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How to Develop Right Life-Vision?

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1.सही जीवन-दृष्टि कैसे विकसित करें? (How to Develop Right Life-Vision?),जीवन में सही जीवन-दृष्टि का विकास कैसे करें? (How to Develop Right Life-View?):

  • सही जीवन-दृष्टि कैसे विकसित करें? (How to Develop Right Life-Vision?) क्योंकि जीवन-दृष्टि को विकसित किए बिना सही दिशा में सोचने,समझने की समझ विकसित नहीं होती है।हम साधन-संपन्न होते हुए भी कष्ट-कठिनाइओं का सामना करने में अक्षम रहते हैं।जीवन जीने की कला में कुशल न होने के कारण हर समस्या,संकट में परमुखापेक्षी बन जाते हैं।
  • यों जिंदगी तो सभी छात्र-छात्राएं और लोग जीते ही हैं परंतु कुछ तो समान परिस्थितियों,विकट परिस्थितियों को हंसते-खेलते गुजारते हैं जबकि दूसरे उन्हीं परिस्थितियों,विकट परिस्थितियों को रोते-कलपते गुजारते हैं।ऐसा क्यों होता है,स्पष्ट है कि दोनों की परिस्थितियों को देखने का नजरिया भिन्न-भिन्न है।
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2.जिंदगी की शुरुआत सही ढंग से करें (Start Your Life the Right Way):

  • जिंदगी तो सभी जीते हैं लेकिन यह जरूरी नहीं है कि सभी इसको सही तरीके से जीते हों।सही तरीके से जीने के लिए जिंदगी की शुरुआत सही तरीके से,सही लक्ष्य के लिए होनी चाहिए।जैसे किसी छात्र-छात्रा का लक्ष्य गणित विषय से एमएससी करके तथा गणित में शोध करने का है।अब यदि डिग्री प्राप्त करने के लिए वह गलत तरीके अपनाता हैं,प्रश्न-पत्र धन देकर प्राप्त कर लेता है,परीक्षा में नकल करता है या डिग्री ही धन देकर अर्जित कर लेता है यहीं से उसकी शुरुआत में चूक जाता है।ऐसी स्थिति में सही जीवन-दृष्टि विकसित नहीं होती है,स्वयं के प्रति तथा अन्य लोगों के प्रति नजरिया ही अस्पष्ट है,गलत है तो जिंदगी की सही शुरुआत नहीं हुई।
  • जीवन-दृष्टि का संबंध सही समझ,सही विचार प्रणाली और सही रूप में अपने अंतःप्रवृत्तियों की पहचान करने से है और हमारे चित्त व चित्त-संस्कारों की प्रकृति से है।इसके साथ ही जिस वातावरण में हम रहते हैं व जिन आदर्शों को हम जीते हैं,वे भी हमारी जीवन-दृष्टि को अत्यंत प्रभावित करते हैं।
  • यदि छात्र-छात्राएं अपने दैनिक क्रियाकलाप,हर गतिविधि पर पैनी नजर रखते हैं तथा उत्तरोत्तर अपने नजरिए को विकसित करते हैं,जहां त्रुटि होती है उसमें सुधार करते जाते हैं तो जीवन की शुरुआत सही ढंग से हो रही है,ऐसा समझा जाना चाहिए।
    जीवन-दृष्टि का निर्माण उन एहसासों से होता है,जिन्हें हम स्वयं के प्रति तथा अपने समाज,संबंधों व परिवेश से जुड़ी संवेदनशीलता के द्वारा ग्रहण करते हैं।यह संवेदनशीलता जैसे-जैसे गहरी होती जाती है,वैसे-वैसे हमारे एहसास तीव्र होते जाते हैं और हमारे नजरिए को प्रभावित करते हैं।एहसासों के तीव्र और सघन होने पर हमारी जीवन-दृष्टि में सूक्ष्मता,पैनापन और स्पष्टता विकसित होती चली जाती है।ऐसी सुविकसित जीवन-दृष्टि के प्रकाश में ही हम जिंदगी की सही शुरुआत कर सकते हैं।
  • एक सफल जीवन जीने के लिए सच्चा और कुशल मार्गदर्शन केवल विकसित जीवन दृष्टि से ही प्राप्त होता है।हमारे जीवन में इसे गढ़ने वाले प्रेरक-कारक तत्त्व चाहे जो भी हों,किंतु जीवन-दृष्टि ही वह तत्त्व है,जो हमें सही जीवन लक्ष्य का बोध कराती है।एक बार यदि इसकी उपलब्धि हो जाए,इसका प्रकाश आत्मचेतना के केंद्र से जुड़ जाए तो फिर स्वयं और संसार के जीवन का सच समझने में देर नहीं लगती।मन-भावों पर छाया सारा अज्ञान,सब अनजानापन,सारी भ्रांतियां इसके प्रकाश में तिरोहित हो जाती हैं।जीवन चेतना में एक नई क्रांति,एक नए रूपांतरण की प्रक्रिया घटित होने लगती है।ऐसे,जैसे इस जीवन ने फिर से जन्म लिया हो,भीतर और बाहर सभी जगह,सब कुछ नया स्पष्ट और व्यापक दीखने लगता है।

