Art of Building Students in Teachers
1.अध्यापक में छात्र-छात्राओं के निर्माण की कला (Art of Building Students in Teachers),अध्यापक द्वारा छात्र-छात्राओं का निर्माण (Teacher Creating Students):
- अध्यापक में छात्र-छात्राओं के निर्माण की कला (Art of Building Students in Teachers) होनी चाहिए क्योंकि छात्र-छात्रा को शिक्षा,ज्ञान देकर उसका कायाकल्प करता है।परंतु आज के कई शिक्षक दुर्व्यसन बीडी-सिगरेट,शराब आदि का सेवन करते हैं तो सिर शर्म से झुक जाता है।
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2.आज के युग के एक शिक्षक का दृष्टांत (A parable of a teacher of the present age):
- कोई ग्रामीण सज्जन अपने पुत्र (शिक्षक) के पास जो उनके गांव के पास एक कस्बे में अध्यापक थे,आए।ग्रामीण सज्जन के पुत्र सीनियर सेकेंडरी स्कूल में पढ़ाते थे।एक शाम जब वे कस्बे के बाहर नदी तट पर घूमकर लौटे,तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि उनका बेटा (शिक्षक) अपने मित्र के साथ कमरे में बैठा सिगरेट का धुँआ बड़ी शान के साथ उड़ा रहा है और गप्पे लड़ाने के साथ निर्लज्ज हंसी-मजाक भी कर रहा है।आश्चर्य इसलिए कि आज तक उन्होंने ऐसे शब्द अपने बेटे (शिक्षक) के मुंह से नहीं सुने थे और किसी ने शिकायत भी नहीं की कि आपका बेटा सिगरेट पीता है तथा इतनी निर्लज्ज हंसी-मजाक भी किया करता है।
- सोचा,दोस्त के चले जाने पर इस विषय में बात करूंगा।यहां के वातावरण में वह अपने आप को इस कदर गिरा दे और वह भी अध्यापक होते हुए,यह तो बहुत गलत बात है।यदि उसके विद्यार्थियों को यह पता चल जाए तो उनके हृदय में क्या सम्मान रहेगा अपने शिक्षक का।उक्त ग्रामीण सज्जन को विद्यालय देखने और पढ़ने का बहुत कम वर्षों तक ही अवसर मिला था और उन्हें इस अवधि में एक क्षण भी ऐसा याद नहीं आ रहा था कि जब सुना हो कि मास्टर जी बीड़ी पी रहे थे या किसी से गप्पे लड़ा रहे थे।
- मित्र के चले जाने पर पुत्र से पूछकर ही उन्होंने चैन लिया।परंतु चैन क्षण भर तक ही मिल पाया था-उस क्षण तक ही जब तक कि उन्होंने अपने पुत्र (शिक्षक) से पूछी गई बात का उत्तर नहीं सुन लिया था।पुत्र (शिक्षक) ने पिता के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा था-“पिताजी आप तो उस जमाने की बात करते हैं जब एक अध्यापक मुश्किल से 20-25 छात्रों को पढ़ाया करता था और छात्र श्रद्धावश अपने गुरु के लिए दूध-मलाई-घी और न जाने क्या-क्या तरावट की चीजें भेंट में लाया करते थे।आज तो एक मास्टर 50-60 लड़कों की क्लास लेता है और आधुनिक सभ्यता में उसका दिमाग कितना तनावग्रस्त हो जाता है।इस बात का आपको पता ही नहीं है।इस तनाव से छुटकारा पाने के लिए मुझे मजबूर होकर यह सब करना पड़ता है।”
- पुत्र (शिक्षक) के जवाब ने पिता को निरुत्तर कर दिया और सीधा-सादा ग्रामीण अपने बेटे (शिक्षक) की बातों का जवाब खोजने में अपने आप को असमर्थ पा रहा था।लेकिन इसके बावजूद भी अध्यापक पुत्र ने अपना भाषण बंद नहीं किया और इन शब्दों के बाद पुत्र ने जो बात कही,उसे सुनकर तो ग्रामीण को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था।अध्यापक (पुत्र) ने कहा था-रही छात्रों की बात तो उनकी श्रद्धा शिक्षकों पर रत्तीभर भी नहीं रही है।जरा सा भी सख्त व्यवहार किया अध्यापक ने,किसी विद्यार्थी से कि मारपीट हो जाती है।आपको नहीं मालूम पिताजी कि छात्रों से कैसे व्यवहार करना पड़ता है।आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जिसे आप अभी मेरा (शिक्षक) मित्र समझ रहे थे वह मेरा स्टूडेंट है।
