6 Best Tips to Find Peace with Wealth
1.अर्थ के साथ सुख-शांति मिलने की 6 बेहतरीन टिप्स (6 Best Tips to Find Peace with Wealth),अर्थ के साथ सुख-शान्ति कैसे प्राप्त हो? (How to Attain Peace and Happiness with Wealth?):
- अर्थ के साथ सुख-शांति मिलने की 6 बेहतरीन टिप्स (6 Best Tips to Find Peace with Wealth) के आधार पर आप जान सकेंगे कि अर्थ अर्थात् धन-वैभव के साथ सुख-शांति कितनी जरूरी है।परंतु हो इसके उल्टा रहा है अर्थात् धन-वैभव तो बढ़ता जा रहा है।परंतु सुख-शांति छिनती जा रही है।
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2.धनार्जन पर अधिक ध्यान (More focus on earning money):
- सामान्य बुद्धि इसी निश्चय पर पहुंचती है कि सुविधा-साधन बढ़ने से मनुष्य को सुख-शांति मिलनी चाहिए और अधिक प्रसन्नता तथा प्रगति का अवसर मिलना चाहिए।इसी आधार पर अधिक समृद्धि उपलब्ध करने के लिए नाना प्रकार के उचित-अनुचित प्रयत्न करने में लगे रहते हैं।इन दिनों मान्यता एवं चेष्टा और अधिक बढ़ गई है।साम्यवादी प्रतिपादनों ने पिछले दिनों यह घोषणा बहुत जोरों से की है कि संसार की समस्त कठिनाइयों का प्रधान कारण धन की कमी है।धन बढ़ेगा तो समस्त कठिनाइयां स्वयं ही समाप्त हो जाएंगी।इसके लिए अधिक उत्पादन पर जितना ध्यान दिया जाना चाहिए था उतना ध्यान नहीं दिया गया वरन धनिकों को गरीबी का कारण ठहराकर वर्ग संघर्ष खड़ा कर दिया गया।जो भी हो लक्ष्य धन की अभिवृद्धि ही रहा।
- पूंजीवादी क्षेत्र में भी अर्थ-संवर्द्धन के लिए कम प्रयत्न नहीं किए गए।हर देश में अपने-अपने ढंग से समृद्धि-संवर्द्धन के प्रयत्न चल रहे हैं।विज्ञान ने इस निमित्त अनेकानेक आविष्कार किए हैं और सफल संवर्द्धन ही नहीं अर्थ-उपार्जन के लिए भी अनेकानेक उपकरण-आधार विनिर्मित किए हैं।शिल्पी-व्यवसायी,अर्थशास्त्री अपनी आमदनी का अधिकांश भाग धन-उपार्जन के निमित्त ही लगाते रहे हैं।इसमें सफलता भी कम नहीं मिलती,पूर्वजों की तुलना में अपनी पीढ़ी कहीं अधिक समृद्ध है।सुविधा-साधनों की दृष्टि से इस पीढ़ी के लोग इतने सौभाग्यशाली हैं जितने सृष्टि के आरम्भ से लेकर अपनी शताब्दी के मध्यकाल में कभी नहीं रहे।गरीबी दूर नहीं हुई।कारण यह नहीं है कि 600 करोड़ मनुष्य की उचित आवश्यकता पूरी कर सकने के लिए आवश्यक सुविधा-साधन उपलब्ध नहीं हैं,वरन् यह है कि उनके संचय की ललक और उपभोग की लिप्सा ने संपत्ति का सदुपयोग संभव नहीं रहने दिया।साधनों की वृद्धि तेजी से जारी है।सम्पन्नता बढ़ रही है।इतने पर भी यह आशा नहीं बँधती कि प्रस्तुत कठिनाइयों का कोई हल निकलेगा।अमेरिका जैसे धनकुबेर इस बात के साक्षी हैं कि बहुत वैभव होने पर भी मनुष्य शारीरिक और मानसिक दृष्टि से किस तेजी के साथ दुर्बल एवं रुग्ण होते चले जा रहे हैं।पारिवारिक और सामाजिक जीवन में उन्हें कितनी भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।बढ़ते हुए मनोरोग और अपराध यह बताते हैं कि बढ़ा हुआ वैभव भी व्यक्ति को सुखी एवं समुन्नत बनाने में कुछ अधिक कारगर सिद्ध नहीं हो रहा है।
