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6 Main Points to Develop Personality

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1.व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए 6 मुख्य बिंदु (6 Main Points to Develop Personality),छात्र-छात्राओं के लिए व्यक्तित्व विकास के 6 अद्भुत सूत्र (6 Amazing Personality Development Tips for Students):

  • व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए 6 मुख्य बिंदु (6 Main Points to Develop Personality) व्यक्तित्व विकास के लिए कुछ दिशा-निर्देश हैं।यों समग्र व्यक्तित्व के विकास के लिए अनेक गुणों की आवश्यकता होती है जिनमें कुछ बिंदुओं (गुणों) पर लेख तैयार किया जाता है।व्यक्तित्व का गठन तो पूरे जीवन भर चलते रहने वाली प्रक्रिया है,फिर भी खत्म नहीं होती है और जीवन का ही अंत हो जाता है।
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2.व्यक्तित्व गठन पर समग्र दृष्टि अपेक्षित (Holistic view on personality formation expected):

  • व्यक्तित्व का विघटन युग की सबसे गंभीर समस्या है। अतः हर स्तर पर इसके निदान का मुद्दा मुखर है। मनोवैज्ञानिक क्षेत्र में इस संदर्भ में उत्कट प्रयास हुए हैं,परिणामस्वरूप व्यक्तित्व के रहस्यमयी आयामों को इसने उद्घाटित किया है,जो फ्राॅइड के इड,ईगो व सुपरईगो की अवधारणाओं से लेकर मैस्लों के आत्मसिद्धि जैसे सिद्धांतों तक विस्तृत हैं,किंतु व्यक्तित्व के गठन पर इनमें समग्र दृष्टि का सर्वथा अभाव दृष्टिगोचर होता है।इस संदर्भ में भारतीय अध्यात्म का तत्त्वदर्शन एवं योग मनोविज्ञान का साधना विज्ञान एक समग्र दृष्टि एवं उपचार प्रस्तुत करता है।व्यक्तित्व एक समस्वर,समग्र एवं संगठित जीवन का प्रतिपादन करता है।मेंटल हेल्थ एंड हिंदू साइकोलॉजी में इस संदर्भ में कुछ सूत्र प्रतिपादित किए हैं,जो व्यक्तित्व-गठन पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते है।
  • इनके अनुसार सर्वप्रथम आवश्यकता व्यक्ति की स्वयं के भावों को संगठित करने की इच्छा है।व्यक्ति में अपने बिखरे जीवन को समेटने की,इसे एक सार्थक दिशा में सँवारने की उत्कट इच्छा होनी चाहिए।व्यक्तित्व के विकास की तीव्रता इसी इच्छा की प्रचण्डता पर निर्भर करती है।यदि इच्छा तीव्र नहीं है तो प्रयास भी अस्थिर एवं शिथिल होंगे,अतः वांछित परिणाम की आशा नहीं की जा सकती।