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Intimacy and Peace VS Amenities

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1.आत्मीयता और जुड़ाव बनाम सुख-सुविधाएँ (Intimacy and Peace VS Amenities),हमने आत्मीयता और शांति कैसे खोयी है? (How Have We Lost Our Intimacy and Peace?):

  • आत्मीयता और जुड़ाव बनाम सुख-सुविधाएँ (Intimacy and Peace VS Amenities) में अपनापन,शांति को खोकर हम सुख-सुविधाएँ जुटाते जा रहे हैं।जबकि सच्ची संपदा अपनापन जुड़ाव ही है।सुख-सुविधाएँ सांसारिक कर्त्तव्यों का पालन करने के लिए आवश्यक तो है परंतु अपनापन और शांति को खोकर नहीं अपनाये जाने चाहिए।
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2.साधन और सुविधाओं का वैभव (Splendor of means and facilities):

  • आज भौगोलिक दूरियां कम हुई है।संसार ‘ग्लोबल विलेज’ जैसा बन गया है।साधन-सुविधाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है।इसी कारण इसे ‘संचार का युग’ कहा जाता है।साधनों के इस अम्बार में,सुविधाओं की इस विपुलता में कुछ खोया है तो वह है:भावना,संवेदना तथा इनके संवेदनशील तारों से बने-बुने इंसानी रिश्ते।एक ओर भौगोलिक दूरियां कम हुई है तो दूसरी और भावनात्मक दूरियां बढ़ी है।इन दोनों के घटने-बढ़ने का अनुपात समान है।आज सुदूर देश एवं विदेशी महानगर का कोई कोना हमारी पहुंच से परे नहीं है,परंतु एक ही मंजिल पर रहने वाले दो पड़ोसी आपस में एकदम अनजान एवं अजनबी हैं।
  • साधन और सुविधाओं के वैभव का अपना महत्त्व एवं आकर्षण है।इसे नकारा नहीं जा सकता और न इनकार किया जा रहा है।इसके कारण कार्यक्षेत्र व्यापक हुआ है और साथ ही कार्यक्षमता में भी बढ़ोतरी हुई है,परंतु इसने मनुष्य को एक मशीन बनाकर रख दिया है।अतुल संपत्ति-संपदा के स्वामी बन जाने के बावजूद हमारे पास निजी संबंधों के निर्वाह के लिए समय नहीं रह गया है।अब तो अपने लाड़लों के साथ दो पल बिताने का समय नहीं रहा।मनुष्य यंत्रवत् जिंदगी जीता चला जा रहा है।उसके पास भावनात्मक सुकून देने वाले मार्मिक क्षण कहां हैं! परिस्थितियों ने इंसान को एक प्रकार की बायोमशीन बना दिया है।इसकी बुद्धि और कार्यक्षमता के आधार पर इसकी बोली लगाई जाती है अर्थात् तनख्वाह मिलती है।संचार के इस युग में दूरियां मिट गई हैं।द्रुतगामी यातायात के साधनों से महीनों का सफर घंटों में सिमट गया है और टेलीकम्युनिकेशन से अब कनाडा एवं ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले व्यक्ति से ऐसी बातें होती हैं,जैसे वह कोई हमारा पड़ोसी है,परंतु ठीक इसके विपरीत हमारे पड़ोसी की दूरियां भी उतनी बढ़ गई है,जैसे वह कहीं सुदूर देश में रहता हो।यांत्रिकी साधनों ने सुविधाएं तो दी हैं,परंतु इसमें भावनात्मक विलगाव एवं अलगाव बहुत हुआ है।हम एक यंत्र बनकर रह गए हैं।हमारे अंदर की संवेदना,भावना सूख गई है।
  • यह तो ठीक है कि किसी जमाने में यात्रा करना खतरे से खाली नहीं था।हरिद्वार से रामेश्वरम पहुंचने में यात्रियों को महीनों लग जाते थे।अनेक छोटे-छोटे देशों,प्रान्तों से गुजरना पड़ता था।हरेक के अपने नियम-विधान होते थे। उसी के दायरे में से गुजरना पड़ता था।यातायात का घोर अभाव एवं ऊपर से जंगल,नदी,मुहानों की भरमार। रास्ता भटक जाने का भय सदा सताता रहता था।वीरान जंगलों में यात्रियों को एक और जहां खूंखार जंगली जानवरों से भिड़ना पड़ता था,वहीं दूसरी ओर चोर,डाकुओं की भी आशंका बनी रहती थी।एक से बचे तो दूसरा विपत्ति बनकर खड़ा रहता था।
  • सुदूर गांव से जगन्नाथपुरी,बद्रीनाथ,रामेश्वरम,द्वारका आदि धामों की यात्रा करने वाले श्रद्धालुओं को उनके घर वाले श्राद्ध-तर्पण के साथ विदाई करते थे;पर क्योंकि वहां से उनका सकुशल लौट पाना अत्यंत कठिन होता था।उन्हें उपस्थित संकटों के साथ गंभीर रूप से हैजा,चेचक,काॅलरा आदि असाध्य रोगों का भी सामना करना पड़ता था।जो यात्रा करके लौट आते तो उन्हें सौभाग्यशाली माना जाता था और समझा जाता था कि उनका दूसरा जन्म हुआ है।साधनों के सघन अभावों में जीवन चलता था।इन अभावों में संकटों के बीच भी वे प्रसन्न रहते थे।उनके बीच संवेदनशील रिश्तों की डोर बड़ी सुदृढ़ एवं मजबूत हुआ करती थी।यह रिश्तों की सही मिठास,अपनेपन की सही खुशबू उनके अपार अभावों की पूर्ति कर देती थी।