- यहां वैभव-वृद्धि की अनुपयोगिता नहीं ठहराई जा रही है और उन प्रयत्नों के विरुद्ध कुछ नहीं कहा जा रहा है।संपत्ति बढ़ना तो मनुष्य के कौशल एवं पुरुषार्थ का ही प्रतिफल है।अस्तु,उसे सराहनीय ही कहा जाएगा।चर्चा यह हो रही है कि पिछली पीढ़ी के लोग आज की तुलना में कहीं अधिक अभावग्रस्त थे।उनमें से कुछ जीवित रहे होते,तो आज बड़ी-चढ़ी सुविधाओं को देखते और अपने समय की परिस्थितियों के साथ तुलना करते तो उन्हें यह समय चमत्कारी समृद्धि,ऋद्धि-सिद्धियों से भरापूरा प्रतीत होता।रेल,तार,डाक,जहाज,मोटर,सड़क,शिक्षा,चिकित्सा,शिल्प,कला,व्यवस्था आदि की जो बढ़ोतरी हुई है उसे देखते हुए पिछली पीढ़ी वाले यही कल्पना कर सकते हैं कि इन दिनों के लोग देवोपम जीवन जी रहे हैं और स्वर्गीय परिस्थितियों का आनंद ले रहे होंगे।
- स्थिति बिल्कुल उल्टी है।व्यक्ति दिन-दिन शारीरिक,मानसिक और आंतरिक सभी क्षेत्रों में दुर्बल पड़ता जा रहा है।रुग्णता और दुर्बलता एक फैशन एवं प्रचलन है,यद्यपि पौष्टिक खाद्य-पदार्थों और चिकित्सा-साधनों की कोई कमी नहीं है।उसी प्रकार मस्तिष्कीय विकास के लिए पाठशालाओं से लेकर पुस्तकों तक के अगणित साधन उपलब्ध हैं।रेडियो,अखबार,प्रदर्शनी,यात्रा,सभा-सम्मेलन आदि की सुविधा से जानकारी का क्षेत्र तेजी से बढ़ रहा है।
3.वैभव बढ़ने के साथ मनोरोग बढ़े हैं (Psychiatric diseases have increased with increased splendor):
- अशिक्षा के विरुद्ध युद्धस्तरीय प्रयत्न चल रहे हैं और विज्ञ एवं कुशल लोगों की संख्या तूफानी गति से बढ़ रही है।इतने पर भी मनोरोग,हेय-चिंतन,दुर्भाव,अनुपयुक्त महत्वाकांक्षा जैसे अनेकों ऐसे आधार खड़े हो गए हैं,जिनके कारण जनमानस में असंतुलन,उद्वेग एवं आक्रोश उत्पन्न करने वाले तत्वों की ही भरमार है।अधिकांश जनमानस संतोष और शांति से वंचित है।प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता के लक्षण अपवाद रूप से भी दृष्टिगोचर नहीं होते हैं।हर व्यक्ति खिन्न-चिंतित,उदास दृष्टिगोचर होता है।न उमंगें हैं,ना आशा-आशंकाओं और समस्याओं के भार से हर मनुष्य का मस्तिष्क तनावग्रस्त दीखता है।असुरक्षा और एकाकीपन का भार इतना लद रहा है कि जिंदगी भारी लाश की तरह ढोनी पड़ रही है। बढ़ी हुई विपन्नता में हताशों,हत्याओं का दौर बढ़ रहा है।अर्द्धहत्या की घटनाएं तो पग-पग पर देखी जा सकती हैं।विक्षिप्त और अर्द्धविक्षिप्त सनकी और वहमी लोगों की संख्या इस तेजी से बढ़ रही है कि स्वस्थ और संतुलित मनःस्थिति वाले व्यक्ति खोज निकालना कठिन दीखता है।बाहर से चतुर और बुद्धिमान,सुशिक्षित और संपन्न दीखने वाले व्यक्ति भी भीतर-ही-भीतर इतने खोखले और उथले पाए जाते हैं कि कई बार तो उनके सुशिक्षित होने में भी संदेह होने लगता है।
