Review of Secularism in India
1.भारत में धर्मनिरपेक्षता की समीक्षा (Review of Secularism in India),भारतीय सन्दर्भ में धर्मनिरपेक्षता की समीक्षा (Review of Secularism in Indian Context):
- भारत में धर्मनिरपेक्षता की समीक्षा (Review of Secularism in India) का यह द्वितीय पार्ट है।इस भाग में भारत में धर्मनिरपेक्षता और न्यायपालिका,भारत में धर्मनिरपेक्षता का मूल्यांकन आदि पर चर्चा की जाएगी और अन्त में भारत में धर्मनिरपेक्षता का निष्कर्ष निकाला जाएगा।
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2.धर्मनिरपेक्षता बनाम राज्य (Secularism vs State):
- सामान्यतया यह माना जाता है कि राज्य द्वारा धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप सीमित होना चाहिए,केवल उस स्थिति को छोड़कर जब धार्मिक उन्माद के चलते राज्य और सरकार का अस्तित्व खतरे में पड़ जाए।धर्मनिरपेक्षता का आशय यह नहीं है कि यह धार्मिक उत्तेजनाओं से सार्वजनिक गतिविधियों से एकदम से बहिष्कृत किया जा सकता है बल्कि सिर्फ इतना है कि इनकी अभिव्यक्ति को सार्वजनिक जीवन में नरम बनाया जा सकता है।धर्म और राजनीति के मध्य पूर्ण पृथक्करण की तमाम इच्छा के बावजूद भारत जैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक लाभ के लिए धार्मिक भावनाओं अथवा धार्मिक नेताओं का उपयोग करना राजनीतिक दलों के लिए स्वाभाविक है।लोकतांत्रिक राजनीति सामाजिक विभाजनों पर ही फलती-फूलती है,चाहे वह जाति हो या धर्म या प्रजाति,यद्यपि यह सत्य है कि इसे किसी एक सामाजिक विभाजन को ही अपना एकमात्र आधार नहीं बनाना चाहिए।
- प्रायः ऐसा कहा जाता है कि भारत ब्रिटेन और फ्रांस जैसे पाश्चात्य राष्ट्रों से सांस्कृतिक दृष्टि से भिन्न है,परंतु यह भी सत्य है कि भारत यूरोपीय राष्ट्रों से जनसंख्यायी (Demographic) धरातल पर भी भिन्न है,भारत का धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग (Minorities) यद्यपि समग्र जनसंख्या का बहुत छोटा भाग है,परंतु संख्या की दृष्टि से यह बृहदाकर है।भारत में अल्पकाल या दीर्घकाल में धार्मिक पहचान (Religious) के समाप्त होने की,चाहे आत्मसात्मीकरण (Assimilation) या बलात धर्मांतरण (Forcible Conversion) द्वारा,कोई संभावना नहीं है।इसलिए हमें यह सुनिश्चित करने के लिए धर्मनिरपेक्षता की आवश्यकता है कि कोई भी धार्मिक सिद्धांत या धार्मिक समुदाय किसी अन्य पर अवांछित प्रभुत्व न कायम कर सके।
- सभी धर्मों के प्रति समान भाव तथा सामाजिक जीवन में धर्म के प्रति संवेदनशीलता-इन दोनों अर्थों में धर्मनिरपेक्षता का बिल्कुल समान आशय नहीं है,परंतु व्यवहार में दोनों का अभिप्राय लगभग एक-सा है।दोनों ही अर्थों में धर्मनिरपेक्षता नियमन या आत्मसंयम (Mederation) का दर्शन है।प्रसिद्ध समाजशास्त्री Prof. Andre Beitle ने अपने आलेख ‘Religion and secular society:Government’s Ambivalent Role’ में लिखा है कि “धर्मनिरपेक्षता के नाम पर क्रांतिकारी राजनीति के समर्थकों द्वारा धर्म पर किया गया आक्रमण धर्मनिरपेक्षता के मनोभावना के विपरीत है।यथार्थ में यह सांप्रदायिकता या कट्टरता का एक प्रकार है जो पारंपरिक धार्मिकता और लोकतांत्रिक राजनीति-दोनों का विरोधी है।”
