4Tips of Association with Mathematician
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1.गणितज्ञ के साथ सत्संग की 4 टिप्स (4Tips of Association with Mathematician),गणितज्ञ के साथ सत्संग से विद्यार्थी निहाल (Student Exalted from Satsang with Mathematician):
- गणितज्ञ के साथ सत्संग की 4 टिप्स (4Tips of Association with Mathematician) में बताया गया है कि आज की युवाओं के भटकने का कारण संगी-साथ और वातावरण का प्रभाव है।आज का विद्यार्थी डिग्री,जाॅब प्राप्त करके भी अपने अंदर एक रिक्तता,खालीपन तथा सूनापन महसूस करता है। इसी के समाधान की यह स्टोरी है।
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2.विद्यार्थी की दुविधा (Student’s Dilemma):
- विद्यार्थी गिरीशचंद्र पढ़ने-लिखने में मेधावी था अतः उसने अपने उत्कट पुरुषार्थ और मेधा के बल पर अच्छे अंकों से गणित में डिग्री पर डिग्री हासिल कर ली।उसके पिता के पास अकूत धन-दौलत थी और भगवान की कृपा से उसे सारे सुख-साधन उपलब्ध थे।माता-पिता तथा परिवार के सभी सदस्य उसे भरपूर प्यार और सम्मान देते थे।परिवार के सदस्यों के साथ ही नगर-मोहल्ले के लोग भी उसके अपने थे,आखिर वे उसे क्यों नहीं चाहेंगे,क्योंकि गणित में शीर्ष स्थान पाकर उसने नगर और परिवार का गौरव बढ़ाया था।उसके एक इशारा ही हर कोई उसका पालन करने के लिए तैयार रहता था।अनवरत कर्म करते हुए उसने बीएससी,एमएससी और पीएचडी कब कर ली,इसका उसे भान ही नहीं हो पाया।डिग्री पर डिग्री हासिल करने के कारण वह सदा व्यस्त ही रहा और अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने को ही वह जीवन की सफलता मानता रहा।शायद आधुनिक शिक्षा का चक्कर ही ऐसा होता है कि उसके सामने बाकी सारी चीजें गौण हो जाती हैं।
- उसकी हर सफलता पर मित्र,सहपाठी,माता-पिता और नगर के लोग उसे ढेरों शुभकामनाएं देते।गिरीश भी मुस्कुराते हुए सभी की मंगलकामनाएं स्वीकार कर लेता,पर न जाने क्यों पीएचडी करने के बाद उसे लग रहा था की शुभेच्छा लेना और आभार मानना ही तो सब कुछ नहीं है।जीवन लक्ष्य तो शायद इससे कुछ अधिक की अपेक्षा रखता है।यह जीवन तो ऐसा है कि इसका गहराई से आत्मनिरीक्षण और आत्मसमीक्षा की जानी चाहिए;साथ ही कुछ ऐसा भी हो,जिससे कि जीवनलक्ष्य के प्रति संकल्पबद्धता अधिक तीव्र एवं उत्कट हो।
- अबकी बार अंतर्मन से,अंतरात्मा से ऐसी आवाज आ रही थी कि कुछ कसर रह गई है,जिसके अभाव से जीवन में रिक्तता,सूनापन महसूस हो रहा है।माता-पिता की यह असीम संपत्ति,समूचा धन-वैभव,सारी चकाचौंध यहीं धरी रह जाएगी और यह जीव इन सबको छोड़ जाएगा।और तब…….?
