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How to Develop Best Form of Intellect?

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1 1.बुद्धि के सर्वश्रेष्ठ रूप का विकास कैसे करें? (How to Develop Best Form of Intellect?),बुद्धि के सर्वश्रेष्ठ रूप प्रज्ञा का विकास कैसे करें? (How to Develop Wisdom as Best Form of Intellect?):

1.बुद्धि के सर्वश्रेष्ठ रूप का विकास कैसे करें? (How to Develop Best Form of Intellect?),बुद्धि के सर्वश्रेष्ठ रूप प्रज्ञा का विकास कैसे करें? (How to Develop Wisdom as Best Form of Intellect?):

  • बुद्धि के सर्वश्रेष्ठ रूप का विकास कैसे करें? (How to Develop Best Form of Intellect?) अर्थात् बुद्धि के सर्वश्रेष्ठ रूप प्रज्ञा तक यात्रा कैसे करें? बुद्धि का सर्वश्रेष्ठ रूप प्रज्ञा (Wisdom) है।बुद्धि के इस सर्वश्रेष्ठ रूप को उपलब्ध हुए बिना बात बनती नहीं है।बुद्धि तीन प्रकार की होती है तामसिक,राजसिक और सात्त्विक।
  • जो अपने भले के लिए दूसरों को नुकसान पहुंचाते हैं वे तामसिक बुद्धि के होते हैं।जो अपना और दूसरों का भला सोचते और करते हैं वे राजसिक प्रवृत्ति के होते हैं।जो अपना भला भूलकर दूसरों को भला करते हैं वे सात्त्विक प्रकृति के होते हैं।अतः अपनी बुद्धि को शुद्ध करके सात्त्विक रखने का प्रयास करना चाहिए।
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2.बुद्धि का कार्य (The Work of Intellect):

  • बुद्धि का कार्य विश्लेषण करना है।तर्क करना उसकी सर्वोपरि विशेषता है।क्योंकि वह चीजों को समग्र रूप में नहीं,खंड-खंड रूप में देखती है,इसलिए उसे भेदबुद्धि भी कहते हैं।बुद्धि सत्य को नहीं देख पाती,क्योंकि इसे देखने के लिए यह अपने चश्मे का प्रयोग करती है और सत्य को किसी चश्मे से देखा नहीं जा सकता है।वह जैसा है,उसे वैसा ही देखने की आवश्यकता है,परंतु इस सत्य का साक्षात्कार प्रज्ञा (Wisdom) एवं विवेक से किया जा सकता है।ये बुद्धि की परिष्कृत अवस्थाएं हैं।बुद्धि प्रखर एवं परिमार्जित हो जाए तो यह धृति (धैर्य),मेधा,प्रज्ञा,विवेक तक पहुंच जाती है और समाधि में जाकर अस्तित्व की मूल सत्ता में विलीन हो जाती है।
