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6 Best Tips for Living Spiritual Life

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1.आध्यात्मिक जीवन जीने की बेहतरीन 6 टिप्स (6 Best Tips for Living Spiritual Life),युवाओं के लिए आध्यात्मिक जीवन जीने की 6 टिप्स (6 Tips for Living Spiritual for Youth):

  • आध्यात्मिक जीवन जीने की बेहतरीन 6 टिप्स (6 Best Tips for Living Spiritual Life) में अध्यात्म को जीवन प्रबंधन कहें या जीवन जीने की कला या फिर इन दोनों का सार्थक समन्वय,यह कुछ ऐसा ही है।कई लोग अनजाने में अध्यात्म को धार्मिक मान्यताओं,पूजा परंपराओं,मंदिर-मस्जिद या गिरजाघर-गुरुद्वारे से जोड़ने की कोशिश करते हैं,जो सही नहीं है।हां,यह सच है कि धर्म व धार्मिकता की तकनीक अध्यात्म में सहायक है।यह भी सच है कि अध्यात्म को धर्म जीवन का सार कहा जा सकता है,लेकिन इसके बावजूद किसी भी धर्म की संकीर्णताओं,कट्टताओं,मान्यताओं एवं आग्रहों से अध्यात्म का कोई लेना देना नहीं है।
  • अध्यात्म तो सार्थक एवं संपूर्ण जीवन-दृष्टि का विकास है।यह जीवन का रूपांतरण करने वाली ऐसी पवित्र प्रक्रिया है,जिससे बाहरी और आंतरिक जीवन की सभी शक्तियों की व्यवस्था,विकास व सुनियोजन होता है।यही नहीं रूपांतरित जीवन विराट से जुड़ने में समर्थ होता है।उसमें अलौकिक आलोक के अनेकों द्वार खुलते हैं।
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2.आध्यात्मिकता का स्वरूप (Nature of Spirituality):

