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What Should be Criterion of Evaluation?

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1.मूल्यांकन की कसौटी क्या हो? (What Should be Criterion of Evaluation?),विद्यार्थियों के मूल्यांकन की कसौटी क्या हो? (What Should be Criterion for Evaluating Students?):

  • मूल्यांकन की कसौटी क्या हो? (What Should be Criterion of Evaluation?) अर्थात् छात्र-छात्राओं और मनुष्यों के मूल्यांकन की कसौटी पुरातन काल में क्या थी? आज क्या हो गई है? और मूल्यांकन की कसौटी क्या होनी चाहिए? इन बिंदुओं पर इस लेख में विचार-चिंतन करने का प्रयास करेंगे।
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2.पुरातन काल में मनुष्य की कसौटी (The criterion of man in ancient times):

  • पैमाने गलत हों,मूल्यांकन की कसौटियाँ विकृत हों तो उसकी परिणति भी वैसी होती है।आज समाज में अन्याय,अनीति तथा भ्रष्टाचार की जो कुटिल व्यूह-रचना दिखाई पड़ती है,उसका बहुत कुछ उत्तरदायित्व उन गलत मानदंडों पर भी है,जिनके आधार पर मनुष्य को तोला-नापा जा रहा है,जो उनके व्यक्तित्व के मूल्यांकन की कसौटी बने हुए हैं।
  • लोगों ने देखा कि कितनी विशाल कोठी है,सोने की तरह दमक रही है।खिड़की,दरवाजे और रोशनदान रंगीन काँच से जड़े हुए हैं।रेशमी पर्दे झिलमिला रहे हैं। मूनलाइट बल्ब जल रहे हैं।स्टीरियो डेक से गायन-वादन के स्वर गूंज रहे हैं।आंखें चकाचौंध हो गई,कान लालायित हो उठे,मन कह उठा-साक्षात स्वर्ग का निवास है।बड़ा भाग्यवान है इसका मालिक! कितना बड़ा आदमी होगा! लाखों करोड़ों होंगे इसके पास।अनायास श्रद्धा जागी और उस अनजान धनवान की ओर झुक गई।उसका बड़े आदमी के रूप में मूल्यांकन हो गया।वह चर्चा और प्रतिष्ठा का पात्र बन गया।कोई अवसर आने पर सम्मान आदि के रूप में उसका मूल्य व्यक्त कर दिया जाता है।
  • धन तो प्रतिष्ठा का विषय रहा है,इसलिए कि यह परिश्रम एवं पुरुषार्थ का साक्षी होता है।प्राचीन समय में जब धन को प्रतिष्ठा के विषयों में स्थान दिया गया था,लोग यह कल्पना तक भी नहीं कर सकते थे कि इसका अर्जन-उपार्जन अनीति के मार्ग से भी किया जा सकता है।अनुचित तथा अनीतियुक्त पैसे और पैसे वाले से लोग ऐसे डरते और घृणा करते थे,जैसे विषैले सर्प से।लोग किसी का अन्न खाने,दान या सहायता लेने में हजार प्रकार से सोच-विचार किया करते थे।उसी की सेवा और सहायता स्वीकार की जाती थी,जिसकी कमाई के विषय में यह विश्वास रहता था कि प्रत्यक्ष तो क्या परोक्ष में भी इनका पैसा अन्याय अथवा अनीति से दूषित नहीं हुआ है।यदि इस प्रकार का संदेह भी हो जाता था तो समाज का बच्चा-बच्चा लक्षाधिपति होने पर भी उस धनवान को नीची नजरों से देखा करता था,जिससे उसकी धनाढ्यता ही उसके लिए काल-फाँस की तरह दुःखदायिनी हो जाती थी।
  • समाज द्वारा इस कठोर मूल्यांकन से अनुशासित तब के धनवान अपने व्यापार एवं व्यवसाय में पराकाष्ठा तक पवित्र एवं सत्यपरायण रहकर विशुद्ध परिश्रम एवं पुरुषार्थ से उस स्थिति तक पहुंचकर प्रतिष्ठा के पात्र बनते थे,साथ ही यह विशुद्धता भी तब तक मान्यता नहीं पाती थी,जब तक उसका पवित्र धन पवित्र एवं पुनीत कामों में व्यय नहीं होता था।इस प्रकार आय-व्यय दोनों की समान पवित्रता से तुलकर ही कोई धनवान धन के आधार पर उसी समाज में मान्यता एवं श्रद्धा के भाजन बन पाते थे,जैसे जन-सेवा के अन्य कार्य करके कोई सत्पुरुष।
  • पहले जहाँ धन की मात्रा का कोई मूल्य नहीं था,मूल्य था उसकी आय-व्यय की रीति-नीति का,वहाँ आज आय-व्यय की रीति-नीति का तो कोई मूल्य रहा नहीं,धन की मात्रा को ही श्रेष्ठत्व का मापदंड मान लिया गया है।स्थिति बिलकुल विपरीत हो गई है,इसलिए उसका प्रभाव एवं परिणाम भी उल्टा हो गया है।इस प्रभाव व परिणाम से लोग-बाग ही प्रभावित नहीं हो रहे हैं बल्कि पढ़ी-लिखी युवा पीढ़ी,छात्र-छात्राएं भी प्रभावित होते जा रहे हैं।अधिकांश के जीवन में श्रेष्ठ व साफ-सुथरे तरीके से कमाने के बजाय अनैतिक तरीके हो गए हैं।