3.सुविधाएँ पायी परंतु संवेदनशीलता खोयी (Got the facilities but lost the sensitivity):

  • किसी गांव में आने वाली वधू उसके मायके के गांव के प्रायः सभी नाम से परिचित होती थी और मायके वाले गांव के लोग जब भी उसके घर के पास से गुजरते तो उसे अपनी बेटी के समान यथायोग्य उपहार,फल,मिठाई आदि पहुंचा कर जाते थे।अपनी संस्कृति की यह सुदृढ़ परम्परा हमको आपस में एकदूसरे से बांधती थी।दिन भर कड़ी मेहनत करने के बाद शाम एवं रात के समय चौपाल में आपस में मिलकर अपने सुख-दुख बोलते-बताते थे।यह एक प्रकार की ग्रुप काउंसलिंग थी,जो सबको अपनी समस्याओं को कहने,समझने एवं उनके निदान का मौका देती थी।तब अनेक अभावों की जिन्दगी भी बड़ी सुकूनदायक थी; क्योंकि हम सब आपस में भावनात्मक रिश्तों से बंधे होते थे।
  • बेशक आज हमारे पास पूर्वजों के समान अभाव नहीं है और न ही उन जैसी कठिनाईयाँ ही हैं।आज हम अत्याधुनिक युग में रहते हैं,परंतु जो चीज खो गई है,वे हैं हमारे मधुर संबंध,संवेदनशील रिश्ते एवं इन रिश्तों की महक।आज हम सुविधा-साधनों के शिखर पर पहुंचकर भी आंतरिक दरिद्रता से ग्रस्त हैं।हमारे पास सब कुछ है।खाने एवं रहने के लिए तरह-तरह की भोजन-सामग्री,फाइवस्टार होटल आदि;आवागमन के लिए लग्जरी गाड़ियां,तमाम प्रकार के अत्याधुनिक उपकरण,अकूत धन-संपदा आदि,परंतु इन सब के बीच हमसे खोया है तो आपसी विश्वास,सौहार्द्र,सहयोग-सहकार एवं बेहद अपनापन। साधनों के ढेर में अनजाने-अजनबी बनकर जाने क्या तलाश रहे हैं।यह ठीक है कि साधन-सुविधाओं की जरूरत पड़ती है,परंतु यही सब कुछ नहीं है,इसके अलावा भी कुछ चाहिए,जो दे सके दिल को सुकून और एक मुट्ठी अपनापन।इसी का अभाव हमें सता रहा है।हम सब इसकी खोज में बेतहाशा भाग रहे हैं,पर सही जगह तलाश नहीं रहे हैं,इसलिए यह मिल भी नहीं रहा है।
  • पहले लोग साधनों-सुविधाओं से रहित रेगिस्तान में भी प्रेमपूर्वक रह लेते थे और इसकी वजह थी,प्रचुर मात्रा में उपलब्ध उनकी आंतरिक संपदा।सहयोग-सहकार के भाव से जीवनयापन करने वाले अनेक परेशानियों के बीच भी जी लेते हैं।अपनापन जहां होता है,सारे मतभेद भुला दिए जाते हैं।बुद्धि ही है,जो अपने और पराए का भेद करती है,पर दिल तो सबको अपना मानता है-भेद नहीं है उसमें और न वह भेद करना जानता है।यह स्वच्छ एवं साफ हृदय का परिचय है,जो आज हमसे खो गया है या हमने इसे खो दिया है।
  • हम भौतिक विकास की कितनी ही बुलंदियों को क्यों न छू लें,आंतरिक विकास के अभाव में यह दूरी अधूरी,अपंग एवं चुभन भरी ही रहेंगी।भौतिक जीवन के लिए भौतिक उपलब्धियों की जितनी महत्ता है,उतनी ही आवश्यकता आंतरिक विकास की है।उपलब्धियाँ दोनों में होना जरूरी है।अगर ‘ग्लोबल विलेज’ के रूप में दूरियां कम हो रही हैं तो भावनात्मक दूरियां भी मिटनी चाहिए;अन्यथा एकांगी विकास की इस दौड़ में उपजी हताशा-निराशा एवं अनेक भावनात्मक एवं मानसिक विकारों से इंसान अपना बहुमूल्य जीवन गवाँ सकता है। मनोवैज्ञानिकों की माने तो समस्त मनोविकार दबी-कुचली भावनाओं के परिणाम हैं।आधुनिक युग की इस दौड़ में बहुत आगे निकल जाने वाले इंसान की समस्या यही है।अतः उसे भौतिक उपलब्धियों के साथ भावनात्मक पोषण की भी आवश्यकता है,जो सहकार,सहयोग,सेवा,अपनापन आदि से ही पाया जा सकता है।इससे सभी प्रकार की दूरियां मिट सकती हैं और सर्वांगीण विकास संभव हो सकता है।यही है आज का समाधान।

4.केवल भोग-विलासितापूर्ण जीवन संवेदनहीनता है (Only a life of luxurious is insensitivity):