- निश्चित रूप से जब राजनीतिक दल अपने राजनीतिक समर्थन में वृद्धि के लिए धार्मिक भावनाओं और विभेदों का शोषण करते हैं,धर्मनिरपेक्षता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।यह उस समय भी परोक्ष रूप से प्रभावित होती है जब सरकार यह निर्णय कर पाती कि यह किस प्रकार सभी धर्मों के प्रति समभाव का प्रदर्शिन करे।समभाव का अभिप्राय नकारात्मक धरातल पर सभी धर्मों से समान दूरी बनाए रखना और सकारात्मक धरातल पर सभी धर्मों,उनकी संस्थाओं और उनके नेताओं को सहयोग देना हो सकता है,परंतु एक तथ्य निर्विवाद है कि राज्य द्वारा सभी धर्म को सक्रिय सहयोग देने से कभी भी सार्थक अर्थों में धर्मनिरपेक्षता की प्राप्ति नहीं हो सकती।भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए उपयुक्त है कि वह धार्मिक मामलों को समुदाय के अधीन छोड़ दे और उसमें न्यूनतम दखल दे।
3.न्यायपालिका और भारत में धर्मनिरपेक्षता (Judiciary and Secularism in India):
- इधर हाल के वर्षों में भारत में धर्मनिरपेक्षता को परिभाषित या पुनर्परिभाषित करने में न्यायपालिका ने सक्रिय भूमिका का निर्वाह किया है।मार्च 1994 में दिए गए एक महत्त्वपूर्ण निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय की नौ-सदस्यीय पीठ ने धर्मनिरपेक्षता को भारतीय संविधान की आधारभूत विशेषता के रूप में स्वीकार किया,अन्य बातों के अतिरिक्त निर्णय में यह कहा गया है कि:
- (1.)धर्मनिरपेक्षता का आशय धर्म के प्रति विद्वेषपूर्ण होना नहीं बल्कि यह है कि राज्य विभिन्न धर्मो के संदर्भ में तटस्थ रहेगा;तथा
- (2.)यदि राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राजनीतिक दलों द्वारा धर्म का उपयोग किया जाता है तो इससे राज्य की तटस्थता का उल्लंघन होगा।
- सर्वोच्च न्यायालय की उपर्युक्त अवधारणा से यह सहज ही निष्कर्ष निकलता है कि धार्मिक मुद्दों के आधार पर जन-समर्थन प्राप्त करने के प्रयास से धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को क्षति पहुंचती है।माननीय न्यायाधीश इस विषय पर एक मत थे कि धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा राज्य और राजनीतिक दलों-दोनों पर समान रूप से लागू होती है।
- हमारे देश में धर्म अभी जिस व्यापक स्तर पर आस्था से जुड़ा हुआ है वहां इसके पूरी तरह राजनीति से अलग हो जाने की संभावना नजर नहीं आती।परंपरा से प्राप्त ‘कॉमन सेंस’ आधुनिक विवेक को दबोच लेता है और किसी भी धर्मनिरपेक्ष जनवादी चेतना के बीज के अंकुरण को मंद कर देता है।इसलिए हमारे लिए धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई अपने पारंपरिक-सांस्कृतिक मूल्यों-मान्यताओं को समझते हुए उनसे सार्थक एवं नवोन्मेषी संवाद स्थापित करने की चेष्टा का दूसरा नाम है।
4.भारत में धर्मनिरपेक्षता:एक मूल्यांकन (Secularism in India:An Evaluation):
- पिछले 75 वर्षों के सुशासन के दौरान,हम भारतीय नागरिकों में मूलभूत समानता को स्थापित करने में असमर्थ रहे हैं।भारत में समानता का निवास स्थान संवैधानिक उपबन्धों तक ही सीमित है,जबकि समतावादी समाज,समतावादी राज्य की स्थापना की पूर्व शर्त है।मूलभूत असमानता की इस स्थिति में सहनशीलता विशेषतया धार्मिक सहनशीलता के अस्तित्व का प्रश्न नहीं उठता।किसी भी विधान के पूर्व उसके पक्ष में जनमत विकसित करने का भारत में भी प्रयास नहीं हुआ।परिणामस्वरूप इन कानूनों का पालन शक्ति तथा दंड के भय से किया जाता है न कि स्वेच्छा से।स्वेच्छा के अभाव में धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना संभव नहीं है जो धर्मनिरपेक्ष राज्य की पूर्व शर्त है,उसी प्रकार जैसे कि प्रजातांत्रिक समाज किसी भी प्रजातांत्रिक राज्य की स्थापना की पूर्व शर्त है।
