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How to Cultivate Precious Life?

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1.अनमोल जीवन को कैसे सँवारे? (How to Cultivate Precious Life?),आत्मबोध और तत्त्वबोध का व्यावहारिक महत्त्व (Practical Importance of Self-Realization and Metaphysics):

  • अनमोल जीवन को कैसे सँवारे? (How to Cultivate Precious Life?) में आत्मबोध और तत्त्वबोध बिल्कुल अलग नजर आते हैं परन्तु हम देखेंगे कि आत्मबोध और तत्त्वबोध आपस में एक-दूसरे से कैसे अन्तर्सम्बन्धित हैं।विद्यार्थी को न केवल इन्हें समझना होगा बल्कि इनका विधिपूर्वक उपयोग करना होगा।
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2.आत्मबोध और तत्त्वबोध (Spiritual and fleshly realization):

  • हमारे जीवन में हर दिन नया जन्म-हर रात नई मौत का पैगाम लेकर आते हैं और इसे जानने के लिए अपने आप को जानना (आत्मबोध) और शरीर का बोध होना ही तप और साधना है।प्रातः काल उठते ही आत्मबोध की साधना करनी चाहिए।प्रतिदिन यह भावना जाग्रत करनी चाहिए कि आज हमने एक नवीनतम जन्म धारण किया है।यह जन्म मात्र एक दिन के लिए है,अतः इसका श्रेष्ठतम उपयोग कर लेना चाहिए।रात्रि को सोते समय यह भाव रखना चाहिए कि जीवन के एक अध्याय का पटाक्षेप हुआ,अब मृत्यु जैसी शांति को हृदयंगम करना है।रात्रि निद्रा को दैनिक मृत्यु माना जाए।इन दो साधनाओं में गहरा मनोवैज्ञानिक एवं आत्मिक लाभ समाहित है।
  • आत्मबोध का अर्थ हैःअपने उद्गम,स्वरूप,उत्तरदायित्व एवं लक्ष्य को भलीभाँति समझना तथा उसके अनुरूप अपने दृष्टिकोण एवं समस्त क्रियाकलापों का निर्धारण करना।तत्त्वबोध का तात्पर्य हैःशरीर,इसके उपयोग एवं अंत के संबंध में समुचित ढंग से परिचित होना।संसार की वस्तुओं एवं उससे संबंधित व्यक्तियों के रिश्तों में मिली हुई भ्रम एवं भ्रांतियों को हटाना-मिटाना तथा इसके परिप्रेक्ष्य में बरती जाने वाली नीति का नए सिरे से मूल्यांकन करना।यही इन दोनों साधनाओं का सार है। संक्षेप में कहें तो हमारे अस्तित्व को यथार्थ रूप से समझना आत्मबोध और इसके काम आने वाले पदार्थों एवं प्राणियों के साथ उचित सामंजस्य स्थापित करना तत्त्वबोध कहलाता है।इस साधना का मर्म है।इस मर्म में अनगिनत रहस्य ढके और ढँपे पड़े हैं,जिनको अनावृत्त कर अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं।
  • आत्मबोध तत्त्वबोध की साधना जीवन को समझने तथा इसका बेहतरीन उपयोग करने के लिए सर्वोत्कृष्ट साधना है।आत्मबोध की साधना प्रातः काल नींद खुलते ही आरंभ हो जाती है और रात में सोने तक चलती है।दिनचर्या का श्रेष्ठतम उपयोग ही इस साधना का प्राण है। जब यह पता हो जाता है कि जीवन एक दिन के लिए है तो उस दिन का उपयोग आलस्य और प्रमाद में व्यतीत ना करके पूरे मनोयोगपूर्वक किसी श्रेष्ठ कार्य में किया जाता है।आत्मबोध की साधना में यही भाव दृढ़तापूर्वक अपनाया जाता है।आलस्य और प्रमाद तभी पनपते हैं,जब यह मनोवृत्ति रहती है कि छोड़ो अभी तो आराम कर लें,काम पीछे होता रहेगा,परंतु जब ट्रेन छूट रही हो और ट्रेन में अपनी कीमती वस्तुएं पड़ी हों तो व्यक्ति अपनी पूरी ताकत के साथ ट्रेन को पकड़ने के लिए दौड़ता है,वहां वह किसी प्रकार की कोताही नहीं बरतता है।वहां कोताही करने का मतलब है:अपनी वस्तुओं से वंचित हो जाना।यह साधना ठीक ऐसी ही है।समय और काल अपनी गति के अनुरूप किसी की प्रतीक्षा किए बगैर गतिमान है और वह भी मिला है,केवल एक दिन के लिए।ऐसे में कोई भी समय का सार्थक उपयोग करने से चूकेगा।

