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7Tips for Students to Stop Complaining

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1.विद्यार्थी के लिए शिकायत करना छोड़ने की 7 टिप्स (7Tips for Students to Stop Complaining),शिकवा और शिकायत करना कैसे छोड़ें? (How to Stop Grudge?):

  • विद्यार्थी के लिए शिकायत करना छोड़ने की 7 टिप्स (7Tips for Students to Stop Complaining) के आधार पर आप समझ सकेंगे कि हर बात में,हर समय,हमेशा शिकवा-शिकायत करते रहने वाला आगे नहीं बढ़ सकता है।इसका अर्थ यह भी नहीं है की शिकायत करना बिलकुल छोड़ दें,जहां बहुत जरूरी हो वहां शिकायत करना भी जरूरी है।
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2.उपलब्ध है उसके लिए धन्यवाद देना (Thanking Him for Available):

  • आधे-अधूरे प्रयत्नों से जो मिल जाए उसी में मन मार कर रह जाना और श्रेष्ठ के लिए प्रयत्न छोड़ देने का नाम ‘संतोष’ नहीं है।वैराग्य के नाम पर भगवान की सुंदर इस सृष्टि को कोसने वाले उपदेशक लौकिक उपलब्धियों को दिन-रात कोसते रहते हैं।उनके अनुसार किसी भी लौकिक उद्देश्य के लिए संकल्प करना पाप है,मन में किसी इच्छा का उदय होना आध्यात्मिक अपराध है और व्यक्ति संसार में जितना व्यस्त रहता है,भगवान से उतना ही दूर होता जाता है।इस तरह के निराशावादी विचारों वालों ने दुःख का आत्यंतिक निरोध करने वाले योग को संसार से पलायन की प्रेरणा देने वाला शास्त्र बना दिया है।
  • जिस संतोष को योग की तैयारी के चरण में रखा है,चित्तवृत्तियों को निर्मल और अनुशासित करने वाले उपायों के रूप में सम्मिलित किया है,वह वैराग्य का नहीं अनुग्रह का भाव है।उद्देश्य है कि किन्हीं भी कठिनाइयों,विपत्तियों और विफलताओं में चित्त को विक्षुब्ध नहीं होने देना।संतोष का शाब्दिक अर्थ तुष्टि है,मन का तृप्त हो जाना।कुछ और स्पष्ट करते हुए मनीषियों ने इसे ‘तृष्णा’ का सर्वथा अभाव बताया है। तृष्णा का अभाव एक स्थिति है।उसे प्राप्त करने का लक्ष्य योगशास्त्र के आचार्यों ने रखा है।स्थिति तक पहुंचने के लिए जिस मार्ग का आश्रय लेना चाहिए,उसमें पहली आवश्यकता प्रसन्न रहना है।हमें जो भी परिस्थितियाँ उपलब्ध हैं,उन्हें भगवान का अनुग्रह मानकर प्रसन्न रहें।
  • संतोष का अर्थ है,जो उपलब्ध है,उसके लिए भगवान को धन्यवाद देना।सामान्य बुद्धि से भी यह समझा जा सकता है कि हम जो कुछ हैं,वह अपने प्रयत्नों से ही नहीं हैं।अपना अस्तित्व यदि निजी पुरुषार्थ के कारण ही टिका रह सकता,तो वर्तमान स्थिति और सामर्थ्य के अनुसार कभी संभव ही नहीं था।अनुग्रह-बोध को गहन करने के लिए जिस चिन्तनधारा को अपनाया जाता है,उसमें साधक कुछ इस तरह सोचता है,जिस प्राणवायु के बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रहा जा सकता है,वह हमने स्वयं नहीं बनाई।संसार में अपने आस-पास और शरीर के भीतर भी वायु तथा आकाश का जैसा विस्तार है।वह बना सकना तो दूर,उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।शरीर के भीतर और बाहर वायु के दबाव,गुरुत्वाकर्षण,गति देने वाली जैविक प्रक्रियाएं,पोषण देने वाले उपादानों में से अपना बनाया कुछ भी तो नहीं है।यह विराट अस्तित्व के लिए अनुग्रह का फल है।आस्तिक भाषा में इसे भगवान की कृपा कहेंगे।
  • अनुग्रह-बोध की भावधारा अपने अस्तित्व के लिए विराट जगत का भगवान को श्रेय देते हुए आगे बढ़ती है,तो सोचती है कि मेरा अपना जीवन तक स्वयं के चाहने से नहीं है।अपने से इतर सत्ताएँ स्वीकार कर रही हैं,इसलिए वह टिका हुआ है।कुछ लोग भी यह तय कर लें कि इसका अस्तित्व नहीं होना चाहिए,तो अपने लिए संकट खड़ा हो जाएगा।यह भावधारा मन में कातरता या असहाय होने का भय नहीं,विनम्रता का कोमल संवेग जगाती है।अपना अस्तित्व भगवान की कृपा से ही दिखाई दे रहा है,दूसरे लोग इसे स्वीकार कर रहे हैं,तो भी भगवान का अनुग्रह है और संसार में निर्वाह हो रहा है,तो भी परमसत्ता की करुणा है।इस चिंतन को अपनाने के बाद दैन्य-दुर्बलता टिकी नहीं रह सकती।विनम्रता के साथ एक सात्विक संतुलन बना रहने लगता है।