- भारतीय धर्मनिरपेक्षता के वैधानिक स्वरूप द्वारा नैतिकीकरण की एक इकाई के रूप में किसी भी धर्म के महत्त्व को नकारा गया है।स्वतंत्रता के पूर्व के भारत में व्याप्त संप्रदायवाद के जहर ने संविधान निर्माताओं को इतना भयभीत कर रखा था कि वे नागरिक जीवन से वर्ग को एकदम हटा देना चाहते थे।वर्तमान समय में भी निवासियों में क्रमिक स्वतः विकास की प्रक्रिया द्वारा धर्मनिरपेक्षता की मनोभावना का विकास नहीं किया जा रहा है।ऐसा प्रतीत होता है कि हम संवैधानिक उपबन्धों द्वारा स्थापित धर्मनिरपेक्षता से ही संतुष्ट हैं।
- मात्र संवैधानिक प्रावधानों द्वारा ही भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना संभव नहीं हो सकेगी-ऐसा महात्मा गांधी को तुरंत ही एहसास हो गया था।इसीलिए उन्होंने ‘मानवमात्र के सार्वदेशिक धर्म’ की शिक्षा दी ताकि धर्म को मंदिर अथवा मस्जिद अथवा गुरुद्वारे की चहारदीवारी से बाहर लाया जा सके।उनके इन प्रयासों का आशय दार्शनिक तथा नैतिक विचारों के राजनीतिकरण से था।दिल्ली में आयोजित अपनी ऐतिहासिक प्रार्थना सभाओं के दौरान वे उपस्थित जनों को प्रायः धार्मिक सहनशीलता की शिक्षा दिया करते थे जो किसी भी राजनीतिक समाज में धर्मनिरपेक्षता की स्थापना के लिए अनिवार्य दशा है,परंतु शायद इसी कारण उन्हें गलत समझा गया जिसका अंत उनकी शहादत के रूप में हुआ।
- वर्तमान समय में सांप्रदायिक शक्तियाँ भारतीय राष्ट्रीयता तथा धर्मनिरपेक्षता को गंभीर चुनौती दे रही है।पिछले 75 वर्षों में सांप्रदायिक शक्तियों ने अत्यंत प्रभावशाली ढंग से अपने को संगठित कर लिया है।सांप्रदायिक शक्तियों के प्रभावशाली गठन का एक प्रमुख कारण यह है कि स्वतंत्र भारत में सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तन की गति निरंतर मंद रही है।परिणामतः ग्रामीण तथा नगरीय समाज के अनेक हिस्से अछूते रह गए हैं तथा लाखों की संख्या में इन पक्षों को सांप्रदायिक शक्तियां सहज ही अपना केंद्र बना लेती हैं।
- इस प्रकार की चुनौती के लिए लोगों में धार्मिक सहनशीलता तथा सामुदायिक मनोभावना का विकास किया जाना चाहिए तभी धर्मनिरपेक्षता का रचनात्मक अर्थ हो सकता है।दूसरे शब्दों में धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना धर्मनिरपेक्ष राज्य की पूर्व-शर्त है।इस हेतु धार्मिक विचारों तथा व्यवहार का मूलभूत पुनर्गठन आवश्यक है,क्योंकि इसी प्रकार से धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना की दिशा में पहला प्रभावशाली कदम सहनशीलता की भावना का विकास,उठाया जा सकता है।
- यह एक कठिन कार्य है।इसके लिए सरकार तथा जनमानस विशेष रूप से चिंतनशील व्यक्तियों,जो विभिन्न धर्मों की शिक्षा देते हैं,के संगठित प्रयासों की आवश्यकता है।यह सर्वश्रेष्ठ तरीका होगा कि ये प्रयास नई पीढ़ी से शुरू किए जाएं।स्कूलों,कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों में नैतिक शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में राष्ट्रीय पाठ्य पुस्तकें संपूर्ण राष्ट्र में धर्मनिरपेक्षता की एकीकृत शिक्षा देने के लिए तैयार की जानी चाहिए ताकि धर्मनिरपेक्षता को स्वीकार करने के लिए उन्हें अभी से तैयार किया जा सके।