  • आध्यात्मिक जीवन हमेशा से ही आकर्षण का केंद्र रहा है।आध्यात्मिक व्यक्तियों के जीवन की सामान्य घटना भी साधारण जन के लिए आश्चर्य व कुतूहल का विषय बन जाती है।कुछ लोग अध्यात्म को एक चमत्कारिक,अलौकिक व दिव्य जीवन समझते हैं,तो कुछ लोग अध्यात्म को एक असामान्य घटना मानते हैं।
  • यही कारण है कि लोग अध्यात्म की ओर सहजता से आकर्षित होते हैं,परंतु आध्यात्मिक जीवन को अपनाते नहीं,किंतु वास्तविकता पूर्णतः इससे भिन्न है।वास्तव में आध्यात्मिक जीवन बहुत ही वैज्ञानिक एवं सुव्यवस्थित जीवन है,जिसे कोई भी सामान्य व्यक्ति अपनाकर अपने जीवन को आध्यात्मिक बना सकता है।
  • संपूर्ण संसार में कोई घटना चमत्कार नहीं है।प्रकृति में कभी कोई चमत्कार घटित नहीं होता।जिसे हम चमत्कार समझते हैं,वह मात्र हमारा अज्ञान है; क्योंकि प्रत्येक घटना मात्र एक सुनिश्चित विधि का परिणाम होती है।प्रायः हमें घटना के फलस्वरूप परिणाम तो दिखाई देता है,किंतु उस घटना से पूर्व घटित होने वाली विधि का ज्ञान नहीं हो पाता या हम अज्ञानवश उसे देख व समझ नहीं पाते,जिस कारण हमें वह घटना एक चमत्कारस्वरूप प्रतीत होती है।
  • यही बात आध्यात्मिक जीवन के साथ भी जुड़ी हुई है।आध्यात्मिक जीवन कोई दैवीय कृपा या चमत्कार का परिणाम नहीं है,बल्कि एक सुव्यवस्थित व वैज्ञानिक जीवन पद्धति है,जिन तत्त्वों व सिद्धांतों को अपनाकर कोई भी साधारण मनुष्य अपने जीवन को आध्यात्मिक बना सकता है।आवश्यकता मात्र इसके मर्म को समझने व इसके मूल तत्त्वों को अपनाने की है।
  • आध्यात्मिकता के मूल चार तत्त्व:तप,योग,ज्ञान,भक्ति है,जिन्हें अपनाकर कोई भी अपने जीवन को आध्यात्मिक बना सकता है।इन्हें अपनाते ही व्यक्ति के जीवन में आध्यात्मिकता का समावेश होने लगता है।ये चार तत्त्व ही आध्यात्मिक जीवन की आधारशिला हैं।
    यदि हम अपने जीवन को आध्यात्मिक बनाना चाहते हैं तो हमें एक-एक चरण में क्रमिक रूप से आगे बढ़ना होगा।आध्यात्मिक जीवन बहुत ही सुव्यवस्थित व वैज्ञानिक जीवन पद्धति है।
  • हम सभी अपने भौतिक शरीर के प्रति जागरूक हैं,परंतु अपने मानसिक व आध्यात्मिक शरीर के प्रति नहीं।भौतिक शरीर को हम सभी आसानी से देख व समझ सकते हैं।इसकी संरचना को कोई भी व्यक्ति देख सकता है और दूसरे व्यक्ति को दिखा भी सकता है।आज हमारे पास ऐसे बहुत से साधन हैं,जिनके माध्यम से हम अपने शरीर की आंतरिक संरचना व उसकी गतिविधियों को आसानी से देख व समझ सकते हैं।
  • परंतु अपनी मानसिक व आध्यात्मिक संरचना को दिखा पाना विज्ञान के लिए अभी तक संभव नहीं हो पाया है,किंतु इसका ये अर्थ नहीं है कि इसका कोई अस्तित्व ही नहीं।मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्ति की मानसिक संरचना को,व्यक्तित्व के स्वरूप को समझाने व अनुभव कराने का प्रयास किया है।
  • व्यक्तित्व को गुण,कर्म व स्वभाव का समुच्चय कहा जा सकता है,जिसे व्यक्ति स्वयं अनुभव तो कर सकता है,पर इस संरचना को दूसरों को दिखा पाना संभव नहीं। ठीक इसी प्रकार व्यक्ति की एक आध्यात्मिक संरचना भी होती है,जिसमें चक्र,ग्रंथियां व उपत्यिकाएँ सम्मिलित हैं,जिन्हें आध्यात्मिक प्रयास द्वारा अनुभव किया जा सकता है।
  • वास्तव में हमारे पूर्व के कर्म संस्कार ही हमारे इस जीवन व अन्य जन्मों को निर्धारित करते हैं।हमारे जन्म का समय भी इन्हीं संस्कारों पर निर्भर करता है।हर शुभ-अशुभ घटना संस्कारवश होती है।संस्कार अपने अनुसार परिस्थिति को ढाल लेते हैं,जो हमें अपने मार्ग से उखाड़ फेंकते हैं।जो इन संस्कारों को बदल सकता है वही अपने भाग्य को बदल सकता है।
  • व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माता आप है,किंतु यह वाक्य केवल तपस्वियों पर ही लागू होता है,जो अपनी प्रचण्ड तप-ऊर्जा द्वारा इन संस्कारों को नष्ट करने की क्षमता रखते हैं।तपस्वी अपने जीवन की दिशा स्वयं निर्धारित करते हैं,किंतु सामान्य व्यक्तियों का जीवन तो पूर्णतः संस्कारों के अधीन होता है।संस्कार उन्हें नदी की धारा के समान अपनी दिशा में बहा ले जाते हैं।
  • हम सभी अंतरिक्षीय ऊर्जा से जुड़े हुए हैं।नवग्रहों से संबंधित सूक्ष्म नौ ग्रंथियां हमारे शरीर में उपस्थित हैं।यही कारण है परोक्ष रूप से हमारा जीवन इन ग्रहों के प्रभाव से प्रभावित होता रहता है।इसी प्रकार हमारे शरीर में सूक्ष्म चक्र होते हैं,जिनके माध्यम से हम अंतरिक्ष की सूक्ष्म ऊर्जा को ग्रहण करते हैं।इसी ऊर्जा को धारण करने व धारण न करने के आधार पर ही जीवन में परिवर्तन होता रहता है।
  • कर्मफल समयानुसार उभरकर आते रहते हैं और इन सूक्ष्म ऊर्जा के केन्द्रों को अवरुद्ध कर देते हैं,जिस कारण हमारा संपर्क ब्रह्मांडीय ऊर्जा से टूट जाता है और व्यक्ति रोगी हो जाता है।