3.जीवन अनमोल है (Life is precious):

  • जीवन का हर पल-हर क्षण अनमोल है।पता नहीं किस क्षण में सौभाग्य का उदय होकर जीवन के क्षितिज में चमक उठेगा।समय का समुचित उपयोग एक दिन के लिए करना है और उस दिन में जो कुछ जो कर सकते हैं,अपने संपूर्ण मनोयोगपूर्वक करना है।यह पुरुषार्थ है,जिसे तपस्या भी कह सकते हैं।समय ही जीवन है,श्रम ही संपत्ति है,इस मंत्र को पूरी तरह ध्यान में रखा जाए।निर्धारित समय विभाजन में अनिवार्य अड़चन आ पड़े तो बात दूसरी है,अन्यथा यथासंभव पूरा करने का ही प्रयत्न करना चाहिए।अतः आवश्यक है कि समय का निर्धारण,पल,क्षण,घंटे से लेकर दिन तक करना चाहिए।आवश्यक कार्यों को सर्वोपरि प्रामाणिकता देकर अन्य कार्यों को सुनियोजित तरीके से निपटाना चाहिए।मनोरंजन के लिए,थकान मिटाने के लिए,बीच-बीच में थोड़ा-थोड़ा उचित अवकाश अवश्य दिया जा सकता है,परंतु गपशप,मटरगश्ती आदि आलस्य,प्रमाद में समय व्यर्थ न जाए,इसका कड़ाई से ध्यान रखना चाहिए।
  • कार्य समयबद्ध एवं सुनियोजित तरीके से करना चाहिए।यही समय प्रबंधन है तथा श्रम का समुचित सुनियोजन है।कोई भी कार्य किया जाए,उसे पूरे मनोयोगपूर्वक किया जाए तथा श्रम के साथ किया जाए।समय निकल जाने पर उस कार्य का कोई अर्थ नहीं होता है।समय के साथ ही उसकी महत्ता एवं प्रासंगिकता जुड़ी हुई होती है।जो इस तथ्य को समझते हैं,कार्य को कर्मयोग के समान,साधना के समान संपादित करते हैं।काम का स्तर अच्छा रहना,इस बात पर निर्भर है कि उसे पूरे मनोयोग के साथ,पूरी जिम्मेदारी से अपनी कुशलता और सतर्कता का समुचित समावेश करते हुए संपन्न किया जाए।जिस कार्य को उत्साहपूर्वक पूरी रुचि के साथ किया जाएगा,उसमें समय एवं श्रम कम लगेगा तथा मन प्रसन्नता से भर उठेगा।ध्यान रहे बे-मन से किया गया कार्य भारवत एवं बोझिल होता है,जिसे ना तो किया जा सकता है और न छोड़ा ही जा सकता है।यही असफलता का कारण है।सफलता,उसमें सन्निहित होती है जिस कार्य को प्रतिष्ठा मानकर किया जाता है।वर्तमान कॉर्पोरेट सेक्टर तथा अत्याधुनिक इनफॉरमेशन टेक्नोलॉजी की प्रगति एवं विकास का इतिहास भी यही है।काम को काम के समान करना चाहिए।
  • प्रातः उठते ही हमें अपनी संतुलित दिनचर्या निर्धारित करनी चाहिए।इस दिनचर्या में इस बात का समावेश होना चाहिए कि कोई भी ऐसा काम,जो हमारी अंतरात्मा को धिक्कारता हो,बोझ बनता हो उसे त्याग देना चाहिए।सदैव आदर्शवादी दृष्टिकोण अर्थात् ऐसी दृष्टि जो हमारा विकास करे तथा दूसरे को हानि न पहुंचाए,रखनी चाहिए।अनीति एवं त्वरित लाभ पहुंचाने वाले स्वार्थपरक दृष्टिकोण को लेकर किए जाने वाले कार्य भले ही उपयोगी क्यों न लगते हों,परंतु अंततः उनका परिणाम नुकसानदेह ही होता है।वह स्वयं को हानि पहुंचाता है तथा समाज की दृष्टि से भी हितकारी होता है।सामान्य कार्यों को भी यदि लोकहित और आत्मकल्याण के आदर्शवादी सिद्धांतों का समावेश करते हुए किया जाए तो वे कर्मयोग की श्रेणी में गिने जाते हैं और प्रत्यक्षतः परमार्थ न लगते हुए भी लगभग वैसे ही उद्देश्य की पूर्ति करते हैं।अतः हर कार्य में ईमानदारी,सच्चाई,कर्त्तव्यपरायणता और सद्भावना का समावेश होना चाहिए।इन्हीं भावों से किया हर कार्य नैतिक होता है,लोकोपयोगी होता है।ये कार्य स्वयं को सुकून देते हैं तथा औरों को भी लाभान्वित करते हैं।