  • बुद्धि दृश्य और दृष्टा के बीच भेद नहीं कर पाती है।दृश्य अर्थात् जिसे देखा जा रहा है और द्रष्टा का मतलब है,जो देख रहा है।जैसे हम सूर्योदय के विहंगम दृश्य को देख रहे हैं।यहां पर सूर्योदय का विहंगम दृश्य है और देखने वाले हम दृष्टा हैं।इन दोनों के बीच जितना प्रगाढ़ संबंध होगा,दृश्य के प्रति उतना अपनापन होगा।यही संबंध जब वस्तुओं में प्रगाढ़ हो जाता है तो हमें लोभ पैदा हो जाता है,क्योंकि फिर उसको लेने,प्राप्त करने की ललक पैदा होती है।फिर बुद्धि विश्लेषण करती है कि इसे ले ही लेना चाहिए।यदि यह संबंध किसी व्यक्ति के प्रति हो जाए तो इसे मोह कहते हैं।पिता अपने पुत्र के तमाम अक्षम्य अपराध को इसी मोहवश माफ कर देता है,परंतु दूसरों की छोटी-सी गलतियां के लिए बड़े से बड़ा दंड देने में नहीं हिचकता।
  • दृश्य और दृष्टा का संबंध कामना,वासना में सर्वाधिक रूप में जुड़ा होता है।वासना में लीन मन एवं बुद्धि घृणित विषयों में गहरा अनुराग एवं सौंदर्य का सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं।बुद्धि इसके संबंधों की यथार्थता के बीच की विभेदक रेखा को पहचानने में स्वयं को असमर्थ पाती है।वस्तुतः यहाँ बुद्धि की सीमाओं को स्पष्ट किया जा रहा है।यदि इसकी सीमा को विस्तृत एवं व्यापक कर दिया जाए तो हम चीजों को ठीक-ठीक रूप से ग्रहण कर सकते हैं।बुद्धि की तार्किक बौछारें कम हो जाएँ तो इसकी धारणाशक्ति बढ़ जाती है और इसे धृति (धैर्य) कहते हैं।
  • धृति कहते हैं धारणाशक्ति को।धारणाशक्ति का अंकुरण प्रारंभ होता है किशोरावस्था से और यह संयम के द्वारा परिपक्व होती है।धारणाशक्ति जितनी प्रबल होगी,कुशाग्रता उतनी प्रखर होती है।इससे बुद्धि उतनी ही समृद्ध एवं पैनी होती है।इसी धारणाशक्ति के बल पर प्राचीन समय में गुरुकुल के विद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थीगण वेद की ऋचाओं,उपनिषदों के मंत्रों से लेकर गीता,रामायण आदि तक न केवल कंठस्थ कर लेते थे,बल्कि उनका मर्म और अर्थ भी समझते थे।छात्रों में आज यह दुर्लभ घटना बन गई है।इसके पीछे कई कारण हैं,लेकिन प्रमुख कारण है:ब्रह्मचर्य का ह्रास।ब्रह्मचर्य से धारणाशक्ति में अत्यधिक वृद्धि होती है और मेघाशक्ति प्रखर होती है।
  • वर्तमान समय में विभिन्न कारणों से पिशाचों के समान सर्वव्यापी घोर असंयम से सर्वाधिक नुकसान विद्यार्थियों के कॉग्निशन (संज्ञान) पर पड़ा है।मस्तिष्क कमजोर हो गया है,जिससे उसकी संचालित करने वाली बुद्धि भी टूटी बिखरी है और अंततः धारणाशक्ति का अपार क्षय हुआ है।इसलिए आजकल औसत विद्यार्थी किसी गंभीर विषय से विचलित होते हैं और उससे दूर हटते हैं।यही परिणाम है कि सूचना तकनीकी के इस युग में पुस्तकों को पढ़ने में रुचि घट गई है और केवल सूचनाएँ एकत्र करने का माध्यम बन गई है।