3.आधुनिक युग में लोगों के मूल्यांकन की कसौटी (The criterion for evaluating people in the modern era):

  • लोगों ने कोठी,कार,एयर कंडीशनर,टी०वी०,वी०सी०आर०,मोबाइल फोन आदि वैभव-विलास और आमोद-प्रमोद की चहल-पहल देखी नहीं कि बड़ा आदमी मान लिया और मान-सम्मान देना शुरू कर दिया।मान-सम्मान जैसी बहुमूल्य चीज और श्रद्धा जो कि त्याग,तपस्या,साधना,सेवा,श्रम और पुरुषार्थ के आधार पर मिलती है,वह इतनी सस्ती और आसानी से मिल सकती है,तब क्या किसी ने भांग खाई है कि वह प्रतिष्ठापूर्ण जीवन जीने के लिए संयम तथा साधना करता फिरे,सेवा और त्याग का प्रमाण देता घूमे।क्यों न किसी प्रकार से धन बटोरकर उसे प्राप्त किया जाए? जनता द्वारा धन के प्रभाव में आकर दी जाने वाली इस सस्ती सामाजिक प्रतिष्ठा ने लोकप्रियता के प्यासे लोगों ने अंध आर्थिकता में डुबो दिया है।
  • यही नहीं कि लोग किसी का धन-वैभव देखकर ही प्रभावित हो जाते और उसे प्रतिष्ठापूर्ण दृष्टि से देखने लगते हों,बल्कि उसका धन उसके अथवा समाज के किस हित में आता हो अथवा ना आता हो,अब तो यहां सब कुछ स्वीकार्य और सम्माननीय है।संप्रति प्रतिष्ठा का स्तर इतना गिर गया है,सम्मान इतना सस्ता हो गया है कि जन सामान्य धन के संचय को ही नहीं,अपव्यय तक को भी सम्मान की दृष्टि से देखते हैं।राग-रंग में डूबा रहना,शराबखोरी और फैशनपरस्ती में लगा रहना,ब्याह-शादियों में धूम-धड़ाका करते रहना,बड़ी-बड़ी दावतों में पैसा पानी की तरह बहाना तक लोगों के लिए सम्मान-श्रद्धा का प्रतीक बन गया है।लोग उन्हें उदार,बड़ा आदमी,शाही खर्च कहकर सम्मान करने लगे हैं।जनता की श्रद्धा और अस्तरीय मापदण्ड ने भी समाज में मूल्यों का पतन तथा अधिकाधिक धन संचय बढ़ाने में बहुत योग दिया है।
  • हर विचारशील व्यक्ति का नैतिक कर्त्तव्य है कि वह किसी के वैभव-विलास से प्रभावित होकर उसका मूल्यांकन करने से पहले यह अवश्य देख ले कि इस संपत्ति का आधार नीतिपूर्ण रहा है या नहीं? उसके साधन,उपायों तथा युक्तियों की पवित्रता की खोज कर लेना आवश्यक है,जिससे कि गलत कामों के त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन का अपराध न हो जाए।
  • जब यह बात स्पष्ट दिखाई देती है कि अमुक व्यक्ति छल-कपट,छीना-झपटी,चोरबाजारी,मुनाफाखोरी और भ्रष्टाचार को आधार बनाकर कोठी-पर-कोठी बनाए जा रहा है,बैंक बैलेंस,कारोबार बढ़ता जा रहा है,तब क्या उसे अधिकार है कि वह हमारी प्रशंसा अथवा सम्मान की भावना को पाए और क्या हमें ही अधिकार है कि हम उसे कुछ दें? यदि हम दोनों में से कोई भी ऐसा करता है तो अनधिकार चेष्टा करता है,समाज में अंधे अर्थवाद को बढ़ावा देकर भ्रष्टाचार फैलाने में सहयोग करता है,जो कि सामाजिक अपराध एवं आध्यात्मिक पाप है।
  • आज यदि लोग धनाढ्यता का मूल्यांकन करना छोड़कर साधनों और उसके शुचिताप्रधान उपायों पर ध्यान रखने लगें तो समाज में पैसे के लिए फैला हुआ भ्रष्टाचार बहुत कम हो सकता है।अनुचित साधनों के कारण यदि धनिकों का मूल्यांकन कम हो जाए,उनका वह अन्याय उपार्जित वैभव घृणा एवं तिरस्कार का प्रसंग बन जाए तो निश्चय ही लोग आवश्यकता से अधिक धनवान बनने की लिप्सा छोड़कर सम्मान रक्षा के लिए कमाई के उचित एवं उपयुक्त उपाय अपनाने के लिए विवश हो जाएं।
  • आर्थिक क्षेत्र की ही तरह धार्मिक अथवा आध्यात्मिक क्षेत्र में भी जनता के मूल्यांकन की कसौटी खोटी हो गई है।वहां अब मापदंड का आधार व्यक्तित्व का खरापन न होकर वक्तृता की चतुरता को माना जाने लगा है।जो वाक्जाल में जनता को जितना उलझा दे,उसे उतना ही महात्मा स्वीकार किया जाता है,किंतु वास्तविक संतों की सीधी-सच्ची बात की उपेक्षा की जाती है।सादगी और सरलता अब अध्यात्म क्षेत्र के मूल्यांकन का आधार नहीं रहा,यह आज की सबसे बड़ी विडंबना है।