- गैर सरकारी स्तर पर धर्मनिरपेक्षता को विकसित करने का दायित्व राजनीतिक दलों का है।अपनी समस्त शक्तियों को परस्पर आलोचना में नष्ट करने के स्थान पर यदि इन राजनीतिक दलों द्वारा लोगों को सही सामाजिक,धार्मिक तथा राजनीतिक जीवन की दिशा में उन्मुख किया जाए तो सरकारी नीतियों का अधिक संगठन,व्यावहारिक तथा बुद्धिमत्तापूर्ण कार्यकरण संभव हो सकेगा।
- इस प्रकार एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में भारत की छवि सुंदर तो है,परंतु साथ ही यह निर्जीव है,सुंदर इसलिए है कि इस दिशा में निर्मित संवैधानिक उपबंध उद्देश्य की ईमानदारी के द्योतक हैं।
- प्रोफेसर डोनाल्ड स्मिथ लिखते हैं,”भारत उसी अर्थ में एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है जिस अर्थ में कि भारत एक प्रजातंत्र है।भारतीय शासन तथा राजनीति की अनेक अ-प्रजातान्त्रिक विशेषताओं के बावजूद भारत में संसदीय प्रजातंत्र का कार्यकरण उत्साहपूर्वक संपन्न हो रहा है।यही स्थिति धर्मनिरपेक्ष राज्य की है।संविधान इस आदर्श से अनुप्राणित है तथा इसे प्रभावशाली ढंग से क्रियान्वित किया जा रहा है।भारत धर्मनिरपेक्ष राज्य है अथवा नहीं इस प्रश्न का उत्तर एक प्रगतिशील राज्य के संदर्भ में,जिसे अनेक कठिन समस्याएं विरासत में मिली हैं तथा जो उन्हें सुलझाने में प्रयासरत है,दिया जाना चाहिए।यह छवि निर्जीव है,क्योंकि धर्मनिरपेक्ष राज्य के प्रत्यय का व्यावहारिक रूप देने के लिए उद्देश्यपूर्ण गतिविधि का अभाव सा है।”
5.भारत में धर्मनिरपेक्षता का निष्कर्ष (Conclusion to Secularism in India):
- धार्मिक विविधता के प्रति गांधी और जिन्ना के दृष्टिकोणों की तुलना करने पर हम सभी सहिष्णुता और समभाव में अंतर स्पष्ट कर सकेंगे।जिन्ना धार्मिक सहिष्णुता को केवल धार्मिक सहनशीलता का माध्यम मानते थे।उनके अनुसार धार्मिक समभाव की अपेक्षा सहनशीलता का भाव अधिक उपयोगी है।किंतु गांधी के मत में सहनशीलता धार्मिक एकता एवं सद्भाव के लिए पर्याप्त नहीं।विभिन्न धर्मावलंबियों में परस्पर प्रेम तथा एकता स्थापित करने के लिए समभाव और सक्रिय सहयोग होना आवश्यक है।
- गांधी और जिन्ना के दृष्टिकोणों में इस अंतर के फलस्वरूप उनके मतभेद अन्य क्षेत्रों में अभिव्यक्त हुए।गांधी के स्वतंत्रता आंदोलन में सम्मिलित होने के पूर्व जिन्ना कांग्रेस में सक्रिय थे और निरंतर सांप्रदायिकता एवं संकीर्णता का विरोध करते थे।वे मुस्लिम लीग के भी विरुद्ध रहते थे।किंतु जब कांग्रेस पर गांधी का आधिपत्य हो गया तो जिन्ना ने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया।वे गांधी की धार्मिक दृष्टि से सहमत नहीं हो सके।गांधी द्वारा धार्मिक समभाव एवं सहभागिता पर बल दिया जाना जिन्ना को स्वीकार नहीं था।जिन्ना धार्मिक सहनशीलता और धर्मों के सह-अस्तित्व के पक्ष में थे।उनकी दृष्टि में गांधी द्वारा प्रतिपादित समभाव एवं सहभागिता की अवधारणा हिंदू धार्मिकता की परिचायक थीं और इसी कारण वे गांधी को मात्र हिंदू प्रतिनिधि मानते थे।