  • भोग-विलासितापूर्ण जीवन एक प्रकार की संवेदनहीनता ही है।मनुष्य विलासिता से परिपूर्ण जीवन तभी जी सकता है,जब वह संवेदनहीन होता है;क्योंकि उसे समाज की पीड़ा,व्यक्ति का दुःख दिखाई नहीं पड़ता।ऐसा व्यक्ति ही अपने सुख-भोग के अनावश्यक साधन एकत्र कर सकता है।देश में जो भी भ्रष्टाचार एवं घोटाले पनप रहे हैं,वे सभी संवेदनहीनता से जन्में हैं। हमारे समाज में इसी संवेदनहीनता के कारण इतनी असमानता है कि कोई अत्यंत गरीब है तो कोई बहुत अमीर।किसी के पास अनाजों से भरे हुए कई गोदाम हैं तो किसी के पास खाने के लिए अन्न का एक दाना भी नहीं।हमारे समाज की दुर्दशा का एक कारण सामाजिक दायित्वों व कर्त्तव्यों की अवहेलना करना भी है।
  • हमारे देश में पहले जब राजाओं का शासन था तब प्रजा के पालन-पोषण का संपूर्ण दायित्व राजा का होता था।राजा का यह कर्त्तव्य होता था कि वह प्रजा के हित के लिए कार्य करें;क्योंकि राजा सर्वशक्तिमान व साधन संपन्न होता था।अब राजाओं का शासन तो चला गया,लेकिन देश की स्थिति सुधरने का नाम अब भी नहीं ले रही।जगह-जगह पर घोटाले,भ्रष्टाचार व किसी भी तरीके से धन को लूटने का कार्य किया जा रहा है।निम्न पद से लेकर उच्च पद तक आसीन लोग भी अपने सामाजिक दायित्वों से मुकर रहे हैं और इसका परिणाम यह हो रहा है कि समाज में एक असंतुलन व्याप्त होता जा रहा है।संवेदनहीनता इस कदर बढ़ गई है कि लोग दूसरों के दुःख,दर्द,कष्ट को देखकर भी अनदेखा कर देते हैं।
  • संवेदना यदि होती है तो दूसरों के कष्ट व पीड़ा को देखकर शांति से बैठने नहीं देती,मन में बेचैनी होती है और जब तक उस पीड़ा के निवारण के लिए कुछ कर न दिया जाए तब तक मन को शांति नहीं मिलती।संवेदना होती है तो दूसरों की कष्ट-तकलीफ अपनी पीड़ा के समान लगती है।संवेदना होती है तो देश के प्रति देशप्रेम होता है,लेकिन समाज में शायद संवेदनहीनता इतनी हावी है कि संपन्न लोग भी समाज को कुछ देने के बजाय अपना ही हित साधने में लगे हुए हैं।भले ही उनके गोदामों में रखा हुआ सामान व अन्न सड़ने क्यों न लगे,उसे जरूरतमंद लोगों में वितरित नहीं किया जाता।
  • हमारे देश में इतना धन है कि उसका यदि सही ढंग से उपयोग हो तो किसी को किसी भी तरह की आर्थिक समस्या न होगी,देश में कोई युवक बेरोजगार ना होगा और महंगाई की समस्या भी सदा के लिए खत्म हो जाएगी।ऐसा होने पर कोई भी बच्चा कुपोषण का शिकार ना होगा और आर्थिक तंगी से होने वाली सभी प्रकार की समस्याओं का समूल नाश हो जाएगा।अभी वर्तमान में ऐसा नहीं है और इसका कारण कुछ लोगों की संकीर्ण मानसिकता व संवेदनहीनता है।अब उम्मीदें आगे वाली पीढ़ी से है,जो देश के प्रति सहृदयता का व्यवहार कर सके।