- क्या-वृद्ध ग्रामीण लगभग चीख-सा उठा-वह तुम्हारा छात्र था और तुम्हारे साथ सिगरेट पी रहा था।
‘नहीं’।वह मेरे साथ नहीं पी रहा था-पुत्र (शिक्षक) ने व्यंग्य की-सी हंसी हंसते हुए कहा-“वह तो बेचारा चुपके-चुपके सब लोगों से नजर बचाकर किया करता है।” और पिता ने बड़े निराश होकर कहा नजर बचाकर ही सही पीता तो है।पिएगा क्यों नहीं जिस व्यक्ति (शिक्षक) के हाथ में समाज ने उसके (छात्र) निर्माण का दायित्व सौंपा है,वही (शिक्षक) गलत हो गया हो तो क्यों नहीं पिएगा।
3.आज के अध्यापकों की स्थिति (The Status of Today’s Teachers):
- उपर्युक्त घटना उस पीढ़ी के कई वृद्धजनों की आप बीती है,जिन्हें किसी ऐसे अध्यापक का पिता होना पड़ा जो अध्यापक को मात्र जीविका का साधन या व्यवसाय भर समझता है।यद्यपि सभी शिक्षकों को इस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता,फिर भी ऐसे शिक्षकों की संख्या कम नहीं है जो शिक्षा दान को किसी दुकानदारी की तरह समझते हैं।
- आधुनिकता के ज्वार और पाश्चात्य सभ्यता के संस्कारों ने स्वतंत्रता के बाद हमारे देश में और भी अनर्थकारी प्रभाव दिखाया है।यही कारण है कि कई शिक्षक छात्रों से अपना संबंध केवल दो व्यवसायियों का सा मानते हैं।शिक्षक नियत समय पर स्कूल में उपस्थित हो जाए,नियत अवधि में अपना पाठ्यक्रम पूरा कर दे और नियत मात्रा में नोट्स लिखवा दे-इतने मात्र से अपने दायित्व को भलीभाँति पूरा कर रहा है,नहीं कहा जा सकता।
- अध्यापकों को समाज ने,राष्ट्र ने एक महानतम उत्तरदायित्व सौंपा है जो,उन्हें पाठ्य-पुस्तकों के शिक्षक के रूप तक जानकारी भर देने वाले व्यक्ति तक ही सीमित नहीं रहने देता।यदि यही बात हुई होती कि अध्यापकों के माध्यम से छात्रों को विश्व की जानकारियों,साहित्य की धाराओं और सामाजिक गतिविधियों से अवगत ही करना है,तो यह आवश्यकता केवल पुस्तकों से ही पूरी की जा सकती थी।अक्षर ज्ञान तो परंपरागत रूप से परिवार का ही कोई सदस्य भी करवा सकता था।
- लेकिन नहीं! अध्यापक महज जानकारियों का साधन ही नहीं है,उससे भी गुरुत्तर दायित्व शिक्षक को सौंपा गया है और वह है छात्रों को एक अच्छे और सच्चे नागरिक के व्यक्तित्व का स्वामी बनाने का।इस प्रकार अध्यापक मात्र विद्या के शिक्षक ही नहीं परोक्ष रूप से संपूर्ण राष्ट्र के सर्वमान्य तथा मूल नेता है।नेता का प्रमुख कर्त्तव्य है कि वह जनता को समुचित जीवन जीने की कला का मार्ग सुझाए और ऐसे मार्गों का ज्ञान कराएँ जिन पर चलकर समाज उन्नति तथा विकास की मंजिलें पूरी करता हुआ सुख-शांति की दिशा में अग्रसर हो सके।