व्यक्तित्व के भाव-संगठन में आध्यात्मिक महापुरुषों का संग अतीव लाभदायी होता है।उनका सानिध्य सहज ही उच्चतर अभीप्सा एवं प्रेरणा को जाग्रत करता है,किंतु ऐसे व्यक्तियों का सानिध्य-लाभ सदैव सुलभ नहीं होता।अतः व्यावहारिक समाधान यही है कि ऐसी महान् आध्यात्मिक विभूतियों के सत्साहित्य के स्वाध्याय एवं चिंतन-मनन द्वारा अपने चारों ओर एक उच्चतर वातावरण तैयार किया जाए।क्रमशः यह आदत व्यक्तित्व के भावनात्मक ढाँचे के रूपांतरण में एक महत्त्वपूर्ण कारक बन जाती है।
  • व्यक्तित्व-संगठन में दूसरी आवश्यकता है-जीवन का उच्च ध्येय।इसके बिना बिखराव को रोकने की कोई संभावना नहीं है।इस संदर्भ में बौद्धिक,नैतिक,जातीय या राष्ट्रीय आदर्श भी पर्याप्त नहीं हैं,क्योंकि संकीर्ण व विकृत होने पर ये विध्वंसक शक्ति का रूप ले सकते हैं।फिर सुखवादी दर्शन तो एक सिरे से घातक है।यह भोग और स्वार्थ को ही जीवन का आदर्श घोषित करता है तथा व्यक्तित्व के विखण्डन-बिखराव को ही गति देता है।
  • हमारे धर्मग्रंथों में कहा गया है कि त्याग की भावना के साथ भोग करो उसमें लिप्त होकर नहीं अलिप्त होकर भोग करो ताकि अति ना कर सको।इसके लिए सम्यक भाव या मध्य मार्ग को श्रेष्ठ बताया गया है।चाहे धन को भोगने का मामला हो या भोजन के स्वादिष्ट व्यंजनों का भोग लगाने का सवाल हो या विषय भोग को भोगने की बात हो अर्थात् जहां भी भोग को भोगने का सवाल हो उसमें अति करना अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारना सिद्ध होता है।
  • अतः जीवन का सर्वोच्च आदर्श अंतर्निहित शक्तियों का जागरण एवं अभिव्यक्ति ही हो सकता है।यह आत्मा-परमात्मा के अंश के रूप में अपनी पहचान की आस्था एवं धारणा पर आधारित है।यही आत्मसंयम का यथार्थ आधार प्रस्तुत करता है।वासना व हिंसा की आदिम वृत्तियों और स्वार्थ,भय,ईर्ष्या-दम्भ जैसे नकारात्मक भावों का निग्रह इसी आधार पर सधता है। भावनात्मक संगठन के लिए इनका समुचित नियंत्रण आवश्यक होता है।इन्हें ना तो एकदम छूट दी जा सकती है और न ही इनका दमन ही समाधान है।व्यक्तित्व के संगठन के लिए जिस भाव-स्थिरता एवं संतुलन की आवश्यकता होती है,वह इन दोनों अतियों के बीच,अवांछनीय भावों के परिष्कार,परिमार्जन द्वारा ही संभव होता है और जीवन का आध्यात्मिक ध्येय इसे संभव बनाता है।