3.दूसरों से तुलना की आदत छोड़े (Give up the habit of comparison with others):

  • तृष्णा,वासना,कामना आदि विकारों का मूल कारण भी अभाव ही है।अंतरंग में बंध जाने वाली यह गांठ व्यक्ति को अपने दीन-दुर्बल होने की चुभन से पीड़ित करती रहती है।साधक जब सोचता है या उसके मन में भाव आता है कि इसके पास औरों की तुलना में साधनों की बेहद कमी है।वैभव कम है,संपदा कम है,यश नहीं मिल रहा,पद-प्रतिष्ठा नहीं है,तो वह दुःखी होता है।अभाव क्यों दिखाई देता है? जब दूसरों से तुलना करते हैं,तभी अभाव दिखाई देता है।मनुष्य के अलावा कोई और प्राणी अभाव का रोना नहीं रोता है,क्योंकि उसके पास तुलना करने वाली सोच नहीं है।
  • तुलना की आदत एकदम नहीं छूट सकती,इसका अभ्यास धीरे-धीरे ही किया जा सकता है।आरंभ अपने स्वजन-संबंधियों से किया जाए।स्पर्द्धा और ईर्ष्या भी सबसे पहले अपने परिजनों में ही होती है।दूर रहने वाले या जो अपने संपर्क क्षेत्र में नहीं है,उनसे लोग कम ही तुलना करते हैं।किसी गांव की ढाणी में पढ़ने वाला विद्यार्थी जयपुर में रहने वाले किसी छात्र-छात्रा से न तो तुलना करेगा और न ही उसकी प्रगति से दुःखी होगा।वह अपने पड़ोस में पढ़ने वाले छात्र-छात्रा की उन्नति देख या उसके पास सुख-सुविधाओं को देखकर दुःखी हो जाएगा।किसी स्वजन-संबंधी,मित्र,सहपाठी के तरक्की करने पर मन में तुलना का भाव आता है।इस आदत पर अंकुश लगाया जा सके,तो संतोष की सिद्धि की दिशा में एक पग उठ गया समझना चाहिए।
  • दूसरों की बजाय अपने आप से तुलना का नियम भी बनाया जा सकता है।यह आत्मविकास की दिशा में अग्रसर करती है।कल हम जिस स्थिति में थे,उससे आज कितना आगे बढ़े हैं? पिछले साल की तुलना में इस साल साधन-संपदा में कितना विकास हुआ है? आज की स्थितियां पिछली स्थितियों से कितनी बेहतर हैं? इन प्रश्नों के साथ अपनी स्थिति की समीक्षा की जाए,तो अगले प्रश्न यह भी रहेंगे कि और बेहतर बनने के लिए क्या किया जाए? अपने आप से स्वयं की तुलना करते हुए वर्तमान स्थितियों और साधनों के श्रेष्ठ उपयोग की बात भी सोचनी चाहिए।उसके उपाय ढूंढने चाहिए,योजना बनानी चाहिए,किन लोगों का सहयोग लिया जा सकता है,यह भी विचार करना चाहिए।ध्यान रहे,ये प्रयत्न मानसिक व्यायाम तक ही नहीं रह जाएँ।चिंतन-मनन के बाद जो निर्धारण हो,उस पर अमल भी किया जाए।यह निर्धारण किसी और के साथ मिलकर नहीं,स्वयं ही करना चाहिए।तुलना और समीक्षा का यह अभ्यास संतोष की सिद्धि तक पहुंचाएगा।
  • योगशास्त्र में संतोष की फलश्रुति बताई है कि उसके सिद्ध हो जाने पर साधक जो भी इच्छा करता है,वह पूरी हो जाती है।वह आप्तकाम हो जाता है अर्थात् कामना उठते ही पूरी होने लगती है।यह फलश्रुति कथा-कहानियों में बताए जाने वाले चमत्कारों की तरह नहीं है कि साधक ने इधर की कि महल में रहने लगूँ और उधर महल बनकर तैयार हो गया।इस तरह के चमत्कार दुनिया में कहीं नहीं होते।वे कल्पनाओं में ही होते हैं।वास्तविक जगत में भी उसी तरह के चमत्कार होने लगें,तो यह संसार एक क्षण भी नहीं रहे।दिन भर में हम लोग जितना दूसरों को कोसते हैं और दूसरे हमें जितना कोसते हैं,वह सब सही होने लगे,तो प्रत्येक व्यक्ति को दिन भर में हजारों-लाखों बार मरना और पतन के गर्त में गिरना पड़े।कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर इच्छाएं हाथो-हाथ पूरी होने की स्थिति किसी भी सिद्धि के अंतर्गत नहीं आती।