- पारिवारिक स्नेह-सौजन्य,सहयोग-सौहार्द घटते-घटते समाप्ति के बिंदु तक जा पहुंचा है।माता-पिता और संतान के बीच,भाई-बहिनों में,भावज-ननद में जैसी आत्मीयता होती है,उसका दर्शन दुर्लभ हो रहा है।एक बाड़े में रहने वाले भेड़ों की तरह कुटुंबों में कई व्यक्ति रहते तो हैं,पर एक-दूसरे पर प्यार और सहयोग बिखेरने के स्थान पर अपनी-अपनी गोटी बिछाने में लगे रहते हैं।परिवार संस्था से अधिकाधिक लाभ किस प्रकार उठाया जा सकता है,घर का हर सदस्य इतना ही सोचता है।अधिकार की मांग है और कर्त्तव्य की उपेक्षा।फलतः परिवार नीरस-निरानंद हो चले हैं।दुकान-दफ्तर से लौटने पर घर में जो स्वर्गीय आनंद मिल सकता है,उससे अधिकांश लोग वंचित हैं।थकान मिटाने के नाम पर नशा,सिनेमा,यारवासी जैसे घटिया आधार ढूंढने के लिए लोग प्रायः बचे हुए समय को भी बाहर बिताते हैं।
- पति-पत्नी का रिश्ता एक प्राण दो देह का माना जाता है।जीवन रथ को अग्रगामी बनाने में दोनों को दो पहियों की भूमिका निभानी चाहिए।नाव खेने में दो हाथ काम देते हैं,इसी प्रकार गृहस्थी की सुव्यवस्था में पति-पत्नी का योगदान होता है।दोनों को एक मन होकर समन्वित जीवन जीना पड़ता है,किंतु लगता है वे आदर्श समाप्त प्रायः हो गए हैं।यौन लिप्सा ही वह आधार रह गया,जिसमें दोनों एक-दूसरे के साथ जुड़े रहते हैं।इसी प्रसंग में बच्चे आ सकते हैं और उनके प्रति जो प्रकृति प्रदत्त माया-मोह होता है,उस सूत्र से भी पति-पत्नी किसी प्रकार बंधे रहते हैं।यदि यौन-आकर्षण और बालकों का मोह हटा लिया जाए,तो सहज सौजन्य से प्रेरित भावभरा दंपति जीवन कदाचित ही कहीं दृष्टिगोचर होगा।समृद्ध देशों में स्वच्छंदता के कारण ही,पिछड़े देशों में विवशता के कारण ही पति-पत्नी के बीच काना-कुबड़ा स्नेह-संबंध जीवित रह रहा है।परिवार टूटते जा रहे हैं।वयस्क होते ही हर किसी को अलग रहने की बात सूझती है।मजबूरी से जो साथ रहते हैं,उन्हें भी सोचना यही पड़ता है कि सम्मिलित कुटुंब के सदस्य न रहते तो अच्छा होता।पढ़ी-लिखी लड़कियां और उनके अभिभावक विवाह-संबंध जोड़ने के साथ ही यह सोचते हैं कि बड़े कुटुंब का सदस्य बनकर न रहना पड़े।बिलगाव के इस प्रयत्न में पारिवारिक जीवन,जिसे घरोंदों में बसने वाला स्वर्ग कहा जाता था,एक प्रकार से छिन्न-भिन्न,अस्त-व्यस्त और नष्ट-भ्रष्ट ही होता चला जा रहा है।इस सौभाग्य से वंचित रहने पर लोग सराय में दिन बिताने वाले आवारागर्द लोगों की तरह दिन गुजारते हैं।गृहस्थ जीवन का भावात्मक आनंद कितना उच्चस्तरीय होता है,इसकी अनुभूति ही नहीं,कल्पना भी लोगों के हाथ से छिनती जा रही है।
4.आजीविका और समाज व्यवस्था (Livelihood and social order):
- आर्थिक दृष्टि से प्रायः सभी लोग दरिद्री हैं।अभावग्रस्त लोग स्वतंत्र आजीविका के कारण जितने खिन्न पाए जाते हैं,उससे अधिक उद्विग्न वे हैं जिनके पास साधनों का बाहुल्य है।धन कमाना एक बात है और उसका सदुपयोग करना बिल्कुल दूसरी।एक पक्ष तो बढ़ रहा है,पर दूसरे की दुर्दशा ने सारा संतुलन ही बिगाड़ दिया।विलासिता,आलस्य,बनावट,शान-शौकत की मदें इतनी खर्चीली हो रही है कि भोजन-वस्त्र जैसे आवश्यक व्यय तो उनकी तुलना में नगण्य जितने ही लगते हैं।अहंकार और बड़प्पन सहोदर जैसे बनते जा रहे हैं।संपन्नता की धारा दुर्व्यसनों के गर्त में गिराती है और उसकी प्रतिक्रिया से अनेकानेक दुराचरण एवं विग्रह उत्पन्न होते हैं।