4.मूल्यांकन की वास्तविक कसौटी (Actual Evaluation Criterion):

  • संतो को भी अब भौतिकता के रंग में रंगा देखना चाहते हैं और यह भी उनकी परख का एक पैमाना होता है।यह ठीक है कि आज के भौतिक युग में आवागमन का साधन बैलगाड़ी नहीं हो सकता।समय जिस रफ्तार से चल रहा है,उस गति से हमें भी चलना पड़ेगा,अन्यथा हम पर पिछड़ेपन का अभिशाप आ लदेगा।इस दृष्टि से कार,कंप्यूटर आज के आवश्यक साधनों में सम्मिलित हो गए हैं।अतः इस आधार पर धर्म क्षेत्र में मूल्यांकन नहीं होना चाहिए।देखा यह जाना चाहिए कि व्यक्तित्व को गरिमापूर्ण धार्मिकता की वास्तविक श्रद्धा को सँजोया है।इससे कम में न तो धर्म को समझा जा सकता है,ना धार्मिक लोगों को।धर्म का प्राण तो व्यक्तित्व की शालीनता में छुपा हुआ है,व्यवहार की चतुरता और बहिरंग के आडम्बर में नहीं।जिसने अंतरंग को जितना परिष्कृत कर लिया,उसे उतना महान माना जाना चाहिए।सज्जनता की यही मांग है।धर्मक्षेत्र में संतत्व का यही चिन्ह होना चाहिए और इसी आधार पर व्यक्तित्व की परख भी।किंतु खेद है कि नासमझ जनता की अंधश्रद्धा,अंधविश्वास और मूल्यांकन की खोटी कसौटी ही हित-अनहित का निर्देशन नहीं करने दे रही।
  • यह बात बड़ी सीमा तक सत्य मानी जा सकती है कि यदि लोकजीवन में विवेकशीलता उभर सके और मूल्यांकन के विषय में अपनी श्रद्धा एवं प्रतिष्ठा का मापदंड ठीक करके सही कसौटी काम में लाई जाए तो जीवन के व्यापक दायरे में छाया भ्रष्टाचार बहुत हद तक दूर हो सकता है।अर्थ तथा धर्म के क्षेत्र में देखने,परखने और मूल्यांकन करने का सही मापदंड,साधन और सच्ची कसौटी व्यक्तित्व के कथन और आचरण की एकरूपता ही है।जिस दिन लोकमानस इस तथ्य को हृदयंगम कर तटस्थ आचरण पर उतारू हो जाएगा,उसी दिन सुधार-शुभारंभ सुनिश्चित हो जाएगा।