4.संतोष की सिद्धि (Accomplishment of contentment):

  • योगशास्त्र एक विज्ञान है।योग सूत्रों के संबंध में तो विद्वान आचार्य ही नहीं वैज्ञानिक भी मानते हैं कि वे गणित के फॉर्मूलों की तरह हैं।उनमें एक शब्द भी व्यर्थ नहीं है और न ही कोई आश्वासन लुभाने के लिए दिया गया।संतोष की सिद्धि इच्छा करते ही उसकी पूरी होने के रूप में की गई है,तो उसका अर्थ इतना ही है कि व्यक्ति तृष्णा,वासना,ईर्ष्या और द्वेष के जंगलों में नहीं भटकता।इनके नुकीले और कांटेदार पत्तों में उलझने की बजाय वह अपने विकास के राजपथ पर चलता है।सार्थक और उचित इच्छाएँ ही उसके मन में उठती हैं।उन्हें पूरी करने के लिए वह सोचता,योजना बनाता और प्रयत्न करता है।
  • उत्साह और संतोष लौकिक और आध्यात्मिक दोनों ही दिशा में आगे बढ़ने के लिए उपयुक्त भूमिका बनाते हैं।वस्तुतः लौकिक और आत्मिक क्षेत्र अलग नहीं है,जिस बिंदु पर हमारी चेतना खड़ी है वहीं की प्रस्थान दिशाओं के नाम हैं।परम अवस्था में पहुंचने के बाद इस तरह के भाषा-विवेक की आवश्यकता नहीं पड़ती।साधना की अवस्था ये समझने के लिए ही है कि जब हम प्रस्थान बिंदु से जगत की ओर यात्रा करते हैं,तो वह लौकिक हो जाती है और अपने भीतर मुड़ते हैं,तो आत्मिक हो जाती है।
  • संतोष की सिद्धि के लिए क्षुब्ध और निराश करने वाली स्थितियों से बचने का परामर्श दिया गया है।स्थितियों का अर्थ उन व्यक्तियों से भी है,जो हमारे मन,सोच और संकल्प को प्रभावित करते हैं।वह वातावरण भी छोड़ना चाहिए या उससे बचना चाहिए,जो अपने आप को क्षुब्ध करता हो।मन में निराशा भरता हो।क्षोभ और निराशा भी भगवान के प्रति अविश्वास का ही एक प्रकार है।जितनी देर हम निराश होते हैं,उतनी देर भगवान के मंगल विधान पर संदेह करते हैं।अपने विश्वास को डगमगा रहे होते हैं।अपने उस विश्वास को सदैव स्थिर रखना चाहिए।

5.विद्यार्थियों की शिकवा-शिकायत (Complaints of students):