आजीविका सीमित है और लिप्सा असीम,तो फिर ऋणी बनने या कुकर्म करके उपार्जन करने के अतिरिक्त और कोई उपाय ही नहीं रह जाता।सामाजिक कुरीतियों की लाश ढोने में भी अर्थव्यवस्था की कमर टूटती है। उचित से काम नहीं चलता तो अनुचित उपार्जन किया जाता है और अपराधी स्तर को कमाई का एक बड़ा साधन बनाया जाता है।इतने पर भी कितने लोग हैं जो आर्थिक दृष्टि से अपने को सुखी-संतुष्ट कह सकें।धनी-निर्धन सभी को अर्थसंकट से गुजरने की शिकायत है।
- समाज व्यवस्था का ढांचा ऊपर से तो किसी प्रकार कागज से बने विशाल पुतले की तरह खड़ा है,पर उसके भीतर खोखलेपन के अतिरिक्त और कुछ शेष नहीं।भिन्नता की आड़ में जितना छल-छद्म चलता है उतनी घात दुश्मन भी नहीं लगा पाते।संबंधियों के बीच किस प्रकार बुनने-उधेड़ने की दुरभिसंधियाँ चलती हैं,उसे विवाह-शादियों में होने वाले लेन-देन को देखकर भलीप्रकार समझा जा सकता है।ग्राहक और विक्रेता के मध्य,अफसर और प्रजानन के मध्य-जिस प्रकार का सदाशयतायुक्त आदान-प्रदान होना चाहिए,उसके दर्शन दुर्लभ हो रहे हैं।मूल्य-तौल,स्तर के संबंध में ग्राहक को छल की आशंका ही बनी रहती है।अधिकारी और प्रजाजनों के मध्य उचित सहयोग का साधन रिश्वत पर केंद्रित होता जा रहा है।पड़ोसी से हर घड़ी चौकन्ना रहना होता है।परदेश में अपरिचितों के बीच वही जिंदा रह सकता है,जो किसी के साथ कुछ समय रहने पर समुचित सतर्क रह सके।विश्वास करने वाले और निश्चिंत रहने वाले पग-पग पर जोखिम उठाते हैं।सेवक-स्वामी के बीच का रिश्ता समाप्त हुआ ही समझना चाहिए।दोनों के मध्य सद्भावना-सूत्र टूट चुके।मालिक को सर्प पालने की तरह सतर्क रहना होता है,नौकर को हर घड़ी शोषक के साथ रहने जैसा अप्रिय लगता है।पारिवारिक सहयोग से समृद्धि और व्यवस्था बढ़ सकती है पर उसकी संभावना निरंतर घटती जा रही है।श्रमसंकट आज के समाज की इतनी विकट समस्या है कि उसकी उलझन ने समृद्धि की संभावना को बेतरह धूमिल कर दिया है।
5.भ्रान्तियों से छुटकारा पाने में समय लगेगा (It will take time to get rid of the misconceptions):
- समाज के प्रथा-प्रचलनों को देखते हुए लगता है इस प्रमाद में बहने वाले जनसमाज को विपत्तियों के गर्त में ही गिरा रहना पड़ेगा।नशेबाजी,फैशनपरस्त,विलासिता,धूर्तता,उच्छृंखलता जैसे प्रचलन सभ्यता के अंग बन चले हैं।यों कहने को तो अपने समय को तर्क और बुद्धि का युग कहा जाता है,पर अन्धविश्वासों और कुरीतियों का प्रभाव जितने उत्साह के साथ इन दिनों बढ़ रहा है उतना कदापि पिछले दिनों के उस समय में भी न रहा हो जिसे अनगढ़,आदिमकाल कहते हैं।
- बुद्धिमत्ता और पूर्णता का यह विचित्र समन्वय देखते ही बनता है।ज्योतिषी,तांत्रिक,भविष्यवक्ता,जादूगरों ने जिस प्रकार धर्म और अध्यात्म को ग्रस लिया है,उसे देखते हुए लगता है विवेक का अरुणोदय अभी भी बहुत दूर है।भ्रांतियों से छुटकारा पाने की शुभ घड़ी आने में अभी भी बहुत दिन प्रतीक्षा करनी पड़ेगी,ऐसा लगता है।जाति-लिंग की असमानता,आर्थिक विषमता,क्षेत्रीय संकीर्णता,मतवादियों की कट्टरता,आहार-विहार की शैली,विनोद की व्यवस्था,चिंतन की धारा आदि की स्थिति को देखते हुए लगता है जिस मध्यकालीन अंधकार युग को कोसा जाता है,उसमें वह अभी भी यथावत विद्यमान है।