5.छात्रा-छात्राओं के मूल्यांकन की कसौटी (Evaluation Criteria for Students):

  • आधुनिक युग में पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आने,तकनीकी के विकास के कारण विश्व एक ग्राम जैसा नजर आने के कारण कनेक्टिविटी हेतु जो पूर्व में दूरी व फासला था वह अब खत्म हो गया है।अतः विकसित देशों के चाल-चलन,एक-दूसरे के संपर्क में आने के कारण बिना सोचे-समझे छात्र-छात्राएँ उनकी संस्कृति को अपनाते जा रहे हैं।पाश्चात्य देशों में चरित्र,नैतिकता के बजाय धन को महत्त्व दिया जाता है।वहां छात्र-छात्राएँ एक-दूसरे के संपर्क में आते हैं और बिन-ब्याहे ही यौन संबंध स्थापित कर लेते हैं।इस तरह विद्यार्थी जीवन में कामसुख का भोग कर लेते हैं।नशा करना,ड्रग्स का सेवन करना,मारपीट करना,उद्दंडता,उच्छृंखलता आदि वहाँ आम बात हो गई है।
  • वहां पर धन को बहुत ज्यादा महत्त्व दिया जाता है।इसलिए धन आना चाहिए,चाहे वह किस तरीके से भी आए।गाड़ियों में,कार में,मोटरसाइकिल आदि के द्वारा गर्लफ्रेंड के साथ घूमना,फिल्में देखना,पोर्न वेबसाइट्स को खंगालना,सेक्स का लुत्फ उठाना आदि को गलत नहीं समझा जाता है।पाश्चात्य देशों की ऐसी दुष्प्रवृत्तियों को भारतीय युवक-युवतियां,पढ़े-लिखे नौजवान सीखते हैं,बिना यह जाने की इसका प्रभाव या दुष्प्रभाव क्या होगा? ऐसी वाहियात बातों को सीखने वाले को मॉडर्न,आधुनिक,समय के साथ चलने वाला समझा जाता है।पाश्चात्य देशों की ऐसी भौंडी नकल युवक-युवतियों को नर्क में दखेल रही है।आज भारत के कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में भी ऐसी ही दुष्प्रवृत्तियाँ देखने को मिल जाएंगी।धनाढ्य छात्र-छात्राओं के आगे-पीछे ऐसी बहुत सी लड़कियां तितली की तरह मंडराती रहती है और उनसे रुपए-पैसे ऐंठकर मौज-मजे और मस्ती करने को ही जायज मानती है और करती हैं।उन्हें ये बातें गलत इसलिए नजर नहीं आती क्योंकि बहुत से छात्र-छात्राएँ इसी रंग में रंगे हुए हैं।जब सामूहिक रूप से गलत बातें,अनैतिक बातें प्रचलन में हो तो वे गलत नहीं लगती हैं।एक अकेला व्यक्ति किसी गलत बात को करता है तो उसे एहसास होता है कि वह गलत कर रहा है परंतु पूरे कुएं में ही भांग मिली हुई हो तो गलत राह पर चलने का एहसास कैसे हो सकता है?
  • जो छात्र-छात्राएं विदेशों में पढ़कर आते हैं वे (सभी नहीं) वहाँ की गंदगी को लाकर यहाँ फैलाते हैं।इस गंदगी को फैलाने में सोशल मीडिया,इंटरनेट भी कम जिम्मेदार नहीं है।जो छात्र-छात्राएं विदेश नहीं जाते हैं वे सोशल मीडिया,इंटरनेट के जरिए यह सब करतब सीखते हैं।दुर्भाग्य की बात यह है कि इसे ही वे अपने मूल्यांकन की कसौटी समझते हैं।गाड़ियों से,कारों से,मोटरसाइकिल से घूमना,ऐशोआराम की जिंदगी जीना,जीवन में जितने लुत्फ उठाएं जा सकते हैं उन्हें उठाना,लिव इन रिलेशनशिप में रहना,बिन ब्याहे माँ-बाप बनना,जिंदगी में मौज-मजे लूटने वाले को मूल्यांकन में खरा उतरने वाला समझते हैं।