3.सही जीवन-दृष्टि के विकास की तकनीक (Techniques for Developing the Right Life-vision):

  • जीवन-दृष्टि के विकास की दो अत्यंत व्यापारिक तकनीकें मौजूद हैं।पहली है आत्मनिरीक्षण एवं आत्म-मूल्यांकन और दूसरी भावनात्मक विकास से संबद्ध है।छात्र-छात्राएं जो भी दिनभर क्रियाकलाप करते हैं उन समस्त गतिविधियों का रात्रि को सोते समय 5 मिनट तक सूक्ष्म निरीक्षण करें और पता लगाएं कि कहां त्रुटि हुई है,कहां कमी रह गई है और उसका किस प्रकार सुधार किया जा सकता है।प्रातः काल उठने पर संकल्प लें कि वैसी त्रुटियाँ और गलतियाँ ना होने पाएँ।इस प्रकार प्रतिदिन अपना आत्म-निरीक्षण एवं आत्म-मूल्यांकन करना सरल उपाय भी है और इसके चमत्कारी परिणाम भी मिलते हैं।
  • दूसरा व्यक्ति यदि हमें हमारी त्रुटियां और गलतियां बताता है तो हमारा अहंकार बाधक बन जाता है।जो छात्र-छात्राएं और व्यक्ति दूसरों द्वारा हमारी गलतियाँ बताने पर सुधार करते हैं,उनमें अहंकार नहीं होता है और ऐसे व्यक्ति विरले ही होते हैं।
    हमारे शरीर-संचालन की प्रक्रिया में जो महत्त्व नेत्रों का है,वही महत्त्व जीवन की गतिशीलता में आत्म-मूल्यांकन का है।नेत्र यदि बंद हों तो आस-पास के सभी दृश्य,वस्तुएं अंधकार के गर्त में छिपे रहते हैं,परंतु नेत्र खुलते ही सब प्रत्यक्ष दीखने लगते हैं।ठीक ऐसे ही आत्म-मूल्यांकन के बगैर हमारी जिंदगी की सब क्षमताएं,विशेषताएं भीतरी तमस के अंधकार में सुप्त पड़ी रहती है।लेकिन जब आत्म-मूल्यांकन रूपी मनोनेत्र से हम स्वयं को देखते हैं तो हमें भीतर की सभी विशेषताएं,योग्यताएं और अनेक विभूतियाँ दिखाई पड़ने लगती हैं।
  • अपने ही भीतर अपने आपे का नया परिचय,नया जीवन दीखने लगता है।वस्तुतः यही हमारा सच्चा परिचय-सच्चा जीवन होता है,जिसे हम केवल आत्म-मूल्यांकन के मार्ग पर चलकर ही प्राप्त कर सकते हैं।आत्म-मूल्यांकन की प्रक्रिया सही जीवन-दृष्टि के विकास का प्रथम और अनिवार्य पहलू है।संक्षेप में कहें तो आत्म-मूल्यांकन से ही जीवन-दृष्टि का आरंभ होता है।
  • जीवन-दृष्टि के विकास की तकनीक में दूसरा क्रम भावनात्मक विकास का है।भावनाएं तो सभी में हैं,परंतु इसका दायरा अत्यंत सीमित व संकीर्ण होता है।भावनात्मक संकीर्णता हमारी जीवन-दृष्टि को बौना बनाती हैं,अतः इससे उबरकर ही हम आगे बढ़ सकते हैं।नियमित उपासना हमारे भावनात्मक विकास को शिखर तक पहुंचाने में समर्थ है।रुचि और परिस्थिति के अनुसार जितने भी समय की उपासना संभव हो; किंतु वह हो नियमित,तो इसका हमारी भाव-संवेदना पर चमत्कारी प्रभाव पड़ता है।पर हां! यहां उपासना का तात्पर्य मात्र कुछ पूजा-पाठ,कर्मकांड ना होकर अपने इष्ट-आराध्य के श्रेष्ठ गुणों अथवा श्रेष्ठतम विचारों,भावों व्यक्तित्वों का नियत,नियमित सान्निध्य है।ऐसी उपासना से ही हमारी भावनाएं परिशोधित होती हैं और इस परिष्कृत और विस्तृत भाव-संवेदना से ही हमारी जीवन-दृष्टि में गहनता,दूरदर्शिता और मजबूती आती है। साथ में उपासना का आध्यात्मिक लाभ तो होता ही है।
  • आत्मबोध व तत्त्वबोध (अपने अस्तित्व का बोध) से हम अपना सच्चा परिचय पाते हैं,स्वयं का नजरिया पैदा करते हैं व जीवन-दृष्टि का अपने भीतर बीजारोपण करते हैं और नियमित उपासना के जल से इस जीवन-दृष्टि का सिंचन कर उसे विकसित और व्यापक बनाते हैं।इस तरह आत्म-मूल्यांकन और भाव-संवेदना के विकास की समन्वयात्मक तकनीकें अपनाकर ही हम अपनी सच्ची जीवन-दृष्टि प्राप्त कर सकते हैं।तो फिर क्यों ना हम जीवन-दृष्टि के विकास हेतु बताई तकनीकों पर आज से ही चलना प्रारंभ कर दें।

