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What are ancient and modern Indian education system?

प्राचीन और आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली क्या है? का परिचय (Introduction to What are ancient and modern Indian education system?):

  • प्राचीन और आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली क्या है? (What are ancient and modern Indian education system?) के बारे में बताया गया है।प्राचीन भारतीय शिक्षा तथा वर्तमान भारतीय शिक्षा का तुलनात्मक विवरण बताया गया है। इसके हमें यह पता चल सकेगा कि प्राचीन भारतीय शिक्षा की कौनसी बातें आधुनिक समयानुकूल है। तथा वर्तमान भारतीय शिक्षा की कौनसी बातें हैं हमारी संस्कृति के अनुकूल नहीं है।

What are ancient and modern Indian education system in hindi।who started modern education in India

 

via https://youtu.be/vqKKAMm6ET4

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2.प्राचीन और आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली क्या है? (What are ancient and modern Indian education system?),भारत में आधुनिक शिक्षा की शुरुआत किसने की? (Who started modern education in India?):

  • शिक्षा गतिशील तथा परिवर्तनशील है।समाज भी गतिशील एवं परिवर्तनशील है।देश एवं समाज की आवश्यकताएं समय-समय पर बदलती रहती है।आज भारत एक लोकतांत्रिक देश है।आज के भारत एवं समाज की आशाएँ तथा आवश्यकताएँ प्राचीन भारत से अलग है।आज भारतीय समाज को ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जो समाज और देश को सही प्रकार विकसित और समृद्ध होने में मदद दे सके।
  • प्राचीन भारतीय समाज में शिक्षा का स्वरूप आध्यात्मिक था अतः मूल्य स्थायी,सनातन एवं निरपेक्ष थे।ये मूल्य थेःधर्म,अर्थ,काम और मोक्ष।इनमें तीन भौतिक (धर्म,अर्थ,काम) तथा मोक्ष अभौतिक मूल्य थे।परिणामस्वरूप जीवन में अपने उच्चतम उद्देश्य मोक्ष को प्राप्त करने में संलग्न थे।शिक्षा का उद्देश्य था “सा विद्या या विमुक्तये” अर्थात् विद्या वह है जिससे मुक्ति मिले।समय के साथ जीवन-दर्शन में परिवर्तन आया।
  • हम समय के प्रभाव से भौतिकवादी होते चले गए तथा अपने उच्चतम मूल्य धर्म और मोक्ष को भुलाकर अर्थ,काम तक अपने आप को सीमित कर लिया है।
  • शिक्षा दर्शन तथा मूल्यों का व्यावहारिक पक्ष है।दर्शन तथा मूल्य जीवन के उद्देश्यों को निर्धारित करते हैं तथा जिस प्रकार के शिक्षा के उद्देश्य होते हैं वैसा ही शिक्षा का पाठ्यक्रम,शिक्षण की विधियाँ हुआ करते हैं।मूल्यविहीन शिक्षा मृतक के समान है।
    प्राचीन काल में धर्म की प्रधानता रही है।धर्म से तात्पर्य था आध्यात्मिक एवं भौतिक उन्नति प्राप्त करना।अपनी परंपराओं,रीतियों एवं रिवाजों से मनुष्य और समाज को धर्म उचित एवं अनुचित का ज्ञान कराते हुए कर्त्तव्य कर्म करने की प्रेरणा देता था।इसलिए प्राचीन काल में शिक्षा के उद्देश्य भी उसी के अनुरूप थे।
  • वर्तमान भारतीय समाज में प्राचीन भारतीय मूल्यों धर्म एवं मोक्ष को भुलाने के कारण अब भौतिक लक्ष्यों अर्थ और काम की प्राप्ति रह गया है।अब धर्म व मोक्ष व्यक्तिगत विषय रह गया है।शिक्षा द्वारा अर्थ तथा काम की प्राप्ति पर बल दिया जाता है।देश तथा समाज का लक्ष्य आर्थिक विकास,धर्मनिरपेक्षता,राष्ट्रीय एकता तथा लोक कल्याण को प्राप्त करना रह गया है।
  • अतः व्यक्ति को शिक्षा द्वारा इन उद्देश्यों को प्राप्त करने पर बल दिया गया है।शिक्षा के उद्देश्यों में समाज और राष्ट्र के महत्त्व को स्वीकार किया गया है परंतु व्यक्ति को नगण्य नहीं माना जाता है क्योंकि देश,समाज तथा व्यक्ति में किसी एक पक्ष को अधिक प्राथमिकता देना चरमपंथी रुख है।व्यक्तिगत उद्देश्य के समर्थक व्यक्ति को पूर्णरूपेण स्वतंत्रता प्रदान करने का विचार रखते हैं।वही देश व समाज के पक्षधर समाज और राष्ट्र की भलाई के लिए व्यक्ति को सब कुछ न्योछावर कर देने का विचार रखते हैं।वस्तुतः व्यक्ति,समाज और देश में किसी एक पक्ष को अधिक महत्त्व देने से व्यक्ति व समाज को हानि उठानी पड़ी है।व्यक्ति और समाज एक दूसरे के पूरक हैं तथा शिक्षा इस उद्देश्य से उदासीन नहीं हो सकती है।व्यक्ति और समाज में उचित समन्वय वर्तमान भारत का उद्देश्य है।जहांँ दोनों एक दूसरे को लाभान्वित करने को सदैव तैयार रहते हों,ऐसा समाज व्यक्ति का विरोधी न होकर उसके विकास में सहायक होगा।