  • जो छात्र-छात्रा चरित्रवान हों,ईमानदार हों,सच्चाई की राह पर चलने वाला हो,सरल और विनम्र हो,सहिष्णु हो,शांत चित्त हो,कठिन परिश्रमी हो,अध्ययनशील हो उसे मूर्ख और बुद्धू समझा जाता है।मौका पढ़ने पर ऐसे छात्र-छात्रा की खिल्ली उड़ाई जाती है।चूँकि ऐसे छात्र-छात्राएँ संख्या में कम होते हैं,बहुसंख्यक छात्र-छात्राएं उनके साथ दुर्व्यवहार इसीलिए कर पाते हैं।
  • वस्तुतः छात्र-छात्राओं के मूल्यांकन की कसौटी होनी चाहिए:जो चरित्रवान हो,संयमी हो,ब्रह्मचर्य का पालन करता हो,विद्या ग्रहण करने में रुचि रखता हो,ईमानदार हो,उद्यमशील हो उसकी ही मान प्रतिष्ठा की जानी चाहिए।मान-प्रतिष्ठा का आधार यह नहीं होना चाहिए कि जिसके पास धन-संपत्ति हो,ऐश्वर्य की तमाम चीजें हों,विलासत्ता की चीजों हों,कार,बंगला,गाड़ी,कोठी हो,विलासितापूर्ण जीवन जीता हो।मूल्यांकन की कसौटी का यह मापदंड गलत है।
  • जो छात्र-छात्राएं दूसरों का सहयोग करते हैं,भारतीय संस्कृति के अनुसार जीवन व्यापन करते हैं।चारित्रिक गुणों का विकास करते हैं।उद्यमशील हैं,सद्गुणों का विकास करते रहते हैं,विद्या ग्रहण में अव्वल रहते हैं,विद्या का व्यसन रखते हैं ऐसे विद्यार्थियों का इन सद्गुणों के कारण मूल्यांकन की कसौटी का आधार होना चाहिए।केवल धनलोलुप,भौतिक सुविधाओं का अम्बार और ग्लैमर के आधार पर मूल्यांकन की कसौटी नहीं होनी चाहिए।इसका तात्पर्य यह नहीं है कि धन नहीं कमाना चाहिए,सुख-सुविधाएँ अर्जित नहीं करनी चाहिए।परंतु धन कमाने के तरीके नैतिक और साफ-सुथरे होने चाहिए।अनैतिक तरीके से धन कमाने,भ्रष्टाचार,लूट-खसोट करने वाले,झूठ-पाखंड,चोरी-चकोरी करके धन कमाना,सुख-सुविधाओं को जुटाना और उसके बल पर समाज में मान-प्रतिष्ठा हासिल करना और मूल्यांकन की कसौटी मानना गलत परंपरा और मापदंड गलत है।
  • इसी कारण आज के युवा यह सोचने और करने लगे हैं कि धन मिले चाहे वह किसी भी तरीके से मिले।अधिक धन से अधिकतम धन की प्राप्ति उनके जीवन का मकसद बना हुआ है।इसके लिए वे कुछ भी करने के लिए उतारू हैं।अब युवाओं का यही सपना होता है कि किसी भी तरह रुपए-पैसों की बरसात हो क्योंकि मूल्यांकन की कसौटी रुपया-पैसा,कार,बंगला,विलासिता की वस्तुएँ आदि हो गई हैं।
  • आज युवाओं में इसी कारण चरित्र का पतन देखने को मिलता है।आज युवाओं में जिस नशे का जोर है,उसमें शराब,सिगरेट,चरस,गांजा,अफीम,तंबाकू आदि को कोई जगह नहीं है।ये सब तो गुजरे जमाने की ओल्ड फैशन चीजें हैं।सिगरेट-शराब तो आज सॉफ्ट आइटम कहे जाते हैं।आज का नया शगल जिसे युवा तनाव को दूर करने का साधन बना रहे हैं,कुछ और ही है।यह कुछ और उन्हें पबों,नाइट क्लबों या काॅफी रेस्तराओं की ओर खींचता है।यहाँ उन्हें चिल्ड वाटर,एनर्जी ड्रिंक्स,बेसिर-पैर वाले हंसी-मजाक,अपने में डुबो देनेवाला नया संगीत और शर्ट्स अर्थात् नसों के जरिए ली जाने वाली हीरोइन या कोकीन से है।यह मापदंड बदलना चाहिए।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में मूल्यांकन की कसौटी क्या हो? (What Should be Criterion of Evaluation?),विद्यार्थियों के मूल्यांकन की कसौटी क्या हो? (What Should be Criterion for Evaluating Students?) के बारे में बताया गया है।