- लेकिन आज अध्यापक अपने इस गुरुतम उत्तरदायित्व को भलीभाँति कहाँ निभा पा रहे हैं।छात्र वर्ग आज बड़ा उद्दंड,उच्छृंखल और अनुशासनहीन है इसके अन्य अनेकों कारणों के साथ-साथ एक कारण यह भी है कि अध्यापक वर्ग अपने इस महानतम दायित्व को स्वीकार करने तथा उसे निष्ठापूर्वक पूरा करने में संकोच कर रहा है।छात्रों की बढ़ती जा रही समस्याओं और अध्यापकों की निरपेक्षता के बहुत से कारण हैं।इन कारणों में से एक तो यह हो सकता है कि अध्यापक को वह वांछित वातावरण नहीं मिल पा रहा है,जो छात्र निर्माण के लिए आवश्यक है।दूसरा यह हो सकता है कि अध्यापक अपनी सीमाओं में स्वतंत्र नहीं है।यह भी कहा जा सकता है कि राष्ट्र का ढांचा इतना बिगड़ गया है,जिससे बेचारे अध्यापक को भी प्रभावित होना पड़ रहा है।
- इन परिस्थितियों में भी कई अध्यापक ऐसे हैं जो अपने दायित्व के प्रति जागरुक है तथा ईमानदारी और कर्त्तव्यनिष्ठा से ओत-प्रोत हैं।लेकिन नया अनर्थकारी दृष्टिकोण अपनाए रहने वालों की भी कमी नहीं है।अध्यापकों के वर्ग की गरिमा और महत्ता से परिचित समाज का हितचिंतक शिक्षकों की ओर ही आशाभरी दृष्टि से देखता है और अपेक्षा करता है कि आज के अन्धकार भरे समय में राष्ट्र का निर्माण करने के लिए वे ही प्रकाश की किरणें बनकर आगे बढ़ेंगे।
4.छात्र-छात्राओं के चरित्र का निर्माण अध्यापक द्वारा ही संभव (Character building of students is possible only by the teacher):
- यह भी एक तथ्य है कि छात्रों का चरित्र-निर्माण अध्यापक जितनी आसानी से कर सकते हैं,उतनी आसानी से और कोई अन्य सामाजिक अथवा राष्ट्रीय नेता गण नहीं कर सकते हैं।अन्य नेता तो क्या छात्रों पर जितना प्रभाव अध्यापकों का पड़ सकता है,उतना तो अभिभावकों का भी नहीं होता।कई घरों में बच्चे माता-पिता से ‘मास्टर जी तो ऐसा कह रहे थे’ कहते हुए मतभेद व्यक्त करते हुए पाए जाते हैं।
- इसलिए कहना नहीं होगा कि छात्रों को सही दिशा-निर्देश देने के लिए अध्यापकों को स्वयं अपना आत्म-निरीक्षण करना होगा कि उनके अपने व्यक्तित्व और स्वभाव का छात्रों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है? छात्रों के व्यक्तित्व निर्माण का दायित्व ध्यान में है भी या नहीं? या हम भी केवल अध्यापन को जीविकोपार्जन का साधन भर मानते हैं।विद्यार्थी हमारे स्वयं के व्यक्तित्व से क्या प्रेरणा और प्रभाव ग्रहण करते हैं।यदि उन्हें अनुशासित नागरिकता,कर्त्तव्यनिष्ठा और श्रमशीलता की प्रेरणा नहीं मिलती है तो हमारे व्यक्तित्व में कौनसी कमियाँ हैं जो दूर करनी चाहिए,हटायी जानी चाहिए।निष्पक्ष आत्मावलोकन और स्वयं के व्यक्तित्व गठन में तत्परता,कर्त्तव्यनिष्ठा अध्यापन की पहली कसौटी है।अन्यथा शिक्षक और एक दुकानदार में क्या अंतर है जो पैसों के लिए अपनी वस्तुएं चाहे जैसी हों बेचा करता है।
- भारत की भावी पीढ़ी को अनुशासित,विनम्र तथा सुयोग्य बनाने के लिए आवश्यक है कि उनमें अपने शिक्षकों के प्रति आदर एवं श्रद्धा का भाव बढ़ाया जाए।शिक्षार्थियों के बीच दिन-दिन बिगड़ते जा रहे संबंधों में जो तत्व काम कर रहा है,वह अश्रद्धा की भावना ही है,जो विद्यार्थियों में अपने शिक्षकों के प्रति बढ़ती जा रही है।इस अश्रद्धा के जहां अनेक अन्य कारण हैं,वहां कुछ अभिभावकों की भूल तथा उदासीनता भी है।यदि वे चाहे और प्रयत्न करें तो कोई कारण नहीं कि छात्रों का यह दोष दूर न हो जाए।