  • जिस प्रकार बिना समाज के व्यक्ति की कोरी कल्पना है,उसी प्रकार बिना व्यक्तियों के समाज की कल्पना भी भारी भूल है।वस्तुतः व्यक्ति और समाज दोनों एक दूसरे पर निर्भर है।एक का स्वस्थ कल्याण करने पर दूसरे का स्वतः ही कल्याण हो जाता है।व्यक्तिगत उद्देश्य प्रकृतिवादी विचारधारा तथा सामाजिक उद्देश्य आदर्शवादी विचारधारा की देन है।वैयक्तिक उद्देश्य वैज्ञानिक प्रवृत्ति पर तथा सामाजिक उद्देश्य सामाजिक प्रवृत्ति पर आधारित हैं।वास्तव में जीवन और शिक्षा के उद्देश्यों के रूप में आत्म-विकास तथा समाज सेवा में कोई टकराव नहीं है क्योंकि दोनों एक ही हैं।आत्मानुभूति में व्यक्ति इतना पवित्र व शुद्ध हो जाता है कि उसके आचरण से अन्य व्यक्तियों का भला हो एवं समाज की उन्नति होती रहे।इस दृष्टि से शिक्षा के दोनों उद्देश्यों को व्यापक रूप में शामिल करके शिक्षा का एक ही उद्देश्य होना चाहिए।
  • शिक्षा एक मुक्तिदायी शक्ति है।इस शक्ति के माध्यम से हमें बालक को भावी जीवन के लिए इस प्रकार तैयार करना चाहिए ताकि वह अपनी जीवन रूपी गाड़ी को सुचारू रूप से चला सके तथा साथ ही समाज व राष्ट्र को उन्नति के शिखर तक पहुंचाने में अपना योगदान दे सके।
  • परन्तु वर्तमान भौतिकवादी युग में व्यक्ति के मात्र दो लक्ष्य रह गए हैंःअर्थ व काम।जिससे कोई क्षेत्र अछूता नहीं है यहां तक कि शिक्षा का क्षेत्र भी।शिक्षण संस्थानों में गुणवत्ता पर ध्यान न देकर भौतिक सुख-सुविधा उपलब्ध कराने पर ज्यादा ध्यान केंद्रित रहता है।शिक्षकों में निष्ठा व लगन नहीं है तथा न ही व्यवसाय के प्रति निष्ठा तथा गर्व है।ऐसा प्रतीत होता है जैसे उन्होंने शिक्षा का क्षेत्र मजबूरी में चुना हो।बालकों को ठोस जीवन की वास्तविकताओं की बजाय सुहावने,लुभावने,दिखावटी नारे सुनाना तथा रटना सीखाया जाता है।जीवन के क्षेत्र में जो वास्तविक परिस्थितियां हैं उनके बीच में बालक को नहीं ले जाया जाता है।जबकि शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना है इसमें सामाजिक,शारीरिक,भावनात्मक,बौद्धिक,नैतिक एवं आत्मिक विकास सम्मिलित है।बालक अपना विकास करते हुए आत्मिक उन्नति करें तथा अपने चरित्र का निर्माण इस प्रकार करें कि समाज एवं संस्कृति की रक्षा करते हुए जीविकोपार्जन करे एवं अपने आपको वातावरण के अनुकूल बनाने की योग्यता प्राप्त कर जीवन को पूर्णता प्रदान करें।जब बालक का सर्वांगीण विकास हो जाएगा तो वह हर प्रकार के भेदभाव से ऊपर उठकर सच्चे नागरिक के रूप में समाज की सेवा में निरन्तर जुटा रहेगा।जिससे व्यक्ति तथा समाज दोनों का कल्याण एवं प्रगति होती रहेगी।
  • अस्तु प्राचीन भारतीय शिक्षा के जो जीवन मूल्य धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष को नए संदर्भों में विद्यालय तथा पाठ्यक्रम में सम्मिलित करना संभव इसलिए नहीं है क्योंकि शिक्षा की जड़ जम चुकी है।जब भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी उसी समय यह पाठ्यक्रम में लागू करना संभव था।दूसरा कारण यह है कि भारत में वर्तमान में सभी संप्रदायों के लोग रहते हैं तथा शिक्षा प्राप्त करते हैं।तीसरा कारण यह है कि आधुनिक युग की आवश्यकताएं तथा परिस्थितियाँ अलग हैं जबकि प्राचीन काल की आवश्यकताएं है तथा परिस्थितियां अलग प्रकार की थी।चौथा कारण इस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था को लागू करने के लिए दृढ़ संकल्पशक्ति वाले नेतृत्त्व की आवश्यकता है।अतः नैतिक शिक्षा तथा चारित्रिक शिक्षा के जो मूल्य सार्वभौम हो सम्मिलित किए जा सकते हैं तथा विशिष्ट भौतिक विषयों,सामाजिक विज्ञान,इतिहास,गणित,विज्ञान तथा शारीरिक शिक्षा दी जा सकती है।परंतु इनका सैद्धांतिक ज्ञान प्रदान न करके बालकों को जीवन की वास्तविकताओं से परिचित कराते हुए व्यावहारिक ज्ञान प्रदान कराना चाहिए।साथ ही परिवार,अभिभावकों व समाज को नई परिस्थितियों में बालक की आध्यात्मिक उन्नति के विकास में योगदान देना चाहिए।
  • उपर्युक्त आर्टिकल में प्राचीन और आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली क्या है? (What are ancient and modern Indian education system?),भारत में आधुनिक शिक्षा की शुरुआत किसने की? (Who started modern education in India?) के बारे में बताया गया है।
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