  • आवश्यकता है ऐसे ओजस्वी,तेजस्वी व्यक्तित्वों की जिनके बल पर एक खोया हुआ समाज जाग्रत हो सके।इस समय जरूरत है उन शिक्षाओं की,जिनके माध्यम से हमारी सोई हुई चेतना जाग्रत हो सके और हमारी संवेदना जाग्रत हो सके।आज आवश्यकता फिर से उन सशक्त व्यक्तित्वों की है,जिनके केवल कहने मात्र से पूरा समाज एक सूत्र में बंधकर कार्य करने लगे।हमारे देश में ऐसे सशक्त व्यक्तित्व पैदा हुए हैं,जिन्होंने समाज को खड़ा करने के लिए अपना सर्वस्व समर्पण किया है और अपने लिए केवल उतना ही लिया है,जिससे उनका जीवन निर्वाह हो सके,जैसेःगौतम बुद्ध,महावीर स्वामी,आचार्य चाणक्य आदि ऐसे ही दुर्लभ व्यक्तित्व थे,जिनके कार्यों का लोग आज भी गुणगान करते हैं,जिनके आदर्शों पर चलने के लिए लोग आज भी तैयार हैं।हमारे देश में अनेक आध्यात्मिक व्यक्तित्व भी जन्म लिए हैं,जिनका स्मरण और गुणगन करते हुए व्यक्ति आज भी नहीं थकता राम-कृष्ण,भगवान शंकर,महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती आदि।
  • हमारे देश में एक महान व्यक्तित्व हुए हैं जिन्होंने गणित,विज्ञान एवं शिक्षा जगत में अभूतपूर्व उपलब्धियां हासिल की हैं जैसे महावीराचार्य,ब्रह्मगुप्त,भास्कराचार्य,आर्यभट,सी. वेंकटरमन,डॉ. अब्दुल कलाम आदि।इनके अंदर जाग्रत संवेदना ने ही इन्हें ऊंचाइयों तक पहुंचाया।
  • वस्तुतः त्याग ही व्यक्ति को महान बनाता है।इसी कारण हमारे धर्मग्रन्थों में दान का बहुत महत्त्व बताया गया है।दान का मतलब है:अपनी वस्तुओं को जरूरतमंद लोगों को दे देना।इससे व्यक्ति का पुण्य बढ़ता है और दूसरों को लाभ होता है,लेकिन शायद आज लोगों के अंदर देने की भावना खत्म होती जा रही है और केवल लेने की भावना रह गई है,लेकिन इसका परिणाम बहुत दुःखदायी होता है।यदि नदी अपने जल को वितरित न करें तो उसके निर्मल जल में कुछ दिनों में सड़न पैदा हो जाएगी और वह पीने योग्य स्वच्छ नहीं रह जाएगा।उसी तरह यदि देश के लोग दूसरों को देने की परंपरा का त्याग कर दें,धर्म के मार्ग पर चलना छोड़ दें तो यह देश पुनः विकृतियों से ग्रस्त हो जाएगा,रुग्ण हो जाएगा।