- इसी उधेड़बुन में उलझे गिरीश को नींद नहीं आई।तर्क-वितर्क और चिंतन-मनन चलता रहा।उसका मन गहरी ग्लानि से भर गया।इतनी शिक्षा अर्जित करने के बाद भी उसे लग रहा था कि कुछ नहीं किया।न दूसरे का ही कुछ विशेष भला किया और न स्वयं के सार्थक हितचिंतन में तत्पर हुआ।अब तो शिक्षा भी पूरी हो गई,जाॅब करने और फिर गृहस्थी बसाने का समय भी आ गया।विद्यार्थी जीवन में न जाने इतनी आसक्ति कैसे हो गई।उसने आखिर निर्णय लिया कि वह किसी सच्चे गणितज्ञ की शरण प्राप्त कर अपने शेष जीवन को उसी अनुसार ढालेगा जिससे यह रिक्तता,खालीपन और सूनापन ना रहे।इसी सोच-विचार में चांद कब अपनी तारों वाली बारात लेकर चला गया,पता ही नहीं चला।
- भोर होते ही,नित्यकर्मों से निपटकर सबको आश्चर्य में डालते हुए वह यात्रा पर निकल पड़ा।उसको सच्चे गणितज्ञ की तलाश थी और इस खोज में वह अनेक दरवाजों को खटखटाया।जो भी गणितज्ञ मिलता,वहीं अपने प्रश्न रखता और समाधान मांगता।इस प्रक्रिया में उसने अनेक प्रतिभा संपन्न गणितज्ञों से संपर्क किया।सच्चा गणितज्ञ विरला ही कोई होता है क्योंकि अधिकांश गणितज्ञ और वैज्ञानिक शासको की इच्छापूर्ति के लिए ही अपना खोज कार्य करते हैं।अगर ऐसा नहीं करते तो उन्हें रोजी-रोटी के लिए फाँके मारने पड़ते हैं,जीवनयापन करना मुश्किल हो जाता है।यात्रा करते-करते और संपर्क साधते-साधते उसकी एक अद्भुत एवं विलक्षण गणितज्ञ से मुलाकात हुई।
- गिरीश ने उनसे पूछा:शिक्षा अर्जित करने के बाद भी जीवन में रिक्तता,खालीपन क्यों महसूस होता है? प्रश्न सुनकर गणितज्ञ श्रद्धानन्द मुस्कराए और फिर बोले: भौतिक शिक्षा हमें बहिर्मुखी बनाती है और अध्यात्म हमें अंतर्मुखी बनाता है।जीवन में जब केवल भौतिक पक्ष की ही उन्नति होती है तो असंतोष पनपता है,रिक्तता महसूस होती है।जीवन में एक संतुलन होना चाहिए,दोनों पक्षों की उन्नति होनी चाहिए।जैसे नमक के बिना रोटी स्वादिष्ट नहीं लगती और ज्यादा नमक होता है तो खारी लगती है।अतः जीवन में थोड़ा-बहुत अध्यात्म का प्रवेश,ज्ञान भी होना चाहिए।धर्म और अध्यात्म के बिना सारी भौतिक संपन्नता,धन-संपदा,सुख-सुविधा आदि सब दो कौड़ी का हो जाता है।
- गिरीश गणितज्ञ श्रद्धानंद से काफी प्रभावित हुआ।वह बोला आजकल तो विद्यार्थी चमत्कार को नमस्कार करते हैं।भौतिक शिक्षा अर्जित करने,जाॅब प्राप्त करने,सुख-सुविधाओं आदि को जुटाने को ही सब कुछ मानते हैं और यही सब अर्जित करने की कला विभिन्न शिक्षा-संस्थानों में सिखाई जाती है।
- श्रद्धानन्द जी:विद्यार्थी धन-दौलत,सुख-सुविधाओं को अर्जित करने को सब कुछ मान बैठे हैं क्योंकि एक तो शिक्षा संस्थानों और माता-पिता के द्वारा इसी की शिक्षा दी जाती है।बिना धर्म और अध्यात्म के इसमें धरा ही क्या है! आप लोग डिग्रियां लिए फिरते हो,यह तो आज रुपए-पैसों के बल पर बाजार में बिकने वाली साग-सब्जी की तरह हो गई है।मदारी सरे आम लोगों के सामने आम लगा देता है,किंतु उसका मूल्य ₹ दो-चार रुपए है।पर उस भगवान की लीला अनोखी है।गोपियाँ उसको प्रेम के वश में करके नाच नचाती थी? क्या उस प्रेम के पीछे कोई कामवासना थी।क्या उनके पत्नी नहीं थी।यह उनकी लीला थी।गोपियाँ उनकी बन गई,तो आनंद भी आ गया।श्रद्धानंद जी ने स्पष्ट रूप से व्याख्या की।
- केवल मुंह से रात-दिन उसका जप करना,पूजा पाठ कर लेने से हम धर्म-अध्यात्म को जीवन में नहीं उतार सकते हैं।अपने कर्म को पूरी निष्ठा और लगन से करना धर्म ही है।
- गिरीश ने कहा: परीक्षा तो हम देते हैं तो भगवान का नाम लेते ही हैं,पूजा-पाठ भी कुछ करते हैं फिर भी जीवन में रिक्तता क्यों महसूस होती है।
- अरे भाई! यह तो भगवान से सौदेबाजी करना हुआ,व्यापार करना हुआ।सूर्य तो प्रकाश समान रूप से उपलब्ध कराता है,परंतु जो अंदर सोया पड़ा हो,दुबका हुआ हो उसे प्रकाश उपलब्ध नहीं हो सकता है।
- शराब सदा बोतलों में भरी रहती है,पर बोतलों को कभी नशा नहीं आता।नशा उसी को चढ़ता है,जो शराब पीता है।एक बार शराब पी लेने पर,फिर पीने वाला कुछ नहीं करता,जो कुछ करती है वह तो शराब ही करती है।इसी प्रकार धर्म-अध्यात्म का स्वाद जिसे आ जाता है,जो समझ लेता है,उसको जीवन में सरसता,आनंद का अनुभव होता है।गणितज्ञ श्रद्धानंद ने अपनी बात ठीक से समझाई।
- बहुत से गणितज्ञों से चर्चा और सत्संग करते-करते गिरीश को काफी कुछ ज्ञान हो गया था।अतः उसने पूछा भाव व कर्म का भेद क्या है?