4.आत्म-मूल्यांकन में बाधा (Barrier to Self-evaluation):

  • आत्म-मूल्यांकन,आत्म-निरीक्षण एकांत में कर पाना अधिक सरल और श्रेष्ठ है।कारण यह है कि दिनभर कोलाहल,शोर-शराबा तो रहता ही है साथ ही हम भी स्कूल-कॉलेज,जॉब करने की भाग-दौड़ और जीवन के अन्य कार्यकलाप,गतिविधियां करने में लगे रहते हैं,ऐसी स्थिति में मन एकाग्र नहीं हो पाता है।परंतु रात्रि को सोते समय संपूर्ण कार्यों से मुक्त रहते हैं,कोई भाग-दौड़,जल्दबाजी नहीं रहती है,कोई शोर-शराबा,कोलाहल नहीं रहता है,वातावरण शांत,शुद्ध रहता है अतः एकाग्रता सध जाती है।मन एकाग्र होता है तो निष्पक्षतापूर्वक हम हमारे क्रियाकलापों,गति गतिविधियों,अध्ययन कार्य,जाॅब तथा अपने नियत कर्त्तव्यों का मूल्यांकन कर पाते हैं।
  • जैसे गंदले पानी में हमारा अक्ष या गंदे दर्पण में हमारा अक्ष स्पष्ट दिखाई नहीं देता है वैसे ही शोर-शराबे,कोलाहल,मन की बँटी हुई शक्ति,बिना एकाग्रता के हमारे क्रियाकलापों का स्पष्ट चित्र मन रूपी दर्पण पर दिखाई नहीं देता है।हालांकि बाहरी शोर-शराबा व कोलाहल न होने का यह मतलब नहीं है कि हम हमारा आत्म-मूल्यांकन निष्पक्ष रूप से कर ही लेंगे।यदि मन संसार में भटक रहा है,मन सोते और उठते समय भी सांसारिक प्रपंचों में उलझा हुआ है तब भी आत्म-मूल्यांकन करना सम्भव नहीं है।
  • बाहरी शोर-शराबा व कोलाहल शांत होने से ज्यादा जरूरी है मन की एकाग्रता,मन की शान्ति,मन का डांवाडोल न होना,मन का चंचल न होना तभी हम सही आत्म-मूल्यांकन कर सकते हैं और निष्पक्ष आत्म-मूल्यांकन से सही जीवन-दृष्टि को विकसित किया जा सकता है।
  • प्रारम्भ में आत्म-मूल्यांकन करना और भावनाओं में परिपक्वता लाना थोड़ा कठिन है परन्तु जैसा कि गीता में कहा है अभ्यास और वैराग्य से मन को वश में किया जा सकता है।मन को एकाग्र करने के लिए धैर्य रखना जरूरी है और सजग होना भी जरूरी है क्योंकि सजगता के बिना ही तो मन इधर-उधर भटकता है।
  • जैसे कोई रोगी किसी रोग से ग्रस्त हो जाता है तो वह जल्दी से जल्दी ठीक होना चाहता है और वह एलोपैथिक दवाइयां लेता है जिससे उसे तुरंत राहत महसूस होती है परंतु जब उस दवा का साइड इफेक्ट होता है तो नया रोग पनप जाता है या वही रोग अधिक वेग से अपना प्रभाव दिखाता है।
  • मन को एकाग्र करने,आत्म-मूल्यांकन व आत्मनिरीक्षण में शीघ्र ही परिणाम दिखाई नहीं दे तो जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए बल्कि धैर्यपूर्वक सतत यह प्रक्रिया जारी रहनी चाहिए।परंतु होता यह है कि हम निराश,हताश हो जाते हैं,हम उत्साहित नहीं हो पाते हैं।साथ ही यह सोचने लगते हैं कि यह तकनीक कोरी कल्पना मात्र है,इनमें समय बर्बाद करना है और कुछ दिन करके छोड़ देते हैं।
  • एक अन्य बाधा है हमारी बहानेबाजी।हमें कोई इन तकनीकों पर चलने का परामर्श देता है तो हम छूटते ही उसे कहते हैं कि उसके पास तो इतना समय ही नहीं है कि वह आत्म-मूल्यांकन व आत्म-निरीक्षण कर सके।परंतु इस बात में भी कोई दम नहीं है क्योंकि इसमें सुबह व रात्रि को कुल मिलाकर 5 से 10 मिनट देनी है जो कि 24 घंटे में देना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है।अतः मन की बुरी आदतों,मन की गुलामी,मन के विकारों से मुक्त होना जरूरी है तभी इन तकनीकों का परिणाम मिलता है और जीवन-दृष्टि विकसित होती है।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में सही जीवन-दृष्टि कैसे विकसित करें? (How to Develop Right Life-Vision?),जीवन में सही जीवन-दृष्टि का विकास कैसे करें? (How to Develop Right Life-View?) के बारे में बताया गया है।