उसने मात्र अपना पुराना चोला उतारा और नया जामा पहना है।समाज प्रवाह के आधार पर सामान्य जनमानस ढलता है और लोक प्रवृत्तियां पनपती हैं।यदि उसमें अमानवी तत्त्व ही भरे रहे,तो फिर यह आशा करना व्यर्थ है कि शालीनता को लोग अपने जीवन-व्यवहार में स्थान दे सकेंगे।समाज का स्तर जिस क्रम से नीचे गिरता जा रहा है,उसे देखते हुए लगता है-आदर्शवादी सिद्धांत लिखने-पढ़ने और सुनने तक ही सीमित बनकर रह जाता है,शासन-व्यवस्था प्रकारान्तर से समाज-व्यवस्था का ही दूसरा नाम है।निम्न समाज को श्रेष्ठ शासन मिलने की आशा नहीं ही करनी चाहिए।
- ऊपर की पंक्तियों में व्यक्ति के सामने प्रस्तुत कठिनाइयों और विपत्तियों का चित्रण किया गया है।अधिकांश को इन्हीं समस्याओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।जन-जीवन में शांति और व्यवस्था की,प्रगति और प्रसन्नता की संभावनाएं घटती जा रही है।
- सामूहिक जीवन में शासनतंत्र की प्रधानता है।सरकारें अपने संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति के लिए दूसरे देशों के प्रति जो रवैया अपनाती हैं,उससे शोषण,आधिपत्य,विग्रह और युद्ध का कुचक्र ही गतिशील होता है।शीत युद्ध तो कूटनीति का ध्वज ही ठहरा।गरम युद्ध की आशंका बढ़ रही है।अणु-आयुध,विषाक्त-दाहक किरणें,रासायनिक युद्ध जैसे उत्पादनों का चरम सीमा तक जा पहुंचना यह बताता है कि कोई भी एक पागल अनंत काल की श्रम-साधना से संचित मानवों का अंत चुटकी बजाने जितने समय में कर सकता है।तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या ने यह संकट सामने खड़ा कर दिया है कि एक शताब्दी में ही जीवनयापन के लिए आवश्यक अन्न,जल,वस्त्र,निवास जैसे साधन मिलना कठिन हो जाएगा।जनसंख्या जिस तेजी से बढ़ रही है,उस अभिवृद्धि का भार उठा सकने की क्षमता अपनी धरती शताब्दी पूरी होते-होते गवाँ बैठेगी।कारखाने जिस अनुपात से प्रदूषण और विकरण उत्पन्न करते हैं,उसका प्रभाव मनुष्यों का शारीरिक एवं मानसिक संतुलन स्थिर नहीं रख सकता।शरीर और मन की बढ़ती हुई दुर्बलता प्रकृति का दबाव और विकृत प्रचलनों का दबाव कहां तक सहन कर सकेगी,इसमें भारी संदेह है।विनाश की ऐसी अगणित विभिषिकाएँ हैं,जिन्हें काल्पनिक नहीं वास्तविक ही माना जाएगा।
- प्रगति और शांति के लिए कुछ नहीं किया जा रहा या उस स्तर के प्रयासों की कोई उपलब्धि नहीं है,यह कहा जा रहा है।लक्ष्य इतना ही प्रस्तुत किया जा रहा है कि सृजन से ध्वंस की गति तीव्र होने के कारण दिवालिया होने और ऐसी विपत्ति में फँस जाने की ही संभावना अधिक है,जिससे निकल सकने के लिए नई सृष्टि की शुभ घड़ी आने के लिए लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