4.स्वयं पर पैनी नजर रखें (Keep a close eye on yourself):

  • अच्छे,श्रेष्ठ,शुभ कार्य करते हुए भलमनसाहत भरा जीवनयापन किया जा सके तो उस क्रियाकलाप को कर्मयोग की संज्ञा दी जा सकती है।यह कर्मयोग आत्मबोध का आधार है।इस क्रियाकलाप में कुसंस्कारों की प्रबलता,उच्छृंखलता एवं अनैतिकता कहीं नहीं ठहरती है,क्योंकि कर्मयोगी अभ्यस्त दुष्प्रवृत्तियों से हर घड़ी जूझते रहने के लिए जागरूक एवं सजग प्रहरी के समान होता है और वह अवांछनीयता का अपने क्रिया-कृत्य एवं चिंतन में तनिक भी समावेश ना होने पावे इस पर पैनी नजर रखता है।दिनभर यह ध्यान रखा जाए कि आज का दिन हमें अपना कल्याण करते हुए दूसरों का भला करना चाहिए।किसी की भावना को ठेस न पहुंचे तथा किसी के प्रति तीखा व्यंग्य ना करें।इसका भी ध्यान रखना चाहिए।प्रातः काल इसी आधार पर दिनभर का कार्यक्रम बनाया जाए और उस पर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ रहा जाए।निस्संदेह संकल्प के अनुरूप वह दिन ऐसा ही व्यतीत होगा,जिस पर गर्व एवं संतोष व्यक्त किया जा सके।
  • रात्रि को सोते समय यह मानकर निद्रा देवी की गोद में समा जाना चाहिए कि इस देह,मन और बुद्धि से सर्वोत्तम कार्य संपन्न हुआ है और इसका हमें संतोष है। दैनिक निद्रा को चिरनिद्रा मृत्यु के समतुल्य मानकर चलना चाहिए।शय्या पर जाते ही कल्पना करनी चाहिए कि हर रात नई मौत है।अब मरण काल आ गया है और इसका बड़ी ही प्रसन्नतापूर्वक स्वागत करना है।एक दिन का जीवन अब समाप्त हो चला।निद्रारूपी मृत्यु अपने अंचल में प्राण को ढक लेने के लिए निकट आ गई।इस भाव की सहायता से मृत्युरूपी आशंकित एवं भयभीत कल्पना तिरोहित होती है तथा मरण त्यौहार के समान प्रतीत होता है।मृत्यु अर्थात अवसान एक अज्ञात भय है। यह भय हमें आशंकित एवं सशंकित बनाए रखता है।
  • यक्ष-युधिष्ठिर संवाद के समान नित्य मरते हुए देखकर भी इंसान स्वयं को इस कड़ुई सच्चाई से दूर रखता है और सोचता है कि कोई कितनी भी अनीति-अत्याचार करे,वह कभी मर नहीं सकता।वह सदा अमर है और अमर रहेगा।यह भ्रांति वह अपने शरीर को लेकर करता है।और शरीर की सुख-सुविधा के लिए वह अपनी समस्त ऊर्जा,शक्ति,साधन-संपदा खर्च कर डालता है।मृत्यु का भय इस मनःस्थिति को और भी आतंकित करता है।अतः धीरे-धीरे इस भय से मुक्त होकर अंततः मृत्यु की गोद में आनंदपूर्वक जा सके,इसलिए तत्त्वबोध की साधना करनी चाहिए।