- ऐसा नहीं है कि यह सुधार केवल शिक्षकों के ही हित में होगा।इस सुधार का लाभ छात्रों तथा खुद उनके अभिभावकों को भी कम नहीं होगा।स्पष्ट है कि जो छात्र अपने अध्यापक के प्रति,जो उसका ज्ञानदाता गुरु है,ध्रष्ट तथा अविनीत होगा,वह घर में बड़ों के प्रति भी अनुशासित तथा विनम्र नहीं हो सकता है।विनम्रता फूल में रहने वाली सुगंध की तरह एक मानवीय गुण है,वह यदि एक स्थान पर प्रकट होगा तो दूसरे स्थान पर भी ठीक उसी प्रकार प्रकट होगा,जिस प्रकार फूल की सुगंध हर व्यक्ति के प्रति समान रूप से ही प्रकट होती रहती है।जिस छात्र में गुरुओं के प्रति आदर भावना होती है,उसकी प्रतिभा आपसे आप परिष्कृत होती रहती है और वह तत्परता से ज्ञानार्जन करता जाता रहता है।
- श्रद्धालु छात्र शिक्षक की हर बात बड़े ध्यान से सुनता है और विश्वासपूर्वक ग्रहण किया करता है।वह अदब तथा अपना हितैषी समझकर गुरु के दिए निर्देश का आस्थापूर्वक पालन करता रहता है,जिससे उसमें चारित्रिक बल का विकास होता है।जो विनम्र है,अनुशासित तथा चरित्रबल का धनी है,वह संसार की कौनसी सफलता,कौनसी संपदा प्राप्त नहीं कर सकता।संसार में जो भी लोग उल्लेखनीय उन्नति करते दिखाई देते हैं।यदि उनके विद्यार्थी जीवन का पता लगाया जाए तो कदाचित ही कोई व्यक्ति ऐसा निकले जो अध्यापकों,शिक्षकों तथा गुरुओं के प्रति ध्रष्ट अश्रद्धालु अथवा अविनीत रहा हो।संसार की सारी उन्नतियों का मूल अनुशासन तथा श्रद्धा की पवित्र भावना में निहित रहता है।अनुशासन तथा श्रद्धा शून्य व्यक्ति जीवन में कदाचित ही उन्नति कर पाते हैं।
अस्तु,अभिभावकों को चाहिए कि वे अपने बालकों को शिक्षकों के प्रति अधिकाधिक श्रद्धालु बनाने का प्रयत्न करें।यह प्रयत्न प्रत्यक्ष रूप से शिक्षकों के प्रति आदर बढ़ाने जैसा जरूर लगता है किंतु परोक्ष रूप में अपने प्रति भी उसी प्रकार आदर बढ़ाने के समान है जिस पवित्र प्रयत्न में छात्रों का हित,शिक्षकों को सम्मान और खुद अभिभावकों का आनंद सन्निहित हो,उसे न करने में बुद्धिमानी जैसी बात तो मालूम नहीं होती।
5.अभिभावक क्या करें? (What should a parent do?):
- शिक्षकों के प्रति छात्रों की श्रद्धा तथा आदर भाव बढ़ाने के लिए अभिभावक क्या करें? सबसे पहले तो वे स्वयं उनके प्रति आदर भाव रखें और अवसर आने पर प्रकट भी करें।जिनमें है,उन अभिभावकों का यह भाव कि वे बच्चों की फीस देते हैं,शिक्षक का कर्त्तव्य है कि वह उन्हें पढ़ाए,क्योंकि वह संस्था का नौकर है।शिक्षक का पढ़ाना और विद्यार्थी का पढ़ना अलग-अलग दीखने पर भी एक प्रक्रिया है,एक शुल्क देता है दूसरा वेतन पाता है,फिर इसमें श्रद्धा-भक्ति का क्या प्रश्न उठता है।हम छात्र के पिता अथवा अभिभावक है और शिक्षक पढ़ाने वाला।हम दोनों का दर्जा बराबर है,तब हमारे द्वारा शिक्षकों का कोई विशेष आदर किया जाए इसकी तो कोई आवश्यकता दृष्टिगोचर नहीं होती,अपने मन-मस्तिष्क से निकाल देना चाहिए।ज्ञान-गुरु का दर्जा पिता से ऊंचा होता है।पिता यदि मांस पिंड के रूप में किसी जीव को जन्म देता है तो ज्ञान-गुरु उसे मनुष्य के रूप में दूसरा जन्म देता है जो पहले जन्म से महत्त्वपूर्ण है।शिक्षा के बिना मनुष्य,मनुष्य होकर भी पशु बना रहता है।उसमें मनुष्यता के विकास के लिए शिक्षा की अनिवार्य आवश्यकता है।उसे जो भी देगा उसका दर्जा बहुत ऊंचा होगा।इसके लिए चाहे कोई बाहरी व्यक्ति बने चाहे स्वयं अभिभावक।किसी न किसी को शिक्षक गुरु बनाना ही होगा और जो शिक्षा गुरु होगा उसका दर्जा ऊंचा होगा ही।