3.आध्यात्मिकता का तत्त्व तप (Spiritual Principle Tenacity):

  • आध्यात्मिक जीवन की पहली कक्षा है:तप।संस्कार अपने अनुरूप परिस्थिति ढाल लेता है,इसलिए इनका परिष्कार आवश्यक है।तप की प्रचंड ऊर्जा से संस्कार द्वारा उत्पन्न अवरोध नष्ट होते हैं और अंतरिक्षीय ऊर्जा का प्रवाह सहज रूप से होने लगता है।
  • तपश्चार्य एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है और तपश्चर्या के लिए कुछ अनुशासन हैं।कुछ भी करते रहने का नाम तप नहीं है जैसे नमक न खाना,चप्पल न पहनना,भूखे रहना आदि।इनसे शारीरिक कष्ट तो अवश्य होता है,किंतु कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं होता।तपश्चार्य हम एक सुनिश्चित संकल्प के लिए करते हैं।गायत्री पुरश्चरण,चांद्रायण व्रत जैसे तप सामान्य व्यक्ति भी संकल्प लेने पर कर सकता है; क्योंकि इनके परिणाम सामान्यतया अच्छे होते हैं,लेकिन विशेष तप गुरु के निर्देशन में ही करना चाहिए,अन्यथा वे घातक भी हो सकते हैं; क्योंकि तप से हमारे जटिल संस्कारों का उदय होता है,जिनका समाधान गुरु की कृपा व मार्गदर्शन से ही संभव है।
  • तप का उद्देश्य मात्र प्रचण्ड ऊर्जा का अर्जन ही नहीं,बल्कि उस ऊर्जा का संरक्षण व सुनियोजन भी है।जो अपनी ऊर्जा को संरक्षित कर लेता है,वह स्वतः सक्षम हो जाता है।इसलिए सबसे पहला प्रयास यह करें कि अपनी ऊर्जा को बर्बाद ना होने दें।विशेषकर अपने अमर्यादित व्यवहार पर अंकुश रखें; क्योंकि असंयम से ही ऊर्जा का सबसे अधिक नाश होता है।
  • अध्यात्म कोई चमत्कार नहीं,परिष्कार नहीं है।जहां परिष्कार है,वहाँ चमत्कार स्वतः होते हैं; क्योंकि परिष्कार से चित्त ऊर्जावान होता है।शरीर,मन व भाव,ये तीन उपकरण हमारे पास हैं।यदि इनका दुरुपयोग करेंगे तो जीवन नष्ट ही होगा।तपस्वी जीवन की दिशा स्वयं निर्धारित करता है,किन्तु तप की शुरुआत आलस्यरहित होकर साहस,सतर्कता व निरहंकारिता से करनी चाहिए।
  • अहंकार तप में सबसे बड़ी बाधा है।तपस्या करने में असुर सबसे आगे हैं,केवल इसी के आधार पर वे भगवान से वरदान प्राप्त करते हैं।आलस्य को त्यागकर वर्षों तक कठोर तपस्या करने का साहस उनमें होता है,किन्तु अपने अहंकार का त्याग नहीं कर पाने के कारण वे तप से प्राप्त ऊर्जा का दुरुपयोग करते हैं।इसलिए तपस्वी को अहंकार से रहित होकर तपश्चर्या करनी चाहिए।अतः तप का उद्देश्य ऊर्जा का अर्जन व सुनियोजन,दोनों है और ऊर्जा का सर्वश्रेष्ठ सुनियोजन चित्तशुद्धि के लिए है।हमारी ज्यादातर ऊर्जा बर्बाद होती है।अंतरिक्ष से जो ऊर्जा हमें प्राप्त होती है,वह हमारे लिए पर्याप्त है,पर संस्कार इसमें बाधा उत्पन्न करते हैं।तप द्वारा संस्कारों का परिमार्जन होता है।संस्कारों के परिमार्जन द्वारा जीवन में कुछ भी किया जा सकता है।इसके लिए व्यवहार,चिंतन व भावों का परिष्कार करना चाहिए।हमें शुरुआत अपने व्यवहार से करनी चाहिए; क्योंकि व्यवहार से विचार बदलते हैं और विचार से संस्कार।
  • संकल्प-विकल्प सदा होते रहने के कारण हम किसी एक चीज पर टिक नहीं पाते।चित्त जितना शुद्ध होगा उसी अनुपात में मन स्थिर होता है।तपश्चर्या से जीवन की दिशा ही बदल जाती है।तपस्वी के जीवन में कोई भी आकस्मिक घटना नहीं घटती; क्योंकि तपश्चर्या की गर्मी से संस्कार उभरते हैं और साथ ही उनका परिमार्जन होता रहता है।इस प्रकार संस्कार शुद्ध होते हैं।तप से अशुद्धियों का क्षय होता है,परिणामस्वरूप चित्त शुद्ध होता है।चित्त जितना शुद्ध होगा,उसी अनुपात में मन स्थिर,शांत व प्रकाशित होगा।