  • नित्य सोते समय अपनी मृत्यु की अनुभूति को और सघन किया जाए तो मनुष्य स्वयं को शरीर का नहीं,बल्कि जीवात्मा का आवरण मानने लगता है।इसी भावबोध से वह शरीर की सुख-सुविधा जुटाने से विरत होकर उत्कृष्ट कार्य में निरत होने लगता है।शरीर उपकरण मात्र है और यह आत्मा के उच्च क्रियाकलाप पूरे करने भर के लिए मिला है।इन्द्रियों की वासना और मनोगत तृष्णा,अहंता जैसे क्षुद्र कार्यों में यह अलभ्य अवसर नष्ट हो जाए और आत्मिक लक्ष्य पूरा न हो सके तो यह एक भयानक दुर्घटना ही कही जाएगी।इस प्रकार सोच सकना तभी संभव होता है,जब मृत्यु को सिर पर खड़ा देखा जाए।इसके बिना आत्मविस्मृति की खुमारी ही छाई रहती है और मौजमस्ती करते हुए एक दिन गुजारने के अतिरिक्त और कुछ सूझ नहीं पड़ता है।लक्ष्यभ्रष्ट जीव के लिए लोभ और मोह की पूर्ति करते रहना ही परम प्रिय बना रहता है।तत्त्वबोध इस मोह से उबारता है तथा जीव को आत्मिक प्रगति के पथ पर आरूढ़ रखता है।
  • सोते समय मृत्यु को सहचरी की तरह साथ लेकर सोया जाए तो वह सद्गुरु की तरह जीवन का मूल्य,स्वरूप एवं सदुपयोग इतनी अच्छी तरह समझाती है,जितना कोई अन्य ज्ञानी-विज्ञानी भी नहीं समझा सकता।इन घड़ियों में बैरागी की,अनासक्त कर्मयोगी की भावनाएं मन में भरी रहनी चाहिए।बैरागी-संन्यासी उसे कहते हैं,जो किसी भी चीज पर अपना स्वामित्व का अधिकार छोड़ देता है।वह उपनिषद के उस दृष्टांत को अपनाता है जो कि इस आत्मिक-पथ पर अग्रसर करता है।सर्प के कराल दाढ़ में फंसकर मेंढक की भाँति वह किसी कीड़े-मकोड़े को खाने के लिए दौड़ता नहीं है।इस चिंतन से विवेकदृष्टि उपलब्ध होती है।कर्त्तव्य पालन ही अपनी आकांक्षा बनकर रह जाता है।
  • प्रातः काल उठते ही एक दिन के लिए मिला जीवनरूपी सौभाग्य और उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग की बात मनः क्षेत्र पर भली प्रकार उभारी जाए।आंख खुलने से लेकर शय्या त्यागकर जमीन पर पैर रखने तक को नए जीवन की प्रसन्नता और उसके बेहतरीन प्रयोग की सुव्यवस्था बनाने की बात ही सोचे एवं उसे क्रियान्वित करते रहा जाए।सायं-संध्या के लिए,रात्रि को सोते समय हर रात नई मौत को अंतःक्षेत्र में भावनापूर्वक चित्रित किया जाना चाहिए।यह संवेदना जितनी गहरी होगी,प्रतिक्रिया उतनी ही प्रखरतापूर्वक उभरेगी।इस प्रकार कि उठते समय की आत्मबोध और सोते समय की तत्त्वबोध साधना को व्यावहारिक जीवन को प्रभावित करने वाली उच्चस्तरीय साधना कहा जा सकता है।इस साधना को दैनिक जीवन में अपनाकर जीवन के रहस्य एवं मर्म को जाना जा सकता है तथा उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग किया जा सकता है।

