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Level of Consciousness Should be High

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1.साधन-सुविधाओं के साथ चेतना का स्तर ऊंचा हो (Level of Consciousness Should be High with Means and Facilities):

  • साधन-सुविधाओं के साथ चेतना का स्तर ऊंचा हो (Level of Consciousness Should be High with Means and Facilities) तभी साधन-सुविधाओं का सही उपयोग किया जा सकता है।किसी एक के अभाव में विकास का मार्ग प्रशस्त हो नहीं सकता है,व्यक्तित्व नहीं गढ़ा जा सकता है और चरित्र का निर्माण नहीं हो सकता है।
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2.संपन्नता और समर्थता के साथ शालीनता भी हो (Prosperity and competence should be accompanied by decency):

  • शक्ति और साधनों की उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता।सुविधा संवर्द्धन की दृष्टि से उनका बाहुल्य निश्चित रूप से अभीष्ट है।इसलिए इन दोनों को व्यर्थ बताने या उपेक्षा करने का प्रश्न नहीं उठता।पराक्रम के लिए सामर्थ्य चाहिए और उपलब्धियों के लिए उपकरण। अस्तु,इन दोनों का संचय-संवर्द्धन मनुष्य आदिमकाल से ही करता रहा है और जब तक धरती पर उसका अस्तित्व है,तब तक करता भी रहेगा।यह स्वभाविक भी है,उचित भी और अभीष्ट भी।
  • किंतु ध्यान रखने योग्य तथ्य यह है कि शक्ति एवं साधनों का उपयोग करने वाली चेतना का स्तर ऊंचा रहना चाहिए,तभी समर्थता और संपदा का सहयोग बन पड़ेगा।इसके अभाव में बंदर के हाथ में तलवार पड़ने की तरह मात्र अनर्थ की ही संभावना है।
  • दूर्बुद्धियुक्त कुकर्मी का सशक्त होना उसे विनाश के गर्त में और भी तेजी के साथ धकेलता है।आग में ईंधन पड़ने से वह भड़कती ही है।अंतरंग की निकृष्टता,अभावग्रस्त स्थिति में तो दबी भी पड़ी रहती है,पर साधन मिलने पर तो उसे खुल खेलने का अवसर मिलता है।ऐसी दशा में कुकर्मी का वैभव उसके स्वयं के लिए,संबंधित व्यक्तियों के लिए और समस्त समाज के लिए अभिशाप ही सिद्ध होता है।दुर्बलता बुरी होती है,दुष्टता तो भयानक ही कही जाएगी। अभावजन्य दुर्बलता को कोई पसंद नहीं करता,पर समर्थताजन्य दुष्टता द्वारा कुछ घटित होता है,तो उसे देखकर तो रोमांच ही हो आता है।संपन्नता और समर्थता बढ़ने का लाभ तभी है,जब उस पर नियंत्रण करने वाली शालीनता को अक्षुण्ण और प्रखर रखा जा सके।
  • पिछली सदी और वर्तमान में प्रगति के नाम पर बहुत कुछ हुआ है।उससे अनेकों में कुशलता और तत्परता का बड़े परिणाम में नियोजन हुआ है।अन्यमनस्कता और अकर्मण्यता की हेय स्थिति की तुलना में इस पुरुषार्थ की मुक्तकंठ से सराहना ही की जाएगी।जिन पुरुषार्थियों ने बुद्धि-कौशल से विज्ञान-उद्योग आदि क्षेत्रों में प्रयत्न करके सुविधा-साधन बढ़ाये हैं,उनके पराक्रम को विस्मृत नहीं किया जा सकता।इतने पर भी यह अभाव खटकता ही रहेगा की दूरदर्शिता,विवेकशीलता,उदारता,शालीनता जैसी सत्प्रवृत्तियों का उत्पादन,अभिवर्द्धन उपेक्षित ही पड़ा रहा।उसकी उपयोगिता वैसी नहीं समझी गई,जैसी समझी जानी चाहिए थी।एकांगी चिंतन यह बताता रहा की भौतिक प्रगति ही सब कुछ है।साधनों के बढ़ने पर मनुष्य के सामने उपस्थित होने वाली सभी कठिनाइयों का समाधान हो जाएगा।
  • मनुष्य जितना बुद्धिमान है,उतना ही अदूरदर्शी भी। संपदा को सब कुछ मान बैठने और चेतना की उत्कृष्टता को उपेक्षित रखने की भूल निश्चित रूप से अदूरदर्शिता है।इतिहास साक्षी है कि निकृष्ट स्तर के व्यक्तित्व समर्थता प्राप्त करने के उपरान्त अपने कुकर्मों से सारे वातावरण को ही विक्षुब्ध करते रहे हैं।उनका वैभव असंख्यों के लिए अभिशाप बना है।आज भी इस तथ्य को पग-पग पर चरितार्थ होते देखा जा सकता है।संपन्न देशों के नागरिक उपलब्ध सुविधाओं का उपयोग किस प्रयोजन के लिए कर रहे हैं,उसके क्या-क्या परिणाम भुगत रहे हैं,उसका प्रमाण अमेरिका जैसे संपन्न देशों की वास्तविक स्थिति को,ऊपर से चमकीला आवरण उघाड़कर भली-भाँति देखा जा सकता है।संपन्नता से सुविधाएं तो बढ़ती हैं,पर उससे व्यक्ति के अंतरंग को ऊंचा उठाने में तनिक भी सहायता नहीं मिलती।फलतः  मात्र भौतिक सफलता के सहारे जिस स्थिति में जा पहुंचते हैं उससे भारी निराशा होती है।क्या व्यक्ति,क्या समाज और क्या राष्ट्र सभी पर यह तथ्य समान रूप से लागू होता है कि आदर्शवादिता बढ़े बिना,बढ़े हुए वैभव से संकटों और विग्रहों की ही बाढ़ आती है।