- अब भारत के धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होने संबंधी प्रश्न पर विचार आवश्यक है।यह बात निश्चित है कि भारतीय संविधान में किसी एक धर्म को प्रश्रय देने,धर्म के आधार पर नागरिकों में भेद-भाव करने का कोई प्रावधान नहीं है।लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो देश में आज भी शिक्षा,कानून,राजनीति तथा सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर धर्म का पर्याप्त प्रभाव है।भारत में ऐसी अनेक धार्मिक संस्थाएं जो ‘नैतिक शिक्षा’ के नाम पर किसी विशेष धर्म के सिद्धांतों,विश्वासों और कर्मकांड की शिक्षा देती है।इसी प्रकार भारतीय संविधान में भी ऐसा प्रावधान है जिसके तहत सरकार अल्पसंख्यक वर्गों द्वारा स्थापित धार्मिक शिक्षा-संस्थाओं को आर्थिक सहायता प्रदान करती है।क्या इस प्रकार के कार्य धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा के अनुकूल है।
- पुनः हमारे देश में समान नागरिक संहिता को कानूनी जामा नहीं पहनाया जा सकता है।कुछ विशेष धर्मों के अनुयायियों पर उनके परंपरागत धार्मिक कानून लागू होते हैं,इसी क्रम में धर्म और जाति के आधार पर नौकरियों में आरक्षण भी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की धारणा के प्रतिकूल है,भले ही इसके औचित्य के लिए कुछ भी तर्क दे दिए जाएं।
- हमारे देश की राजनीति में भी धर्म की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।टिकट प्राप्त करने से लेकर मंत्रिमंडल में स्थान पाने तक भी धर्म अपनी अहम् भूमिका निभाता है।बहुसंख्यक मतदाता भी धर्म को ध्यान में रखते हुए ही मतदान करता है।सरकारी पदों पर विराजमान अनेक महत्त्वपूर्ण पदाधिकारी (यहां तक कि प्रधानमंत्री भी) धार्मिक समारोह,धार्मिक स्थलों आदि में अपनी भागीदारी इसलिए भी सुनिश्चित करते हैं जिससे कि कुछ विशेष धर्मों या मजहबों को मानने वालों का मत प्राप्त किया जा सके।कुछ ऐसे राजनीतिक दल भी भारत में स्थापित हैं जिनका अस्तित्व धर्म पर ही टिका हुआ है।अनेक ऐसे भी अवसर आते हैं जबकि राजनीतिक फायदे के लिए धार्मिक स्थलों का दुरुपयोग होता है।इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए भारत को वास्तविक अर्थों में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र कहना कठिन लगता है।कुछ निषेधात्मक दृष्टिकोण रखने वाले विचारक भारत को छद्म धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में अभिहित करते हैं।
- धार्मिक अज्ञान को समाप्त करने के लिए कई दिशाओं में प्रयत्न होनी चाहिए।प्रथम,सभी धर्मावलंबियों को अपने धर्म का सही और समुचित ज्ञान होना चाहिए।सामान्यतया यह देखा जाता है कि धर्मानुयायियों को अपने धर्म का ज्ञान नहीं होता,जिसके कारण वे संकुचित सांप्रदायिक दृष्टिकोण अपनाने लगते हैं।धर्म का सही ज्ञान होने पर उनमें उदारता एवं सहिष्णुता के भाव विकसित हो सकेंगे।सभी धर्म मूलतः सहिष्णुता का समर्थन करते हैं तथा अन्य धर्मों के प्रति समानता और समादर के भावों को प्रश्रय देते हैं।धर्म में घृणा एवं विद्वेष को प्रश्रय नहीं दिया जाता।सभी धर्म अपने अनुयायियों को सहिष्णु और सहनशील बनने का आग्रह करते हैं और उनसे यह आशा करते हैं कि वे सही रूप में अपने धर्म का पालन करेंगे।