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5.गणित में छात्र फेल (हास्य-व्यंग्य) (Student Fail in Mathematics) (Humour-Satire):

  • अभिभावक ने गणित शिक्षक को शिकायत करते हुए कहा कि आपकी इतनी अच्छी प्रसिद्धि सुनकर छात्र को कोचिंग करवाया था परंतु वह तो फेल हो गया।
  • गणित शिक्षक (हैरान होकर):”अच्छा जी,मुझे तो पहले ही शक हो गया था कि….. “
  • अभिभावक:कैसे?
  • गणित शिक्षक:कोचिंग में क्लास लेते समय वह अपनी नींद पूरी करता था।

6.सही जीवन-दृष्टि कैसे विकसित करें? (Frequently Asked Questions Related to How to Develop Right Life-Vision?),जीवन में सही जीवन-दृष्टि का विकास कैसे करें? (How to Develop Right Life-View?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.हमारे जीवन का व्यवहार कैसा है? (How is Our Life Behaved?):

उत्तर:वर्तमान में हम जो जीवन जी रहे हैं,वह आधा-अधूरा व अपूर्ण है।यही वजह है कि सभी में अपने अधूरेपन को पूरा करने की कशिश व कोशिश दिखाई देती है।हरेक को अनुभूति होती रहती है अपनी अपूर्णता की,परंतु इसके सही स्वरूप व प्रयास की सही दिशा से प्रायः सबके सब अपरिचित हैं।इसी कारण हम इस अधूरेपन को दूर करने के जितने प्रयास जितने तीव्र होते हैं,अपूर्णता कि तृषा उतनी ही बढ़ जाती है।ऐसा होता है,केवल सही दिशा व सही विधि का बोध न होने के कारण।इस संबंध में जो प्रयास किए जाते हैं उनकी यात्रा बाह्य होती है।संपूर्ण प्रयास बाह्य यात्रा विज्ञान की दिशा व दायरे में किए जाते हैं,जबकि जरूरत इस उल्टे को उलटकर सीधा करने की है।बाह्य यात्रा विज्ञान को अंतर्यात्रा विज्ञान में परिवर्तित किया जाना है।भौतिक विज्ञान को अध्यात्म विज्ञान में रूपांतरित होना है।

प्रश्न:2.मन पर संयम व असंयम का क्या परिणाम होता है? (What Are the Consequences of Restraint and Incontinence on the Mind?):

उत्तर:मन चंचल हो तो इसे अस्थिरता,चिंता व अवसाद-विषाद घेरे रहते हैं।इसके विपरीत यदि मन स्थिर हो तो जीवन में स्थिरता,शांति,प्रसन्नता का अमृत प्रसाद मिलता है।मन के रूपांतरण से ही योग की साधना सिद्ध होती है।

प्रश्न:3.मन पर संयम क्यों आवश्यक है? (Why is Restraint on Mind Necessary?):

उत्तर:संयम से ही समग्र व्यवस्था का ज्ञान होता है।तो पहले व्यवस्था का ज्ञान,तत्पश्चात इस व्यवस्था की क्रियाशीलता का या गतिमयता का ज्ञान।गति का अनुभव केवल उसी चीज के परिप्रेक्ष्य में हो सकता है,जो स्थिर हो।अगर कुछ भी स्थिर न हो तो गतिशीलता को जाना नहीं जा सकता।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा सही जीवन-दृष्टि कैसे विकसित करें? (How to Develop Right Life-Vision?),जीवन में सही जीवन-दृष्टि का विकास कैसे करें? (How to Develop Right Life-View?) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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