Children Trapped in Commercial Trap
1.व्यावसायिक जाल में फँसते बच्चे (Children Trapped in Commercial Trap),व्यावसायिक कम्पनियों के जाल में फँसते बच्चे (Children Falling into Trap of Commercial Companies):
- व्यावसायिक जाल में फँसते बच्चे (Children Trapped in Commercial Trap) आज बिल्कुल व्यावसायिक चपेट में आ गये हैं।आज का समाज,पीढ़ी और बच्चे पूरी तरह बदल गए हैं।इन सबको बदलने का मूल कारण है उपभोक्तावादी संस्कृति।इसके कारण प्रेम,अपनापन,सद्व्यवहार सब बनावटी हो गए हैं।
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2.बच्चों पर बाजार की नजर (The impact of the market on children):
- बच्चों के मन एवं भाव अत्यंत संवेदनशील,सुकोमल एवं नाजुक होते हैं।इनमें मनचाहे रेखाचित्र अंकित किए जा सकते हैं;अर्थात् हम इन्हें जैसा चाहें,बना सकते हैं।बच्चों का मनोभाव अत्यन्त संवेदनशील होने एवं इनमें संज्ञानात्मक विकास की कमी के कारण ये अत्यधिक अनुकरण प्रिय होते हैं और इसी अनुकरणशील प्रवृत्ति को आधार मानकर आजकल व्यावसायिक कंपनियों ने विज्ञापनों का जाल बुन दिया है।अत्याधुनिक संचार माध्यमों में इन्हीं नन्हें,मासूम बच्चों को उत्पाद बेचते हुए दिखाया जाता है।विज्ञापनों के इस इंद्रजाल में फँसता बाल मन अपनी उम्र से काफी आगे बढ़ चुका है।वह टी०वी० के अनगिनत चैनलों में जो कुछ देखता है,उसका अनुकरण करता है,जो उसके लिए अत्यंत घातक सिद्ध हो रहा है।
- बच्चों के बीच अपना उत्पाद बेचना आज अपने आप में एक निपुण कला बन गई है।भारत का नवजात शिशु बाजार विश्व अर्थव्यवस्था को अपार संपत्ति उपलब्ध करा रहा है और इसके लिए वह बच्चों का भरपूर उपयोग कर रहा है।आंकड़ों पर नजर डालें तो भारत में बच्चों का बाजार लगभग 50000 करोड रुपए का है। साथ ही निकट भविष्य में इस उद्योग के विभिन्न क्षेत्रों में 25% सालाना की दर से विकास की अपेक्षा की जा रही है।यह आंकड़ा हमें आर्थिक विकास के एक ही पहलू से अवगत कराता है।इस विकास से,जो कि हमारे बच्चों को वह सब उपलब्ध कराने पर केंद्रित हैं,जिसके बिना वह किसी से पीछे ना हो जाए।हम अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर उन सभी चीजों को उपलब्ध कराते हैं,जिनसे की वह अपने को औरों से श्रेष्ठ साबित कर सके और यह बात विभिन्न चैनलों के माध्यम से पुष्ट होती देखी जा सकती है।
- आज बच्चों की एक उंगली के इशारे में उनके कोमल मन को मोहने और उनके अपरिपक्व मस्तिष्क पर अपनी छाप छोड़ने के लिए बाजार का पूरा तंत्र खड़ा है।बचपन इस मोहजाल में इतना फँस गया है कि उससे उबरने के लिए शायद सारे प्रयास कमजोर पड़ रहे हैं।बचपन के इस व्यवसायीकरण को लेकर आज सभी जगह चर्चा एवं वाद-विवाद है।आज का बच्चा एक ऐसे संसार में पल-बढ़ रहा है,जो बाजार,व्यवसाय व बेचने की तकनीकों से अटा पड़ा है।ऐसे में गंभीर चिंताजनक बात यह है कि यह बाजार अपनी तमाम बेचने की तकनीकें लिए पारंपरिक माध्यमों को पार कर जीवन के हर पहलुओं में शामिल हो चुका है।इसने हमारे भावना-क्षेत्र को भी विकास की बलिवेदी पर चढ़ा दिया है।इसकी चोट से बचपन सर्वाधिक बाधित एवं प्रभावित हुआ है।