3.समस्त भावों को अध्ययन की ओर उन्मुख करना (Orienting all emotions towards study):

  • तीसरा चरण अपने समस्त भावों को अध्ययन की ओर उन्मुख करना है।ऐसा करते ही हम भावनात्मक बिखराव और स्वार्थपरक वृत्तियों की जड़ों पर प्रहार करते हैं।अपनी भाव-प्रकृति एवं अभिरुचि के अनुसार अध्ययन को अपना सहचर,साथी,बंधु आदि मानते हुए उससे किसी भी भाव में पावन संबंध स्थापित कर सकते हैं और अपनी समस्त क्रियाओं को उसे अर्पित करते हुए इस भाव संबंध को पुष्ट कर सकते हैं।अपने इष्ट-आराध्य (अध्ययन) के प्रति कुछ करने का भाव क्रमशः उसके प्रति अपनी भावनाओं को सघन बनाता है और परिणामस्वरूप अन्य सभी भाव-संवेगों को संगठित करता है।शनैः-शनैः मानवीय संबंधों और अंतर्वैयक्तिक व्यवहार में भी अध्ययन (अध्ययन अपनी कोर्स की पुस्तकों और सत्साहित्य दोनों का ही होता है) में भावनात्मक जुड़ाव की उपस्थिति का अहसास होने लगता है।इस तरह समस्त क्रियाएं क्रमशः व्यक्तित्व के भावनात्मक संगठन को सुनिश्चित करती है।
  • यह प्रतिभा भावप्रधान व्यक्तियों पर अधिक प्रभावी ढंग से लागू होती है।सज्जनों,ज्ञानियों,महापुरुषों आदि के जीवन में इसके चरमोत्कर्ष के दर्शन होते हैं।भारत में महान गणितज्ञों आर्यभट,ब्रह्मगुप्त,भास्कराचार्य,मीरा,सूर,तुलसी आदि इसी के जीवन्त प्रतिमान हैं।पाश्चात्य देशों में इसाक न्यूटन,अल्बर्ट आइंस्टीन,आर्किमीडिज,गणितज्ञा हाइपेटिया आदि इसके उदाहरण हैं।
  • व्यक्तित्व-संगठन के चतुर्थ चरण में छात्र-छात्रा को अपनी प्रत्येक क्रिया में अपनी अंतर्निहित शक्तियों को अभिव्यक्त करने का प्रयास-पुरुषार्थ करना चाहिए।उन्हें दूसरों में अच्छाई,अच्छे गुणों की उपस्थिति को देखने का अभ्यास भी करना चाहिए।जिस भी क्षण अपनी दुर्बलता,अस्थिरता या दूसरों की विध्वंसक क्रिया के कारण निम्न वृत्तियाँ या भावनाएं भड़क उठें,उसी क्षण उनमें अच्छे गुणों के दर्शन के अभ्यास द्वारा इन विकारों को शांत करना चाहिए।क्रोध को क्रोध द्वारा नहीं जीता जा सकता।इसी तरह हिंसा को हिंसा द्वारा नहीं जीता जा सकता।इन्हें तो प्रेम द्वारा ही जीता जा सकता है।व्यक्ति क्रोध और हिंसा को जितना ही व्यक्त करता जाएगा,ये उतना ही बढ़ते जाते हैं अर्थात् निम्नवृत्तियाँ अपनी अभिव्यक्ति द्वारा बढ़ती हैं।भोग द्वारा वासनाएँ शांत नहीं होतीं,वे और भड़क उठती हैं।इन्हें खुली छूट देने का अर्थ है अपने अस्तित्व के बिखराव एवं विखंडन को आमंत्रण देना।
  • भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार भाव-संवेगों को अभिव्यक्ति से पूर्व की स्थिति में अधिक प्रभावी ढंग से नियंत्रित किया जा सकता है।योग मनोविज्ञान के जनक महर्षि पतंजलि कहते हैं कि संस्कारों का निग्रह व रूपान्तरण होना चाहिए।अभ्यास और वैराग्य द्वारा यह कार्य संभव होता है।अभ्यास यानी अच्छे गुणों को अपनाना और वैराग्य यानी बुरे कर्मों से संबंध तोड़ लेना,बुरे कार्यों को न करना,मनन-चिंतन न करना।इन अचेतन संस्कारों के नियंत्रण पर बल देते रहना चाहिए,जिससे कि उन्हें विध्वंसात्मक से रचनात्मक शक्तियों के रूप में रूपांतरित किया जा सके।
  • छात्र-छात्राओं के लिए सही तरीके,सही विधि से अध्ययन करना,सत्साहित्य का अध्ययन तथा सही तरीके अपनाकर सही उत्तर लिखकर परीक्षा देना रचनात्मक कार्य है।अध्ययन न करके नकल करके,अनैतिक तरीके अपनाकर,परीक्षिक को डरा-धमकाकर,अंक तालिका में घूस देकर अंक बढ़वाकर आदि कार्य करके उत्तीर्ण होना विध्वंसात्मक कार्य हैं,संस्कार हैं।

4.व्यक्तित्व को परिष्कृत करने वाले गुण (Qualities that refine personality):