4.आध्यात्मिकता का तत्त्व योग (The Principle of Spirituality is Yoga):

  • अध्यात्म का दूसरा चरण है:योग।प्रायः लोग जटिल आसनों को योग समझते हैं,किंतु योग आसन मात्र नहीं है।आसनों का प्रभाव मात्र स्थूल शरीर पर पड़ता है।इसके माध्यम से शरीर को स्वस्थ तो रखा जा सकता है,पर चित्त पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।चित्त के परिष्कार के लिए राजयोग की साधना करनी पड़ती है।आध्यात्मिक जीवन अर्थात् पदार्थ से ऊर्जा में प्रवेश।आध्यात्मिक जीवन में ऊर्जा सूक्ष्मतर होती जाती है।
  • योग द्वारा स्थिरता,एकाग्रता व विभूतियां मिलती हैं।तपस्वी जिसकी अनुभूति करता है,योगी उसमें जीता है।संयम व ध्यान परिष्कृत चित्त की स्वाभाविक स्थिति हैं।

5.आध्यात्मिकता का तत्त्व ज्ञान (Spiritual Philosophy Knowledge):

  • अध्यात्म का तीसरा चरण है:ज्ञान।जिसका चित्त जितना शुद्ध व प्रकाशित है,उसे उतना ही बोध होगा।समय व परिस्थिति के अनुसार बोध व अनुभव बदल जाते हैं।यही कारण है कि कल जिस वस्तु के लिए हम इतने चिंतित व परेशान रहते थे आज उनका कोई मूल्य ही नहीं।
  • अध्यात्म की पहली उपलब्धि है:प्रतिभा।व्यक्ति को जितना ज्ञान होगा,उतनी ही अलौकिक सामर्थ्य उसमें होगी।हमारे पास समस्या है; क्योंकि उसका समाधान हमारे पास नहीं।डर हमें तभी लगता है,जब हम अपनी समस्या का समाधान नहीं जानते या हम यह स्वीकारते हैं कि हम इसका सामना नहीं कर पाएंगे।वास्तव में ज्ञान पुस्तकों को पढ़ने से नहीं बल्कि अनुभव से आता है।जो जितना अनुभवी होता है,उसी के अनुरूप उसे ज्ञानी समझा जाता है अर्थात् जितना अनुभव का संसार है,उतना ही ज्ञान है।परिष्कार के अनुरूप ज्ञान बढ़ता है और ज्ञान के अनुसार शक्ति।

6.आध्यात्मिकता का तत्त्व भक्ति (Spirituality Principle Devotion):