3.शरीर तथा चेतना दोनों में से एकपक्ष के द्वारा प्रगति असंभव (Progress is impossible by either of the body and the consciousness):

  • आदर्शवादिता का नियंत्रण हट जाने पर बलिष्ठता की परिणति उद्दंड उच्छृंखलता में होती है,सुंदरता,कामुकता और अहमन्यता का पथ प्रशस्त करती है।बढ़ा हुआ बुद्धि-कौशल छद्म रचने के काम आता है।वैभव के बढ़ते ही दुर्व्यसन चढ़ दौड़ते हैं।अधिकारों का उपयोग स्वार्थ के लिए,अशक्तों के शोषण-उत्पीड़न में होता है।कला का सौष्ठव पशु-प्रवृत्तियों को भड़काने में नियोजित होता है। धनी अधिक धनी बनना चाहता है,समर्थ अधिक सामर्थ्यवान,किंतु वे यह नहीं सोच पाते कि इस अभिवृद्धि का सदुपयोग क्या हो सकता है? दूरदर्शी विवेक के अभाव में तृष्णा और अहंता की पूर्ति ही वह आधार रह जाती है,जिसके लिए बाहुल्य को लगाया जा सके।यह होता है,यही हो रहा है।प्रतिक्रिया सामने है- वैभव बढ़ रहा है,साथ ही विक्षोभ भी।साधन बढ़ रहे हैं,साथ ही दुर्व्यसन भी।शिक्षा,साधन और कुशलता-संवर्द्धन के अनेकानेक आधार बढ़ रहे हैं और मनुष्य अपेक्षाकृत अधिक चतुर,अधिक सतर्क बनता जा रहा है।इतने पर भी यह बड़ी हुई बुद्धिमत्ता दुरभिसंधियाँ गढ़ने में ही काम आती है।
  • शांतचित्त से स्थिति की विवेचना करने पर एक बार तो ऐसा लगता है कि प्रगति की दिशा में दौड़ते हुए हम अवगति के गर्त में गिरने को तेजी से बढ़ रहे हैं।तब क्या प्रगति निरर्थक है? समर्थता और संपन्नता बढ़ाने के लिए,जो प्रयत्न चल रहे हैं क्या वह अनावश्यक है? इस प्रकार सोचने की आवश्यकता नहीं है।संपन्नता अचेतन है और समर्थता,अंधी।इनमें से न किसी को भला कहा जा सकता है,न बुरा।पदार्थ,पदार्थ है और बल,बल है।इनमें क्षमताभर है।इतनी योग्यता नहीं की अपना उपयोग किसी भले या बुरे प्रयोजन के लिए कर सके।आग में ताप तो है,पर उससे यह निर्णय करते नहीं बनता कि वह भोजन पकाने में लगे या अग्निकांड उत्पन्न करने में।यह कार्य किसी सचेतन का है।पदार्थ प्रकृति की प्रेरणा भर अंगीकार करते हैं।उचित-अनुचित का निर्णय करना या परिणाम की कल्पना करना उनके वश से बाहर की बात है।इसलिए बारूद,आग,बिजली जैसी समर्थताओं से भी उचित-अनुचित का निर्णय करते नहीं बन पड़ता।चेतन ही उन्हें विकास या विनाश के लिए नियोजित करता है।रेल,मोटर,जहाज की गतिशीलता सर्वविदित है,किंतु वे कुशल ड्राइवर के संरक्षण में ही अपनी उपयोगिता का परिचय दे सकते हैं,अन्यथा वे अनियमित गतिशीलता अपनाकर स्वयं नष्ट होने एवं दूसरों को नष्ट करने जैसी दुर्घटनाएं ही उपस्थित कर सकते हैं।
  • एकांगी प्रगति असंतुलन उत्पन्न करती है।एक पहिए की गाड़ी और अर्द्धांग पक्षाघात से पीड़ित काया कितनी ही मूल्यवान क्यों ना हो,अन्ततः भारभूत ही सिद्ध होती है।एक पैर मोटा,एक पतला होना सुंदरता और गतिशीलता में बाधक ही होता है।फूला हुआ पेट,घेंघें का गला,सूजा हुआ चेहरा,रसौली या फोड़ा होने पर वे अंग अपेक्षाकृत उठे,उभरे दिखाई पड़ते हैं,तो भी उस असंतुलन को न शुभ माना जाता है,न सुविधाजनक।जीवन एकांगी नहीं है।उसके दो पक्ष हैं,एक शरीर अर्थात् भौतिक,दूसरा प्राण अर्थात् चेतन,दोनों का सम्मिलित ढांचा जब तक सुसंतुलित बना रहता है तभी तक जीवनचर्या चलती है। एक के विलग हो जाने पर दूसरा अपंग,असमर्थ ही नहीं,परिहार्य ही हो जाता है।प्राणरहित शरीर तो तेजी से सड़ता है,शरीररहित प्राण भूत-पलीत जैसी विचित्र स्थिति में जा पहुंचता है।भौतिक प्रगति को लक्ष्मी कहा गया है,पर नारायण के आदर्श के साथ रहने में ही उसकी शोभा है।ऋद्धि-सिद्धि के युग में भौतिक और आत्मिक प्रगति का सहसंतुलन ही प्रतिपादित किया गया है।उमा-महेश,शवी-पुरंदर,सीता-राम,राधेश्याम आदि युग्मों में प्रगति की उभयपक्षीय आवश्यकता का ही प्रतिपादन है।साधनरहित सद्भावना और सद्भावरहित साधन की स्थिति अवांछनीय ही मानी जाती है।