5.छात्र-छात्राओं के लिए उपयोगी (Useful for students):

  • छात्र-छात्राओं के लिए आत्मबोध और तत्त्वबोध की क्या आवश्यकता है और यह उनके लिए उपयोगी कैसे हो सकता है।जिस व्यक्ति को आध्यात्मिक यात्रा करनी हो या जिनका लक्ष्य आध्यात्मिक हो उनके लिए यह उपयोगी हो सकता है परंतु जिन छात्र-छात्राओं का लक्ष्य सांसारिक हो,जाॅब प्राप्त करना हो और व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करना हो उनके लिए यह उपयोगी कैसे हो सकता है? वस्तुतः आत्मबोध या अध्यात्म व्यापक अर्थ लिए हुए हैं इसमें व्यावहारिक,सांसारिक उन्नति के साथ-साथ आत्मोन्नति भी जुड़ी हुई है।यों सांसारिक और आत्मिक प्रगति अलग-अलग दिखाई पड़ती है परन्तु इन दोनों की उन्नति आत्मानुभव के बिना नहीं की जा सकती है।
  • आप अपनी शक्तियों का जागरण ही नहीं करोगे,अपनी सुप्त शक्तियों का पता ही नहीं लगा सकोगे तो फिर उन्नति कैसे,किस क्षेत्र में कर सकोगे।आत्मबोध में यह चीज,बात भी सम्मिलित है कि अपनी खासियत पहचानें,अपनी रुचि व क्षमताओं को पहचानें और फिर लक्ष्य तय करके उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्राणप्रण से जुट जाएं।हमें अंतर्बोध होता है तो भटकने के मौके नहीं रहते हैं जबकि आत्मिक शक्ति को अनुभव किए बगैर जब हम आगे बढ़ते हैं तो मार्ग में आने वाले प्रलोभनों या बाधाओं से भटक जाते हैं।
  • इस लेख में मरने और जन्म लेने की रोजाना कल्पना करने के लिए क्यों कहा जा रहा है? इसके कुछ कारण हैं।पहला अंतर्बोध तभी होता है जब हमारे अंदर अहंकार नहीं होता है।अहंकारवश प्राप्त की गई सफलता असली सफलता नहीं है बल्कि विनम्रता धारण करने पर प्राप्त की गई सफलता ही वास्तविक और स्थायी सफलता है।दूसरा मरने की कल्पना करने से हम हमारी सारी शक्तियों को एकजुट करके लक्ष्य प्राप्ति में अपने आपको पूरी तरह झोंक देते हैं और उसे शीघ्र प्राप्त करने में जुट जाते हैं।तीसरा हम मरने की कल्पना मात्र से होशपूर्वक काम करते हैं।हमारी गफलत,लापरवाही,आलस्य,प्रमाद आदि समाप्त हो जाते हैं।अतः ऐसे मरने की कल्पना यदि हमें हमारे लक्ष्य तक पहुंचाती है,हमारी गफलत आदि को समाप्त करती है तो बढ़िया है।आज ही जन्म लेने की कल्पना से हम जल्दी से जल्दी बहुत कुछ सीख लेना चाहते हैं ताकि हम पिछड़े नहीं,उन्नति कर सकें और लक्ष्य प्राप्ति की योग्यता हासिल कर सकें।जल्दी-जल्दी सीख लेने का अर्थ उतावलापन नहीं होता है।उतावलेपन में हम धैर्य नहीं रखते हैं और बिना योग्यता के सब कुछ हासिल कर लेना चाहते हैं।फल पकने पर ही पेड़ फल देता है,इसी प्रकार जब हम किसी लक्ष्य पर चल पड़ते हैं तो योग्यता,क्षमता हासिल करके परिपक्व हो जाते हैं तभी हमें सफलता,लक्ष्य हासिल होता है तब तक धैर्यपूर्वक पुरुषार्थ करते रहना पड़ता है,कई अवरोधों का सामना करना पड़ता है और घोर संघर्षों से लक्ष्य की प्राप्ति होती है।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में अनमोल जीवन को कैसे सँवारे? (How to Cultivate Precious Life?),आत्मबोध और तत्त्वबोध का व्यावहारिक महत्त्व (Practical Importance of Self-Realization and Metaphysics) के बारे में बताया गया है।