- इस व्यवसायीकरण की छाप के कारण बच्चों का भावनात्मक विकास बाधित हुआ है।बच्चों की संवेदना को खिलने से पहले ही नष्ट किया जा रहा है।बच्चों को भी केवल व्यवसाय का जरिया मान लिया गया है।उसका विकास व्यावसायिक ढांचे के ताने-बाने में ही होता है।माता-पिता भी बड़े खुश हैं,परंतु जब वह बड़ा होकर माता-पिता के साथ भी नफा-नुकसान का व्यवहार करने लगता है,तब माता-पिता को महसूस होता है कि उसकी परवरिश में खोट रह गई है।
3.बाजारवाद से बच्चों का व्यवहार प्रभावित (Marketism affects children’s behavior):
- दुनिया भर के बच्चे अपने दिन का अधिकतर समय टेलीविजन के सामने या मोबाइल की स्क्रीन पर बिता देते हैं।अपने देश में भी बच्चों पर केंद्रित कार्यक्रमों की कतार बढ़ रही है।एडेक्स सर्वे की रिपोर्ट के आंकड़ों के अनुसार हाल में बच्चों के चैनल में 16% बढ़ोतरी हुई है।इन चैनलों में बच्चों की संवेदनशील मानसिकता को प्रभावित करने वाले सीरियल भरे पड़े हैं।इस संदर्भ में मनोवैज्ञानिक की रिपोर्ट के अनुसार इससे बच्चों के व्यवहार एवं चिंतन में महत्त्वपूर्ण बदलाव आया है।पहले बच्चे मां-बाप के सिखाए संस्कारों के अनुसार आचरण करते थे,परंतु वर्तमान समय में बच्चे अपने पसंदीदा किरदार की तरह व्यवहार करते दीखते हैं।यदि यह किरदार हमारी संस्कृति के आदर्श पुरुष राम,कृष्ण,ध्रुव,प्रहलाद,अभिमन्यु आदि होते तो यह प्रभाव सकारात्मक होता,परंतु ऐसा हो नहीं रहा है।ये किरदार अधिकतर हिंसक एवं अश्लील गतिविधियों में संलिप्त होते हैं।अतः बच्चे भी इसी प्रकार के बर्ताव करने लगते हैं।
- मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पहले बच्चे टी०वी०,सिनेमा और अपने आस-पास के वातावरण तथा मोबाइल से जो कुछ सुनते और सिखते थे,उसे अभिव्यक्त करने में संकोच करते थे,परंतु इन दिनों यह संकोच समाप्त हो चुका है।वे टी०वी०,फिल्मों और मोबाइल में जो सुनते हैं,उसे दोहराते हैं।कई बार उन्हें उन शब्दों का अर्थ पता नहीं होता और अक्सर वे अपनी बातों में बड़ों जैसा प्रभाव उत्पन्न करने के लिए उन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं।मनोविश्लेषक के अनुसार 14 साल की उम्र के दौरान बच्चों का शारीरिक परिवर्तनों के प्रति जागरूक होना स्वाभाविक है,लेकिन समस्या यह है कि आज के बच्चों में यह सब पहले हो रहा है।उनमें बचपन से वयस्क होने के दौरान आने वाले बदलाव की समय सीमा कम और गति बढ़ गई है।आज ऐसे बहुत से बच्चे हैं,जो मानसिक तौर पर वयस्क हो चुके हैं।इन सबके पीछे यही आधुनिक प्रचारतंत्र है।
- टी०वी०,फिल्मों,अखबारों,इंटरनेट,पत्र-पत्रिकाओं में दिखती-छपती तस्वीरों ने ऐसा वातावरण विनिर्मित किया है जो बच्चों को उनकी उम्र और आवश्यकता से अधिक जानने के लिए उकसाता है।इस जिज्ञासा की वजह से वे कुछ ऐसी हरकतें करने लगे हैं,जिनसे कि अभिभावकों एवं समाज का सिर शर्म से झुक जाएगा।अंततः जिसे हम गलत,अनैतिक करार दे रहे हैं,बच्चा इसे जानता नहीं और उसे लगता है कि वह ठीक कर रहा है।यह गलत मार्गदर्शन एवं अपरिपक्व मानसिकता का प्रभाव है।जब बचपन शराब,सिगरेट,अश्लील जैसे अप्रिय वातावरण में पला-बढ़ा हो एवं जिसे ऐसा वातावरण परोसने में समाज सहायक हो,वह आगे चलकर कैसा होगा,कहना मुश्किल है और जब बच्चे अनुकरण कर ऐसी अनहोनी घटना को अंजाम देने लगते हैं तो अभिभावकों की नींद खुलती है।इसके समाधान में डांट-फटकार लगाई जाती है जिससे बच्चे प्रतिहिंसात्मक व्यवहार अपनाते एवं मानसिक अवसाद से घिर जाते हैं।