- धार्मिक विविधता के संदर्भ में सहिष्णुता का विशेष महत्त्व है।सभी धर्मावलंबी अपनी परंपराओं को त्यागकर स्वेच्छा से किसी नवीन धार्मिकता को ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं हो सकते।धर्म-परिवर्तन अथवा नई धार्मिकता के द्वारा भी सार्वभौमिक धर्म का विकास संभव नहीं।ऐसी स्थिति में धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा देना उचित है।सामाजिक,राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर शांति और सामंजस्य की स्थापना में यह सहायक सिद्ध होगी और धार्मिक संवाद और आदान-प्रदान का सबल आधार बनेगी।विभिन्न धार्मिक परंपराएं समृद्ध और सशक्त बनेंगी तथा आध्यात्मिक दृष्टि का विकास होगा।
- धार्मिक सहिष्णुता का मूल्यांकन उसके विषय पर निर्भर है।यदि हम शुभ और सद्मूल्यों की उपेक्षा करते हैं और धर्म एवं समाज-विरोधी मूल्यों के प्रति सहिष्णुता दिखाते हैं तो यह सर्वथा अनुचित है।अशुभ,अनीति,अन्याय एवं अत्याचार के प्रति सहिष्णुता अवांछनीय है।शोषण,उत्पीड़न,भ्रष्टाचार एवं दमन जैसी बुराई को सहने का अर्थ है उन्हें प्रश्रय देना।अमूल्यों के प्रति सहिष्णुता आत्मघातक होती है।केवल वही सहिष्णुता ग्राह्य और समर्थनीय है जिससे सद्मूल्यों में वृद्धि हो।सहिष्णुता का मूल्य उसके संकीर्णता,कट्टरता और आडंबर के विरुद्ध सशक्त संबल होने में निहित है।
- धर्म में व्याप्त आडंबर एवं अज्ञान के कारण धर्म-निरपेक्षता की उत्पत्ति हुई।मध्यकालीन शोषण,उत्पीड़न और अन्याय को धर्म द्वारा प्रश्रय मिला तथा वैचारिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा।इससे प्रबुद्ध वर्ग एवं आम जनता में धर्म के प्रति उपेक्षा और विरोध के भाव पनपने लगे।उदाहरण के लिए,हिंदू परंपरा में ‘वसुधैव कुटुंबकम’ जैसी मान्यताएं स्वीकार की गई,किंतु व्यवहार में शोषण और असमानता को प्रश्रय दिया गया।हिंदू धर्म में मानव सम्मान और गौरव सर्वोत्तम ढंग से प्रतिपादित किए गये हैं,किंतु यह भी दुखद सत्य है कि विश्व में हिंदू धर्म जैसा कोई और धर्म नहीं जो गरीबों और दलितों को इतने भद्दे और फूहड़ ढंग से कुचलता हो।ऐसा ही विरोधाभास प्रायः सभी धार्मिक परंपराओं में पाया जाता है।सामाजिक जीवन के अधिकांश क्षेत्रों में धर्म की ऐसी विफलता के कारण धर्म-निरपेक्षता का विकास हुआ।
- सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु होने का मतलब है सभी धर्मों को समान रूप से समझना,ना किसी को बड़ा समझना और न किसी को छोटा।धर्म की निंदा नहीं करनी चाहिए।प्रत्येक धर्म अच्छा है पर उसके अनुयायी बुरे हो सकते हैं।अनुयायियों के जीवन को देखकर किसी धर्म के बारे में अपनी कोई राय नहीं कायम करनी चाहिए।प्रत्येक धर्म के मान्य धर्मग्रंथो का निष्पक्ष अध्ययन करना चाहिए।उनमें भी ग्राह्यऔर त्याज्य अंश रहते हैं।ऐसा समझकर केवल ग्राह्य अंश ही लेना चाहिए और त्याज्य अंश की चर्चा छोड़ देनी चाहिए।दूसरे धर्मों के ग्राह्य अंशों को अपने धर्म में लेते हुए संकोच न होना चाहिए।
- उपर्युक्त आर्टिकल में भारत में धर्मनिरपेक्षता की समीक्षा (Review of Secularism in India),भारतीय सन्दर्भ में धर्मनिरपेक्षता की समीक्षा (Review of Secularism in Indian Context) के बारे में बताया गया है।
Also Read This Article:How to End Terrorism in India?
