रदर्शन के विरुद्ध विरोध का स्वर उठाना पड़ा।
- आज का बौद्धिक वर्ग अनेक सीमाओं में संकुचित होता जा रहा है।धर्म-संप्रदाय,राजनीतिक पार्टी,जाति वर्ग के स्वार्थ उस पर इतने हावी हो गए हैं कि सामाजिक हित में इनके विरुद्ध कुछ कहने की शक्ति उसमें चुकती जा रही है।राजनीतिक सत्ता के निरंतर केंद्रीयकरण की स्थिति में उसकी स्थिति बौने की सी कर दी है।पूंजीवादी शक्ति उसे अपना नौकर बनाने में सफल हो रही है,उधर सामाजिक परिवर्तन के प्रति निरंतर क्षीण होती हुई सामाजिक चेतना से भी वह कुंठित होकर अपनी उर्जा खो रहा है।
- सत्ता-शक्ति-मानसम्मान,पुरस्कार,अलंकरण के साथ बौद्धिक वर्ग का पहला अन्तर्द्वन्द्व हमें आपातकाल में दिखाई पड़ता है।उसके बाद से अब तक बुद्धिजीवियों के सामने बड़ी-बड़ी चुनौतियां हैं,किंतु चुनौतियां बढ़ती ही जा रही है,इसका कारण यह भी हो सकता है कि बुद्धिजीवी अपने दायित्व बोध के प्रति उदासीन हो रहा है अथवा शक्ति सत्ता सम्मान के मकड़जाल में फंसकर चेतना शून्य हो रहा है।सच्चा बुद्धिजीवी वही है,जो सुख-सुविधाओं का सत्य के उद्घोष के लिए त्याग कर सके।सत्यान्वेषण के लिए पद-कुर्सी को भी महत्त्वहीन समझे।वास्तव में ऐसे ही बुद्धिजीवियों का आचरण उनके कथ्य को समाज में प्रभावशाली बनाता है।आज गांधी की बात करने वाले बहुत है,विवेकानंद का उदाहरण देने वालों की कमी नहीं है,किंतु वैसा आचरण कितने लोगों में है? यही कारण है कि धर्म-संप्रदायों के झगड़े बढ़ते जा रहे हैं,भाषागत राजनीति एक ही प्रदेश में रहने वाले विविध भाषा-भाषियों के प्रति शत्रुभाव पैदा कर रही है,जाति-वर्ग राजनीति की शक्ति का स्रोत बनते जा रहे हैं,सामाजिक भ्रष्टाचार चुनावी मुद्दों तक सीमित होकर रह गए हैं,साहित्यकार वादों के चरागाह में मगन होकर जुगाली कर रहे हैं।
- सचमुच आज के बुद्धिजीवी वर्ग की स्थिति कहीं-कहीं अत्यंत संघर्षमय,कहीं अत्यंत विवशतापूर्ण,तो कहीं-कहीं अत्यंत निन्दनीय मोड़ों से गुजर रही है।एक कुहरा सा छाया हुआ है,किंतु हमें आशा करनी चाहिए कि यह कुहरा हटेगा,एक दिन अवश्य छँटेगा।
5.आज के विद्यार्थियों की स्थिति (The Status of Today’s Students):
- स्कूलों,कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में तकनीकी या उद्योगी शिक्षा के सिवाय अन्य सभी प्रकार की शिक्षाओं के शिक्षक तथा शिक्षार्थी वास्तव में व्यसनी और सैद्धांतिक शिक्षा ही अर्जित करते हैं क्योंकि ऐसी शिक्षा से देश में अकर्मण्य,बेरोजगारों की संख्या बढ़ रही है।इस शिक्षा का उपयोग नौकरियां हासिल करने के सिवाय और कुछ नहीं।यह शिक्षा नौजवानों को क्रियावान होना नहीं सिखाती।बल्कि इसके विपरीत वे हाथ-पांव के श्रम को हेय समझते हैं।
- इस प्रकार पुस्तकों का अध्ययन करना भी व्यसन और मूर्खता है,जब तक कि विद्यार्थी आचरणवान न बन सके।शिक्षा पर अमल न किया जाए तो वह शिक्षा न ओढ़ने के काम आती है और न बिछाने के।बहुत से छात्र-छात्राएं समझते हैं कि पुस्तकों का अध्ययन करके,डिग्री हासिल करके क्वालिफाइड होकर वे योग्य बन जाएंगे,उनका उद्धार हो जाएगा।बस कुकर्म,गलत
- धंधे,अय्याशी,नशेड़ी,चोरी,दंगे-फसाद,गलत धंधे करते रहो तो उनकी नैया पार हो जाएगी,बेड़ा पार हो जाएगा।इससे ज्यादा मूर्खता क्या हो सकती है?