  • अध्यात्म का चौथा चरण है:भक्ति।भक्ति भावों का परम शिखर है।परिष्कृत व उन्नत भावनाएं ही भक्ति के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं।वस्तुतः आंतरिक रूप से हम भगवान के ही अंश हैं,जब हमारी दूषित भावनाएं तप,योग व ज्ञान द्वारा परिष्कृत व परिपोषित होती हैं तो उसमें भक्ति का अंकुर फूटता है और परमेश्वर से मिलने के लिए बेचैन हो उठता है।भाव-भक्ति की दशा में हम परमेश्वर के सर्वाधिक निकट होते हैं।भगवान की भी एक ही प्यास है:निश्चल,निष्कपट प्रेमपूर्ण भावनाएं,जो केवल उन्हीं को समर्पित हों,जिनमें किसी भी तरह की कलुषता ना हो।इसी कारण भक्ति को पैदा नहीं किया जा सकता,वह स्वयं प्रकट होती है अंतःकरण के शुद्ध होने पर।
  • भक्ति ही वह चरण है,जिसके माध्यम से व्यक्ति आध्यात्मिक ज्ञान व उसकी विभूतियों से सरोबार होता चला जाता है,जैसे उद्धव ज्ञान को ही सब कुछ समझते थे,लेकिन उन्हें भक्ति का महत्त्व तब पता चला,जब उनका संपर्क गोपियों से हुआ।तब उन्हें इस बात का एहसास हुआ की भक्ति के माध्यम से इन अनपढ़ गोपियों ने तो आध्यात्मिक ज्ञान व उसकी विभूतियों का रसास्वादन कर लिया है।वे व्यर्थ ही ज्ञान को सर्वोपरि समझते थे और इसके माध्यम से कुछ भी करने का दंभ भरते थे।वस्तुतः भक्ति ही वह माध्यम है,जो हमारे आध्यात्मिक जीवन को परिपूर्ण बनाती है।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में आध्यात्मिक जीवन जीने की बेहतरीन 6 टिप्स (6 Best Tips for Living Spiritual Life),युवाओं के लिए आध्यात्मिक जीवन जीने की 6 टिप्स (6 Tips for Living Spiritual for Youth) के बारे में बताया गया है।

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7.होशियार गणित छात्र (हास्य-व्यंग्य) (Smart Math Student) (Humour-Satire):

  • घमंडी होशियार गणित का छात्र एक कमजोर छात्र से वर्षों बाद मिला तो उसने कहा,तुमने मुझे नहीं पहचाना?
  • होशियार घमंडी छात्र:मैं गधों को नहीं पहचानता हूं।
  • कमजोर छात्र:लेकिन मैं पहचानता हूं।

8.आध्यात्मिक जीवन जीने की बेहतरीन 6 टिप्स (Frequently Asked Questions Related to 6 Best Tips for Living Spiritual Life),युवाओं के लिए आध्यात्मिक जीवन जीने की 6 टिप्स (6 Tips for Living Spiritual for Youth) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.आध्यात्मिक व्यक्ति किसे कहते हैं? (Who is a Spiritual Person?):

उत्तर:लोगों ने अभी तक अध्यात्म व आध्यात्मिकता का सही अर्थ नहीं समझा है।इसी कारण इसे अपनाने में कतराते हैं।लोग यह समझते हैं की आध्यात्मिकता का अर्थ है:अभावग्रस्त जीवन बिताना व स्वयं को कष्ट देना और इसमें भी मुख्य रूप से यह मानते हैं की आध्यात्मिकता जीवन-विरोधी व जीवन से पलायन है।आध्यात्मिक लोगों को जीवन का आनंद लेना वर्जित है और हर तरह से उन्हें जीवन में कष्ट ही सहना पड़ता है।इसीलिए आध्यात्मिकता की यह परिभाषा गढ़ने वाले लोग आध्यात्मिक जीवन से दूर जाना चाहते हैं; क्योंकि उन्हें इसमें ऐसा कुछ भी प्रतीत नहीं होता,जिससे उनका हित साधन हो सके; जबकि सचाई इसके विपरीत है।आध्यात्मिकता का व्यक्ति के बाहरी जीवन से कुछ भी लेना-देना नहीं है कि वह कैसे रहता है? क्या पहनता है और क्या खाता है? अध्यात्म का विषय ही मनुष्य के आंतरिक जीवन से जुड़ा हुआ है।वे सभी गतिविधियां जो मनुष्य को परिष्कृत,निर्मल बनाती हैं,आनंद से भरपूर करती है,पूर्णता का एहसास देती हैं,स्वयं से परिचय कराती हैं-वे सब अध्यात्म के अंतर्गत आती हैं।इन सभी गतिविधियों को जीने वाला व्यक्ति आध्यात्मिक कहलाता है।