3.गणितज्ञ ने सत्संग के बारे में बताया (The mathematician told about satsang):
- इसे समझने के लिए समझना होगा कि भाव,विचारों और कर्म को।भाव व विचार दिखाई नहीं देते हैं परंतु कर्म दिखने में आ जाता है।जैसे शिक्षक विद्यार्थी की उत्तर पुस्तिका की जांच करता है।कम अंक आते हैं तो विद्यार्थी को कष्ट होता है,परंतु शिक्षक का भाव होता है कि विद्यार्थी अपने आप में सुधार करे।
- श्रीमान प्रेम क्या है? गणितज्ञ:जब अध्ययन और अपने लक्ष्य के अलावा कोई अन्य दिखाई न दे,तब समझना चाहिए की प्रेम है।प्रेम किसी को दिखाकर करने का नहीं है।प्रेम तो महसूस किया जाता है।प्रेम को दिखाना या बताना तो आडंबर बन जाता है,दिखावा हो जाता है।प्रेम वासना और कामनारहित हो तो ही सच्चा प्रेम है।उन्होंने स्पष्ट किया।
- तर्क कहाँ तक रहता है? गिरीश ने पूछा।तर्क बुद्धि तक ही रहता है,जब तक अध्ययन के प्रति प्रेम नहीं रहता है तब तक तर्क-वितर्क चलता रहता है।गिरीश ने बहुत से प्रश्न पूछे और गणितज्ञ श्रद्धानंद जी ने बड़े ही आत्मीयतापूर्वक इस तरह से उत्तर दिए कि उसके मन की उलझनें सुलझती गई।ये प्रश्न भी वह इसलिए पूछ पाया था कि उसने कई गणितज्ञों से सत्संग किया था वरना आधुनिक शिक्षा में पढ़ा-लिखा यह जानता ही नहीं है कि भाव क्या है,विचार क्या है,आत्मा क्या है,अध्यात्म क्या है,धर्म क्या है आदि।
- गिरीश ने मन के बारे में भी पूछा।गणितज्ञ ने बड़े संयत ढंग से उत्तर दिया कि मन ही डुबोता है और मन ही उठाता है।मन में विकार हों,मन विकारग्रस्त हो,दुर्गुण हों तो पतन का रास्ता पकड़ा देता है।मन में सद्विचार हों,विकाररहित हो तो मन हमें ऊपर और आगे बढ़ाता है।मन में सद्विचार हों,तो वे ही सत्कर्म बनते हैं और सत्कर्मों से ही सदाचार बनता है।
- गिरीश ने पूछा की मन को सद्विचारों की और कैसे लगायें।श्रद्धानन्द जी ने बताया कि स्वाध्याय,सत्संग,सत्साहित्य का अध्ययन,अच्छे विचारों का चिंतन-मनन करना,जप,तप,उपासना,पूजा-पाठ आदि अनेक तरीके हैं जिससे मन को काबू में किया जा सकता है।श्रीमान इनमें से सत्संग और कुसंग के बारे में बताएं और थोड़े विस्तार से समझायें क्योंकि मुझे थोड़ा-सा जो भी ज्ञान हुआ है वह सत्संग से ही हुआ है।अतः सत्संग और ज्ञानचर्चा के बारे में ठीक से बताएं।
- जो विद्यार्थी विवेकवान हैं,जिन्होंने निरंतर सत्संग से,स्वाध्याय से विवेक पाया है,केवल वे ही आनंद की अनुभूति कर पाते हैं।वे जीवन के यथार्थ से,उसके अंतर्निहित सत्य से परिचित होते हैं।हालांकि ऐसा विरले छात्र-छात्रा ही कर पाते हैं,क्योंकि विवेकवान होना सहज बात नहीं है।रामायण में कहा गया है कि ‘बिनु सत्संग विवेक न होई,राम कृपा बिन सुलभ सोई।।अर्थात् बिना सत्संग के विवेक नहीं होता है और भगवत कृपा के बिना-राम कृपा के बिना यह सत्संग मिलता नहीं है।कुसंग बिना मांगे,बिना चाहे आसानी मिल जाता है,किंतु जीवन में सत्संग का होना तो अनेक जन्मों की प्रार्थनाओं का सुफल है।जिन्होंने सत्संग किया है,रामकृपा से जिनके विवेक का तीसरा नेत्र खुला है वो दुखों से पार हो जाता है।