4.वर्तमान पीढ़ी का भौतिक प्रगति पर ही ध्यान (Current generation’s focus on material progress):

  • पिछली शताब्दी और वर्तमान में बुद्धिवाद और प्रत्यक्षवाद ने जीवन के भौतिक पक्ष को ही सब कुछ मान बैठने की भूल की है।तत्वदर्शन के आधार पर प्रतिपादित हो सकने वाली उत्कृष्टता को काल्पनिक कहकर अमान्य ठहरा दिया है।फलतः आदर्शवादिता का नियंत्रण लोकमानस पर से उठ गया।अनियंत्रित पशु-प्रवृत्तियां समर्थ होने की स्थिति में कितनी उच्छृंखल एवं घातक होती हैं,इसका अनुमान मदोन्मत्त हाथी,नरभक्षी,व्याघ्र,शमशान के पिशाच,जलाशय के मगर द्वारा किए जाने वाले विनाश को देखकर सहज ही लगाया जा सकता है।छुट्टल पशु हरी-भरी फसल को चरकर समाप्त कर देते हैं।अराजकता,उच्छृंखलता के आततायी दुष्परिणामों का अनुमान लगा सकते हैं,उन्हें यह भी जानना चाहिए कि चेतना पर से आदर्शवादिता का अंकुश हट जाने पर जो परिस्थिति उत्पन्न होती है,उसे सर्वनाशी दावानल से कम विघातक नहीं माना जा सकता।शत्रु देश के आक्रमण,गृहयुद्ध,दुर्भिक्ष,महामारी आदि विपत्तियों से जूझने के लिए अवसर आने पर अथवा उससे पहले ही जो सतर्क सक्रियता अपनानी होती है,उससे कम नहीं अधिक की सावधानी चिंतनक्षेत्र पर आधिपत्य जमाने वाले स्वेच्छाचार के प्रति बरती जानी चाहिए।
  • पिछली पीढ़ी प्रत्यक्षवादी अदूरदर्शिता के आतुर आवेश में मात्र भौतिक प्रगति पर ही अपनी सक्रियता नियोजित किए रही है,जबकि उससे भी अधिक प्रयास चेतना को सुसंस्कृत बनाने के लिए किया जाना चाहिए था।शरीर से प्राण का मूल्य और महत्त्व अधिक है।उसी प्रकार समृद्धि से संस्कृति की गरिमा अपेक्षाकृत अधिक समझी जानी चाहिए।इस संदर्भ में जो असंतुलन बरता गया,एकांगी दृष्टिकोण को अपनाया गया,उसी की प्रतिक्रिया आज अनेकानेक संकटों और विग्रहों के रूप में सामने प्रस्तुत है।जिस तत्परता से समृद्धि-संवर्द्धन का प्रयास किया गया,उसी तन्मयता से सद्भाव उन्नयन के लिए प्रबल प्रयास होने चाहिए थे।शरीर से आत्मा का महत्त्व अधिक है।इसलिए समृद्धि की तुलना में संस्कृति को प्रमुखता मिलनी चाहिए थी और उसी अनुपात से लोकमानस को उत्कृष्टता से भरा-पूरा रखने वाले प्रयास चलने चाहिए थे।वर्षा का पानी नाला न मिलने पर भयंकर बाढ़ के रूप में विनाशलीला उत्पन्न करता है।इसी का दृश्य हम सब अपने आंखों से प्रत्यक्ष देखते हैं।
  • भूल के परिमार्जन का ठीक यही समय है।मानवी दूरदर्शिता से,शान्तचित्त से विचार करना चाहिए कि क्या पिछली भूल का परिमार्जन करने के लिए अब कुछ नहीं हो सकता? मानवी प्रखरता को समझने वाले यह भली प्रकार जानते हैं कि जिस भी दिशा में आकांक्षा और तत्परता का विनियोग होता है,उसी दिशा में तूफानी प्रगति होने लगती है।आज के साधन जहां विनाश का पथ प्रशस्त करते हैं,वहां उनमें यह क्षमता भी विद्यमान है कि विकास की सांस्कृतिक पुनरुत्थान की दिशा में भी चमत्कारी सत्परिणाम प्रस्तुत कर सकें।प्रेस,लाउडस्पीकर,चलचित्र जैसे कितने ही उपयोगी यंत्र ऐसे निकल पड़े हैं,जिनकी सहायता से चिंतन को परिष्कृत करने की दिशा में कई प्रचारात्मक कार्य आसानी से संपन्न हो सकते हैं।रचनात्मकता और सुधारात्मक गतिविधियों की सुगठित रूपरेखा बनाकर उनमें असंख्यों सद्भाव संपन्नों की श्रम-साधना नियोजित की जा सकती है।समृद्धि-संवर्द्धन के लिए जिस प्रकार सोचा जाता रहा है,जिस प्रकार उसमें साधन,श्रम तथा मनोयोग का नियोजन होता रहा है,उसी तन्मयता तथा तत्परता से यह भावनात्मक उत्कृष्टता बढ़ाने के लिए सक्रियता अपनाई जाएगी,तो कोई कारण नहीं कि प्रयत्न असफल चले जाएं।असफलता का एक ही प्रमुख कारण है,उपयुक्त तन्मयता तथा अभिरुचि एवं प्रत्यनशीलता का अभाव।इसे यदि दूर किया जा सके,तो प्रगति किसी भी क्षेत्र में हो सकती है,भले ही वह उत्कृष्टता-संवर्द्धन के लिए नियोजित क्यों न की गई हो?

5.दृष्टिकोण की उत्कृष्टता जरूरी (Excellence of approach is essential):