  • अक्सर अधिकांश विद्यार्थी जो परिस्थितियाँ और साधन-सुविधाएँ उन्हें उपलब्ध हैं उससे संतुष्ट नहीं रहते हैं।यह हमारी नकारात्मक सोच का परिणाम है।मसलन उनके पास पुस्तकें नहीं है तो कहेंगे उनके पास पुस्तकें पढ़ने के लिए नहीं हैं,अच्छे शिक्षक पढ़ाने वाले नहीं है,अच्छा विद्यालय नहीं है,पढ़ने के लिए साधन-सुविधाएँ नहीं है,कोचिंग की व्यवस्था नहीं है आदि आदि।यदि उनको एक-दो साधन-सुविधाएँ उपलब्ध करा दी जाए,उनकी एक-दो शिकवा-शिकायत दूर कर दी जाए,समाधान कर दिया जाए तो वे उससे आगे की सुख-सुविधा की मांग रख देते हैं।उनकी शिकवा-शिकायतों की पूर्ति नहीं हो सकती क्योंकि कामनाएं तो अनंत होती हैं।जिनकी पूर्ति इस जन्म में तो क्या अनेक जन्मों में भी पूर्ति नहीं हो सकती है।
  • इसके अलावा भी ढेरों असुविधाओं की वे चर्चा करते रहते हैं।खाने-पीने को अच्छा भोजन,काजू-बादाम नहीं मिलते,मकान अच्छा नहीं है,पिछड़ी कॉलोनी या कच्ची बस्ती में रहते हैं।मुझे मेरे मित्र,साथी,सहपाठी सहयोग नहीं करते हैं।सवाल पूछता हूं तो तालमटोल करते हैं।इस प्रकार अनेक शिकवा-शिकायत होती हैं,उन सभी का वर्णन करना न तो संभव है और न ही वर्णन करके लेख को लंबा-चौड़ा करना उचित है।ऊपर नमूने के तौर पर शिकवा-शिकायतों के बारे में बता देने के बाद आप स्वयं समझ सकते हैं कि हमारी क्या-क्या शिकवा-शिकायतें रहती हैं।ऊपर से तुर्रा यह कि यदि मुझे अमुक साधन-सुविधाएँ उपलब्ध करा दी जाए तो वह भी कक्षा में अव्वल आ सकता है,वह भी जेईई-मेन प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण कर सकता है,वह भी बहुत बड़ा अधिकारी,अफसर बन सकता है,वह भी आईएएस,आईपीएस बन सकता है।
  • यदि उपर्युक्त शिकवा-शिकायतों पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए तो इन शिकवा-शिकायतों में दम नहीं है,इनमें आंशिक सच्चाई ही है।यह ठीक है की पढ़ाई या अध्ययन के लिए साधन-सुविधाएँ हमारे लक्ष्य को प्राप्त करने में आसान बनाती है।परंतु ये साधन-सुविधाएँ तभी फलदायी होती है जब आप में प्रतिभा है,आप अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल करते हैं,साधन-सुविधाओं का अपने आप को दास नहीं बनाते हैं।
  • ऐसे एक नहीं सैकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं जिन्होंने अभावों में रहकर अध्ययन किया और वे श्रेष्ठ गणितज्ञ व वैज्ञानिक बने।साधन-सुविधाओं का अभाव उनको लक्ष्य प्राप्त करने से नहीं रोक पाया।संसार के अधिकांश गणितज्ञ और वैज्ञानिकों ने अभावों और असुविधाओं को अपने जीवट और पुरुषार्थ से परास्त कर दिया।यदि आपके इरादे सही और नेक हैं,आप में दृढ़ संकल्पशक्ति है तो कोई भी असुविधा आपको अपने लक्ष्य तक पहुंचने से नहीं रोक सकती है।अपने आप को मजबूत व्यक्ति बनाने के लिए कुछ चीजों का पालन करना चाहिए।

6.शिकवा-शिकायतों का समाधान (Redressal of grievances):