3.बुद्धि से प्रज्ञा तक कैसे बढ़ते हैं? (How Do You Progress from Intellect to Wisdom?):

  • धारणाशक्ति बढ़ते ही मेघा प्रखर हो जाती है।धारणा से सूचनाएँ एकत्रित होती है और उसकी समझ भी होती है,परंतु इसमें कौन सी चीज स्वयं के लिए आवश्यक है,कौनसी बातें हमारे जीवन में उपयोगी है और पर्याप्त सूचनाओं में किसे अपने लिए चयन करना चाहिए,ये बातें मेधाशक्ति के लक्षण हैं।मेधावान व्यक्ति हंस के समान होता है,जो दूध और पानी में से दूध को ग्रहण कर लेता है।आज की सबसे बड़ी समस्या है कि संसार का आकर्षण हमें आकर्षित करता है और हम सम्मोहित होकर उस ओर अनायास चल देते हैं और जब उस इंद्रधनुषी एवं स्वप्निल जादुई सम्मोहन में अपने काम की चीज ढूंढनी हो तो बुद्धि काम करना बंद कर देती है,धारणा सहायक होने के बावजूद काम नहीं आती है।ऐसे में मेधाशक्ति ही काम देती है।मेधा ऐसी परिस्थितियों के लिए ही तो है।सामान्य परिस्थितियों में तो बुद्धि से काम चल जाता है।मेधा विकसित होने से बोध और समझ पैदा होती है।
  • मेधावी व्यक्ति कभी असफल नहीं होता; क्योंकि वह जानता है कि किस कार्य को करने से सफलता मिलती है और किसे करने से असफलता।वह असफलता वाले कार्य को छोड़कर सफल होने वाले कार्य को अपना लेता है।मेधा सदैव विधेयात्मक चिंतन करती है,इसलिए वह कभी भी द्वन्द्वात्मक स्थिति में नहीं रहती।द्वंद तो बुद्धि की विशेषता है।मेधा परिष्कृत होती है तो प्रज्ञा प्रकट होती है।प्रज्ञा कहते हैं प्रकाशित बुद्धि को।रात के अंधेरे में चीजें स्पष्ट नहीं होती,धुंधली दिखाई देती हैं और यह धुंधलापन भ्रम एवं विक्षेप पैदा करता है।प्रज्ञा प्रकट होने पर दिन के उजाले के समान सब कुछ साफ-साफ और स्पष्ट दिखाई देने लगता है।प्रज्ञा के उदय होते ही जीवन में भ्रम नहीं रहता।इस स्थिति में शब्द स्वयंमेव अपने भाव प्रकट कर देते हैं।
  • प्रज्ञा की स्थिति में संवेदना इतनी सघन हो जाती है कि सब कुछ शीशे के समान साफ हो जाता है।यहां पर चित्त में जन्मातरों से जड़ जमाए विषय गिरने लगते हैं।जैसे-जैसे यह विक्षेप गिरने लगते हैं,वैसे-वैसे चित्त स्वच्छ होता जाता है।प्रज्ञा गहरा बोध कराती है और बोध सघन संवेदना का परिणाम है।कहा जाता है,चरक जब औषधि खोजने के लिए वन में विकलतापूर्वक घूम रहे थे तो सारी औषधियाँ उनसे अपने गुण-धर्म को स्वयं प्रकट कर देती थी।प्रज्ञा के परे और पार भी अनेक स्थितियां हैं,जो चित्त को स्वच्छ और परिमार्जित करके पाई जा सकती हैं।प्रज्ञा में समग्र बोध नहीं होता।यह समग्रता समाधि में उपलब्ध होती है।यह समाधि का विषय है।यहां पर साधक समग्रता का बोध करता है।
  • बुद्धि से लेकर प्रज्ञा तक की यह यात्रा किसके सहारे और किस प्रकार तय की जाए,यह एक बड़ा प्रश्न है।प्रश्न यह भी है कि इस पथ पर बढ़ने वाले साधक को कौन निर्देश देगा? इसके समाधान के लिए ज्यादा दूर तक जाने की जरूरत नहीं है और न अधिक भटकने की बात है।स्वाध्याय,सत्संग और अध्ययन करते रहने पर इस स्थिति तक एवं इसके पार पहुंचा जा सकता है।इन सबको अपनाने की जरूरत है,बताने भर से काम नहीं चल सकता है।यह प्रवचन का विषय नहीं है,बल्कि आत्म-मंथन का है।जो इन पर अमल करते हैं,कर सकते हैं भगवान उनका मार्गदर्शन करने के लिए सदा ही तत्पर रहते हैं।

4.प्रज्ञा पर आधारित महत्त्वपूर्ण प्रश्न एवं उत्तर (Important Questions and Answers Based on Wisdom):

प्रश्न:1.मार्गदर्शन का श्रेष्ठ तरीका कौनसा है? (What is the Best Way of Guidance?):

  • उत्तर:आमतौर पर बात जब मार्गदर्शन की आती है तो तलाश बाहर की जाती है।किसी व्यक्ति अथवा किसी सद्ग्रंथ के पन्ने टटोले जाते हैं।सामान्य तरीका यही है और किसी सीमा तक औचित्यपूर्ण भी,परंतु एक मार्ग ओर भी है,वह है,अंतर्प्रज्ञा की खोज।इस अंतर्प्रज्ञा के रूप में स्वयं भगवान प्रत्येक हृदय में निवास करते हैं।
  • जो इस रूप में उनकी पहचान अपने हृदय में कर लेता है,उसके लिए अनायास ही समाधान के द्वार खुल जाते हैं।उसके लिए प्रज्ञावन व्यक्तियों का संग-साथ सानिध्य सहज सुलभ हो जाता है।उसके लिए सद्ग्रंथ स्वयं ही बोध का वरदान देने लगते हैं।यदि इसके विपरीत हृदय में अंतर्प्रज्ञा के कपाट न खुले हों तो सब कुछ मिलकर भी कुछ नहीं मिल पाता।स्वयं भगवान की उपस्थिति भी उसे विनाश से नहीं बचा पाती।अपनी नासमझी में वह विकास को विनाश तथा विनाश को विकास समझ लेता है।यह नासमझी उसे कभी भी भ्रांति की भंवर से बचने-उबरने नहीं देती।