  • यहाँ स्मरण योग्य तथ्य यह है कि जिस क्षेत्र में दृष्टिकोण की उत्कृष्टता उत्पन्न होती है वह न तो शरीर है और ना मस्तिष्क।शरीर को सैनिकों,नर्तकों,श्रमिकों,बालचरों की तरह कुछ अभ्यास करा दिए जाएं,तो उससे काया भर सधेगी।मस्तिष्क को प्रशिक्षित करने के लिए कितनी ही तरह के पाठ्यक्रम चलते हैं।दृश्य दिखाएं,अनुभव कराएं और प्रसंग सुनाए जाते हैं।साहित्य पढ़ने और प्रवचन सुनने का भी क्रम चलता रहता है,उससे जानकारी भर बढ़ती है।आस्थाओं के परिष्कार में कोई खास सहायता नहीं मिलती।
  • नीतिशास्त्र,समाजशास्त्र,नागरिकशास्त्र आदि पढ़ने वाले अध्यापकों तक निजी जीवन जब उच्चस्तरीय न बन सका,आदर्शवादिता पर आए दिन लिखते रहने वाले लेखकों तक का स्तर जब सामान्य लोगों से अधिक ऊँचा न उठ सका,कथा प्रवचनों में संलग्न रहने वाले पुरोहितों तक को जब प्रतिपादनों के अनुरूप आचरण करते न पाया जा सका,तो यही मानना पड़ेगा कि मस्तिष्ककीय शिक्षा मात्र जानकारी बढ़ाती है।उसका सीधा प्रभाव उस मर्मस्थल तक नहीं पहुंच पाता,जहां उच्चस्तरीय आस्थाओं का उत्पादन और उत्थान होता है। यदि व्यक्तित्व के मूल आधार-दृष्टिकोण को परिष्कृत-परिमार्जित करना हो तो फिर निश्चय ही पुनर्निर्माण का कार्यक्षेत्र अंतःकरण को मानकर चलना होगा।तब उन आधारों को अपनाना होगा,जो उच्चस्तरीय आस्थाएं उत्पन्न करने में काम आते और सफल होते रहे हैं।
  • आस्थाओं के क्षेत्र को स्पर्श करने वाला एक ही माध्यम है अध्यात्म एवं धर्म।अध्यात्म के चिंतन को तत्वदर्शन और व्यवहार को धर्म कहते हैं अर्थात् अध्यात्म ज्ञानपक्ष है तो धर्म आचरण एवं क्रियापक्ष है।दोनों को मिलाने से ही समग्र अध्यात्म बनता है।तत्वदर्शन को हृदयंगम करने की पद्धति को योग और व्यवहार में उच्चस्तर का समावेश करने का नाम तप कहा जाता है।तप को साधना और योग को ब्रह्मविद्या कहते हैं।आस्तिकता-आध्यात्मिकता और धार्मिकता की त्रिवेणी मिलने से वह त्रिवेणी बनती है,जिसमें स्नान करने पर भावात्मक कायाकल्प संभव होता है।
  • यों चिंतन के माध्यम से आस्थाएँ जगाई जाती हैं,पर वह उथला नहीं गहरा होता है।तर्क का समावेश तो रहता है,पर साथ में श्रद्धा भी जुड़ी रहती है।शुष्क तर्क बुद्धि-विलास है।बहस के लिए बहस करने वाले,मस्तिष्क से चतुर वकीलों की तरह वह प्रतिपादन करते चले जाते हैं,जिन पर उनकी आस्था तनिक भी नहीं है।सच्चे को फँसाने और झूठ को छुड़ाने के लिए वे वकील भी प्रभावी बहस करते देखे गए हैं,जो वस्तुस्थिति को ठीक तरह समझते हैं।