विपत्तियां भौतिक क्षेत्र में बढ़ रही हैं और विकृतियों से आत्मिक क्षेत्र उद्विग्न होता जा रहा है।सुधार और बचाव के प्रयास अपेक्षाकृत बहुत धीमे हैं।लगता है मनुष्य द्वारा अन्यमनस्क भाव से किया गया आधा-अधूरा प्रयास वर्तमान की समस्याओं को सुलझाने तथा भविष्य की विभीषिकाओं को परास्त करने में सफल नहीं हो सकेगा,एक गज जोड़ने के साथ-साथ दस गज टूटने का क्रम चल रहा है।ऐसी दशा में विश्व को महाविनाश के गर्त में जा गिरने की ही आशंका है।इस प्रभाव को कोई मनस्वी ही उल्टेगा
- उपर्युक्त आर्टिकल में अर्थ के साथ सुख-शांति मिलने की 6 बेहतरीन टिप्स (6 Best Tips to Find Peace with Wealth),अर्थ के साथ सुख-शान्ति कैसे प्राप्त हो? (How to Attain Peace and Happiness with Wealth?) के बारे में बताया गया है।
Also Read This Article:भारत में दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधारों की वास्तविकता
6.अर्थ मिलने पर ऊंचा उठाना (हास्य-व्यंग्य) (Rising High When it Finds Wealth) (Humour-Satire):
- टीचर-व्यक्ति अर्थ (समृद्धि-वैभव) पाकर ऊपर उठता है।
- छात्र:सर,मेरी लॉटरी खुलने के बाद मैं तो लगातार गिरता ही जा रहा हूं।
7.अर्थ के साथ सुख-शांति मिलने की 6 बेहतरीन टिप्स (Frequently Asked Questions Related to 6 Best Tips to Find Peace with Wealth),अर्थ के साथ सुख-शान्ति कैसे प्राप्त हो? (How to Attain Peace and Happiness with Wealth?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:
प्रश्न:1.मनस्वी व्यक्ति कब प्रकट होता है? (When does the thoughtful person appear?):
उत्तर:जब मनुष्य का बाहुबल थक जाता है और समाज की सुख-शांति भंग हो जाती है,तो प्रवाह को उलटने का पुरुषार्थ
प्रश्न:2.मनस्वी पुरुष जगत का काम कैसे संभालते हैं? (How do thoughtful person handle the affairs of the world?):
उत्तर:स्रष्टा को अपने इस सुंदर संसार का पतन सहन नहीं होता है।स्रष्टा इस पतन को एक सीमा तक ही सहन करते हैं।मानवी पुरुषार्थ जब संतुलन बनाए रखने में असफल होता है,तो व्यवस्था को संभालने के लिए स्रष्टा किसी तेजस्वी व दिव्य आत्मा को भेजते हैं।
प्रश्न:3.मनस्वी व्यक्तियों का क्या काम है? (What is the job of a contemplative person?):
उत्तर:मनुष्य जाति में प्रेरणा भरना और पुनः खड़ा करना जिससे अनुपयुक्त को उपयुक्त में बदल देने की उत्साह लगने वाली संभावना सरल हो सके।
- उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा अर्थ के साथ सुख-शांति मिलने की 6 बेहतरीन टिप्स (6 Best Tips to Find Peace with Wealth),अर्थ के साथ सुख-शान्ति कैसे प्राप्त हो? (How to Attain Peace and Happiness with Wealth?) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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Satyam
About my self I am owner of Mathematics Satyam website.I am satya narain kumawat from manoharpur district-jaipur (Rajasthan) India pin code-303104.My qualification -B.SC. B.ed. I have read about m.sc. books,psychology,philosophy,spiritual, vedic,religious,yoga,health and different many knowledgeable books.I have about 15 years teaching experience upto M.sc. ,M.com.,English and science.