प्रश्न:2.भ्रम और भटकाव की स्थिति क्यों पैदा होती है? (Why Does Confusion and Disorientation Arise?):

  • उत्तर:अंतर्प्रज्ञा के अभाव में ना तो विवेक होता है और और न ही सद्विचार पनपते हैं।उचित-अनुचित का भेद उसे पता नहीं चलता है।बस,लालसाएँ उसे जिधर मोड़ती है,वह उधर ही मुड़ता है।कामनाएं उसे जिस ओर प्रेरित करती हैं,वह उधर ही प्रवर्तित होता है।वासनाओं के अंधे तूफान उसे दिशाविहीन बनाकर जिधर-किधर उड़ाते रहते हैं।ऐसे में बड़ा ही हास्यास्पद बना रहता है उसका जीवन।ऐसा हो भी क्यों न? आखिर वह जीवन के सुपथ और उसके प्रकाश से वंचित जो है।
  • अंतर्प्रज्ञा ही जीवन के पथ का प्रकाश है।इसी के द्वारा जीवन के रहस्यों का खुलासा होता है।इसी से व्यक्ति को अपने व्यक्तित्त्व का बोध होता है।उसे पता चल पाती है,स्वयं की क्षमताएं और उनके उपयोग की विधि।उसे अब तक के भ्रमों,भटकावों व भुलावों का एहसास होता है।उसे अनुभूति होती है कि वह इतने दिनों तक बेवजह ही भटकता-भ्रमित होता रहा।अंतर्प्रज्ञा के प्रकाश में अंधेरा उजाले में बदलता है।जीवन के एहसास,अनुभूतियां अब तक की सोच,अचानक व अनायास ही बदल जाती है।फिर सब कुछ स्पष्ट व साफ-साफ दीखने लगता है,समझ में आने लगता है।

प्रश्न:3.प्रज्ञा से मार्गदर्शन की क्या विशेषता है? (What is the Speciality of Guidance From Wisdom?):

  • उत्तर:व्यक्ति आमतौर पर अपनी समस्याएं बुद्धि के द्वारा हल करने का प्रयास करता है।समस्याओं के कारण व उनके समाधान बाह्य जगत में खोजने की कोशिश करता है।इस प्रयास में बुद्धि के अनेकों रूप सामने आते हैं।कभी चतुरता-चालाकी उभरती है,तो कभी कुटिलता व षड्यंत्र सामने आते हैं।सही सोच,तर्क की सही दिशा और औचित्यपूर्ण दिशा बोध प्रायः नहीं ही उभर पाता।
  • जबकि प्रज्ञा से जो समाधान पाए जाते हैं,उनमें कहीं भी नकारात्मकता या निषेध का भाव नहीं होता।सदा ही उनमें सकारात्मकता व विधेयक भाव ही रहता है,परंतु इससे समाधान पाने के लिए जरूरी है,भावनाओं का विक्षोभरहित होना और मन का सदा ही द्वन्द्वरहित होना।साथ ही इस सबके साथ जरूरी हो जाती है चित्त की निर्मलता।अंतर्प्रज्ञा का सान्निध्य केवल उन्हीं के लिए है,जो स्वच्छ मन वाले हैं,जिनके भावों में सहजता व सरलता है,जिनके विचार कलुषमुक्त हैं,जो ऐसे हैं,केवल उन्हीं में अंतर्प्रज्ञा की प्रभा प्रकाशित होती है।
  • इससे मिलने वाले समाधान हमेशा तर्क से परे व पार,किंतु सर्वदा औचित्यपूर्ण होते हैं।इनमें सम्यक दृष्टि व दिशा की झलक दिखाई देती है।इनका प्रयोग व इनके परिणाम हमेशा ही जीवन को उत्कृष्ट बनाते हैं।जबकि सामान्य बुद्धि के प्रयास तो प्रायः ही जीवन को निष्कृष्टता के गर्त में धकेलने वाले होते हैं।

5.बुद्धि का दृष्टांत (The Parable of Wisdom):