इसलिए मस्तिष्क को माध्यम मानते हुए इन आस्थाओं को उच्चस्तरीय बनाने के लिए पर्याप्त नहीं माना जा सकता है।इसके लिए अवलंब है-अध्यात्म एवं धर्म।अध्यात्म का प्राण है,ऋतंभरा-प्रज्ञा।सरस्वती इसी को कहते हैं।ऋतंभरा-प्रज्ञा में विवेक और श्रद्धा इन दो तत्वों का समन्वय होता है।विवेक अर्थात् दूरदर्शिता,श्रद्धा अर्थात् उच्चस्तरीय आस्थाओं में उल्लास भरी सघन अभिरुचि। यह भाव संवेदनाएं जिस चिंतन और जिस अभ्यास से उभारी जाती है,उसे ऋतम्भरा-प्रज्ञा कहते हैं।संक्षेप में इसी को प्रज्ञा कहा गया है।सरस्वती स्तोत्र की अंतरात्मा को ‘प्रज्ञा की प्रेरणा’ माना गया है।प्रज्ञा जीवंत तभी होती है,जब उसमें प्रेरणा देने,प्रवाह उत्पन्न करने की क्षमता हो।सरस्वती स्तोत्र में मान्यताओं,संवेदनाओं और प्रेरणाओं का सुनियोजित तारतम्य विद्यमान है।विद्या का अभ्यास करने के साथ-साथ सरस्वती स्तोत्र से मेधा बुद्धि प्रखर,तेजस्वी और दिव्य बनती हैं।विद्या प्राप्त करने की प्रेरणाएँ उभारने-जगाने और सक्रियता अपनाने के लिए अभीष्ट लक्ष्य तक पहुंचाने में सरस्वती स्तोत्र अनुपम है।
  • सामयिक विकृतियों से निपटने और उज्ज्वल भविष्य का सृजन करने के उभयपक्षीय प्रयोजन जिस एक ही चेतना से संभव हो सकता है,उसका नाम है ऋतंभरा प्रज्ञा। छात्र-छात्राओं को यह ध्यान रखना चाहिए कि साधन-सुविधाएं जुटा लेने से ही विद्या का अभ्यास नहीं हो सकता है।पुस्तकें खरीद सकते हैं,लेकिन विद्या के लिए तो तप करना ही पड़ेगा।अक्सर छात्र-छात्राएं साधन-सुविधाओं का रोना रोते रहते हैं कि हमारे पास ये नहीं है,वो नहीं है,अच्छी स्कूल नहीं है,अच्छा टीचर नहीं आदि।इस प्रकार कुछ छात्र-छात्राओं की धारणा यही होती है कि साधन-सुविधाओं से ही पढ़ाई की जा सकती है।परंतु चेतना जागृत नहीं होती है तब तक साधन-सुविधाओं से कुछ भी नहीं होता है।होशपूर्वक,सतर्क और सावधान रहने वाला विद्यार्थी ही साधन-सुविधाओं का लाभ उठा सकता है।यदि साधन-सुविधाओं से ही अध्ययन-अध्यापन संभव होता तो अमीर घराने के लड़के-लड़की सबसे अधिक प्रतिभाशाली होते परंतु अधिकांश अमीर लड़के-लड़कियां बिगडैल होते हैं क्योंकि विलासिता में रहने वाले नियम-संयम,अनुशासन का पालन नहीं करते और ऐसे विद्यार्थी विद्या अर्जन नहीं कर सकते।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में साधन-सुविधाओं के साथ चेतना का स्तर ऊंचा हो (Level of Consciousness Should be High with Means and Facilities) के बारे में बताया गया है।