  • पांचवा चरण व्यक्तित्व बिखराने वाले क्रोध,घृणा तथा अन्य वृत्तियों के प्रतिपक्षी भावों एवं विचारों का विकास है।जैसे क्रोध के बजाय शांति धारण करना,घृणा के बजाय प्रेम करना उच्चतर भावों का विकास करना है। उच्चतर गुणों का सचेतन विकास मन को प्रशांत करता है और क्रमशः भाव-संवेगों को संगठित करता है।जितना अधिक उच्चतर भावनाएं और परमार्थपरायण वृत्तियाँ अभिव्यक्त होती हैं,उतना ही प्रतिपक्षी वृत्तियाँ (बुरे संस्कार,ईर्ष्या,द्वेष,घृणा,क्रोध आदि) क्षीण होती हैं और व्यक्तित्व एक नया रूप एवं आकार लेने लगता है।यही चरित्र का निर्माण है।निम्नवृत्तियों का उच्चतर दिशा में नियोजन इसका केंद्रीय तत्त्व है।अपनी निम्न व हेय वृत्तियों को अध्ययन की ओर उन्मुख करो।यदि तुममें कामना और लोभ है तो अध्ययन के प्रति प्रेम की कामना करो और उसे पाने का लालच करो।इस तरह यह प्रक्रिया भाव-संवेगों को दबाने के बजाय उन्हें नियंत्रित,संचालित और क्रमशः रूपांतरित करती है।यह आधुनिक मनोवैज्ञानिक द्वारा प्रतिपादित उदात्तीकरण (सब्लिमेशन) की प्रक्रिया से आगे गहनतम स्तर पर सक्रिय होती है और इससे भी आगे यह ध्येय के लिए संघर्षरत साधक को गहन भावनात्मक संतोष देती है।
  • अगला चरण एकाग्रता का अभ्यास है।एकाग्रता के अभ्यास के बिना तो व्यक्तित्व का विकास बिल्कुल भी संभव नहीं है।एकाग्रता के बिना हमारी ऊर्जा बिखरी हुई रहती है और बिखरी हुई ऊर्जा से कुछ भी कार्य करना संभव नहीं है।अतः मन को एकाग्र करने का अभ्यास करना चाहिए।ज्यों-ज्यों एकाग्रता सधती जाती है आपके व्यक्तित्व में अन्य गुणों को धारण करना सरल होता जाता है।जिस प्रकार सूर्य की किरणों को आतिशी शीशे से एकाग्र कर ली जाती है तो उसमें कागज को जलाने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है।एकाग्रता के अभ्यास के लिए रोजाना नियमित रूप से प्रातः काल ध्यान करना चाहिए।अपने अध्ययन को डूब कर पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ करने से भी एकाग्रता सधती चली जाती है।उथले मन से अध्ययन करने से ना तो अध्ययन या विषय वस्तु समझ में आती है और न ही एकाग्रता सधती है।
  • अध्ययन का सतत चिन्तन-मनन मन की  सुप्त शक्तियों को जगाता है और इस तरह आत्मिक जीवन-दर्शन को दैनन्दिन गतिविधियों में अभिव्यक्त होने का अवसर मिलता है।इस अभ्यास द्वारा छात्र-छात्रा की इच्छाशक्ति का विकास होता है।इच्छाशक्ति के अभाव में वह अपने लक्ष्य को व्यवहार में जीवंत नहीं कर सकता।यह एक सहज नियम है कि बिखराव से ऊर्जा का क्षय होता है और एक बिंदु पर केंद्रित होने पर अत्यंत शक्तिशाली बन जाती है।सामान्यतः मानसिक शक्ति विविध भाव-संवेगात्मक वृत्तियों,अभिरुचियों और गतिविधियों में बिखरी रहती है।एकाग्रता का अभ्यास इसे एक बिंदु पर केंद्रित करता है,जिससे कि समस्त प्रस्तुत शक्तियां अभिव्यक्त हो उठती हैं।तब व्यक्ति स्वयं में व दूसरों में अपनी शक्तियों व गुणों को देख सकता है और अंतर्वैयक्तिक संबंधों में उसका दृष्टिकोण बदल जाता है।समग्र रूप से संगठित व्यक्ति की इच्छाशक्ति एकीकृत होती है और किसी भी स्थिति में निम्नवृत्तियों को प्रश्रय नहीं देती।प्रस्तुत ऐसा व्यक्ति अपनी मानसिक,भावनात्मक एवं आध्यात्मिक शक्तियों का स्वामी होता है।
  • इस तरह जब उपर्युक्त बताए गए छह चरणों के माध्यम से व्यक्तित्व का संगठन हो जाता है तो व्यक्ति का समूचा जीवन दिव्यशांति एवं प्रेम की सुवास से महक उठता है। परमार्थपरायणता उसका सहज स्वभाव बन जाती है और उसका अलौकिक स्पर्श कृपापात्र अभीप्सु को इसी दिशा की ओर उन्मुख करता है।

5.व्यक्तित्व को विकसित करने का निष्कर्ष (The Conclusion of Developing Personality):