  • गणित का एक विद्यार्थी कोचिंग से घर लौट रहा था।रास्ते में दो बदमाशों ने उसको पकड़ लिया।थोड़ी दूर पर खड़े उसके मित्र ने कहा कि रास्ते में ही क्यों अटक गए,क्या करने लग गए? विद्यार्थी ने कहा कि यार कुछ बदमाशों ने पकड़ लिया है और इन्हें पता नहीं कि मेरे पिताजी एसपी (पुलिस अफसर) हैं और अभी आने ही वाले हैं।तुम फोन करके जल्दी से यहां आने के लिए बोल दो।
  • इतना कहते ही बदमाशों के होश ठिकाने लग गए।उन्होंने विद्यार्थी को छोड़ दिया और रफूचक्कर हो गए। इस प्रकार बुद्धिबल के आधार पर विद्यार्थी बदमाशों के चंगुल से छूट गया।अगर विद्यार्थी घबरा जाता और सद्बुद्धि,धैर्य और साहस से काम न लेता तो विद्यार्थी के पास जो कुछ भी रूपए-पैसे होते उसे ले लेते।हो सकता था उसका अपहरण कर लेते या जान से भी मार सकते थे ।
    इस प्रकार विपत्ति के समय जिसकी बुद्धि नष्ट नहीं होती वह बचाव का कोई ना कोई रास्ता निकाल ही लेता है; कोई ना कोई बचाव का रास्ता सूझ ही जाता है।
    उपर्युक्त आर्टिकल में बुद्धि के सर्वश्रेष्ठ रूप का विकास कैसे करें? (How to Develop Best Form of Intellect?),बुद्धि के सर्वश्रेष्ठ रूप प्रज्ञा का विकास कैसे करें? (How to Develop Wisdom as Best Form of Intellect?) के बारे में बताया गया है।

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6.सवाल तेजी से हल होने का कारण (हास्य-व्यंग्य) (Reason Why Questions Are Solved Faster) (Humour-Satire):

  • दो मूर्ख स्कूल में गणित के सवाल हल कर रहे थे।स्कूल की छुट्टी होने वाली थी।तभी पहले ने दूसरे से कहा:यार ये सवाल इतनी तेजी से हल (गलत हल) क्यों हो रहे हैं?
  • दूसरा बोला:भाई स्कूल की छुट्टी होने वाली है।क्या इन्हें अपने घर नहीं जाना है।

7.बुद्धि के सर्वश्रेष्ठ रूप का विकास कैसे करें? (Frequently Asked Questions Related to How to Develop Best Form of Intellect?),बुद्धि के सर्वश्रेष्ठ रूप प्रज्ञा का विकास कैसे करें? (How to Develop Wisdom as Best Form of Intellect?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:4.मन में सामंजस्य की स्थिति कैसे निपटें? (How to Deal with a State of Disharmony in the Mind?):

उत्तर:बिगड़ी हुई स्थितियों को सँवारने का तरीका एक ही है जीवन के रहस्यों से सुपरिचित हों।साथ ही आंतरिक व बाहरी असामंजस्य को सामंजस्य में बदलें।इसके लिए चाहिए सही समझ,सही सोच,सम्यक दिशा बोध,जो केवल उचित मार्गदर्शन से ही संभव है
।यह मार्गदर्शन मिलता है प्रज्ञा से,सद्बुद्धि से।

प्रश्न:5.ज्ञान से क्या तात्पर्य है? (What Do You Mean by Knowledge?):

उत्तर:ज्ञान सिर्फ नॉलेज होने को नहीं कहते हैं बल्कि वास्तविक ज्ञान को विजडम (Wisdom) यानी प्रज्ञा कहते हैं।प्रज्ञा ज्ञान का सर्वश्रेष्ठ रूप है।अनुभव व बोध के साथ जब कोई जानकारी प्राप्त होती है तब मात्र ज्ञान नहीं रह जाता,प्रज्ञा हो जाता है।

प्रश्न:3.सद्गुण प्राप्त करने की प्राथमिक शर्त क्या है? (What is the Primary Condition for Acquiring Virtue?):

उत्तर:विनम्रता रहित व्यक्ति के ज्ञान आदि गुण नष्ट हो जाते हैं यह उसकी विपत्ति है और विनयी को ज्ञान आदि गुणों की प्राप्ति होती है यह उसकी संपत्ति है।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा बुद्धि के सर्वश्रेष्ठ रूप का विकास कैसे करें? (How to Develop Best Form of Intellect?),बुद्धि के सर्वश्रेष्ठ रूप प्रज्ञा का विकास कैसे करें? (How to Develop Wisdom as Best Form of Intellect?) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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