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6.आत्मबोध के उपदेश से नींद (हास्य-व्यंग्य) (Sleep Through Preaching of Self-realization) (Humour-Satire):

  • एक मित्रःमेरा आत्मबोध और तत्त्वबोध पर प्रेरक वृतांत कैसा लगा?
  • दूसरा मित्र:मैं सुन नहीं सका,मुझे नींद आ गई थी।कहां से उठाकर लेकर आए हो ऐसा टॉपिक।अरे कोई पिक्चर की स्टोरी सुनाते,कुछ ग्लैमरस बातें बताते,कुछ रोमांस की बातें बताते तो मजे से सुनते और बड़ा मजा आता।मैं ही नहीं मेरे आस-पास के सभी लोग झपकियां ले रहे थे या उठकर जा रहे थे।

7.अनमोल जीवन को कैसे सँवारे? (Frequently Asked Questions Related to How to Cultivate Precious Life?),आत्मबोध और तत्त्वबोध का व्यावहारिक महत्त्व (Practical Importance of Self-Realization and Metaphysics) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्नः

प्रश्न:1.बोध का क्या अर्थ है? (What does realization mean?):

उत्तर:आत्मानुभूति,आत्मिक ज्ञान को बोध कहा जाता है।साधारण तथा व्यावहारिक रूप से हम किसी वस्तु,व्यक्ति आदि के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए बोध का प्रयोग करते हैं।

प्रश्न:2.आत्मिक बोध कैसे होता है? (How is spiritual realization achieved?):

उत्तर:एक तो ज्ञानी को ज्ञान के द्वारा समर्पण से होता है तथा भक्त को भक्ति से बोध होता है।

प्रश्न:3.चाहत और क्षमता के साथ क्या जरूरी है? (What is necessary with desire and ability?):

उत्तर:चाहत और क्षमता के साथ समझदारी भी होनी चाहिए कि क्या अच्छा है क्या बुरा है।समझदारी यानी नियम या सिद्धांत का ज्ञान ना हो तो चेष्टा ही नहीं की जा सकती।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा अनमोल जीवन को कैसे सँवारे? (How to Cultivate Precious Life?),आत्मबोध और तत्त्वबोध का व्यावहारिक महत्त्व (Practical Importance of Self-Realization and Metaphysics) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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