  • छात्र-छात्राओं को जाॅब प्राप्त करने,जाॅब में उन्नति करने,साक्षात्कार में ही प्रभावी व्यक्तित्व की जरूरत नहीं है बल्कि अपने जीवन को आनंदपूर्वक व्यतीत करने,समाज में सम्मानपूर्ण तरीके से भी रहने के लिए व्यक्तित्व की आवश्यकता है।यदि आपका व्यक्तित्व प्रभावी है तो आप अच्छा जाॅब प्राप्त कर सकते हैं,साक्षात्कार में उत्कृष्ट प्रदर्शन कर सकते हैं।आपको निरंतर प्रगति करने के लिए व्यक्तित्व को विकसित करते रहना चाहिए।विद्यार्थी काल जीवन का प्रभातकाल है और उस समय विद्यार्थी की शक्तियाँ सुप्त रहती हैं,अतः उनको पहचानकर विकसित करना आसान होता है।
  • कुछ जागरूक छात्र-छात्राएँ अपने व्यक्तित्व को विकसित करते रहते हैं अर्थात् अपने आंतरिक व बाहरी गुणों को विकसित करते रहते हैं।परंतु कुछ छात्र-छात्राएं इस तरफ ध्यान नहीं देते हैं,वे व्यक्तित्व का महत्त्व नहीं समझते हैं और व्यक्तित्व अनगढ़ रह जाता है अथवा परिस्थितियाँ जैसी होती है वैसा ही व्यक्तित्व गढ़ता चला जाता है।ऐसे छात्र-छात्राएं पढ़ने-लिखने में चाहे कितने ही निपुण व मेधावी हों परंतु उन्हें अच्छा जाॅब,अपनी आकांक्षा के अनुसार जाॅब नहीं मिलता है।वे समझ ही नहीं पाते हैं कि ऐसा क्यों कर हुआ? जबकि कुछ छात्र-छात्राएं पढ़ने में औसत स्तर के होते हैं परंतु वे अपने व्यक्तित्व को लगातार विकसित करते रहते हैं।वाद-विवाद में,सांस्कृतिक प्रोग्राम में,आपस में बातचीत करने में आदि विभिन्न कार्यक्रमों में भाग लेते रहते हैं और अपने व्यक्तित्व के गुणों को विकसित करते रहते हैं।ऐसे छात्र-छात्राएं अवसर का भरपूर फायदा उठाते हैं और अच्छा जाॅब प्राप्त कर लेते हैं।जाॅब में वे अपने व्यक्तित्व को निखारते रहते हैं,हमेशा सीखते रहते हैं तथा ऊँचे पायदान पर चढ़ने रहते हैं।उनके साथी मेधावी छात्र-छात्राएँ उनकी उन्नति को देखकर चकित रह जाते हैं।वे व्यक्तित्व की छाप हर कहीं छोड़ते हैं।सामाजिक, सार्वजनिक विभिन्न प्रोग्राम में अलग से दिखाई देते हैं।उनके व्यक्तित्व को देखकर हर कोई उनके जैसा बनने का प्रयास करते हैं,उनसे दोस्ती करना पसंद करते हैं।
  • व्यक्तित्व को विकसित करने का काम एक दिन में नहीं होता है बल्कि समय लगता है और निरंतर तप व साधना से व्यक्तित्व निखरता ही चला जाता है।विद्यार्थियों को केवल कोर्स की पुस्तकें पढ़ने में ही संलग्न नहीं होना चाहिए बल्कि अपने चारित्रिक गुणों,आंतरिक व बाह्य गुणों व व्यक्तित्व को विकसित करने की तरफ ध्यान देना चाहिए।व्यक्तित्व को विकसित करने की कला हर किसी में नहीं होती है क्योंकि व्यक्तित्व प्रयास करने एवं प्रशिक्षण से निखरता है।कुछ छात्र-छात्राओं में जन्मजात गुण होते हैं,परंतु उनको भी विकसित करने के लिए निरंतर अभ्यास और प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है।जितना अध्ययन में पारंगत व प्रखर होना जरूरी है,उतना ही बल्कि उससे भी अधिक अपने चारित्रिक गुणों व व्यक्तित्व को विकसित करने की जरूरत होती है।
  • व्यक्तित्व इतना व्यापक अर्थ समेटे हुए हैं और इसमें सम्मिलित गुणों को देखकर चक्कर खाने या विस्मित होने की जरूरत नहीं है।जरूरत है तो धैर्यपूर्वक छात्रकाल के प्रारंभिक समय से ही उनको धार देने,निखारने,उभारने की।आप जितना ज्यादा इसके प्रति सजग रहेंगे उतना ही व्यक्तित्व तेजस्वी होता जाएगा।बाद में परिपक्वावस्था में व्यक्तित्व को अपने अनुकूल ढालना असंभव तो नहीं परंतु बहुत मुश्किल है और एक दिन में व्यक्तित्व को गढ़ना संभव नहीं है। एक-एक गुणों को शुरू से ही विकसित करते रहने पर जब आप कॉलेज-विश्वविद्यालय अथवा तकनीकी कॉलेज की शिक्षा पूरी कर चुके होंगे तो आपका व्यक्तित्व भी तेजस्वी,दिव्य और आकर्षक होगा।व्यक्तित्व की हर कहीं जरूरत होती है।आप यह न समझें कि केवल नौकरी,जॉब,इंटरव्यू आदि में ही व्यक्तित्व की जरूरत है।सभा,सोसाइटी,आपसी मेलजोल,सामाजिक व्यवहार में भी व्यक्तित्व की जरूरत होती है।अतः अपने व्यक्तित्व को प्रभावी,आकर्षक,तेजस्वी और दिव्य बनाएं।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए 6 मुख्य बिंदु (6 Main Points to Develop Personality),छात्र-छात्राओं के लिए व्यक्तित्व विकास के 6 अद्भुत सूत्र (6 Amazing Personality Development Tips for Students) के बारे में बताया गया है।