जिस तरह मुंह में प्रविष्ट भोजन का ग्रास यदि पचे नहीं और भोजन का सूक्ष्म अंश शरीर की हर कोशिका तक न पहुंचे तो ऐसा शरीर सुंदर दीखते हुए भी शीघ्र रोगग्रस्त हो जाएगा।स्वस्थ तभी होगा,जब भोजन का पाचन ठीक ढंग से हो,शरीर के प्रत्येक अंग तक पोषक तत्त्वों का यथोचित गमन हो।उसी तरह यदि देश की प्रगति के लिए किए जाने वाले प्रयास आम लोगों तक न पहुंचे तो समाज की रुग्णता का बढ़ना स्वाभाविक है।समाज स्वस्थ तभी होगा,जब देश का हर नागरिक पूरी ईमानदारी से अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करे,आदर्श नागरिक बने,धर्म के मार्ग पर चले और बिना किसी प्रदर्शन की भावना से देश की सच्ची सेवा व अन्य लोगों का सहयोग करे।अब आशा समाज को नए कर्णधारों से है कि वे समाज की वर्तमान परिस्थिति को समझें और आदर्शों के मार्ग पर चलते हुए देश की वर्तमान स्थिति को सँवारे।
  • अतः छात्र-छात्राएं केवल भौतिक शिक्षा अर्जित करने,जॉब की तकनीक सीखने में ही नहीं लग रहें,बल्कि अपने मानसिक और आत्मिक विकास पर भी ध्यान दें,व्यावहारिक ज्ञान भी प्राप्त करें।वरना आप जाॅब प्राप्त करके धनार्जन से सुख-सुविधाएं तो जुटा लेंगे लेकिन आपको आत्मिक संतुष्टि नहीं मिलेगी।लोगों से,परिवार से,माता-पिता से,समाज से,देश से अपना जुड़ाव महसूस नहीं करेंगे।मानसिक रूप से अतृप्ति अनेक मानसिक विकृतियों को जन्म देगी फलस्वरूप आप बहुत कुछ प्राप्त करके भी सुकून,शांति अनुभव नहीं करेंगे।ऐसी जिंदगी  जिसमें सुकून और शांति ना हो,आपस में आत्मीयता ना हो,भारस्वरूप महसूस होगी।जिंदगी को जिंदादिल से नहीं गुजारेंगे बल्कि जीवन का प्रत्येक क्षण आपको काटने के लिए दौड़ेगा।सांसारिक कर्त्तव्यों का पालन करने के लिए सुख-सुविधाएं जुटाना जरूरी है परंतु आत्मीयता को खोकर नहीं।सुख-सुविधाओं पर आपकी मालकियत होनी चाहिए,न कि सुख-सुविधाएँ आपकी मालिक बन जाए यानी आपको सुख-सुविधाओं का आदी नहीं होना चाहिए।
    इस विद्यार्थी जीवन में यह कला सीखनी चाहिए वरना बाद में आपको बहुत पश्चात्ताप होगा और आप यह समझ ही नहीं पाएंगे कि
  • आपने बहुत कुछ प्राप्त कर लिया फिर भी अपने अंदर एक खालीपन,सूनापन,रिक्तता महसूस करेंगे।
    उपर्युक्त आर्टिकल में आत्मीयता और जुड़ाव बनाम सुख-सुविधाएँ (Intimacy and Peace VS Amenities),हमने आत्मीयता और शांति कैसे खोयी है? (How Have We Lost Our Intimacy and Peace?) के बारे में बताया गया है।