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6.छात्र का मूल्यांकन (हास्य-व्यंग्य) (Student Evaluation) (Humour-Satire):

  • छात्रा (कार में बैठे हुए):अरे ओ लाला,सत्यम् कॉलेज का रास्ता किधर है।
  • राहगीरःवाह आप मेरा नाम कैसे जानती हो?
  • छात्रा (कार में स्टाइल से हाथ हिलाते हुए):यही तो हमारी खासियत है।अब बताओ सत्यम् कॉलेज का रास्ता किधर है।
  • राहगीर:तो उसी खासियत से कॉलेज का रास्ता भी मालूम कर लो।

7.मूल्यांकन की कसौटी क्या हो? (Frequently Asked Questions Related to What Should be Criterion of Evaluation?),विद्यार्थियों के मूल्यांकन की कसौटी क्या हो? (What Should be Criterion for Evaluating Students?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.अधिकांश भटके हुए युवा किस स्तर के हैं? (What level are most of the lost youth?):

उत्तर:चरित्र का विकास न होने के कारण आज किसी बड़े नेता,मंत्री अथवा किसी बड़े व्यावसायिक घराने से जुड़े होने के बावजूद हत्या,हिंसा,नशा जैसी घटनाओं में लिप्त हैं जो एलिट वर्ग में गिने जाते हैं।

प्रश्न:2.क्या अभावग्रस्त युवा भटके हुए नहीं हैं? (Aren’t the underprivileged youth misguided?):

उत्तर:अभावग्रस्त वे युवा भी जिंदगी की समस्याओं को सुलझाने के लिए संघर्ष एवं सन्मार्ग छोड़कर किसी शॉर्टकट का सहारा लेते हैं वे भी भटक जाते हैं।मुझे सब कुछ चाहिए और अभी चाहिए ऐसे सपने देखने वाले युवक भी जिंदगी की रपटीली राहों पर फिसलते और जीवन गँवाते देखे जाते हैं।

प्रश्न:3.आज का युवा क्यों भटका हुआ है? (Why is today’s youth misguided?):

उत्तर:युवाओं में संवेदना है,किसी के दर्द को अनुभव करने की,क्षमता है पीड़ा,पराभव एवं पतन को पराजित करने की,भावना है स्वयं के यौवन की सार्थकता सिद्ध करने की।पर करे क्या!सही दृष्टि जो नहीं है।समाज ने जो मूल्यांकन की कसौटी गलत बना रखी है।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा मूल्यांकन की कसौटी क्या हो? (What Should be Criterion of Evaluation?),विद्यार्थियों के मूल्यांकन की कसौटी क्या हो? (What Should be Criterion for Evaluating Students?) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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