- वर्तमान परिवेश ने बच्चों के मानसिक,भावनात्मक एवं शारीरिक विकास के सभी पहलुओं पर कुठाराघात किया है।उन्मुक्त,तनावरहित मासूमियत से भरा हँसता-खेलता बचपन अब गुजरे जमाने की बात नजर आती है।आज के बच्चों में अपनी संस्कृति की भीनी एवं मीठी सुगंध से ओतप्रोत कहानियों का अभाव है,जो नाना-नानी,दादी-दादी एवं घर के अन्य बुजुर्ग उन्हें सुनाते थे।भोजन करने से पहले सहनाववतु… जैसे मंत्र,पढ़ाई करते समय ॐ सरस्वती नमस्तुभ्यं एवं दीक्षा देने वाले ॐ सरस्वतीं देवयन्तो हवन्ते जैसे सरस्वती मंत्र का घोर अभाव है,जिन्हें बड़े-बुजुर्ग बच्चों को सिखाते थे।बच्चों के सिर पर हाथ फेरकर ‘मेरे बच्चे’ जैसे दो अनमोल शब्द कहां हैं।उनके पास वो मां कहां है,जो हाथ से सिलकर उसे कपड़े पहनाती थी।वह पिता कहां है,जो रोजाना शाम को उसका हाथ पड़कर उसे घुमाता था।साइकिल पर या कंधे पर बैठाकर मेला घुमाने ले जाकर बच्चों को उनकी पसंद की चीजें खिलाते थे।आज बच्चों के चारों ओर रिश्ते तो हैं,पर उनमें वह गर्माहट,मृदुलता एवं वास्तविकता खो गई है।इसके स्थान पर मात्र औपचारिकता नजर आती है।
4.आज बच्चों को भ्रमित करने वाले अनेक साधन (Many tools that confuse children today):
- बच्चों की परवरिश में बेमन की गई औपचारिकता को बाल मन अच्छी तरह से समझता है।ऐसी परिस्थिति एवं परिवेश में उसके अंदर भावनात्मक रिक्तता पनपती है। यह खालीपन उसे दूर खींच ले जाता है।वह इसकी भरपाई करने के लिए अपने सामने भ्रमित करती सूचनाओं के आतंक में डरता-सहमता खो जाता है। भावनात्मक अभाव का यह खालीपन उसे दूर खींच ले जाता है।वह इसकी भरपाई करने के लिए अपने सामने भ्रमित करती सूचनाओं के आतंक में डरता-सहमता खो जाता है।भावनात्मक अभाव का यह खालीपन एक ऐसा महाविष है,जो बच्चों के भावी विकास में रोड़ा बनता है और उसे अनैतिक एवं अमर्यादित राह की ओर खींच ले जाता है।मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि जिनका बचपन भावनात्मक कड़ुवाहट से गुजरता है,वे आगे चलकर अत्यंत निरंकुश हो जाते हैं।उनके अंदर की संवेदनशीलता धीरे-धीरे खोने लगती है और वे बात-बात पर चिढ़ते,हिंसक प्रवृत्ति दिखाने लगते हैं।ऐसा बचपन जब किशोरवय की जमीन पर कदम रखता है तो वह अपने खालीपन को मिटाने के लिए नशा आदि का सहारा लेने लगता है।
- बचपन के इस नाजुक मोड़ पर आज के टी०वी०,अखबार आदि उसे और भी भ्रमित करते हैं। बाल रोग चिकित्सक के अनुसार भ्रमित बच्चा अवसाद का शिकार हो जाता है।वर्तमान दौर में 6-8 वर्ष के बच्चों में अवसाद (डिप्रेशन) के मामले बढ़ रहे हैं।आज का बच्चा अपेक्षाओं के दबाव और उसमें असफल होने के लगातार आतंक में जी रहा है।उसके कोमल दिमाग पर लगातार बना रहने वाला यह तनाव उसे अवसाद एवं अन्य मानसिक रोगों की ओर धकेलता है।’इंडियन काउंसिल आफ मेडिकल रिसर्च’ के आंकड़ों को पलटे तो पता चलता है कि स्कूल में जाने वाले 12.8% बच्चे भावनात्मक एवं व्यवहार संबंधी समस्याओं के शिकार थे।पिछले वर्षों में इस संख्या में गुणात्मक परिवर्तन हुआ है।
5.बच्चों को उचित मार्गदर्शन की आवश्यकता (Children need proper guidance):