- विद्यार्थी को चाहिए कि दुराचारी,बुरी नजर वाले,बुरे स्थान पर रहने वाले और बुरे (दुर्जन) छात्र-छात्रा (लोगों) के साथ मित्रता न करें क्योंकि इनके साथ मित्रता करने वाला शीघ्र नष्ट हो जाता है।
- उत्तम प्रकृति के विद्यार्थी दुर्जन व्यक्तियों की संगति में रहना खुद ही पसंद नहीं करते क्योंकि वे जानते हैं मन वाला होने से मन का पतन कभी भी हो सकता है।यह संभव है कि कभी किसी क्षण में,समय विपरीत होने पर मन में जरा भी चंचलता और निर्बलता आने पर व्यक्ति बुराई की लपेट में आ जाए और उसके चरित्र का पतन हो जाए।माया-मोह,प्रलोभनों से बचने के लिए बुद्धिमान विद्यार्थी (मनुष्य) सदैव जागरूक और सतर्क रहता है क्योंकि जरा सी गफलत यानी असावधानी होते ही पैर फिसल जाता है।जो जितना ऊंचा चढ़ता है उसे सतर्क भी रहना होता है और यह सतर्कता का ही तकाजा है कि दुर्जन व्यक्ति की संगति से दूर ही रहे वरना कभी ना कभी अपनी वजह से न भी सही तो उस दुर्जन व्यक्ति की वजह से भी घोर हानि हो सकती है।स्व प्रारब्ध से ही नहीं पर प्रारब्ध से भी लाभ या हानि होना संभव होता है अतः हानि या लाभ से बचने के लिए हमें दुर्जन की संगति से दूर ही रहना चाहिए।
- इस प्रकार गिरीश का मन अशांत था,वह गणितज्ञ श्रद्धानंद जी के सत्संग से शांत हुआ।उसे उनके साथ सत्संग करने से यथार्थ की अनुभूति हुई।उसके अंदर जो खालीपन था उसमें सरसता की धारा बहने लगी।उसे महसूस हुआ कि भौतिक शिक्षा,डिग्री हासिल करने के साथ ही व्यावहारिक ज्ञान,आध्यात्मिक शिक्षा कितनी जरूरी है।केवल भौतिक ज्ञान,बौद्धिक ज्ञान से विद्यार्थी भ्रमित हो जाता है।कई छात्र-छात्राएं इसी कारण पथ से भटक भी जाते हैं और अनैतिक कार्य,अपराधिक कृत्यों को करने लगते हैं।अध्यात्म दिशासूचक यंत्र की तरह है जो जीवन को सही दिशा दिखाता है।उसे महसूस हुआ कि बड़े-बुजुर्गों के साथ सत्संग करना कितना लाभदायक है।बड़े-बुजुर्गों को जीवन का तजुर्बा रहता है,उनके पास जीवन का निचोड़ रहता है जो उनके पास बैठने,उनके साथ सत्संग करने,उनकी कृपा के बगैर नहीं मिल सकता है।आज उसके ज्ञान के नेत्र खुल गए।गणितज्ञ श्रद्धानंद जी ने जिस तर्क,युक्ति,प्रमाण के द्वारा उसके संशयों को दूर किया,जितनी सारगर्भित बातें बताई उससे उसका मन पुलकित हो उठा और अपने आप को धन्य मानने लगा।उसे सच्चे ज्ञान की अनुभूति हुई।आज संसार के अधिकांश लोग दुःखी,परेशान,अशांत,असंतुष्ट क्यों है,इसका पता लगा।यदि वह भी महान गणितज्ञ श्रद्धानन्द जी के साथ सत्संग न करता तो संसार में भटकता रहता।उसने अनुभव किया कि धन-दौलत,संपदा,साधन-सुविधाओं को ही सफलता का मापदंड मान लेना गलत है।असली सफलता तो सदाचार का पालन करने,अच्छे लोगों का संग करने,सद्विचार रखने को ही माना जा सकता है।जबकि अब तक वह शैक्षिक डिग्री हासिल करके जाॅब प्राप्त कर लेने और धन कमाने तथा सुख-सुविधाओं को मानता आ रहा था।इसीलिए उसे अपने अंदर एक रिक्तता,खालीपन और सूनापन महसूस हो रहा था।
- गणितज्ञ श्रद्धानंद जी का अभिवादन और आभार प्रकट करके वह पुनः घर लौट आया।उसने जाॅब प्राप्त किया तथा पिताजी की अकूत धन-संपत्ति व धन-दौलत को परोपकार में खर्च करने लगा।उसने अपना खजाना दुःखी-पीड़ितों,असहाय विद्यार्थियों और लोगों के लिए खोल दिया।सच्चा आत्महित एवं लोकहित ही अब उसका प्राप्य था।अब वह सच्ची पूंजी का संग्रह (ज्ञान-प्राप्ति) करने में जुट गया,जिससे उसकी जन्म-जन्मांतर की प्यास बुझ सकती थी।