- अबोध अभिभावक अपने बालकों के शिक्षक को देखकर बहुत बार अभिवादन तक नहीं करते,वे समझते रहते हैं कि यह तो उस संस्था का नौकर है,जिसके आधार विद्यार्थियों में मेरा भी एक लड़का है।यह दंभ एक तो यों ही मानवता के नाते ठीक नहीं।शिक्षक के मिलने पर अभिभावक को तुरंत अभिवादन करना चाहिए।वह भावी राष्ट्र-निर्माता होता है।बच्चों का बहुत सीमा तक भाग्य-विधाता होता है,निश्चय ही वह अभिवादन का अधिकारी है।यह सभ्यता तथा भारतीयता दोनों के नाते उचित एवं आवश्यक है।अच्छा तो यही है कि इसमें श्रेष्ठता भी बाधा न बने।
- अभिभावकों द्वारा आदर पाकर शिक्षकों की आत्मा पुलक उठती है।वह अपने पद की गरिमा अनुभव करता,जिससे उसमें उत्तरदायित्व की वृद्धि होती है।विनम्र अभिभावक के बालक की तरफ उसका प्रेम स्वाभाविक रूप से बढ़ जाता है।जिसका लाभ उसे पहुंचे बिना नहीं रहता।बच्चे के शिक्षक के आने पर उसका उठकर स्वागत करना चाहिए।वह गुरु है,राष्ट्र का गुरु है भले ही उस समय वह उन अभिभावक का गुरु ना हो।अभ्यागत का स्वागत खड़े होकर ही करना चाहिए और जाते समय उसे द्वार तक पहुंचाना भारतीय संस्कृति की विशेषता है,आर्य मान्यता है।जिसका पालन सभी को करना ही चाहिए।यह नियम,अभ्यर्थनार्थ सामान्य व्यक्तियों तक के लिए है फिर तो गुरु तो गुरु ही है।इस प्रकार अभिभावक द्वारा अपने शिक्षक का आदर होते देख स्वयं भी उनका आदर तथा अदब करने लगेगा।
- अभिभावकों को चाहिए कि वे शिक्षकों की निंदा तो कभी ना करें।एक तो निंदा,एक दुर्व्यसन है,जो किसी भी भद्र व्यक्ति के लिए अशोभनीय है।फिर गुरु की निंदा करना तो और भी बुरा है।निंदा करने से शिक्षक का तो कुछ बिगड़ता नहीं छात्र में जरूर उनके प्रति अनादर भाव बढ़ता है।यह एक दोष है।बच्चों को किसी भी दोष से सुरक्षित रखना हर अभिभावक का न केवल कर्त्तव्य ही नहीं बल्कि धर्म है।जो विद्यार्थी अपने अभिभावक को शिक्षक की निंदा करते देखता-सुनता है वह भी निंदा करने लगता है।जिसकी निंदा करेगा उसके प्रति अश्रद्धालु तथा ध्रष्ट होना स्वाभाविक है।जिस छात्र में ऐसा दोष आया नहीं कि विद्या संबंधी उसका भविष्य अंधकार से घिरा नहीं।
- यदि कोई कारण है और उसका प्रमाण भी हो तो किसी हद तक आलोचना तो की जा सकती है सो भी स्वस्थ एवं सर्जनात्मक।कटु-कर्कश अथवा ध्वंसात्मक नहीं।बल्कि इससे अच्छा यह रहे कि आलोचना करने के बजाय चलकर शिक्षक के पास पहुंचा जाए और विचार-विनिमय द्वारा आलोचना का कारण दूर कर लिया जाए।सभी अध्यापक दूध के धोए नहीं होते वे भी आखिर मनुष्य होते हैं।उनमें भी कमी तथा दोष हो सकता है और शिकायत का मौका आ सकता है।ऐसे अवसर भी भद्रता से नीचे उतरकर अध्यापक को उल्टी-सीधी नहीं सुनाने लगना चाहिए और न उसके पास जाकर देशकाल का विचार किए बिना एकदम बरस ही पड़ना चाहिए।यदि कोई शिकवा करना है तो उन्हें अलग बुलाकर धीरे-धीरे भद्र शब्दों में ही करना चाहिए।इस प्रकार कि यदि वहां कोई छात्र मौजूद हो तो उनको उसका पता ना चले अन्यथा उन पर कुप्रभाव पड़ेगा।बात यदि गंभीर हो और आपस में न निपटती हो तो भ्रदतापूर्वक उच्चाधिकारियों तक पहुंचा जा सकता है।यह सब कुछ किया जा सकता है किंतु उनकी खुलेआम निंदा करना अथवा छात्रों के सम्मुख ही आलोचना पर टूट जाना,इस प्रकार कि उसके स्वाभिमान को ठेस लगे,किसी प्रकार भी उचित अथवा समीचीन नहीं।