6.शरारती छात्र कक्षा में कैसे आया? (हास्य-व्यंग्य) (How Did Naughty Student Get into Class?) (Humour-Satire):
- शिक्षक (शरारती छात्र से):कक्षा में कैसे घुसकर आ गये?
- शरारती छात्र ने झट उत्तर दिया:अपने पैरों से चलकर कक्षा में घुस आया।
7.भारत में धर्मनिरपेक्षता की समीक्षा (Frequently Asked Questions Related to Review of Secularism in India),भारतीय सन्दर्भ में धर्मनिरपेक्षता की समीक्षा (Review of Secularism in Indian Context) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:
प्रश्न:1.धर्मनिरपेक्ष राज्य का क्या कर्त्तव्य होना चाहिए? (What should be the duty of a secular state?):
उत्तर:हमारे धर्मनिरपेक्ष राज्य की सीमा लौकिक जीवन है।इसका पारलौकिक जीवन से संबंध नहीं है।इसका मतलब है कि राज्य अपने नागरिकों को परलोक में मिलने वाले सुख का दिलासा देकर नहीं बहला सकता और न ही वह पिछले जन्म के कर्मों का तर्क देकर गरीबी और भुखमरी का औचित्य ठहरा सकता है।वह घोर अपराधी को भगवान के न्याय के भरोसे नहीं छोड़ सकता है और न धार्मिक व्यक्तियों तथा धार्मिक स्थानों को कानून के अनुशासन से मुक्त कर सकता है,लेकिन वह यह भी मानता है कि लोगों को अपनी धार्मिक आस्थाओं के अनुसार जीने का पूरा हक है।वह इन आस्थाओं में हस्तक्षेप नहीं करता।इसलिए सब धर्मों को समान रूप से स्वतंत्रता दी गई है,लेकिन अगर धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर नागरिकों के लौकिक अधिकारों का हनन होता है तो राज्य हस्तक्षेप भी कर सकता है।
प्रश्न:2.धर्मनिरपेक्षता शब्द उलझनपूर्ण कैसे हैं? (How is the word secularism confusing?):
उत्तर:धर्मनिरपेक्षता शब्द भी कम प्रवंचनापूर्ण नहीं है।सेक्युलरिज्म के इस अनुवाद से यह झलकता है कि ‘धर्म’ तो है केवल उससे निरपेक्ष रहना है,किसे निरपेक्ष रहना है? तो हमने मान लिया कि सत्ता को,राजनीति को।अपने आप में यह विरोधाभासी स्थिति है।लोग धर्म में डूबे,उतराएं पर उनका चुना हुआ शासन इससे निरपेक्ष रहे।वोट ‘धर्म’ के नाम पर लिए जाएं,लेकिन गद्दी पर जाने के बाद वे धर्म को भूल जाएं।यह कैसे संभव है? निरपेक्षता मनोगत रूप से पैदा नहीं हो सकती।
प्रश्न:3.धर्मनिरपेक्षता की आड़ में राजनेता क्या करते हैं? (What do politicians do under the guise of secularism?):
उत्तर:धर्मनिरपेक्षता की आड़ में राजनेता सांप्रदायिकता को बढ़ावा देते हैं।धर्म-निरपेक्षता को वोट बैंक बनाकर वे प्रायः बहुसंख्यक धार्मिकता की निंदा करते हैं और अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता की ओर से आंख मूंद लेते हैं।धार्मिक तुष्टीकरण की नीति धर्म-निरपेक्षता में बाधक होती है।धर्म और जाति को प्रश्रय देना धर्म-निरपेक्षता के विरुद्ध है।तथाकथित धर्मनिरपेक्षता और बुद्धिजीवी ऐसी नीतियों को अपनाकर सांप्रदायिक शक्तियों को समर्थन देते हैं।
- उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा भारत में धर्मनिरपेक्षता की समीक्षा (Review of Secularism in India),भारतीय सन्दर्भ में धर्मनिरपेक्षता की समीक्षा (Review of Secularism in Indian Context) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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Satyam
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