- जब कोई विद्यार्थी,सहपाठी,मित्र या व्यक्ति उसके इस आश्चर्यजनक परिवर्तन का रहस्य पूछता तो वह यह चौपाई बड़े ही भावपूर्ण ढंग से उनको सुनाते था कि “बिनु सत्संग विवेक न होई।”हां,उसे सच्चा सत्संग प्राप्त हुआ था।इस सत्संग ने उसे ऐसा विवेक दिया था,जिससे वह अनेक और गुणों को धारण करता गया और वह जीवन जीने की कला जान गया।सच्चे स्वाध्याय,सत्संग में बहुत बल होता है।यह अवश्य है कि ऐसे श्रेष्ठ,सज्जन पुरुष बिरले ही मिलते हैं जिनके साथ सत्संग करना सुलभ हो जाता हैं।लेकिन फिर भी ऐसे श्रेष्ठ पुरुषों का अकाल नहीं पड़ा है,खोजने पर कोई ना कोई मिल ही जाता है।जहां चाह होती है वहां राह भी मिल जाती है।
- उपर्युक्त आर्टिकल में गणितज्ञ के साथ सत्संग की 4 टिप्स (4Tips of Association with Mathematician),गणितज्ञ के साथ सत्संग से विद्यार्थी निहाल (Student Exalted from Satsang with Mathematician) के बारे में बताया गया है।
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4.छात्रा का संग (हास्य-व्यंग्य) (Student’ Companion) (Humour-Satire):
- छात्रा:मैं भारत के विभिन्न कॉलेजों,विश्वविद्यालयों में गयी।विभिन्न छात्र-छात्राओं के साथ सत्संग किया।वे मेरी डिग्री,शिक्षा को देखकर प्रशंसा करने लगे,हंसी-मजाक की अनेक बातें की।इससे सिद्ध होता है कि हमारे शिक्षा के मंदिरों में सत्संग होता है।
5.गणितज्ञ के साथ सत्संग की 4 टिप्स (Frequently Asked Questions Related to 4Tips of Association with Mathematician),गणितज्ञ के साथ सत्संग से विद्यार्थी निहाल (Student Exalted from Satsang with Mathematician) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:
प्रश्न:1.अच्छी संगति का क्या लाभ है? (What is the benefit of good fellowship?):
उत्तर:अच्छी संगति बुद्धि के अंधकार को हरती है,वचनों को सत्य की धार से सींचती है,मान को बढ़ाती है,पाप को दूर करती है,चित्त को प्रसन्न करती है और चारों ओर यश फैलाकर मनुष्य को क्या लाभ नहीं पहुंचाती?
प्रश्न:2.महापुरुषों के साथ सत्संग क्यों करना चाहिए? (Why should we do satsang with great personalities?):
उत्तर:महापुरुषों का सत्संग समस्त उत्कृष्ट अमूल्य पदार्थ का आश्रय,कल्याण,संपत्तियों का हेतु और सारी उन्नति का मूल है।
प्रश्न:3.मूर्ख सज्जनों के संग से कैसा हो जाता है? (How does foolish become with gentlemen?):
उत्तर:स्वर्ण के सम्बन्ध से कांच भी सुंदर रत्न की शोभा को प्राप्त करता है,इसी प्रकार मूर्ख भी सज्जन के संसर्ग से चतुर हो जाता है।
- उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा गणितज्ञ के साथ सत्संग की 4 टिप्स (4Tips of Association with Mathematician),गणितज्ञ के साथ सत्संग से विद्यार्थी निहाल (Student Exalted from Satsang with Mathematician) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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