- आधुनिक परिवेश से बच्चों का बौद्धिक विकास हुआ है और उनकी जिज्ञासा भी बढ़ी है।अतः उनकी जिज्ञासा को उचित मार्गदर्शन देकर विकसित करने की आवश्यकता है।उनकी जिज्ञासा कहीं टी०वी० के सीरियल व अन्य भ्रामक प्रचारों से भटक न जाए,यह ध्यान देने की जरूरत है।बाजारू मनोरंजन और मीडिया के इस आक्रमण के प्रभाव से बचने के लिए जिस ढाल की जरूरत है,वह है अभिभावक/अभिभावकों को अपनी संतानों की कोमल संवेदनना,भावना,अभिरुचि,प्रवृत्ति आदि की संपूर्ण जानकारी रखनी चाहिए।बच्चों को डाँटने से उनकी कोमल भावनाएं कुम्हला जाती हैं।अतः प्यार से उन्हें टी०वी० के इंद्रजाल एवं यथार्थ के बीच पारंपरिक कथा-कहानियों के माध्यम से अंतर बताना चाहिए।ध्यान रखा जाए कि बच्चा उपेक्षा एवं प्यार को भलीभाँति समझता है।उपेक्षा करने पर वह चिढ़ता है और गलत राह पर चल सकता है।अतः उसे सदा प्यार से समझाना आवश्यक है।
- अभिभावकों को अपने बच्चों के प्रति मोह होना स्वाभाविक है।इस मोह के कारण प्रायः उसकी हर जिद पूरी कर दी जाती है।इससे भी उसके विकास में रोड़ा आता है।उसकी आवश्यकता के अनुरूप उसकी मांगों की पूर्ति हो सके तो संभवतः अधिक उचित होगा।अभिभावकों एवं परिवार का माहौल भी उसे प्रभावित करता है।मान्यता है कि जन्म से 7 साल तक वह अपने जन्मस्थान एवं माता-पिता पर पूर्णरूपेण आश्रित होता है।सातवें वर्ष के बाद उसमें विभिन्न प्रकार का विकास होता है।वास्तविक रूप से 14वें साल से उसकी बौद्धिक विकास की प्रक्रिया प्रारंभ होती है,जो इक्कीस साल तक चलकर उसे परिपक्वता प्रदान करती है।बचपन में तो वह पूरी तरह से अपने अभिभावकों पर निर्भर रहता है।अतः हमारी जिम्मेदारी है कि हम अपनी संतानों में श्रेष्ठ संस्कारों का रोपण करें,जिससे उसका व्यक्तित्व समग्ररूप से विकसित हो सके।
- सुबह उठने से रात को सोने तक बच्चों के साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार करके हम उनके अंदर आत्मविश्वास,आदर तथा दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करने की प्रेरणा विकसित कर सकते हैं।बच्चों की बातों में,उनके खेलकूद तथा मनोरंजन की गतिविधियों में रुचि लेना,बाल सुलभ व्यवहार करना,उनके प्रति स्नेह दिखाना आदि बातों का बड़ा महत्त्व है।स्नेहिल व्यवहार से बच्चे अपनेपन में बंधते हैं।
- आप किसी भी दिन ‘बच्चों का दिन’ समझ कर पूरे समय तक उनका प्रेमपूर्वक ध्यान रखकर एक प्रयोग कर सकते हैं।आप देखेंगे कि बच्चा आपके साथ अत्यधिक दिलचस्पी ले रहा है।किंतु आज के जीवन का दुर्भाग्यपूर्ण सच यह है कि हम अपने बच्चों को किसी एक दिन भी संपूर्णरूप से स्नेहमय व्यवहार नहीं कर पाते हैं।अधिकांश घरों में शिशुओं एवं बच्चों को हर समय झिड़क,डांट-फटकार और प्रताड़ना मिलती रहती है,जो उनके दिमाग में धीरे-धीरे बुरा प्रभाव डालती रहती है।
- याद रखिए,बच्चे गुणों की तुलना में अवगुणों को जल्दी से ग्रहण करते हैं।अतः उन्हें क्रोध,घृणा,ईर्ष्या,अविश्वास से सदैव बचाते रहने की कोशिश करनी चाहिए।बात-बात पर क्रोध करके उत्तेजक शब्दों का प्रयोग चाहे आप बच्चों के लिए नहीं कर रहे हों; परस्पर पति-पत्नी ही विवाद में उलझे हों,किंतु बच्चों पर उसका प्रभाव बुरा पड़ता है।माता-पिता के परस्पर दुर्व्यवहार का सीधा प्रभाव बच्चों की प्रवृत्ति पर पड़ता है,उसके आचार व्यवहार पर पड़ता है।यदि लगातार उन्हें ऐसी बातें देखने को मिलती है तो मानसिक विकृति के साथ ही वे अपराधी प्रवृत्तियों में भी पड़ जाते हैं।अतः यदि आप सुखी परिवार की कल्पना करते हैं तो परस्पर शिष्ट एवं सद्व्यवहार कीजिए।घृणा,क्रोध और अविश्वास को अपने घर में प्रवेश मत करने दीजिए।