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5.शांति से सो रही थी (हास्य-व्यंग्य) (She Was Sleeping Peacefully) (Humour-Satire):

  • उमा:पापा आज टीचर ने मुझे बहुत मारा।
  • पापाःजरूर तुमने सवाल हल नहीं किए होंगे।
  • उमाःनहीं पापा,मैं तो पढ़ाई-पढ़ाई,सवाल-सवाल हल करो,पढ़ो-पढ़ो से तंग आकर दो पल के लिए कालांश में सुकून से सो रही थी।

6.आत्मीयता और जुड़ाव बनाम सुख-सुविधाएँ (Frequently Asked Questions Related to Intimacy and Peace VS Amenities),हमने आत्मीयता और शांति कैसे खोयी है? (How Have We Lost Our Intimacy and Peace?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्नः

प्रश्न:1.आवश्यकता का क्या आशय है? (What is meant by necessity?):

उत्तर:जो जो वस्तुएं हमारे जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक हों,उन्हें प्राप्त करना जरूरी होता है अतः ऐसी आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए हमें अवश्य प्रयत्नशील रहना चाहिए क्योंकि इन्हें प्राप्त करना हमारी मौलिक आवश्यकता है,बुनियादी जरूरत है।

प्रश्न:2.सुविधा को स्पष्ट करो। (Clarify the feature):

उत्तर:जब आवश्यकताओं की पूर्ति करने की क्षमता प्राप्त हो जाए तब थोड़ी सुविधाओं (comfort) को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए जैसेःशिक्षा प्राप्त करना हमारी बुनियादी जरूरत है और शिक्षा के साथ अच्छा विद्यालय,कोचिंग की व्यवस्था भी हो जाए तो यह एक कदम आगे का सुविधा वाला (comfort) मामला है।

प्रश्न:3.विलासिता पर टिप्पणी लिखो। (Write a comment on luxury):

उत्तर:आवश्यकता और सुविधा की पूर्ति करने का मामला तो ठीक है और आवश्यक भी,पर इससे आगे सुख,ऐश्वर्य को भोगने का,विलासिता की वस्तुओं का उपभोग करने का जो मामला है बस वही घपले वाला है क्योंकि आवश्यकता और सुविधा की तो सीमा होती है पर विलासिता का कोई अंत नहीं होता।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा आत्मीयता और जुड़ाव बनाम सुख-सुविधाएँ (Intimacy and Peace VS Amenities),हमने आत्मीयता और शांति कैसे खोयी है? (How Have We Lost Our Intimacy and Peace?) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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