- उपर्युक्त आर्टिकल में अध्यापक में छात्र-छात्राओं के निर्माण की कला (Art of Building Students in Teachers),अध्यापक द्वारा छात्र-छात्राओं का निर्माण (Teacher Creating Students) के बारे में बताया गया है।
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6.छात्र को स्कूल भेजने की एवज में क्या लेंगे? (हास्य-व्यंग्य) (What will You Take in Return for Sending Student to School?) (Humour-Satire):
- अभिभावक (शिक्षक से):वैसे आप छात्र को स्कूल भेजने,ड्रेस में भेजने व पुस्तकें व नोटबुक के साथ भेजने के अलावा क्या लेंगे?
- शिक्षक:आप छात्र को भले ही घर पर रख लीजिए,स्कूल भेजने की जरूरत नहीं है।आप तो समय-समय पर छात्र की फीस जमा कराते रहिए,पास हम कर देंगे।
7.अध्यापक में छात्र-छात्राओं के निर्माण की कला (Frequently Asked Questions Related to Art of Building Students in Teachers),अध्यापक द्वारा छात्र-छात्राओं का निर्माण (Teacher Creating Students) से सम्बन्धित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:
प्रश्न:1.क्या आधुनिक शिक्षा पद्धति उचित है? (Is modern education appropriate?):
उत्तर:आज की शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य अर्थ प्राप्ति और कामोपभोग रह गया है।जीवन निर्माण तथा राष्ट्र के उत्थान के लिए ऐसी शिक्षा से कोई लाभ नहीं हो सकता।विद्यार्थी जीवन में तपस्या,तत्परता और संयम भावना जागृत करने की आवश्यकता है जिसका इस शिक्षा पद्धति में अभाव है।
प्रश्न:2.शिक्षक कैसे होने चाहिए? (How should the teacher be?):
उत्तर:योग्य,विचारवान,दृढ़ चरित्र और संयमी अध्यापकों को ढूंढ निकालना पड़ेगा।शिक्षा की नींव जब तक चरित्रवान व्यक्तियों के हाथों में नहीं पड़ेगी,तब तक छात्रों का विकास दिवास्वप्न ही है।जो स्वयं प्रकाश फैलाने वाला है,यदि वही अंधेरे में ठोकर खाकर गिरे तो दूसरों को वह उजाला क्या देगा?
प्रश्न:3.शिक्षक और छात्र में संबंध कैसा होना चाहिए? (What should be the relationship between teacher and student?):
उत्तर:राष्ट्र को ज्ञानवान,प्रकाशवान तथा शक्तिवान बनाने के लिए गुरु और शिष्य परम्परा का सुधार नितान्त आवश्यक है।व्यावहारिक जीवन में विकास की समस्या इसके बिना कभी भी पूरी न होगी।
- उपर्युक्त आर्टिकल में अध्यापक में छात्र-छात्राओं के निर्माण की कला (Art of Building Students in Teachers),अध्यापक द्वारा छात्र-छात्राओं का निर्माण (Teacher Creating Students) के बारे में बताया गया है।
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Satyam
About my self I am owner of Mathematics Satyam website.I am satya narain kumawat from manoharpur district-jaipur (Rajasthan) India pin code-303104.My qualification -B.SC. B.ed. I have read about m.sc. books,psychology,philosophy,spiritual, vedic,religious,yoga,health and different many knowledgeable books.I have about 15 years teaching experience upto M.sc. ,M.com.,English and science.