- इस बाजारवादी संस्कृति से बच्चों को बचाना निहायत ही जरूरी है,इसके लिए शिक्षा संस्थानों की ओर ताकना बंद करके,इस जिम्मेदारी को स्वयं वहन करना चाहिए। लगभग सभी शिक्षा संस्थान व्यावसायिक हो चले हैं,अतः उनसे यह अपेक्षा रखना कि बच्चों में वे संस्कार डाल देंगे,रेत में तेल निकालने के समान है।आज के इन शिक्षा संस्थानों की हालत देखकर तो यही लगता है।माता-पिता,घर और परिवार ही वह पाठशाला है जिसमें अच्छी परिवरिश उसे अच्छा इंसान बना सकती है।
उपर्युक्त आर्टिकल में व्यावसायिक जाल में फँसते बच्चे (Children Trapped in Commercial Trap),व्यावसायिक कम्पनियों के जाल में फँसते बच्चे (Children Falling into Trap of Commercial Companies) के बारे में बताया गया है।
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6.बाजारवाद का सिद्धांत क्या है? (हास्य-व्यंग्य) (What is Theory of Marketism?) (Humour-Satire):
- बंटी एक शादी में खाना खा रहा था।बंटी के माता-पिता: इतनी देर हो गई तुम्हें खाना खाते हुए,क्या तुम्हारा पेट नहीं भरा है।
- बंटी:मैं तो खुद ही खा-खाकर दुखी हो गया हूं,पर क्या करूं इनविटेशन कार्ड में लिखा है,भोजन 7 से 9 बजे तक।
7.व्यावसायिक जाल में फँसते बच्चे (Frequently Asked Questions Related to Children Trapped in Commercial Trap),व्यावसायिक कम्पनियों के जाल में फँसते बच्चे (Children Falling into Trap of Commercial Companies) से सम्बन्धित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न:
प्रश्न:1.बच्चों को अपसंस्कृति से कैसे बचाएं? (How to protect children from upcycling?):
उत्तर:आजकल अपसंस्कृति का मुख्य वाहक मोबाइल फोन एवं इंटरनेट हो गया है।अतः बच्चों को मोबाइल फोन ना दें।यदि आवश्यक हो तो उनका स्क्रीन टाइम निर्धारित करें और वे क्या देखते हैं इस पर नजर रखें।
प्रश्न:2.बेड पेरेन्टिंग क्या है? (What is Bad Parenting?):
उत्तर:बच्चों के पालन पोषण में खराबी,बच्चों को घर में सही संस्कारों और अपनी उम्र का अपेक्षित भावनात्मक संरक्षण न मिलने के कारण दिशाहीन होना।
प्रश्न:3.क्या बच्चों के साथ समय बिताना जरूरी है? (Is it necessary to spend time with children?):
उत्तर:माता-पिता का बच्चों के साथ कुछ समय अवश्य बिताना जरूरी है,चाहे आप कितने ही व्यस्त हों,उन्हें समय दें,उनकी शिकायतें सुने,समाधान करें,प्यार दें।आवश्यक समस्याओं का यथोचित समाधान करें।
- उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर द्वारा व्यावसायिक जाल में फँसते बच्चे (Children Trapped in Commercial Trap),व्यावसायिक कम्पनियों के जाल में फँसते बच्चे (Children Falling into Trap of Commercial Companies) के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
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Satyam
About my self I am owner of Mathematics Satyam website.I am satya narain kumawat from manoharpur district-jaipur (Rajasthan) India pin code-303104.My qualification -B.SC. B.ed. I have read about m.sc. books,psychology,philosophy,spiritual, vedic,religious,yoga,health and different many knowledgeable books.I have about 15 years teaching experience upto M.sc. ,M.com.,English and science.