  • विद्यार्थी को शिकवा-शिकायत करने की बजाय जो परिस्थितियाँ उपलब्ध है उसका बेहतर ढंग से सदुपयोग करना चाहिए।शिकवा-शिकायत तो कोई भी कर सकता है और करते ही हैं।दरअसल शिकवा-शिकायत अपनी कमजोरियों को छिपाने का एक तरीका है।ऐसी बात नहीं है कि सभी शिकायतें बेकार की होती है,कुछ जायज शिकायतें भी होती है जिनका समाधान किया जा सकता है याकि किया जाना चाहिए।
  • अपने दृष्टिकोण को सकारात्मक रखें।सकारात्मक दृष्टिकोण अभावों में से भी अपनी समस्याओं का हल ढूंढ लेता है और आगे बढ़ता चला जाता है।आपको जो साधन-सुविधाएँ मिली है उनसे संतोष धारण करें।संतोष धारण करने का मतलब निठल्ला बैठना नहीं है।संतोष का कुल मतलब यह है कि जो कुछ आपको उपलब्ध है उसके जरिए अपने को अधिक से अधिक योग्य बनाना है।और अधिक के लिए सतत प्रयास करते रहना है।जैसे आपके पास ₹500 है तो अपनी जरूरत को ₹500 में पूरी करना और 500 से अधिक प्राप्त करने के लिए प्रयास करना संतोष है।
  • मसलन आप गणित में कमजोर हैं और कोचिंग नहीं कर सकते हैं तो इस कमजोरी को दूर करने के लिए प्रयास करें।अपने मित्रों से,सहपाठियों से पूछ कर अपनी कमजोरी दूर कर सकते हैं।यदि आपके पास संदर्भ पुस्तकें नहीं है तो सार्वजनिक वाचनालय में पुस्तकें पढ़कर इस कमी को दूर कर सकते हैं।यदि आप छात्रवृत्ति के लिए पात्र हैं तो छात्रवृत्ति प्राप्त करके कोचिंग कर सकते हैं।कुछ कोचिंग संस्थान,कुछ शिक्षक निःशुल्क भी कोचिंग कराते हैं।पार्ट टाइम काम करके आप कोचिंग वगैराह के लिए अर्निंग कर सकते हैं।इस प्रकार आप प्रयास करेंगे तो गणित संबंधी अपनी कमजोरी को दूर कर सकते हैं।लेकिन आप प्रयास न करें,समस्या का समाधान ढूंढने का कोई रास्ता निकालने की कोशिश ही ना करें,समस्या का समाधान ढूंढने का कोई रास्ता निकालने की कोशिश ही ना करें,समस्या के समाधान के लिए चिंतन-मनन ही न करें और लोगों से,सहपाठियों से शिकायत करते फिरे तो फिर आपकी शिकायतों का समाधान नहीं हो सकता है।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में विद्यार्थी के लिए शिकायत करना छोड़ने की 7 टिप्स (7Tips for Students to Stop Complaining),शिकवा और शिकायत करना कैसे छोड़ें? (How to Stop Grudge?) के बारे में बताया गया है।

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7.विद्यार्थी की शिकायत (हास्य-व्यंग्य) (Student Complaint) (Humour-Satire):

  • मैं आपको गुरु कहता लेकिन वह भी बिल्कुल फकीर है। मैं आपको भगवान कहता लेकिन उसको भी हमारे दुःख-दर्द से कोई लेना-देना नहीं है।मैं आपको मित्र कहता लेकिन उसको भी अपना स्वार्थ सिद्ध करने से मतलब है।मैं आपको संत कहता लेकिन उनके होने से भी समाज सुखी नहीं है।मैं आपको शेर कहता लेकिन वह भी मांसाहारी है।मैं आपको शिक्षक कहता लेकिन उनके होने से भी छात्र-छात्राएं फेल हो ही जाते हैं।

8.विद्यार्थी के लिए शिकायत करना छोड़ने की 7 टिप्स (Frequently Asked Questions Related to 7Tips for Students to Stop Complaining),शिकवा और शिकायत करना कैसे छोड़ें? (How to Stop Grudge?) से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्नः

प्रश्न:1.शिकायत करने के इस लेख का सारांश लिखो। (Write a summary of this article to complain):

उत्तर:(1.) उपलब्ध परिस्थितियों को भगवान की कृपा मानकर प्रसन्न रहना।
(2.)जहां तक हो सके अपनी साधन-संपदा की तुलना दूसरों से नहीं करना।
(3.)क्षुब्ध और निराश करने वाली स्थितियों से बचना।

प्रश्न:2.सहयोग कैसे प्राप्त करें? (How to get cooperation?):

उत्तर:यदि सहयोग प्राप्त करना है तो दूसरों के सहयोगी बने।आपके पास जो कुछ भी देने के लिए है उसे दूसरों का सहयोग करें तो बदले में आपको स्वतः सहयोग मिलने लगेगा।सहयोग पाने का एक ही मार्ग हैःशिष्टाचार की पृष्ठभूमि पर टिका पारस्परिक सहकार।

प्रश्न:3.असंतोष और संतोष में क्या फर्क है? (What is the difference between dissatisfaction and contentment?):

उत्तर:असंतोष ही सबसे बढ़कर दुःख है और संतोष ही सबसे बड़ा सुख है।अतः सुख चाहने वाले को सदा संतुष्ट रहना चाहिए।

  • उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा विद्यार्थी के लिए शिकायत करना छोड़ने की 7 टिप्स (7Tips for Students to Stop Complaining),शिकवा और शिकायत करना कैसे छोड़ें? (How to Stop Grudge?) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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