- होना तो यह चाहिए कि विद्यार्थी जन्म से मृत्युपर्यंत सीख सकता है और उस पर आचरण या अमल कर सकता है।बचपन में माता-पिता से सीखता है।उन्हीं की भाषा बोलता है और उनके आचरण तथा व्यवहार की नकल करता है।कुछ बातें अनुभव से भी सीखता है।जैसे आग से हाथ जलने पर फिर आग के पास नहीं जाता।इसके बाद वह पाठशाला में गुरुओं से शिक्षा और ज्ञान प्राप्त करता है।किशोरावस्था में उसे बहुत से सहपाठी तथा साथ खेलने-कूदने वाले मिलते हैं।उसका अधिक समय इन्हीं के साथ बीतता है,इसलिए वह उनसे बहुत-सी बातें सीखता है।अच्छी संगति से अच्छी बातें और बुरी संगति से बुरी बातें सीखता है।बालकपन और किशोरावस्था में सीखी हुई बातों का प्रभाव जीवन भर रहता है,क्योंकि उस समय कोमल मस्तिष्क में जो छाप पड़ जाती है वह फिर वह बहुत मुश्किल से मिटती है।अतः विद्यार्थी माता-पिता अथवा गुरु की अपेक्षा अपने संगी-साथियों से अधिक सीख सकता है या सीखता है।
- विद्यार्थी ही नहीं सीखता बल्कि शिक्षक भी,विद्यार्थियों से सीख सकता है या सीखता है।शिक्षक के सामने अपने शिष्यों के तरह-तरह के चरित्र और व्यवहार उसके सामने आते हैं।इससे उसे मनुष्यों के स्वभाव का ज्ञान होता है।इसके अलावा शिष्य उससे तरह-तरह की समस्याएं उसके सामने रखते हैं,इन पर गुरु को विचार करना पड़ता है।प्रश्नों के उत्तर और समस्याओं के समाधान खोजने होते हैं।इससे उसके ज्ञान और अनुभव दोनों बढ़ते हैं।
- उपर्युक्त आर्टिकल में बुद्धिजीवी अपना दायित्व कैसे निभायें? (How Intellectuals Fulfill Responsibilities?),बुद्धिजीवी का प्रमुख दायित्व (Main Responsibility of Intellectuals) के बारे में बताया गया है।
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6.गणित में छात्र की पतली हालत (हास्य-व्यंग्य) (Student’s Thin Condition in Mathematics) (Humour-Satire):
- जगजीत:रंगनाथ यार,तूने तो कहा था कि गणित विषय तो बहुत सरल है,लेकिन मैं तो गणित विषय में फेल होने वाला हूं।
- रघुनाथ:बात यह है कि मैं तो यहां नया-नया आया हूं।मैंने सभी छात्र-छात्राओं को तेजी से सवाल करते हुए देखा था।वो तो फटाफट सवाल कर रहे थे।
7.बुद्धिजीवी अपना दायित्व कैसे निभायें? (Frequently Asked Questions Related to How Intellectuals Fulfill Responsibilities?),बुद्धिजीवी का प्रमुख दायित्व (Main Responsibility of Intellectuals) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:
प्रश्न:1.छात्राओं को वास्तव में बुद्धिजीवी बनने की क्या जरूरत है? (Why do students really need to become intellectuals?):
उत्तर:छात्र-छात्राओं को अपना व्यक्तिगत व पारिवारिक कर्त्तव्य निभाना ही पर्याप्त नहीं है क्योंकि वे समाज और देश से बहुत कुछ लेते हैं।अतः उन्हें समाज और देश को भी कुछ देना चाहिए।ऐसा वे तभी कर सकते हैं जबकि वे अपने जॉब को सीखने के साथ-साथ व्यावहारिक सामाजिक व देश के लिए क्या कर सकते हैं,इन सभी बातों को विद्यार्थी काल में सीखें।ऐसा तभी हो सकता है जबकि वे अपनी बुद्धि का सही विकास करेंगे।
प्रश्न:2.क्या डिग्री हासिल करके सामाजिक दायित्व पूरा कर सकते हैं? (Can you fulfill social obligations by getting a degree?):
उत्तर:केवल डिग्री हासिल करने से वे खुद का भला ही नहीं कर सकते तो समाज व देश का क्या हित करेंगे? नीति में कहा है कि मूर्खों से पुस्तकें,सत्साहित्य पढ़ने वाले श्रेष्ठ हैं,ग्रंथ पढ़ने वालों से ग्रंथ को धारण (स्मरण) करने वाले श्रेष्ठ हैं,धारण करने वालों से ज्ञानी (ग्रंथ को समझने वाले) श्रेष्ठ हैं और ज्ञानियों की अपेक्षा तदनुकूल आचरण करने वाले श्रेष्ठ हैं।अतः छात्र-छात्राओं को आचरणवान बनना चाहिए।
प्रश्न:3.बुद्धिजीवी होने के लिए क्या करना चाहिए? (What does it take to be an intellectual?):
उत्तर:बुद्धि को बढ़ाने के उपाय करने चाहिए।सद्बुद्धि धारण करना चाहिए।सद्बुद्धि आती है सत्संग,स्वाध्याय और अनुभव से,सत्य का साक्षात्कार करने से और स्वीकार करने से।जिस बात का हमें अनुभव नहीं होता वह बात हमारी अनुभूति नहीं होती जैसे गणित की पुस्तक पढ़ने से आप सवाल हल नहीं कर सकते हैं।सवाल हल करने के लिए अभ्यास करना होता है,बार-बार अभ्यास करना होता है।जागरूक रहकर,होशपूर्वक अभ्यास करने से सवालों को हल करने की योग्यता हासिल होती है।
- उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा बुद्धिजीवी अपना दायित्व कैसे निभायें? (How Intellectuals Fulfill Responsibilities?),बुद्धिजीवी का प्रमुख दायित्व (Main Responsibility of Intellectuals) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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Satyam
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