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6.साधन-सुविधाओं से अध्ययन (हास्य-व्यंग्य) (Study by Facilities and Means) (Humour-Satire):

  • राजू:चिंकू,ये बताओ अगर हमारे पास भी संदर्भ पुस्तकें होती,ऐसी (AC) की व्यवस्था होती,विलासिता की चीजें,कार-गाड़ी,बंगला होता तो कितनी अच्छी तरह अध्ययन करते!
  • चिंकू:क्या खाक अध्ययन करते,उल्टे जितना अध्ययन कर रहे हैं,वो और छूट जाता और आवारागर्दी करने लग जाते।साधन-सुविधाएँ भी तभी काम की होती है जब हमारे चेतना के द्वार खुले होते हैं,वरना हम भटक जाते हैं।

7.साधन-सुविधाओं के साथ चेतना का स्तर ऊंचा हो (Frequently Asked Questions Related to Level of Consciousness Should be High with Means and Facilities) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.चेतना का अनुभव कब होता है? (When is consciousness experienced?):

उत्तर:जब हम अंतर्मुखी होते हैं,संसार में भटकने के बजाय जब हम अंदर की ओर मुड़ते हैं तब चेतना का अनुभव होता है।

प्रश्न:2.सच्चाई का अनुभव कब होता है? (When is the truth experienced?):

उत्तर:निर्मल अंतःकरण को जिस समय जो प्रतीत होता है वही सत्य है।उस पर दृढ़ रहने से शुद्ध सत्य की प्राप्ति हो जाती है।

प्रश्न:3.क्या साधन जरूरी नहीं है? (Isn’t the instrument necessary?):

उत्तर:अध्ययन के लिए साधन-सुविधा भी आवश्यक है परंतु अपने आप को साधन-सुविधाओं का दास नहीं बनाना चाहिए।उत्तम साध्य के लिए उत्तम साधन भी होना जरूरी है वरना संघर्ष अधिक करना पड़ता है।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा साधन-सुविधाओं के साथ चेतना का स्तर ऊंचा हो (Level of Consciousness Should be High with Means and Facilities) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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