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6.छात्र इकट्ठे हो तो क्या करें? (हास्य-व्यंग्य) (What to Do When Students Gather?) (Humour-Satire):

  • एक इंटरव्यू में अभ्यर्थी से पूछा गया कि अगर किसी जगह पर काफी छात्र इकट्ठे होकर उत्पात कर रहे हों तो उनको तितर-बितर करने के लिए क्या करोगे।
  • अभ्यर्थी ने जवाब दिया:मैं वहां पर माइक से घोषणा करवा दूंगा कि आपकी स्कूल में आज से वाईफाई फ्री की व्यवस्था अभी एक घंटे के लिए चालू कर दी गई है।

7.व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए 6 मुख्य बिंदु (Frequently Asked Questions Related to 6 Main Points to Develop Personality),छात्र-छात्राओं के लिए व्यक्तित्व विकास के 6 अद्भुत सूत्र (6 Amazing Personality Development Tips for Students) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:

प्रश्न:1.व्यक्तित्व के प्रकार बताइए। (Describe the types of personality):

उत्तर:व्यक्तित्व के मुख्य रूप से दो प्रकार है:सकारात्मक (जैसा आपको बनना चाहिए) और नकारात्मक (जैसा आपको नहीं बनना चाहिए)।

प्रश्न:2.व्यक्तित्व का विकास कैसे होता है? (How does personality develop?):

उत्तर:पहले आप दुर्गुणों को छोड़ते हैं।सद्गुणों को धारण करते हैं और फिर अपने अंदर उनका विकास होता है।

प्रश्न:3.सकारात्मक व नकारात्मक व्यक्तित्व के उदाहरण दो। (Give examples of positive and negative personalities):

उत्तर:प्रसन्नचित व्यक्तित्व,तेजस्वी व्यक्तित्व,सामाजिक व्यक्तित्व,कुछ नया करने वाला व्यक्तित्व,हरफनमौला व्यक्तित्व,आकर्षक व्यक्तित्व आदि सकारात्मक व्यक्तित्व के प्रकार हैं।संदेहास्पद व्यक्तित्व,परेशान व्यक्तित्व आदि नकारात्मक प्रकार के व्यक्तित्व हैं।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए 6 मुख्य बिंदु (6 Main Points to Develop Personality),छात्र-छात्राओं के लिए व्यक्तित्व विकास के 6 अद्भुत सूत्र (6 Amazing Personality Development Tips for Students) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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