प्रश्न:2.संसारी और आध्यात्मिक व्यक्ति में क्या अंतर है? (What is the Difference Between a Worldly and a Spiritual Person?):

उत्तर:एक संसारी मनुष्य केवल सांसारिक कार्यों को कर पाने में सक्षम होता है ;जबकि आंतरिक संतुष्टि के लिए उसे दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है।इसके विपरीत एक आध्यात्मिक व्यक्ति अपनी आंतरिक संतुष्टि स्वयं अर्जित करता है और मात्र सांसारिक कार्यों के लिए संसार पर निर्भर रह सकता है।

प्रश्न:3.आध्यात्मिकता की कसौटी क्या है? (What is the Criterion of Spirituality?):

उत्तर:आध्यात्मिक जीवन की बहुत-सी कसौटियां हैं, लेकिन कुछ ऐसी प्रमुख बातें हैं,जिन्हें जानकर हम यह आकलन कर सकते हैं कि हमारे अंदर आध्यात्मिकता का कितना अंश है? जैसे यदि किए जाने वाले कार्यों का उद्देश्य स्वार्थ ना होकर परमार्थ है,तो यह आध्यात्मिकता की राह है।यदि व्यक्ति अपने अहंकार,क्रोध,नाराजगी,लालच,ईर्ष्या और पूर्वाग्रहों को गला चुका है तो वह आध्यात्मिक जीवन की डगर पर बढ़ रहा है।व्यक्ति की बाहरी परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों,पर वह यदि आंतरिक रूप से प्रसन्न रहता है तो इसका अर्थ है कि वह आध्यात्मिक जीवन को महसूस करने लगा है।यदि इस विशाल सृष्टि के सामने स्वयं को नगण्य और क्षुद्र मानने का एहसास व्यक्ति कर पाता है तो वह आध्यात्मिक बन रहा है।उसके पास जो कुछ भी है,उसके लिए यदि वह सृष्टि या परमसत्ता के प्रति कृतज्ञता महसूस कर पाता है तो वह आध्यात्मिकता की ओर बढ़ रहा है।यदि व्यक्ति में स्वजनों के प्रति जितना प्रेम उमड़ता है,उतना ही सभी लोगों के लिए उमड़ता है,तो वह आध्यात्मिक है।
आध्यात्मिक होने का अर्थ है कि व्यक्ति अपने अनुभव के धरातल पर यह जानता है कि वह स्वयं अपने आनंद का स्रोत है।बाहरी वेशभूषा व रहन-सहन से आध्यात्मिकता का कोई लेना-देना नहीं है; क्योंकि इसका वास्तविक संबंध व्यक्तित्व की अतल गहराई से है।आध्यात्मिकता सोए हुए संवेदनहीन व्यक्तियों के लिए नहीं है,यह निधि तो उनके लिए है,जो जीवन के हर आयाम को जीवंतता के साथ जीते हैं और हर पल सजग व सक्रिय रहते हैं।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा आध्यात्मिक जीवन जीने की बेहतरीन 6 टिप्स (6 Best Tips for Living Spiritual Life),युवाओं के लिए आध्यात्मिक जीवन जीने की 6 टिप्स (6 Tips for Living Spiritual for Youth) के बारे में ओर अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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